अनजान बीमारी की चपेट में बिहार

रजनी गुप्ता 

imagesबिहार में एक बार फिर दिमागी बुखार जैसी एक बीमारी ने अपना क़हर ढ़ा रखा है। चिंता की बात यह है कि इसकी चपेट में छोटे छोटे मासूम बच्चे ही आते हैं। बीमारी का सबसे अधिक प्रभाव राज्य के दो बड़े शहर मुज़फ्फरपुर और उसके आसपास के क्षेत्र तथा गया में देखने को मिल रहा है। पिछले वर्ष इस बीमारी से 200 से अधिक बच्चों की मौत हो गई थी वहीं इस वर्ष अब तक 55 से भी अधिक बच्चे काल की गाल में समा चुके हैं। मौत का यह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। अजीबोगरीब और अनजान बन चुकी इस बीमारी को डॉक्टरी भाषा में ‘एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम’ (एईएस) का नाम दिया गया है। मुज़फ्फरपुर में इस बीमारी ने सबसे पहले 1994-95 में अपनी दस्तक दी थी। 2006 में इसका प्रकोप सामने आया और फिर तो यह सिलसिला अनवरत जारी है। लेकिन आज तक न तो डॉक्टर ही इस बीमारी का असली कारण जान पाए हैं और न ही शोध के माध्यम से ही इसके सटीक इलाज का पता चल पाया है। शासन-प्रशासन से लेकर शोधकर्ताओं और चिकित्सा विज्ञान के लिए यह सिरदर्द बना हुआ है। गर्मी आते ही यह बीमारी बच्चों पर कहर बन कर टूटती है।

अब तक अनुमान इस बात का लगाया जा रहा है कि शायद यह बीमारी मच्छर के काटने अथवा गंदगी के कारण जन्म लेती होती होगी। इसी को ध्यान में रखते हुए साफ सफाई के साथ साथ मैलेथियौन और डीडीटी छिड़काव के आदेश भी दिए जाते हैं। परंतु इसके बावजूद बीमारी का प्रकोप कम होने की बजाये लगातार बढ़ता ही जा रहा है। अमूमन यह बीमारी मई के महीने में शुरू होती है और जुलाई तक अपना तांडव दिखाती है। लेकिन इस वर्ष इसने अप्रैल में ही पांव पसारना शुरू कर दिया है और सैकड़ों परिवारों के घर के चिराग को बुझा दिया है। एक अनुमान के मुताबिक प्रतिदिन मुज़फ्फरपुर के मेडिकल कॉलेज और सबसे बड़े मातृ एवं शिशु अस्पताल ‘केजरीवाल’ में सैकड़ों की संख्या में इस बीमारी से ग्रसित बच्चे भर्ती हो रहे हैं। कुछ सही सलामत बच जाते हैं तो कुछ इतने भाग्यशाली नहीं होते हैं। कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जो इस बीमारी से बच तो जा रहे हैं, लेकिन उसके प्रभाव से विकलांग होते जा रहे हैं। आंकड़ों के अनुसार केवल मुजफ्फरपुर में ही इस साल जून के तीसरे हफ्ते तक केजरीवाल अस्पताल और मेडिकल कॉलेज में एइएस के करीब 151 बच्चे भर्ती हुए हैं, जिनमें 54 की मौत हो चुकी है। पिछले एक दशक में 800 से अधिक बच्चे एइएस की चपेट में आकर दम तोड़ चुके हैं। मुजफ्फरपुर के अलावा वैशाली, चंपारण, सीतामढ़ी, शिवहर के बच्चे भी इस बीमारी के कारण मौत के शिकार हो चुके हैं। धीरे धीरे इस बीमारी ने पड़ौसी देश नेपाल को भी अपने शिकंजे में लेना शुरू कर दिया है। जहां से अब तक दो मरीजों की इस बीमारी से ग्रसित होने की पहचान की गई है।

 

