आर्यसमाज ईश्वरीय ज्ञान वेद का प्रचारक संसार का अनोखा संगठन है

0
152

मनमोहन कुमार आर्य

               संसार में अनेक संगठन है जिनके अपने-अपने उद्देश्य व लक्ष्य हैं तथा जिसे पूरा करने के लिये वह कार्य व प्रचार करते हैं। सभी संगठन या तो धार्मिक होते हैं या सामाजिक। इनसे इतर भी अनेक विषयों को लेकर अनेक संगठन बनाये जाते हैं। देश की रक्षा करने के लिये भी सभी देशों की सरकारें अपने-अपने देशों में सेना बनाती व रखती हैं और उनका अपना एक प्रमुख उद्देश्य देश की अन्तः व बाह्य शत्रुओं से रक्षा करना होता है। प्रत्येक मनुष्य की आवश्यकता है कि उसे यह बताया जाये कि यह संसार कब व कैसे तथा किससे उत्पन्न हुआ? कौन इसे चला रहा है? कैसे व किससे इसकी प्रलय होती व पुनः यह क्यों व कैसे अस्तित्व में आता है? मनुष्य को अपने विषय में भी ज्ञान देना वाला कोई संगठन व संस्था होनी चाहिये जहां जाकर उसे अपने अतीत, वर्तमान तथा भविष्य के विषय में ज्ञान कराया जाता हो और सुख व दुःख के कारण सहित दुःखों पर विजय प्राप्त करने के उपाय भी बताये जाते हों। मनुष्य अपनी शारीरिक, आत्मिक तथा सामाजिक उन्नति कैसे कर सकता है, इसका ज्ञान व प्रशिक्षण देने वाले संगठन व संस्थायें भी समाज में होने चाहियें। जब हम इन सभी प्रश्नों पर विचार करते हैं तो हमें संसार में ऐसा कोई संगठन दृष्टिगोचर नहीं होता जो इन सब अपेक्षाओं की पूर्ति करता हो। जितने भी धार्मिक व सामाजिक संगठन हैं, वह मनुष्यों को सब विषयों का ज्ञान देने में अपूर्ण व असमर्थ हैं। इसका कारण यह है कि वह वैदिक परम्पराओं से दूर हैं तथा उनमें से कुछ तो वैदिक सत्य ज्ञान के द्वेषी वा विरोधी भी हैं। वह सत्य ज्ञान वेद से लाभ उठाना ही नहीं चाहते और आज के आधुनिक युग में भी अपनी-अपनी मध्यकालीन अविद्या की बातों को ही स्वीकार करते हैं व अन्यों को भी अपने ही मत में येन केन प्रकारेण, अविद्या, छल, बल व लोभ आदि से प्रविष्ट व परिवर्तित करना चाहते हैं व कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में हमें विश्व स्तर पर केवल और केवल आर्यसमाज ही ऐसा संगठन दृष्टिगोचर होता है जो मनुष्य जीवन विषयक आवश्यक ज्ञान से भलीभाति पूर्ण है और वह अपने स्थापना काल से सभी मनुष्यों की विद्या, सृष्टि के उपलब्ध इतिहास व संस्कृति सहित मनुष्यों जीवन की सभी शंकाओं का निवारण करने के साथ उनके लिये दुःखों को दूर करते हुए भविष्य में सुखदायी जीवन प्रदान करने की योजना प्रस्तुत करता तथा उसे क्रियात्मक रूप में करके भी दिखाता है।

               मनुष्य के जीवन की स्वाभाविक जिज्ञासायें वा प्रश्न हैं कि वह कौन है? उसका स्वरूप कैसा है? वह इस संसार में कहां से आया है? उसका यहां आने का प्रयोजन क्या है और उस प्रयोजन की पूर्ति के साधन उपाय क्या-क्या हैं? यह सृष्टि कब किससे बनी? इस सृष्टि का निमित्त और उपादान कारण क्या हैं? उन कारणों को जानने के साधन क्या हैं और उन्हें जानकर मनुष्य को क्या लाभ होते हैं? यह भी प्रश्न होता है कि क्या हम अपने जीवन के सभी दुःखों से मुक्त हो सकते हैं और पूर्ण सुख व आनन्द की अवस्था को प्राप्त हो सकते हैं? इन सभी प्रश्नों सहित अनेकानेक आवश्यक प्रश्नों के उत्तर भी हमें वेद, वैदिक साहित्य तथा आर्यसमाज के विद्वानों व ऋषि दयानन्द रचित साहित्य सत्यार्थप्रकाश, ऋषि जीवन चरित्र, ऋषि व आर्य विद्वानों के वेदभाष्य आदि विस्तृत साहित्य का अध्ययन करने से मिल जाते हैं। इसी कारण से आर्यसमाज महाभारत के बाद का विश्व का एक अपूर्व एवं अद्वितीय संगठन है जिसकी आवश्यकता प्रत्येक मनुष्य को है। आर्यसमाज के पास उपलब्ध वेदों के ज्ञान को प्राप्त कर सब मनुष्य निभ्र्रान्त ज्ञान की अवस्था को प्राप्त होकर सबका लौकिक एवं पारलौकिक दृष्टि से कल्याण होता है। हम चाहते हैं कि इस लेख में ऐसे कुछ प्रमुख विषयों पर विचार करें।

