आर्य समाज और हिन्दू महासभा को निगलता आरएसएस

राकेश कुमार आर्य

बात 1920 – 21 की है , जिस समय अंग्रेजी सरकार ने तुर्की के बादशाह को उसके पद से हटा दिया था , जो कि मुस्लिम जगत का खलीफा अर्थात धर्मगुरु था। इसको लेकर भारत के मुसलमानों में आक्रोश था । उस आक्रोश को समर्थन देकर गांधी जी ने भारत की राजनीति में पदार्पण किया । 1922 में गांधी के भारत की राजनीति में पदार्पण करते ही मुस्लिम सांप्रदायिकता देश में हावी हो गई । गांधी जी ने खलीफा के पद को फिर से बहाल करने को लेकर ‘खिलाफत आंदोलन ‘ चलाया। जिससे मुस्लिम लोगों ने नागपुर व देश के कई अन्य स्थानों पर सांप्रदायिक दंगे आरंभ कर दिए । तब केरल के मालाबार में हिंदुओं की स्थिति बहुत ही अधिक दयनीय हो गई थी। वहां पर बड़ी संख्या में हिंदुओं की हत्या की गई थी। 
मालाबार के हिंदुओं की दशा को देखने के लिए नागपुर के कुछ प्रमुख हिंदू महासभाई नेता डॉक्टर बालकृष्ण शिवराम मुंजे , डॉक्टर हेडगेवार और आर्य समाज के नेता स्वामी श्रद्धानंद वहां गए । ये नेता उस समय हिंदू समाज के स्तंभ थे । इनके वहां जाने का अभिप्राय था कि पूरा हिंदू समाज ही अपने हिंदू भाइयों के घावों पर मरहम लगाने के लिए केरल पहुंच गया था। इन नेताओं ने जब हिंदुओं के साथ हुए अत्याचार को अपनी नग्न आंखों से देखा तो इनका ह्रदय द्रवित हो उठा । तब इन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसे संगठन को स्थापित करने की बात सोची जो ऐसे सांप्रदायिक दंगों से देश के हिंदू समाज की रक्षा कर सके।
इसके पश्चात डॉक्टर मुंजे ने तब भारत के कुछ प्रसिद्ध हिंदू नेताओं की एक बैठक बुलाई । जिनमें डॉक्टर हेडगेवार व डॉक्टर परांजपे सम्मिलित थे । इसी बैठक में एक हिंदू संगठन बनाने का निर्णय लिया गया। जिसका उद्देश्य था कि हिंदुओं की रक्षा की जाए और हिंदुस्तान को एक सशक्त हिंदू राष्ट्र बनाने की दिशा में ठोस कार्य किया जाए । इन महान नेताओं का उद्देश्य भारत की प्राचीन संस्कृति को उभारकर लाना और भारत के हिंदुओं में लंबी दासता से आए हुए किसी भी प्रकार के हीनता के भावों को मिटाकर उनमें गर्व और गौरव का भाव जागृत करना था । इस कार्य को आर्य समाज पहले से ही कर रहा था , इसलिए आर्य समाज के नेता स्वामी श्रद्धानंद जी को डॉक्टर मुंजे और हेडगेवार के द्वारा किए जा रहे ऐसे प्रयासों को समर्थन देने में कोई संकोच नहीं हुआ । उन्होंने तुरंत ही आर्य समाज की ओर से अपनी सहमति व्यक्त कर दी । वैसे भी डॉक्टर हेडगेवार के पिता आर्य समाजी पृष्ठभूमि के थे। अतः स्वामी श्रद्धानंद जी को यह भी विश्वास था कि आर्य समाज का राष्ट्रवादी चिंतन ही डॉक्टर मुंजे और डॉक्टर हेडगेवार को प्रभावित करेगा और उस राष्ट्रवाद को आर्य समाज के द्वारा समर्थन देने में किसी प्रकार की कोई आपत्ति नहीं है । इस संगठन को खड़ा करने का दायित्व डॉक्टर मुंजे ने डॉ केशव बलिराम हेडगेवार को दिया । जिन्होंने बड़ी निष्ठा से अपने दायित्वों का पालन किया । तब डॉ केशव बलिराम हेडगेवार ने ‘ हिंदू युवा क्लब ‘ की स्थापना 28 सितंबर 1925 को विजयदशमी के दिन की । कालांतर में यह हिंदू युवा क्लब ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बना ।
इन सभी नेताओं का वीर सावरकर जी के प्रति बहुत श्रद्धा का भाव था । वीर सावरकर जी जेलों में रहते हुए भी जिस प्रकार भारतीय धर्म , संस्कृति और इतिहास के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर रहे थे , उसका यह सभी नेता हृदय से सम्मान करते थे । 
वीर सावरकर जी ने कहा था :– 
आसिंधु सिंधु पर्यंता यस्य भारत भूमिका ।
पितृभू: पुण्यभूश्चैव सा वै हिंदू रीति स्मृता ।। 
