विश्व के सभी मनुष्य गोमाता का दुग्धपान करने से उसके ऋणी हैं

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-मनमोहन कुमार आर्य

               परमात्मा ने जिस प्रकार मनुष्य को जन्म दिया है उसी प्रकार से गाय आदि पशुओं को भी दिया है। मनुष्य के पास सीधा खड़े की क्षमता है। वह अपनी वाणी के द्वारा बोल सकता है तथा अपने हाथों से अनेक प्रकार के काम कर सकता है। कुछ पशु-पक्षियों और जलचरों को परमात्मा ने मनुष्यों से अधिक शक्तियां दी हैं। यह प्राणी सीधे खड़े नहीं हो सकते, बोल भी नहीं सकते और न ही मनुष्य की तरह हाथों से काम कर सकते हैं। वेद, दर्शन, उपनिषद व सत्यार्थप्रकाश आदि प्रामाणिक ग्रन्थों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि मनुष्यों व पशु-पशु आदि में आत्म-तत्व एक समान अर्थात् एक जैसा है। शास्त्राध्ययन एवं विचार करने पर मनुष्य व पशु-पक्षियों में जन्म का कारण जीवात्माओं के पूर्व जन्म के कर्म सिद्ध होते हैं जिनका भोग करने के लिये परमात्मा ने न्यायपूर्वक जीवात्माओं को मनुष्य व पशु-पक्षी आदि भिन्न-2 योनियों में जन्म दिया है। मनुष्य अपने पूर्वजन्म के कर्मों के आधार पर जाति-आयु व सुख-दुःख आदि भोग प्राप्त करता है उसी प्रकार से सभी पशु-पक्षी आदि भी करते हैं। विचार करने पर यह भी ज्ञात होता है कि यदि मनुष्य इस जन्म में वेद विहित कर्मों का आचरण नहीं करेगा तो उसे अगले जन्म में पशु व पक्षियों की अगणनीय दुःख देने वाली योनियों में से किसी एक योनि में कर्मानुसार जन्म मिलेगा। यहां यह बात उल्लेखनीय है कि परमात्मा सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी है और वह विश्व व ब्रह्माण्ड के सभी जीवात्माओं वा सभी योनियों के प्राणियों के प्रत्येक कर्म का साक्षी है। उसका न्याय आदर्श न्याय है। ऋषियों ने ईश्वरीय ज्ञान वेद के आधार पर परमात्मा के न्याय को समझ कर ही अपने स्मृति आदि ग्रन्थों में अनेक प्रकार के अपराधों के लिए भिन्न-भिन्न दण्ड का विधान किया है। प्रक्षेप रहित विशुद्ध-मनुस्मृति महाराज मनु द्वारा रचित अत्यन्त प्राचीन ग्रन्थ है। उससे हम विभिन्न अपराधों के आदर्श न्याय के विषय में जान सकते हैं। ऋषि दयानन्द ने भी अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के छठे समुल्लास में मनुस्मृति के आधार पर अनेक प्रमुख अपराधों के लिए दण्ड का उल्लेख किया है। अपराध न करना और वेद विहित सद्कर्मों का करना ही मनुष्य का धर्म व कर्तव्य है।

