दिखने और बिकने में ही ही मुक्ति है इन संचार माध्यमों की
इलेक्ट्रानिक मीडिया के हिस्से आलोचनाएं भले ज्यादा हों पर उसकी ताकत को नकारा नहीं जा सकता। कुरूक्षेत्र के प्रिंस प्रकरण (जिसकी काफी आलोचना हुयी) ने जहाँ मीडिया की संवेदनशीलता, प्रभाव और सरोकारों को साबित किया था वहीं यह भी संदेश दिया कि मीडिया चाहे तो अपने सकारात्मक संचार से पूरे देश को एक सूत्र में बांध सकता है। संचार की यह सकारात्मकता बहुत कम इसलिए महसूस की जाती है क्योंकि इसका इस्तेमाल बहुधा नहीं होता। सेक्स, अपराध, स्कैंडल, सिनेमा या पापुलर कल्चर के आजमाए व ताकतवर फार्मूले मीडिया का मूल स्वर हैं। शायद ऐसा इसलिए भी क्योंकि इलेक्ट्रानिक मीडिया के सरंजाम जमाने में लगी पूँजी भी उसे बहुत सरोकारी और संवेदनशील होने से रोकती है क्योंकि सरोकार यदि बाजार में ‘हिट’ हो तो ठीक वरना यह पूँजी कोई ‘रिस्क’ लेने लो तैयार नहीं है। बिके तो देशभक्ति भी चलेगी, प्रिंस भी, बुधिया भी, ऐश- अभिषेक, राखी सावंत, बाबा रामदेव, धोनी, राजू श्रीवास्तव भी और अपने पुराने जनम के किस्सों को याद करते शेखर सुमन भी। बिकने पर हमें राज ठाकरे से भी एतराज नहीं है। नहीं तो कुछ भी नहीं।
बाजार अगर बाबा रामदेव भी दिलाएं तो स्वीकार, यह बाजार अगर ‘इंडियन आइडल’ या तमाम प्रतियोगिताओं के रोते-बिलखते असफल प्रतिभागी बनाएं तो भी स्वीकार। दरअसल मीडिया इसी पापुलर का पीछा करता है। वह रोज नई कथाओं, नए नायकों की तलाश में रहता है। उसका शिकार हर वह ‘कथा’ है जो उसे छोटे पर्दे पर स्वीकार्य और दर्शकों को खींच सकने लायक बनाए। कथाओं में कथाएं तलाशते मीडिया को इसीलिए कभी नैतिक पुलिस तो कभी कोर्ट की फटकार लगती है। सही अर्थों में मीडिया अपना ‘आनंद लोक’ रचता है और दर्शकों को उसमें शामिल कर लेता है। भविष्यवक्ता कुंजीलाल की मौत के दावे हों या प्रिंस की जान का सांसत में पड़ना – सब कुछ इसी ‘आनंदलोक’ का हिस्सा रहा है। किसी भी मौत का इंतजार करते हुए पूरा दिन गुजार देना और मौत का न आना – यही तो कुंजीलाल कथा है। पर कथा कही गयी, कई अर्थों में रची गयी और उससे ज्यादा देखी गयी। कुंजीलाल उस दिन मीडिया का ‘प्रिंस’ बना रहा। फिर बुधिया की दौड़ उसे ‘प्रिंस’ बनाती है। कथाएं तलाशता खबरिया चैनल पटना के प्रोफेसर मटुकलाल और उनकी शिष्या के ‘प्रेम’ को राष्ट्रीय विमर्श में तब्दील कर देता है। प्रोफेसर की पत्नी की पीड़ा उपहास में बदलती दिखती है। उसकी शिष्या अचानक नायिका में तब्दील हो जाती है – बस चलता तो मीडिया प्रोफेसर को ‘हिंदुस्तानी सेंट वेंलटाइन’ में बदल देता। किंतु यह ‘प्रिंस’ की तलाश दृश्य माध्यम की मजबूरी है। उसे नायक चाहिए – उससे जुड़ी कथाएं बताता मीडिया – इस वाचिक परंपरा के देश को ‘सूट’ करता है। नायक अपने साथ नए विमर्श खड़े करता है या मीडिया उसे गढ़ता है। यह है मीडिया का नया चेहरा जो जो हमें चमत्कृत कर रहा है। वही लाइट, एक्शन और लाइव का तमाशा।
सरोकारों की कथाएं सुनाता खबरिया चैनल कहता हैः भेजिए एसएमएस, कीजिए दुआ। एसएमएस से झोली भर जाती है – हम भूल जाते हैं कि एसएमएस का अर्थ होता है पैसा, जिससे चैनल वाले अपनी झोली भरते हैं। मीडिया का कैमरा पापुलर के पीछे भागता है। वह पापुलर की गालियाँ खाता है फिर भी उसके पीछे जाता है। कई बार सौदे भी करता है। सौदे में निकली कथा बदल जाती है, एक लाइव हाहाकार में। यह मीडिया कभी इस्तेमाल होता है, कभी लोग इसका इस्तेमाल कर लेते हैं। राखी सांवत- मीका जैसी कहानियों में दोनों के लक्ष्य सधते हैं। एक की टीआरपी बढ़ती है, दूसरे के शो के रेट बढ़ जाते हैं। कुल मिलाकर बहुत साफ चीज़ें कहने व स्थितियों की अतिसरलीकृत व्याख्या संभव नहीं है। इलेक्ट्रनिक मीडिया पापुलर विमर्श का ही वाहक है। उसे दिखना है, बिकना है और इसी में उसकी मुक्ति है। शिल्पा शेट्टी की शादी पर पंडितों सरीखे मंत्र पढ़ते चैनल, बिकनी के 60 साल पूरे होने पर कथाएं सुनाते चैनल, कारगिल पर देशभक्ति गीत गाते चैनल, राखी सांवत के आनंद लोक में भटकते चैनल, कुंजीलाल की मौत का इंतजार करते चैनल, किसी के पुनर्जनम की कथा सुनाते या सच का सामना करते चैनल एक ऐसा इंद्रधनुष रचते हैं, जहाँ विवेक अपह्रत हो जाता है। दिखता है उनका लक्ष्य पथ ! संधान ! बाजार और टीआरपी !!! आप इन चैनलों को बचकाना कह रहे हैं, मत कहिए ! वे अब व्यस्क हो चुके हैं !!
