अंग्रेजी मानसिकता औऱ वाम आवरण से मुक्ति के बिना कांग्रेस का उद्धार संभव नही

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डॉ अजय खेमरिया

राहुल गांधी औऱ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दोनो एक ही दिन केरल में थे ,दोनों 23 मई के बाद पहली बार सार्वजनिक समारोहों में सम्मिलित हुए।राहुल गांधी अपने संसदीय क्षेत्र वायनाड के दौरे पर थे वे मतदाताओं का आभार व्यक्त करने गए थे जिन्होंने उन्हें मोदी की प्रचंड आंधी में भी जिताने का काम किया ।प्रधानमंत्री  भी  चुनाव बाद केरल में अपनी पहली जनसभा में मतदाताओं को धन्यवाद दे रहे थे बाबजूद इसके की देशव्यापी मोदी लहर में केरल के लोगो ने उन्हें एक भी सीट नही दी।पहली नजर में दोनो के दौरे में कोई तुलना नही है लेकिन राहुल गांधी के बनिस्बत मोदी का यह दौरा एक बार फिर उन्हें भारत की समकालीन राजनीति का अचूक योद्धा साबित करने वाला ही रहा।वैसे राहुल गांधी को धन्यवाद देने के लिये जाना तो अमेठी चाहिये था वायनाड से पहले ।जहां से वे तीन बार से साँसद थे उनके पिता स्व राजीव गांधी,चाचा स्व संजय गांधी और दादी इंदिरा गांधी सांसद रहे।जिस अमेठी ने गांधी परिवार से राजनीति की जगह भावनात्मक रिश्ता तीन पीढ़ियों तक कायम रखा उसके प्रति राहुल की जबाबदेही पहले है, भले ही वे इस चुनाव में अमेठी से हार गए हो पर यह मार्के वाली बात ही है कि विकास,औऱ कल्याण,के पैरा मीटर से परे जाकर जिस अमेठी की जनता ने तीन पीढ़ियों के साथ एक रिश्ते को कायम करके रखा उसे राहुल गांधी ने वायनाड की परिस्थिति जन्य जीत के ऊपर प्राथमिकता नही दी।इस रिश्ते की डोर को कमजोर करने का जिम्मा अगर किसी के पास है तो वे सिर्फ राहुल गांधी ही है ,क्योंकि स्मृति ईरानी तो अपना कर्तव्य निभा रही थी ईमानदारी से ।जो एक विपक्षी से अपेक्षित है ईमानदारी में न्यूनता तो सांसद के रूप में राहुल की ही है इसलिये दोष अमेठी के रिश्ते का नही है।स्मृति ईरानी अगर जीतने के बाद अपने एक कार्यकर्ता की हत्या के चार घण्टे के दरमियान अमेठी जाकर अंतिम यात्रा में कंधा देने पहुँच जाती है तो राहुल तो वहां उनसे पहले के विजेता थे उनका कोई उदाहरण आज तक सामने क्यों नही आया?यही बुनियादी अंतर भारत की मौजूदा राजनीती में राहुल गांधी शायद समझ नही पा रहे है। उधर प्रतीकों की राजनीति के महत्व को जिस तरह से प्रधानमंत्री मोदी ने मथा है उसका कोई विकल्प आज  समूचे विपक्षी जमात को समझ नही आ रहा है। राहुल जिस समय वायनाड में मुस्लिम औऱ ईसाई बिरादरी के साथ बैठकर उन्हें धन्यवाद दे रहे थे ठीक उसी समय प्रधानमंत्री  केरल के कृष्ण मंदिर में खांटी हिन्दू की वेशभूषा में अनुष्ठान में ध्यान लगा रहे थे ।वे बकायदा अपने क्रेडिट कार्ड से अनुष्ठान का शुल्क भी ऑनलाइन ट्रांसफर करते है।दोनों नेताओं की तस्वीरें ,वीडियो देश भर ने खबरिया चैनलों पर देखी।