               परमात्मा सर्वज्ञ हैं। वह मनुष्य की आवश्यकताओं के विषय सब कुछ जानते हैं। मनुष्य की शारीरिक शक्ति के विकास तथा उसके मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार सहित उसकी सभी इन्द्रियों को शक्ति देने के लिये अमृत के समान अनेक गुणों से युक्त दुग्ध आवश्यक है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये ही उन्होंने गोमाता, बकरी, भेड़ आदि पशुओं को बनाया है। यह पशु मनुष्य के समान भोजन नहीं करते अपितु इनके भोजन की पूर्ति भी परमात्मा वन, उपवन व जंगलों में घास व वनस्पतियां उत्पन्न करके करता है। गांवों में पशुओं का आहार निःशुल्क ही होता है। इन गाय आदि पशुओं को पालने से हमें अमृत के समान दुग्ध एवं अन्य पदार्थ प्राप्त होते हैं। गाय के दुग्ध में अनेक पौष्टिक तत्व होते हैं। गोदुग्ध से मक्खन, दही, घृत, छाछ, पनीर, मिल्क केक, मावा आदि अनेक पदार्थ बनते हैं। गाय का मूत्र और गोबर भी अनेक औषधीय गुणों से युक्त हैं। गोबर गोमूत्र से बहुमूल्य खाद बनता है जिससे उत्तम गुणों का अन्न, सब्जियां एवं फल उत्पन्न किये जाते हैं। गाय से हमें गाय और बैल भी मिलते हैं। बैल किसान के खेतों की जुताई बुआई में काम आते हैं। बैल का मूत्र खेतों में गिरता है तो वह भी मूल्यवान खाद का काम करता है। गाय बैल के मरने पर उनका चर्म भी जूते चप्पल सहित अनेक प्रकार की आवश्यकता की वस्तुओं के निर्माण में काम आता है जिससे हमारे पैरों की रक्षा होती है। गाय जहां बांधी जाती हैं वहां का वायुमण्डल ऐसा होता है कि उसमें यदि क्षय रोग के रोगी को रखा जाये, तो उसका रोग ठीक हो जाता है। गाय का घी हमारे यज्ञ अग्निहोत्र का प्रमुख साधन है। गोघृत से यज्ञ करने से हमारी प्राणवायु तथा जल की शु़द्ध होती है। यज्ञ अग्निहोत्र करने से आवश्यकता के अनुरुप वर्षा के होने से हम बाढ़ एवं सूखे जैसी विपरीत परिस्थितियों से बचे रहते हैं। हमारा अनुमान है कि जहां गोवध नहीं होता और गायों की भली प्रकार से रक्षा पालन होता हैं, वहां भूकम्प एवं आपदा जैसी घटनायें या तो होती नहीं या कम होती है। गोपालन का एक लाभ यह भी है कि जिस निर्धन परिवार में एक गाय ही हो, वह परिवार भूखा नहीं मरता अपितु गाय के दूध से उसके पूरे परिवार का पालन हो जाता है। अधिक गायें होंगी तो वह गाय का दूध बेच कर अपनी आवश्यकता की अन्य वस्तुयें खरीद सकता है। हम नगरों में देख रहे हैं कि लोगों ने गोपालन करते हुए डेरियां खोली हुई हैं और इस व्यवसाय से वह भौतिक समृद्धी का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। भारतीय संसद के यशस्वी सांसद और ऋषि भक्त पं. प्रकाशवीर शास्त्री जी ने गोहत्या राष्ट्र हत्या” नाम की एक अति महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी थी। इस पुस्तक में गाय की महत्ता को विस्तार से बताया गया है। इस ग्रन्थ का पाठ सभी गोभक्तों को अवश्य करना चाहिये।

               गोमाता के महत्व गोरक्षा पर आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द जी ने गोकरुणानिधि नाम से एक अत्यन्त महत्वपूर्ण लघु पुस्तिका लिखी है। यह पुस्तक गागर में सागर है। हमें ऐसा प्रतीत होता है कि ऋषि दयानन्द महाभारत काल के बाद देश संसार में ऐसे पहले व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने गोमाता के महत्व को समझा था। उन्होंने अंग्रेजों के राज्य में गोरक्षा का आन्दोलन भी चलाया था और गोकरुणानिधि की रचना के साथ एक गोकृष्यादिरक्षिणीसभा भी गठित की थी और उसके नियम उपनियम भी बनायें थे। ऋषि दयानन्द जी के एक शिष्य ने हरियाणा के रिवाड़ी नगर में एक गोशाला भी खोली थी। यदि ऋषि की विषपान से 58 वर्ष की आयु में मृत्यु न हुई होती तो वह अंग्रेज सरकार से गोहत्या को निषिद्ध कराने की राजाज्ञा अवश्य पारित करा पाते। हम ऋषि दयानन्द जी की गोकरुणानिधि पुस्तक से कुछ उद्धरण प्रस्तुत कर रहे हैं। पुस्तक की भूमिका में ऋषि दयानन्द लिखते हैं ऐसा सृष्टि में कौन मनुष्य होगा जो सुख और दुःख को स्वयं मानता हो? क्या ऐसा कोई भी मनुष्य है कि जिसके गले को काटे वा रक्षा करें, वह दुःख ओर सुख का अनुभव करे? जब सब को लाभ और सुख ही में प्रसन्नता है, तो बिना अपराध किसी प्राणी का प्राणवियोग करके अपना पोषण करना यह सत्पुरुषों के सामने निन्दित कर्म क्यों होवे? सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर इस सृष्टि में मनुष्यों के आत्माओं में अपनी दया और न्याय को प्रकाशित करे कि जिससे ये सब दया और न्याययुक्त होकर सर्वदा सर्वोपकारक काम करें और स्वार्थपन से पक्षपातयुक्त होकर कृपापात्र गाय आदि पशुओं का विनाश करें कि जिससे दुग्ध आदि पदार्थों और खेती आदि क्रियाओं की सिद्धि से युक्त होकर सब मनुष्य आनंद में रहे।’

