खोने लगे हैं मूल्य और संस्कार

-डॉ. दीपक आचार्य-

 

mothers

जब तक मूल्यों का दबदबा था तब तक सभी प्रकार की अच्छाइयों का मूल्य था। जब से मूल्यहीनता का दौर आरंभ हुआ है सभी प्रकार के मूल्यों में गिरावट आयी है। मूल्यों में जब एक बार गिरावट आ जाती है तब यकायक इसका पारा ऊपर नहीं चढ़ पाता। यह कोई सेंसेक्स या रुपए के मूल्यों के उतार-चढ़ाव जैसा नहीं है। इसके लिए सदियां लग जाती है। और फिर यह जरूरी भी नहीं कि मूल्यों की पुनस्र्थापना एक बार मूल्यों में गिरावट आ गई तो फिर आ ही गई। इसका खामियाजा हम सभी को भुगतना पड़ता है। यही नहीं तो आने वाली जाने कितनी पीढ़ियों तक को मूल्यहीनता की वजह से संघर्ष करना पड़ता है। मूल्यहीनता का मूल कारण यही है कि हमने सुविधाओं, साधनों और मुद्राओं को अधिक तवज्जो देनी शुरू कर दी है और संस्कारों तथा मानवीय मर्यादाओं को हाशिये पर ला खड़ा कर दिया है।

रुपया-पैसा हर किसी के जीवन निर्वाह के लिए जरूरी है लेकिन जब यह सारे संबंधों, आत्मीयता, माधुर्यपूर्ण व्यवहार, सिद्धान्तों और आदर्शों से ऊपर और एकमेव आराध्य हो जाए तब ही मूल्यहीनता का जन्म होता है। आजकल सभी स्थानों पर इसी वजह से समस्याएं देखी जा रही हैं।

अब हम सभी लोग हर किसी का मूल्य आँकने लग गए हैं। जो हमारे लिए लाभ का होता है उसके लिए जान न्यौछावर कर देते हैं, उसके लिए सब कुछ कर गुजरने को तैयार रहते हैं भले ही वह कितना ही गया गुजरा ही क्यों न हो। कुछ लोग किसी काम के नहीं होते लेकिन ऎसे लोग भी कुछ लोगों के खास इसलिए हो जाते हैं क्योंकि इनका वैचारिक धरातल एक जैसा होता है और यही कारण है कि नुगरे लोग नुगरों के ही काम आते हैं।

सेवाओं में जब तक कत्र्तव्य के प्रति वफादारी और समाज के लिए जीने की भावनाओं का समावेश होता है तभी तक मूल्यों का वजूद बना रहता है। यह मूल्य हमारे अपने लिए भी स्वीकार्य हैं और समाज के लिए भी। मुद्रा के प्रति हमारा अत्यधिक झुकाव ही वह सबसे बड़ा कारण हो गया है कि आजकल इंसान के दिल और दिमाग से लेकर सब का संतुलन बिगड़ गया है। इस असंतुलन का परिणाम समाज, अपने क्षेत्र और देश पर भी दृष्टिगोचर होने लगा है।

रोजमर्रा की जिन्दगी से लेकर सामुदायिक कर्म तक में जिस लगन और उत्साह से हमें मानवोचित मर्यादाओं और संवेदनाओं का संतुलन बनाए रखने के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए, उसमेंं हम अब पूरी तरह फिसड्डी साबित होते जा रहे हैं।

जहाँ हमारा लक्ष्य सेवा और परोपकार तथा मानव मात्र और समुदाय के प्रति समर्पित भाव से जीना होना चाहिए उसकी बजाय हम सभी लोग अपने ही अपने लिए जीने के आदी होते जा रहे हैं। हमें न कुटुम्बी दिखते हैं न समाज दिखाई देता है, और न ही अपनी मातृभूमि, जिसके लिए पूरा जोर लगा कर साल भर में कई-कई बार मजमा जमा कर ‘भारत माता की जय’ बोलते रहे हैं।  जीना उसी को कहते हैं जिसमें हम औरों के लिए जीते हैं। जो अपने लिए जीते हैं उनका जीवन तो भार ही कहा जा सकता है।