यह प्रतिकात्मक महत्व सिर्फ चुनावी नही है बल्कि  इसे मोदी और भाजपा ने कांग्रेस को स्थाई रूप से आइसोलेटेड करने का उपकरण बना लिया है। लोकसभा चुनाव में 2014 की ऐतिहासिक पराजय के बाद गठित एंटोनी कमेटी ने जोर देकर कहा था कि देश भर के मतदाताओं में कांग्रेस की छवि प्रो मुस्लिम और एंटी हिन्दू की बन गई है इसे बदलने की आवश्यकता है 2019 तक आते आते गुजरात मप्र राजस्थान के टेम्पल रन के बाबजूद कांग्रेस एंटोनी कमेटी की सिफारिशों पर अमल की जगह दिग्भ्रमित ज्यादा नजर आई है। वायनाड जाकर लड़ने का राहुल गांधी का निर्णय इसी दोहरी औऱ आधी अधूरी मनस्थिति का नतीजा था ।असल मे वायनाड जाने का निर्णय ही अमेठी में राहुल और देश मे काँग्रेस की हार के बुनियादी सबबो में एक साबित हुआ है। सोशल मीडिया और 24 घण्टे के खबरिया चैनलों ने देश मे गजब की राजनीतिक मुखरता को जन्म दिया है संचार,सम्प्रेषण ने आज अंतिम छोर तक अपनी ताकत स्वयंसिद्ध की है, जिस दिन राहुल गांधी ने वायनाड में जाकर पर्चा भरा उस दिन औऱ उसके बाद 19 मई तक नामांकन रैली के वो वीडियो और चित्र  देश के करोडो स्मार्ट फोन्स में मौजूद थे जिसमें मुस्लिम लीग के झंडो ने कांग्रेस के झंडे को दबा रखा है ,वायनाड की पूरी जनांनकीय (डेमोग्राफी)लोगो के  जुबान पर थी । 69 फीसदी अल्पसंख्यक वोटरों वाले इस संसदीय क्षेत्र से राहुल की जीत आखिरकार कांग्रेस को बहुत महंगी पड़ी क्योंकि इस चयन ने यही सन्देश स्थापित किया कि एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी काशी जैसे शहर से चुनाव लड़ रहे है जो भारत की हजारो साल पुरानी हिन्दू अस्मिता से जुड़ा है जिसका उल्लेख पुराणों में भी मिलता है ।वहीं मोदी को हटाने की लड़ाई लड़ने वाले राहुल उस वायनाड से मैदान में है जहां 69 फीसदी मुस्लिम और ईसाई है।अल्पसंख्यक बाद की इस राजनीति ने ही कांग्रेस को अधोपतन की कगार पर लाकर खड़ा किया है राहुल गांधी आज भी इस वाम पोषित व्याख्या के लोह आवरण में कैद नजर आते है ।वही प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सियासी कौशल से खुद को बदलते वक्त के भारत के साथ सयुंक्त कर लिया है ।आज सेक्युलरबाद औऱ अल्पसंख्यकबाद की राजनीति के दिन खत्म हो गए है देश में बहुलताबाद की नेहरुयुगीन थ्योरी को आर्थिक उदारीकरण के बाद के प्रगतिशील भारत मे लोग  सहजता से स्वीकार करने के लिये तैयार नही है उन्हें लगता है यह बहुसंख्यको  की कीमत पर किया जा रहा है और   मनमोहन सिंह जब  प्रधानमंत्री के रूप में कहते है कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यको का है तब कांग्रेस के प्रति धारणा का स्तर वही निर्मित होता है जिसे ए के एंटोनी प्रो मुस्लिम फैक्टर के रूप में कांग्रेस की हार के कारणों में रेखांकित करते है।इस लोकसभा चुनाव के नतीजे बताते है कि देश के मुसलमानों ने 2014 के 9 फिसदी की तुलना में इस बार एक प्रतिशत कम यानी 8 फीसदी ही वोट किया है बीजेपी को। इस बीच मुस्लिम बहुल वायनाड से राहुल साढ़े चार लाख वोट से जीतते है अच्छा होता राहुल वायनाड की जगह गुजरात की किसी सीट से जाकर मोदी के घर जाकर चुनोती देते भले ही वे हार जाते लेकिन उनकी एक अलग छवि निर्मित होती औऱ संभव है वे अमेठी से भी न हारते।