-संजय द्विवेदी
एक बहुत ही सार्थक लेख के लिया बधाई.यह सत्य है की मीडिया अब वयस्क हो गया है परन्तु समाज के प्रत्येक वर्ग को वयस्क होना अभी बाकि यही कारन है की समाज का एक वर्ग तो मीडिया का उपयोग कर रहा है वाही अन्य वर्ग मीडिया के रहमो कर्म पैर टिके हुए है.मीडिया जब चाह रही है इन्हें अपना आहार बना रही.मीडिया के साथ समाज में भी वयस्कता का होना आवश्यक है.
यह सोचनीय है कि जैसे एक बच्चा शिशु की अवस्था से होता हुआ किशोरावस्था और फिर वयस्क होने में 20 वर्ष लगाता है। वैसे ही इलेक्ट्रानिक मीडिया को भारत में आये लगभग 20 वर्ष हो गये हैं। और यह सही है कि हमारे इलेक्ट्रानिक चैनल वयस्क हो गये हैं इनके वयस्क होने के पीछे दो कारण हैं एक तो लगी पूँजी का दबाव, तो दूसरा दर्शकों की इच्छा। आखिर हम कब तक इलेक्ट्रानिक चैनलों पर दोष लगाते रहेंगें। समस्या हमारी जनता है जो एक तरफ कार्यक्रमों को ऊल जलूल बताती तो दूसरी ओर उसी में दिलचस्पी दिखा कर कार्यक्रम की टी आर पी बढ़ाती है। बदलाव की जरुरत मीडिया में नही बल्कि हम में है। हम में से अधिकतर लोग जब आपस में मिलते तो कितनी बात देश या समाज की समस्यों पर करते हैं हमारी अधिकतर बातें क्रिकेट, फिल्मों, पैसों, और अपनी निजी ज़िन्दगी से जुड़ी होती हैं और कुछ ना मिला तो विश्व का सबसे पसंदीदा विषय परनिंदा शुरू हो जाती है। हमारे इलेक्ट्रानिक चैनल भी मजबूर हो कर इन्ही विषयों पर जाते हैं और अपने वयस्क हो जाने का संकेत हमें देते हैं।
मिडिया चैनल व्यस्क तो हुए ही हैं साथ ही पथभ्रष्ट भी हो गये हैं
कोई चैनल अयातित कूड़ा दिखा रहा है, कोई किसी तीसरे दर्जे की नचनिया की हवा बांध रहा है.
बेशर्मी की हद तक ये चैनल दूसरे मनोरंजन चैनलों के कार्यक्रमों (यह अलग बात है कि ये कार्यक्रम खुद ही इतने घिस-पिट चुके हैं कि कोई इन्हे नहीं देखता) पर आधारित कार्यक्रम दिखा कर शायद दर्शकों को शोरबे के शोरबे का शोरबा खिला रहे हैं. यह एक सत्य है कि इनकी स्तरहीन प्रस्तुतियों से दर्शक उबने लगे हैं और मिडिया चैनल्स शुतुर्मुर्ग बने हुए हैं .
केवल एल चैनल, दूरदर्शन अपने समय में इतना पोपुलर था कि लोग अक्सर बंद पड़े प्रसारण पर पट्टियां देखकर भी संतुष्टि का अनुभव करते थे. आज, २५० से ऊपर चैनल भी ऊब पैदा कर रहे हैं. ५ मिनट से ज्यादा कहीं रुकने का मन नहीं होता. वजह, वही घिसा पिटा प्रसारण. चैनल जिसे बिकता हुआ मान ले, वही देखो. एक से बढकर एक हाई टेक बाबा पैदा हो गये हैं. हमें अपनी ज़िन्दगी कैसे बितानी है, इसका फैसला उन्हें ही करना है. इस उम्र में उनकी बताई चीजों से खौफ खाओ. शायद भगवान भी पृथ्वी पर आ जाये तो ये उसे भी गाइड करने लगें. अगर यही चैनलों की वयस्कता है तो इसे दूर से ही सात सलाम.
श्री संजय जी ने मीडिया का बहुत अच्छा विश्लाशन किया है. वाकई इलेक्ट्रानिक चैनल जरुरत से जायदा हे वयस्क हो गए हैं. यह तिल का ताड़ बनाने के ताकत रखते हैं और कई बार भूल जाते हैं की जनता उतनी भी मूर्ख नहीं है. कभी कभी तो एक ही बात या शब्द को २५-२५ बार कहते (मदारी की तरह चीख चीख कर कहते) हैं की कान दुखने लगता है.
दिखना-बिकना बन गया, बस जीवन का लक्ष्य
सभी लगे इस हौङ में, बन विनाश के भक्ष्य.
बन विनाश के भक्ष्य, व्यक्ति-समाज-देश सब.
धरती को छलनी करने में जुटे हुये सब.
कह साधक अब समझ ही केवल समाधान है.
जीवन को पहचाने मानव सुविधान है.
सटीक व सामयिक पोस्ट लिखी है।बधई।