पूरी दुनिया अब नवीन मापदण्डों पर जीने की आदी होती जा रही है जहाँ हर इकाई अपने आपको संप्रभु और सर्वशक्तिमान बनकर देखना और दिखाना चाहती है और व्यवहार भी ऎसा ही करती है जैसे कि वह ईश्वर ही हो। अपने ही अपने बारे में सोचने और घर भरने की जिस मानसिकता को हम पाल चुके हैं उससे तो यही लगता है कि हम वापस जंगलों के रास्ते चल पड़े हैं जहाँ वह सब कुछ चलता है जो हर संघर्ष का आदि स्रोत विद्यमान होता है जहाँ एकाधिकार और अधिनायकवादी मनोवृत्ति के सिवा अच्छा और सच्चा कुछ नहीं होता।

आजकल कोई भी इंसान निष्काम सेवा और परोपकार की भावना से काम करता दिख जाता है तो उसके बारे में कई सारी विचित्र टिप्पणियां सामने आ जाती हैं। तरह-तरह की बातें होने लगती हैं और लगता है कि जैसे बिना कुछ लिए या श्रेय प्राप्ति की कामना के बगैर कुछ भी करना अब इंसानियत के दायरों से बाहर निकल चुका है।

और तो और समुदाय के लिए कोई थोड़ा सा अच्छा काम करने लग जाता है तो दूसरे लोग उसके पीछे पड़ जाते हैं और कई प्रकार की बाधाएं खड़ी करते हुए उसे नीचे गिराने तथा उ सका नीचा दिखाने के षड़यंत्र शुरू कर दिया करते हैं।

फिर आजकल तो सब तरफ काफी कुछ लोग ऎसे ही मिलते जा रहे हैं जिनका मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं है। इन्हें किसी भी मूल्य पर खरीदा और बेचा जा सकता है। किसी भी युक्ति को अपना कर मुँह बंद-खोल किया जा सकता है, कुछ भी बुलवाया और करवाया जा सकता है।  अब आदमी जरखरीद गुलामों से लेकर रोबोट तक की सारी भूमिकाएं करने को तैयार है, शर्त यही है कि किसी भी तरह की मुद्रा का करंट मिलता रहे।  संसार भर में मुद्राराक्षसों का कमाल हर तरफ दिखने और बोलने लगा है।

इन लोगों को सिर्फ अपनी मूल्यवत्ता में बढ़ोतरी करते हुए शिखर पा जाने से मतलब है, बाकी दुनिया जाए भाड़ में। जब से इंसान के सामाजिक और देशज सरोकारों में कमी आने लगी है तभी से  मूल्यहीनता का दौर परवान पर है और यही कारण है कि निष्काम भाव से की जाने वाली समर्पित सेवाओें तक को लोग न दिमाग से स्वीकारते हैं, न दिल से इसका कोई अहसास करते हैंं।