लेकिन राहुल गांधी आज भी परिवार के इंदिरा युगीन प्रभुत्व की परिछाईयो से बाहर नही आ पाए है, जब कांग्रेस का गांधी परिवार कांग्रेस नेताओ के लिये  सत्ता और चुनावी प्लेटफॉर्म न होकर एक अखिल भारतीय स्वीकार्यता का प्रतीक भी था नेहरू और इंदिरा के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई का संघर्ष भी समाहित था उन्होंने नेतृत्व को खुद भी निजी रूप से जमीनी अनुभव और योगदान से तपाया था लेकिन इंदिरा गांधी के बाद परिवार विशुद्ध रूप से विरासत पर अबलंबित है।19 साल अध्यक्ष रहते हुए सोनिया गांधी ने कांग्रेस विचार और संगठन को आखिर क्या दिया है?इसकी ईमानदारी से व्याख्या होनी चाहिये।वे इतिहास की सबसे शर्मनाक 44 सीट के सफर की गवाह बनी 10 साल मनमोहन सिंह की सरकार क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस के दरबारी लोगो के सत्ता सुख की सबब से ज्यादा कुछ नही दे पाई।राहुल गांधी ने 44 को 52 पर ला दिया इसे देश के सबसे बड़े और पुराने राजनीतिक दल के लिये कोई उपलब्धि के रुप में कैसे अधिमान्य कर सकता है?भारत के संसदीय लोकतंत्र के लिये काँग्रेस का यह अधोपतन बेहद दुखद पहलू है क्योंकि सशक्त औऱ सार्थक विपक्ष के बगैर भारत की संसदीय यात्रा समावेशी नही हो सकती है।अटल जी ने एक बार विपक्ष को परिभाषित करते हुए कहा था कि “विपक्ष का मतलब है विशेष पक्ष”.।भारत भले बहुलता से भरा मुल्क हो लेकिन कोई भी राष्ट्रीय नेता वर्तमान की चेतना को समझे बगैर मोदी नही बन सकता है आज राहुल गांधी को भारत यात्रा पर निकलना चाहिये कम से  कम पांच साल तक दिल्ली से दूर रहकर भारत को समझने का प्रयास करना चाहिये और तब तक अमरिंदर सिंह जैसे नेता को कप्तानी सौंपना कांग्रेस के लिये बेहतर होगा।क्योंकि राज्यों में जीत के बाबजूद उन्ही राज्यो में मोदी के सामने कांग्रेस का पूरी तरह से सफाया स्थानीय नही राहुल के नेतृत्व को खारिज करने वाला जनादेश है । इस चुनाव को लोग राष्ट्रवाद की जीत बता रहे है पर यह सांगोपांग सच्चाई नही है असल मे यह राहुल और मोदी के बीच भारत की पसन्द का चुनाव भी है क्योंकि राहुल आज भी जनता को प्रभावित नही कर पा रहे है खासकर मोदी जैसे अदभुत वक्ता औऱ निजी जीवन मे ईमानदार शख्सियत से लड़ने के लिये उन्हें वाम वैचारिकी से बाहर आना होगा  लेकिन केरल के वायनाड में राहुल ने उसी भाषा का प्रयोग किया जिसे 23 मई को देश की जनता ने खारिज किया है। उन्होंने मोदी पर नफरत की राजनीति का आरोप लगाया  यह वामी भाषा है जो आज भारत के संसदीय मॉडल में डस्टबिन में जा चुकी है।राहुल गांधी को समझना होगा कि उनके औऱ उनके पूर्वजों ने जिस वाम बुद्विजीवी वर्ग को पाला पोसा वही उनके पतन का कारण है अंग्रेजी में सोचने,समझने-बोलने वाले,गार्डियन औऱ टाइम्स मैगजीन को पढ़ने वाले इस मुल्क में एक फीसदी भी नही है इसलिये इन एनजीओ टाइप सलाहकारो से दूर होकर  उन्हें भारत के अवचेतन के साथ एकीकृत होना पड़ेगा।सच तो यह है कि केवल  वायनाड भारत नही है अमेठी ही असली भारत है।

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