अर्थात जो इस पवित्र भारत भूमि को अपनी पुण्य भूमि और पितृभूमि मानता है , वह स्वाभाविक रूप से हिंदू है । मुसलमान और ईसाई इस भारत भूमि को अपनी भूमि तो मानते थे , परंतु इसे अपनी पुण्यभूमि और पितृभूमि नहीं मानते थे , उनकी धार्मिक निष्ठा किसी और भूमि के प्रति जुड़ी हुई थी । पितृभूमि भी वह अपने – अपने मजहबों के मूल देश के लोगों की भूमि को ही मानते थे । इसलिए यह परिभाषा ईसाई और मुसलमानों पर लागू नहीं होती थी । फिर भी सावरकर जी ने इस परिभाषा में यह उदारता दिखाई थी कि यदि कोई इस बात की गारंटी देता है कि वह पवित्र भूमि भारत को ही अपनी पुण्य भूमि व पितृभूमि मानेगा तो उसे भी हिंदू माना जा सकता है । 
सावरकर जी का यह महान विचार राष्ट्रीय सेवक संघ , आर्य समाज व हिंदू महासभा तीनों का ही प्रेरक वाक्य बना । इसका अभिप्राय था कि ये तीनों संगठन अलग अलग न होकर राष्ट्र के महान कार्य के लिए एकमत होकर आगे बढ़ने पर सहमत थे । आर्य समाज और हिंदू महासभा ने आरएसएस को इसीलिए पैदा किया था कि यह भारत की संस्कृति , धर्म और इतिहास की संरक्षा व सुरक्षा के लिए महान कार्य करेगा ।
सावरकर जी के इसी विचार को अपनाकर और उस पर अपनी सहमति और स्वीकृति की मोहर लगाकर आर्य समाजी , सनातनी , जैन , बौद्ध व सिख आदि धर्म विचारों को मानने वाले लोगों ने एक दिशा में आगे बढ़ना व सोचना आरंभ किया । इस एकता के भाव ने ऋग्वेद के ‘ संगठन सूक्त ‘ को धरती पर लाकर साकार कर दिखा दिया । इन सभी ने मिलकर इस्लाम और ईसाइयों की ओर से भारत में हिंदू समाज के प्रति अस्पृश्यता का जो भाव अपना रखा था , उसको मिटाने और हिंदुओं का सैनिकीकरण करने की दिशा में ठोस कार्य किया । सैनिकीकरण का अभिप्राय प्रत्येक व्यक्ति को अपनी संस्कृति व धर्म का रक्षक बनाने की शिक्षा और प्रेरणा देना था । इसके अतिरिक्त हिंदू समाज में भी जिस प्रकार ऊंच-नीच , भेदभाव और छुआछूत जैसी बीमारियां घर कर गई थीं , उन्हें दूर करने में भी इन तीनों संगठनों ने अपने – अपने क्षेत्र में महान कार्य किया, और हिंदू समाज को आधुनिकता के साथ जोड़ने में सफलता प्राप्त की । जिसका परिणाम यह निकला कि देश स्वतंत्र हुआ ।
आर्य समाज ने महाराणा प्रताप , शिवाजी , वीर हकीकत राय , बंदा वीर बैरागी, छत्रसाल आदि के विलुप्त इतिहास को ढूंढ – ढूंढ कर उसे लोकगीतों के माध्यम से समाज में लोगों के सामने इस प्रकार प्रस्तुत किया कि लोगों के हृदय झंकृत हो उठे और देश व समाज की रक्षा के लिए देशभक्तों के दल के दल मैदान में उतर आए । यही कार्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों ने भी किया । उन्होंने भी विचार गोष्ठियों का आयोजन किया और राणा प्रताप , शिवाजी आदि को अपना आदर्श बनाकर उनके बारे में युवाओं को बताना आरंभ किया । वीर सावरकर जी के द्वारा लिखित पुस्तक ‘ हिंदुत्व ‘ को पढ़कर स्वयंसेवक जब लोगों को सुनाते थे तो लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते थे। जिसका परिणाम यह होता था कि उन सबके भीतर देश को आजाद कराने की भावना जागृत होती थी ।
सावरकर जी के भाई बाबाराव सावरकर ने अपने ‘ युवा संघ ‘ के 8000 सदस्यों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में यह सोचकर मिला दिया था कि हम सब मिलकर देश का कार्य करें । उसी समय एक संत पाँचलेगाँवकर भी हिंदू धर्म के लिए बड़ा कार्य कर रहे थे । उनका अपना संगठन ‘ मुक्तेश्वर दल ‘ के नाम से जाना जाता था । उन्होंने भी अपने उस दल के 5000 लोगों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ मिला दिया था । संत महोदय ने ईसाई बने हिंदुओं को पुनः हिंदू बना कर उन्हें अपने दल के सदस्यों में सम्मिलित कर लिया था। 1937 में जब सावरकर जी जेल से बाहर आए तो वह हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने । अगले वर्ष हिंदू महासभा के नागपुर अधिवेशन में उन्हें फिर से हिंदू महासभा का अध्यक्ष चुना गया। नागपुर अधिवेशन की सारी व्यवस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ही संभाली थी । उस समय इसकी सदस्य संख्या बढ़कर 700000 हो गई थी ।