1 COMMENT

  1. मूल्य और संस्कार रखने वाले शिक्षक- शिक्षिकाओं के साथ जानवरों जैसा व्यवहार होता है —– कॉरपोरेट जगत रिलायंस में तो राष्ट्र और राष्ट्रभाषा हिंदी दोनों के खिलाफ बोला जाता है :————-14 सितम्बर 2010 (हिंदी दिवस) के दिन पाकिस्तानी बार्डर से सटे इस इलाके में रिलायंस स्कूल जामनगर ( गुजरात) के प्रिंसिपल श्री एस. सुंदरम बच्चों को माइक पर सिखाते हैं “हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है, बड़ों के पाँव छूना गुलामी की निशानी है, गाँधीजी पुराने हो गए उन्हें भूल जाओ——- बार-बार निवेदन करने पर मोदी कुछ नहीं कर रहे हैं कारण ‌ – हिंदी विरोधी राज ठाकरे से मोदी की नजदीकियाँ ( देखिए राजस्थान पत्रिका- 30/1/13 पेज न.01), गुजरात हाई कोर्ट का निर्णय कि गुजरातियों के लिए हिंदी विदेशी भाषा के समान है तथा हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है ( देखिए राजस्थान पत्रिका-10-5-13, पेज नं.- 03 ), जिस समय पूरा देश पाकिस्तानियों द्वारा भारत के सैनिक का सर काटे जाने तथा दिल्ली की दुखद घटनाओं से दुखी था उसी समय वाइब्रेंट गुजरात के अहमदाबाद में आयोजित ‘बायर सेलर मीट’ में 9 और 10 जनवरी 2013 को पाकिस्तानी शिष्टमंडल ने भी शिरकत की थी (देखिए राजस्थान पत्रिका-14/1/13 पेज न.01), गुजरात में मजदूरी करने को विवश हैं जनसेवक ( देखिए राजस्थान पत्रिका- 26/8/13 पेज न.03), गुजरात के कच्छ में सिख किसानों पर जमीन से बेदखली का खतरा (देखिए राजस्थान पत्रिका-06-8-13, पेज नं.- 01), ———गरीब वहाँ मर रहे हैं, राष्ट्रभाषा हिंदी का अपमान खुलेआम हो रहा है :—————–के.डी.अम्बानी बिद्या मंदिर रिलायंस जामनगर (गुजरात) के प्रिंसिपल अक्सर माइक पर बच्चों तथा स्टाफ के सामने कहते रहते हैं :- “ पाँव छूना गुलामी की निशानी है, माता-पिता यदि आपको डाट-डपट करें तो आप पुलिस में शिकायत कर सकते हो, गांधी जी पुराने हो गए उनको छोड़ो फेसबुक को अपनाओ, पीछे खड़े शिक्षक-शिक्षिकाएँ आपके रोल मॉडल बनने के लायक नहीं हैं ये अपनी बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ खरीद कर लाए हैं, 14 सितम्बर 2010 (हिंदी दिवस) के दिन जब इन्हें आशीर्वाद के शब्द कहने को बुलाया गया तो इन्होंने सभी के सामने माइक पर कहा ‘कौन बोलता है हिंदी राष्ट्रभाषा है बच्चों हिंदी टीचर आपको गलत पढ़ाते हैं’ इतना कहकर जैसे ही वे पीछे मुड़े स्टेज पर ऑर्केस्ट्रा टीम के एक बच्चे शोभित ने उनसे पूछ ही लिया – ’आप के अनुसार यदि हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं है तो राष्ट्रभाषा क्या है’, जिसका जवाब प्रिंसिपल सुंदरम के पास नहीं था ।

    भारत देश में यदि भारतीय संस्कृति तथा राष्ट्रभाषा के बारे में बच्चों के मन में ऐसी धारणा भरी जाएगी तो क्या ये उचित होगा वो भी पाकिस्तान से सटे सीमावर्ती इलाके में ?….. पाकिस्तान से सटे इस इलाके का स्त्रात्जिक महत्व भी है। बच्चों के मन में ऐसी गलत धारणाएँ डालकर प्रिंसिपल सुंदरम दुश्मनों की मदद कर रहे हैं ।
    रिलायंस कम्पनी के के0 डी0 अम्बानी विद्यालय में घोर अन्याय चल रहा है, 11-11 साल काम कर चुके स्थाई हिंदी टीचर्स को निकाला जाता है,उनसे रिलायंस वा अम्बानी विद्यालय के अधिकारियों द्वारा मारपीट भी की जाती है, स्थानीय पुलिस, शिक्षा अधिकारी, जनप्रतिनिधि यहाँ तक कि शिक्षा मंत्री भी बार-बार सच्चाई निवेदन करने के बावजूद चुप हैं, पाकिस्तान से सटे इस सीमावर्ती क्षेत्र में राष्ट्रभाषा – हिंदी वा राष्ट्रीयता का विरोध तथा उसपर ये कहना कि सभी हमारी जेब में हैं रावण की याद ताजा कर देता है अंजाम भी वही होना चाहिए….सैकड़ों पत्र लिखने के बावजूद, राष्ट्रपति – प्रधानमंत्री कार्यालय से आदेश आने के बावजूद भी गुजरात सरकार चुप है ?…….. ! मेरे किसी पत्र पर ध्यान नहीं दे रहे हैं—— मैं भी अहमदाबाद में रहकर हिंदी विरोधियों को ललकार रहा हूँ- सच्चाई कह रहा हूँ—– ताज्जुब नहीं कि किसी दिन मेरा भी एनकाउंटर हो जाए पर ये जंग बंद न होने पाए ये वायदा करो मित्रों——-जय हिंद…….! जयहिंदी…….!!!

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,849 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress