शस्त्र, शास्त्र, शक्ति पूजन और राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ

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भारत में अनादि काल से परम्‍परागत शस्त्र, शास्त्र और शक्ति पूजन हो रहा है। हमारी यह परंपरा शास्त्रों के साथ शस्त्र पूजन और विधिवत शक्ति आराधना के लिए प्रेरित करती है। महाकवि निराला के मन और ह्दय से जब ”राम की शक्‍ति पूजा” कविता प्रस्‍फुटित हो रही होगी, तब निश्‍चित ही उन्‍हें अपनी इसी परंपरा का ही स्‍मरण रहा होगा।

वस्‍तुत: देखा जाए तो मां भगवती की आराधना के नौ दिन और इन नौ दिनों में नित्य प्रति शास्‍त्रों का पठन, मां भगवती के पूजन के साथ ही उनके हाथों में विराजमान विविध शस्‍त्रों का पूजन हर सनातनी हिन्‍दू विधि विधान से करते हैं और उसके बाद अंतिम  दसवें दिन दशहरे पर अस्‍त्र-शस्त्रों का व्यापक स्‍तर पर सामूहिक पूजन करने की परंपरा हमारे समाज में सदियों से चली आ रही है। जिसके पास जो है यथाशक्ति छुरी, तलवार, गड़सा, धनुष-बाण, पिस्‍तौल, बंदूक या अन्‍य कुछ भी  जो हमारी रक्षा करने में सहायक हो सकता है वह कोई भी अस्त्र हम विधि विधान से दशहरे पर उसका पूजन करते हैं । साथ ही जिन घरों में विद्या अध्‍ययन की परंपरा है और जो व्‍यापार से जुड़े हैं वे शस्‍त्रों के साथ अपने ग्रंथों व तराजू की पूरा करना नहीं भूलते।

वस्‍तुत: इस संदर्भ में परंपरा हमें यही कहती है कि जो हमें आगे बढ़ाने में सहायक हैं, वे हमारे सच्‍चे मित्र शस्‍त्र, शास्‍त्र और सामूहिक समाज की शक्‍ति है, जिसे हम देवी रूप में पूजते हैं । शस्‍त्रों की पूजा से परंपरा यह संकेत करती है कि जो शक्तिशाली है उसी के सभी मित्र हैं, कमजोर का कोई मित्र नहीं । कई उदाहरण भी हमारे सामने हैं । संभवत: यही कारण रहा कि हमारे ऋषि-मुनि अरण्‍यों में रहने के बाद भी शास्‍त्र के साथ शस्‍त्र की शिक्षा देते थे। उनकी परा और अपरा विद्या भी शस्‍त्र और शास्‍त्र से मुक्‍त नहीं थी।

अथर्ववेद में कहा गया है – चक्षुषः मनसः ब्रह्मणः तपसः हेतिः मन्याह मेनिः । आंख , मन , ज्ञान और तप के जो शस्त्र है वे शस्त्रों के भी शस्त्र है, कहने का तत्‍पर्य है कि पाशविक बल से कई गुना अधिक शक्तिवान आत्मिक बल होता है । ये आत्मिक बल जितने परिमाण से बढ़ेगा, उतने ही परिमाण से शत्रु के पाशविक बल घटेंगे । उदाहरण प्रत्‍यक्ष है-रावण जब पाशविक शस्त्रों से सुसज्जित हो कर रथहीन राम के सामने पहुँचे तो विभीषण को श्रीराम ने कहा – जिसके रथ के पहिये शौर्य तथा धैर्य हैं , सत्य और शील ध्वजा पताका हैं , बुद्धि प्रचंड शक्ति है , श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष हैं , अचल मन तरकस है , ज्ञानी गुरु का आशीर्वाद रूप कवच है इसके समान विजय उपाय न दूजा, इसलिए ही अंत में विजय श्रीरामजी की ही होती है।

इसी तरह से ऋग्वेद में यह ऋषियों ने कहा-मायादभिरिन्दृमायिनं त्वं शुष्णमवातिरः ।1।11।6। अर्थात्  है इंद्र मायावी पापी विषैले तथा जो दूसरों को चूसने वाले हैं उनको तू माया से पराजित करता है, इसमें माया पर विशेष ध्यान देना चाहिए यहां स्पष्ट लिखा गया है कि मायावी को माया से मार दो।

फिर महापण्‍ड‍ित  विदुर ने जो लिखा वह भी ध्‍यान देने योग्‍य है। वे कहते हैं कृते प्रतिकृतिं कुर्याद्विंसिते प्रतिहिंसितम् । तत्र दोषं न पश्यामि शठे शाठ्यं समाचरेत् ॥  जो आपके साथ जैसा बर्ताव करें उसके साथ वैसा ही करिए, हिंसा करने के वालों के साथ हिंसक रूप में ही आचरण करें, इसमें कोई दोष नहीं । छल करनेवालों को छल से ही मार दो । जैसे महाभारत में श्री कृष्ण ने गदा युद्ध के अवसर पर भीम को यही मंत्रणा दी थी कि है भीम छल कपट से दुर्योधन को मारो, क्‍योंकि वह इसी योग्‍य है।

वेद में आदेश है की हमें प्रचंड शस्त्रों का अवश्य ही संग्रह करना चाहिए परन्तु इसके साथ ही अपराजेय चारित्रिक, मानसिक और आत्मिक बल का भी संचय करना चाहिए जैसा अर्जुन और भगवान श्रीराम ने किया था ।शक्ति आराधना के पर्व नवरात्री के पश्चात आने वाला विजयादशमी का पर्व विजयोत्सव के साथ जुड़ा हुआ है। शस्त्र-भक्ति की महिमा आसुरी ताकतों के खिलाफ दैवी शक्ति के विजय का महात्म्य दर्शाती है। शस्त्र की भक्ति हमें उसके दुरुपयोग की वृत्ति से दूर रखती है। इसी तरह से संस्कार और विवेक से ही शस्त्र के अहंकार से हम दूर रहते हैं । जैसे कि राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ की शाखा, जहां जाने से प्रत्‍येक स्‍वयंसेवक को सनातनी होने का गर्व ही नहीं आता वह अपनी परंपरा में शस्‍त्र, शास्‍त्र और शक्‍तिपूजन के सही मायनों को समझता है।

संघ संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने सन 1925 में विजय दशमी वाले दिन ही समाज संगठन और देश को स्वतंत्र कराने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। उस समय संघ की प्रतिज्ञा में हर सदस्य देश को स्‍वतंत्र कराने का संकल्प लेते थे। स्‍वाधीनता के बाद यह संकल्‍प देश की बुराईयों को समाप्‍त करने का हो गया। हर स्‍वयंसेवक के लिए उसके राष्‍ट्र का परमवैभव ही उसका वैभव है।  शस्त्र के सदुपयोग के लिए शास्त्र का ज्ञान होना जरूरी है।  शस्त्र का दुरुपयोग एक ओर रावण और कंस बनाता है तो दूसरी ओर इसका सदुपयोग राम और कृष्ण बनाते हैं । यह बात हर स्‍वयंसेवक आज शाखा में ठीक से समझ रहा है।

राष्ट्र को पुनः विश्वगुरु बनाना है तो हिंदुत्व को बचाए रखना होगा ।  अपनी परम्‍पराओं, संस्‍कार, संस्कृति, वेशभूषा और धर्म को बचाए रखना हिंदुत्व है। इसलिए आज की जरूरत है कि देवी आराधना से शक्‍ति प्राप्‍त कर शस्‍त्र की विधिवत पूजा करें। अपने आत्‍मगौरव को जगाएं। शस्‍त्र तो प्रतीक है लेकिन हमें हर आसुरी शक्‍ति से निपटने के लिए हिम्‍मत चाहिए, पूजन का विधान तो उस अंदर की शक्‍ति को जगाना मात्र है। दशहरे पर राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के सामूहिक शस्‍त्र और शास्‍त्र के शक्‍ति पूजन संपूर्ण हिन्‍दू समाज में यही भाव जगाने का ही तो एक प्रयास है।

लेखक न्‍यूज एजेंसी हिन्‍दुस्‍थान समाचार से जुड़े हैं ।

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