वरिष्ठस पत्रकार संतोष सारंग के अनुसार एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम के प्रकोप के बावजूद इसकी पहचान नहीं होना चिंता की बात है क्योंकि चिकित्सकों का मानना है कि मरीज़ में जापानी बुखार से संबंधित वायरस के सभी लक्षण हैं। जो गर्मी, गंदगी, बगीचे एवं मच्छर के वाहक माने जाते हैं। मगर इसके वायरस का पता नहीं चल पाना सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई है। अभी तक देश के किसी भी प्रयोगशाला में इस बीमारी की पुष्टि नहीं हो पा रही है। हालांकि गया में सामान्य लक्षण के आधार पर भर्ती होने वाले बच्चों की जांच में जापानी इंसेफलाइटिस की पुष्टि हुई है। इधर, एनसीडीसी की टीम ने आशंका जताई है कि लीची के पेड़ पर छिड़काव करनेवाली कीटनाशक दवाएं एइएस के कारक के रूप में शामिल हो सकती हैं। टीम ने कई दिनों तक प्रभावित इलाकों के लीची बगानों में जाकर शोध किया। एनसीडीसी के विशेषज्ञों के अनुसार अबतक के रिसर्च से पता चला है कि इंसेफलाइटिस के वायरस को पैदा करने में किसी न किसी रूप में लीची बगान ही जिम्मेदार है। मुजफ्फरपुर में एइएस बीमारी की शुरुआत लीची के समय ही होती है। याद रहे कि मुजफ्फरपुर दुनिया भर में लीची उत्पादन के लिए मशहूर है। यहां की शाही लीची को विश्वक के कोने कोने में निर्यात किया जाता है। श्री सारंग के अनुसार एक ओर जहां अस्पताल प्रबंधन की लापरवाही और रेफर के खेल में कई बच्चों की मौत हो जाती है वहीं दूसरी ओर ब्रेन टिश्यूश का सैंपल न मिलना और एमआरआई जांच की सुविधा का नहीं होना भी इस बीमारी के वायरस का पता करने में एक बड़ी बाधा आ रही है। विशेषज्ञ इंसेफलाइटिस से मरनेवाले बच्चों के ब्रेन टिश्यूब निकालने की अनुमति मांग रहे हैं, लेकिन मृत बच्चों के माता-पिता की सहमति या फिर राज्य मुख्यालय व जिला प्रशासन की अनुमति के बिना सैंपल लेना असंभव है। हालांकि, इंडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स (आइएपी) ने तीन वर्ष के भीतर एइएस के वायरस का पता कर लेने का दावा किया है। वरिष्ठस होम्योपैथ चिकित्सक डॉक्टर शब्बीर अहमद के अनुसार जब तक बीमारी के लक्षण का पता नहीं चल जाता है तबतक जागरूकता ही इसका बचाव है। माता-पिता अपने बच्चों के खानपान का विशेष ध्यान रखें और उन्हें गंदगी तथा मच्छरों से बचाएं।

पिछले दो वर्षों में स्वास्थ्य विभाग की टीम ने कई गांवों का दौरा कर सैंपल लिया है लेकिन उसका आजतक कोई परिणाम नहीं निकला है। ऐसे में प्रश्नक उठता है कि जब इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि यह बीमारी गर्मी के दस्तक देने के साथ ही शुरू हो जाती है तो स्वास्थ्य विभाग बच्चों को बचाने या इसके असर को कम करने के लिए मुकम्मल इंतजाम क्यों नहीं करता है, हालांकि सरकार की ओर से एईएस के खिलाफ जागरूकता चलाने के लिए टीम का गठन किया गया है। जिसमें पंचायत स्तर के सदस्यों, एएनएम और आशा कार्यकर्ता को जोड़ने की बात कही गई है। इसके अतिरिक्त विकलांग हुए बच्चों के पुनर्वास पर भी विचार किया जा रहा है। लेकिन धरातल पर यह कितने और कब पूरे होंगे इसपर अभी तक संशय बना हुआ है। योजनाओं के अधूरापन को देखकर ऐसा लगता है कि अभी तक इस खतरनाक बीमारी को हल्के में लिया जा रहा है। (चरखा फीचर्स)

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