लक्ष्य से कहीं भटक न जाए योजना

अहमदी खातून

हाल ही में बिहार सरकार ने अपने एक अहम फैसले में आंगनबाड़ी केंद्रों के सोशल ऑडिट का जिम्मा महिला स्वयं सहायता समूह को सौंपने का फैसला किया है। राज्य की समाज कल्याण मंत्री परवीन अमानुल्लाह के अनुसार इसके माध्यम से आंगनबाड़ी केंद्रों में सही तरीके से टेक होम राशन मिल रहा है या नहीं, आंगनबाड़ी सेविका नियमित रूप से बच्चों को पढ़ा रही है या नहीं, उन्हें जो डयूटी सौंपी गई है उसका उचित ढ़ंग से पालन हो रहा है या नहीं, इन सब पर नजर रखी जा सकेगी। शुरूआत में यह योजना राजधानी पटना के मनेर ब्लॉक स्थित तीन पंचायतों शेरपुर, व्यापुर और सादिकपुर के आंगनबाड़ी केंद्रों में की गई है। जिसे बाद में पूरे राज्य में लागू कर दिया जाएगा। सोशल ऑडिट की जिम्मेदारी महिला विकास निगम के अंतर्गत गठित 42 हजार स्वयं सहायता समूहों को दी जाएगी। जिसके बाद राज्य में चल रहे जीविका प्रोजेक्ट के तहत गठित महिला स्वंय सहायता समूह और महिला सामाख्या को भी इसके ऑडिट की जिम्मेदारी सौंपी जाएगी।

आंगनबाड़ी केंद्र के संबंध में राज्य सरकार द्वारा लिया गया फैसला सराहनीय है। इससे एक तरफ जहां आंगनबाड़ी केंद्र के कामकाज में पारदर्शिता आएगी वहीं इसके लाभान्वितों की संख्या भी बढ़ेगी। इस वक्त राज्य में करीब 80,211 आंगनबाड़ी केंद्र संचालित है। हालांकि भारत सरकार द्वारा बिहार के लिए 91,968 आंगनबाड़ी स्वीकृत हैं। प्रत्येक केंद्र में तीन से छह वर्श तक के 40 बच्चे होते हैं। जिनमें अधिकांश गरीब परिवार के होते हैं। इन केंद्रों की निगरानी के लिए बाल विकास परियोजना पदाधिकारी नियुक्त होता है। एक सीडीपीओ के अधीन 250 आंगनबाड़ी केंद्र होते हैं। राज्य सरकार सभी आंगनबाड़ी केंद्रों में आने वाले प्रत्येक बच्चों के पोशाक के लिए प्रतिवर्श करीब 250 भी देती है। इस तरह एक केंद्र पर तकरीबन 10,973 रूपए खर्च किए जाते हैं। इसके अलावा गर्भवती महिलाओं को भी इस केंद्र से सहायता पहुंचाई जाती है। साथ ही साथ सरकार की ओर से विभिन्न अवसरों पर बच्चों और गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य जांच के विशेष आयोजन भी किए जाते हैं। ताकि सभी इसका लाभ उठा सकें। सोशल ऑडिट का काम महिला स्वंय सहायता समूह को सौंपने के पीछे एक तरफ जहां समूह को स्वावलंबी बनाना है वहीं दूसरी ओर इसमें होने वाली गड़बडि़यों पर काबू पाना भी है। पिछले कुछ वर्षों में राज्य सरकार ने यह महसूस किया है कि प्रत्येक आंगनबाड़ी केंद्रों पर सरकार की ओर से हजारों रूपए खर्च करने के बावजूद इसका समुचित परिणाम नहीं आ रहा है। ब्लॉक स्तर से लेकर मुख्यमंत्री के जनता दरबार तक आंगनबाड़ी केंद्रों में हो रही धांधलियों की षिकायतें बढ़ती ही जा रही थीं। यह शिकायत कितना उचित है यह तो जांच का विषय है। लेकिन इसकी वास्तविकता का अंदाजा अपने आसपास संचालित आंगनबाड़ी केंद्र को देखकर लगाना मुश्किल नहीं है।