               गोकरुणानिधि पुस्तक में ऋषि दयानन्द जी ने गणित के द्वारा गणना करके सिद्ध किया है कि एक गाय की अनेक पीढ़ियों से असंख्य लोगों का एक समय का भोजन प्राप्त होता है। इस विषयक प्रकरण में वह लिखते हैं जो एक गाय न्यून से न्यून दो सेर दूध देती हो, और दूसरी बीस सेर, तो प्रत्येक गाय के ग्यारह सेर दूध होने में कोई शंका नहीं। इस हिसाब से एक मास में 8.25 सवा आठ मन दूध होता है। एक गाय कम से कम 6 महीने, और दूसरी अधिक से अधिक 18 महीने तक दूध देती है, तो दोनों का मध्यभाग प्रत्येक गाय के दूध देने में बारह महीने होते हैं। इस हिसाब से बारह महीनों का दूध 99 मन होता है। इतने दूध को औटा कर प्रति सेर में छटांक चावल और डेढ़ छटांक चीनी डाल कर खीर बना खावें, तो प्रत्येक पुरुष के लिए दो सेर दूध की खीर पुष्कल होती है। क्योंकि यह भी एक मध्यभाग की गिनती है, अर्थात् कोई दो सेर दूध की खीर से अधिक खा गया और कोई न्यून, इस हिसाब से एक प्रसूता गाय के दूध से 1980 एक हजार नौ सौ अस्सी मनुष्य एक बार तृप्त होते हैं। गाय न्यून से न्यून 8 और अधिक से अधिक 18 बार ब्याती है, इसका मध्यभाग तेरह बार आया, तो 25740 पच्चीस हजार सात सौ चालीस मनुष्य एक गाय के जन्म भर के दूध मात्र से एक बार तृप्त हो सकते हैं।

               इस गाय के एक पीढ़ी में छः बछियां और सात बछड़े हुये, इनमें से एक की मृत्यु रोगादि से होना सम्भव है, तो भी बारह रहे। उन छः बछियाओं के दूधमात्र से उक्त प्रकार 154440 एक लाख चौवन हजार चार सौ चालीस मनुष्यों का पालन हो सकता है। अब रहे छः बैल, उन में एक जोड़ी से दोनों साख में 200 दो सौ मन अन्न उत्पन्न हो सकता है। इस प्रकार तीन जोड़ी 600 छः सौ मन अन्न उत्पन्न कर सकती हैं, और उनके कार्य का मध्यभाग आठ वर्ष है। इस हिसाब से 4800 चार हजार आठ सौ मन अन्न उत्पन्न करने की शक्ति एक जन्म में तीनों जोड़ी बैलों की होती है। 4800 मन, इतने अन्न से प्रत्येक मनुष्य का तीन पाव अन्न भोजन में गिनें, तो 256000 दो लाख छप्पन हजार मनुष्यों का एक बार भोजन होता है। दूध और अन्न को मिला कर देखने से निश्चय है कि 410440 चार लाख दश हजार चारसौ चालीस मनुष्यों का पालन एक बार के भोजन से होता है। अब छः गाय की पीढ़ी पर पीढ़ियों का हिसाब लगाकर देखा जावे तो असंख्य मनुष्यों का पालन हो सकता है। और इसके मांस से अनुमान है कि केवल अस्सी मांसाहारी मनुष्य एक बार तृप्त हो सकते हैं। देखों, तुच्छ लाभ के लिए लाखों प्राणियों को मार असंख्य मनुष्यों की हानि करना महापाप क्यों नहीं?’

               गोकरूणानिधि पुस्तक से ही एक उद्धरण और देकर इस लेख को विराम देंगे। वह लिखते हैं देखिये, जो पशु निःसार घास तृण पत्ते फल फूल आदि खावें और सार दूध आदि अमृतरूपी रत्न देवें, हल गाड़ी में चल के अनेकविध अन्न आदि उत्पन्न कर सबके बुद्धि बल पराक्रम को बढ़ा के नीरोगता करें, पुत्र पुत्री और मित्र आदि के समान पुरुषों के साथ विश्वास और प्रेम करें, जहां बांधे वहां बंधे रहे, जिधर चलावें उधर चलें, जहां से हटावें वहां से हट जावें, देखने और बुलाने पर समीप चले आवें, जब कभी व्याघ्रादि पशु वा मारनेवाले को देखें, अपनी रक्षा के लिये पालन करनेवाले के समीप दौड़ कर आवें कि यह हमारी रक्षा करेगा। जिनके मरे पर चमड़ा भी कंटक आदि से रक्षा करे, जंगल में चर के अपने बच्चे और स्वामी के लिये दूध देने को नियत स्थान पर नियत समय चले आवें, अपने स्वामी की रक्षा के लिये तन मन लगावें, जिनका सर्वस्व राजा और प्रजा आदि मनुष्यों के सुख के लिये है, इत्यादि शुभगुणयुक्त, सुखकारक पशुओं के गले छुरों से काट कर जो अपना पेट भर सब संसार की हानि करते हैं, क्या संसार में उनसे भी अधिक कोई विश्वासघाती, अनुपकारी, दुःख देनेवाले और पापी जन होंगे?

               ऋषि दयानन्द जी की कुछ और बातों को प्रस्तुत करने का लोभ हम संवरण नहीं कर पा रहे हैं। वह कहते हैं यह ठीक (युक्तिसंगत) है कि गो आदि पशुओं के नाश होने से राजा और प्रजा का भी नाश हो जाता है क्योंकि जब पशु न्यून होते हैं, तब दूध आदि पदार्थ और खेती आदि कार्यों की भी घटती होती है। ऋषि ने अपनी पुस्तक में गोमांसाहारियों से यह भी पूछा है कि जिनके दूध आदि खाने पीने में आते हैं, वे माता पिता के समान माननीय क्यों होने चाहिये? इसका तात्पर्य यह है कि वह दुग्धधारी पशुओं को मातापिता के समान मानते हैं और वस्तुतः वह हैं भी परन्तु मांसाहारी तामसिक बुद्धि वालों को यह बात समझ में नहीं आती। यह इन मनुष्यों के लिये विनाश काले विपरीत बुद्धि’ की कहावत को चरितार्थ करती है। ऋषि दयानन्द ने अपनी गोकरुणानिधि पुस्तक की समाप्ति मार्मिक शब्दों में कहा है कि सर्वशक्तिमान जगदीश्वर हम और आप पर पूर्ण कृपा करें कि जिससे हम और आप लोग विश्व के हानिकारक कर्मों को छोड़ सर्वोपकारक कर्मों को करके सब लोग आनन्द में रहें।’ वह इसके आगे कहते हैं ‘(मेरी) इन सब बातों को सुन मत डालना किन्तु सुन रखना, इन अनाथ पशुओं के प्राणों का शीघ्र बचाना। हे महाराजधिराज जगदीश्वर! जो इनको कोई बचावे तो आप इनकी रक्षा करने और हम से कराने में शीघ्र उद्यत हुजिये।’ इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

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