लेकिन देखने वाली बात यह है कि इनकी इतनी बड़ी सदस्य संख्या को बढ़ाने में हिंदू महासभा और आर्य समाज ने बढ़-चढ़कर योगदान किया था । इसके अतिरिक्त अन्य ऐसे हिंदूवादी संगठन भी इसमें स्वेच्छा से सम्मिलित होने लगे थे जो हिंदू समाज की एकता के लिए कार्य करना चाहते थे। कुल मिलाकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भारत की आवाज बनाने का कार्य आर्य समाज ,हिंदू महासभा और अन्य अनेकों संगठनों ने किया । 
यह दुख का विषय है कि आज आरएसएस दंभी , घमंडी और अहंकारी हो गया है । उनको इस ऊंचाई तक पहुंचाने में किन-किन लोगों ने कब-कब अपना सहयोग और योगदान दिया , उस सब को भुलाकर उल्टे यह उन दलों की कब्र खोदने में लगा है । यह भी देखने वाली बात है कि आर्य समाज और हिंदू महासभा की संपत्तियों को अपने कब्जे में लेकर संघ ने इन संगठनों को कमजोर करने का कार्य भी किया है। 
साथ ही विचारधारा के आधार पर आर्य समाज को यह केवल राष्ट्र के नाम पर भ्रमित कर अपने साथ लगाना चाहता है , परंतु यह भी ध्यान रखने लायक बात है कि आर्य समाज की विचारधारा को यह अपनाकर आगे बढ़ना नहीं चाहता । हेडगेवार के बाद ही जिन लोगों का वर्चस्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर हुआ उन्होंने धीरे धीरे आर्य समाज को निगलने का कार्य आरंभ कर दिया । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने यही कार्य हिंदू महासभा के साथ भी किया है ।
आज आर्य समाज को चिंतन करने की आवश्यकता है । माना कि राष्ट्रवाद के नाम पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को समर्थन दिया जा सकता है , परंतु अपनी विचारधारा का क्या होगा ? भारत की मौलिक वैदिक संस्कृति और उसकी विचारधारा का उद्धार करना आर्य समाज का उद्देश्य है , परंतु उसके साधनों में और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साधनों और विचारधारा में मौलिक अंतर भी है । आर्य समाज को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि देश ,काल , परिस्थिति के अनुसार आर्य समाज स्वयं ही आरएसएस के साथ न लगे बल्कि आर्य समाज को चाहिए कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी अपने साथ लगाए । उसके लिए मजबूत नेतृत्व की आवश्यकता है । जो अभी आर्य समाज के पास नहीं है। यही कारण है कि नेतृत्वविहीन आर्य समाज को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ धीरे-धीरे निगल रहा है । नेतृत्वविहीनता की यही स्थिति हिंदू महासभा की भी है। इसलिए उसे भी राष्ट्रीय सेवक संघ अपना भोजन बना रहा है । आरएसएस की यह कार्य शैली भी है कि यह अपने विरोधियों को धीरे धीरे निगलता है । कितना दुखद तथ्य है कि जिन्होंने कभी पैदा किया था उन संगठनों को ही राष्ट्रीय स्वयं संघ अपना विरोधी मानकर निगल रहा है ,और जो निगले जा रहे हैं , वह शोर भी नहीं कर रहे ।

1 COMMENT

  1. प्रिय राकेश जी जब आप कहते हैं कि ==>”जो निगले जा रहे हैं , वह शोर भी नहीं कर रहे ।” तो इस प्रक्रिया को किस विधि ठीक किया जाए? संघ में प्रायः कार्य करनेवाला, और समय लगानेवाला एवं निर्णय लेनेवाला अधिकारी मह्त्त्व पूर्ण होता है। उसे गलती यदि दिखाई ही नहीं जाएगी, तो, उसे ठीक किस प्रकार किया जाए?
    आपका आलेख मैं सदैव सहानुभूति पूर्वक ही पढता हूँ। संघका पर्याप्त अनुभव है।
    बिना रोए तो माताएँ दूध भी नहीं पिलाती।
    धन्यवाद।

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