राज्य के सीतामढ़ी जिला का बछारपूर पंचायत को ही लिजिए। यहां 15 वार्ड हैं जिसकी कुल आबादी करीब 11 हजार से अधिक है। इस पंचायत में 10 आंगनबाड़ी केंद्र संचालित हैं। जिनमें दो केंद्र फिलहाल बंद हैं। प्रत्येक केंद्र पर बच्चों, गर्भवती तथा दूध पिलाने वाली महिलाओं को मुफ्त पोशाहार के तहत लाभ मिलना चाहिए। इसके अलावा बच्चों को यहां लिखने और पढ़ने के लिए मुफ्त स्लेट, पेंसिल और किताबें उपलब्ध कराई जानी चाहिए। जिससे कि प्राथमिक स्तर पर ही उनमें शिक्षा की लौ जल उठे। लेकिन अक्सर गांव वालों की शिकायत होती है कि केंद्र से न तो बच्चों को कोई लाभ मिलता है और न ही गर्भवती महिलाओं को फायदा पहुंचता है। बच्चों का कहना है कि उन्हें सिवाए खिचड़ी के कुछ नहीं दिया जाता है। न ही आंगनबाड़ी में उनके लिए खेलने का कोई सामान उपलब्ध है। वहीं दूसरी ओर गर्भवती और दूध पिलाने वाली महिलाओं की शिकायत रहती है कि केंद्र की सेविका यह कहकर उन्हें बैरंग लौटा देती है कि केंद्र पर सामान उपलब्ध नहीं है। जबकि सभी आंगनबाड़ी केंद्रों के लिए यह अनिवार्य है कि वहां बच्चों और गर्भवती महिलाओं को पोशकतत्व मुहैया करवाए और बच्चों के खेलने का सामान उपलब्ध हो। ताकि न सिर्फ उनका स्वास्थ्य बेहतर हो बल्कि खेल खेल में उन्हें सही षिक्षा और उचित मार्गदर्शन भी प्राप्त हो सके। जहां से निकलने के बाद उन्हें आसानी से स्कूलों में दाखिला मिल सके। इस संबंध में अपना नाम नहीं छापने की शर्त पर एक आंगनबाड़ी सेविका ने भी माना कि केंद्र के लिए उपलब्ध कराए गए सभी सामान लाभार्थियों तक नहीं पहुंच पाते हैं। इस मामले में गांव के कुछ दबंगों की भूमिका अहम होती है।

ऐसे उदाहरण राज्य के कई आंगनबाड़ी सेंटरों पर दिख जाएंगे। जिनकी खबरें बाहर नहीं आ पाती हैं। इससे पूर्व पिछले वर्ष भी राज्य सरकार ने आंगनबाड़ी केंद्रों के कामकाज में पारदर्षिता लाने के मकसद से उसकी बागडोर स्थानीय लोगों को सौंपी थी। इसके तहत पांच सदस्यीय निगरानी समिती बनाई गई थी। इस समिती को केंद्र की सेविका को उसके कामकाज में लापरवाही बरतने के लिए पहले कारण बताओ नोटिस जारी करने और फिर बर्खास्त करने का भी अधिकार दिया गया था। माना जाता है कि इस अधिकार का कई बार दुरूपयोग करने की खबरें भी आई हैं। दूसरी ओर बाल विकास परियोजना पदाधिकारी के मनमाने रवैये की बढ़ती षिकायत के बाद आंगनबाड़ी सेविकाओं की मदद के लिए हैल्पलाइन षुरू करने के सरकार के निर्णय से यह जाहिर होता है कि उचित ढ़ंग से मैनेज नहीं हो पा रहा है। बहरहाल बिहार सरकार की नई पहल से उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे आंगनबाड़ी के कार्यों में सुधार आएगा। लेकिन यह उस वक्त तक मुमकिन नहीं है जब तक सामाजिक रूप से सभी इसके प्रति उत्तरदायी नहीं बनते हैं। क्योंकि सरकार का काम बेहतर से बेहतर कानून बनाना है लेकिन उसे जमीनी स्तर पर कामयाब सामाजिक उत्तरदायित्व से मुमकिन हो सकता है। (चरखा फीचर्स)

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