               आर्यसमाज की स्थापना असत्य को दूर करने तथा सत्य मान्यताओं के प्रचार के लिये ऋषि दयानन्द जी द्वारा मुम्बई में 10 अप्रैल, 1875 को थी। मनुष्य को सत्य ज्ञान आदि काल में परमात्मा से वेदों के माध्यम से प्राप्त हुआ था। वेद का अध्ययन करने पर इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वेद की सभी मान्यतायें सृष्टि क्रम ज्ञान विज्ञान के अनुकूल होने से सर्वथा सत्य है। सभी मनुष्यों संसार को ईश्वर के अस्तित्व का बोध भी सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा प्रदत्त वेद ज्ञान से हुआ। वेदों में ईश्वर के सत्यस्वरूप पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। वेदज्ञान अपने आप में पूर्ण हैं। वेद ज्ञान को दूसरे मनुष्यों को समझाने के लिये ही ऋषियों ने वेद की व्याख्याओं के ग्रन्थ रचें हैं जो वैदिक साहित्य के नाम से जाने जाते हैं। सभी ग्रन्थ वेद के किसी विषय की व्याख्या कर उसे पाठक को समझाते व सन्तुष्ट करते हैं। उपनिषदों तथा दर्शनों का अध्ययन करने पर मनुष्य ईश्वर व सृष्टि विषयक ज्ञान को प्रायः कर ज्ञान की पूर्णता का अनुभव करता है। इन ग्रन्थों में अपने अपने विषय के मौलिक सिद्धान्तों की तर्कपूर्ण व्याख्यायें प्राप्त होती हैं। इस ज्ञान के आधार पर पाठक मनुष्य की बुद्धि शुद्ध हो जाती है और वह सभी विषयों पर चिन्तन व मनन कर उन्हें प्राप्त होता है। हमारे सभी ऋषि ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति विषयक ज्ञान से सम्पन्न थे। वह सभी निभ्र्रम थे। इसी लिये उन्हें आप्त पुरुष कहा जाता है। उन्होंने जो लिखा है, वह सब वेदानुकूल होने पर सत्य ही होता है। वेदों से ईश्वर, जीवात्मा तथा सृष्टि विषयक विस्तृत ज्ञान प्राप्त होता है। वेदानुकूल योगदर्शन से मनुष्य योग के अभ्यास, ईश्वर के ध्यान व समाधि से सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी परमात्मा का साक्षात्कार कर लेता है। ईश्वर के साक्षात्कार से व्यक्ति के समक्ष ज्ञान विषयक सभी ग्रन्थियां खुल जाती हैं। योगी का आत्मा पूर्ण शुद्ध होता है और वह संसार के कल्याण वा परोपकार में ही अपना जीवन अर्पित करता है। ऐसा ही जीवन ऋषि दयानन्द जी का था। उन्होंने विलुप्त वेद और वेदज्ञान को हमें प्रदान किया है। मनुष्य जीवन की सभी रहस्यों का अनावरण व शंकाओं का समाधान भी उन्होंने अपने मौखिक प्रवचनों सहित अपने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, संस्कारविधि, ऋग्वेद-यजुर्वेद भाष्य आदि के द्वारा प्रदान किया है।

               ऋषि दयानन्द प्रदत्त वैदिक साहित्य को पढ़कर ही मनुष्य की प्रायः सभी शंकाओं का निवारण हो जाता है। ऋषि दयानन्द के सभी ग्रन्थ साम्प्रदायिक ग्रन्थ होकर शुद्ध सत्य ज्ञान पर आधारित ग्रन्थ हैं जिन्हें अपनाने से मनुष्य मात्र को लाभ कल्याण प्राप्त होता है। यही कारण है कि वेद प्रचारक आर्यसमाज वेदों ऋषि दयानन्द का प्रतिनिधि संगठन है जिसे राग-द्वेष से रहित उच्च कोटि के बुद्धिमान मनीषियों द्वारा अपनाकर वेदों का आचरण प्रचार प्रसार किया जाता है। वैदिक विचारधारा व सिद्धान्तों का अध्ययन करने पर वैदिक धर्म ही संसार के सभी मनुष्यों के लिए उत्तम सुखकारक एवं उन्नति प्रदान कराने वाला मत सिद्ध होता है। अतः सभी मनुष्यों को वेद एवं वैदिक साहित्य सहित ऋषि दयानन्द के सभी ग्रन्थों का विशेष रूप से अध्ययन करना चाहिये। ऐसा करके उनका वर्तमान जीवन व इहलोक तो सुधरेगा ही साथ ही परजन्म में भी उनकी उन्नति वा मोक्ष की प्राप्ति होगी। यही निष्कर्ष वेद व वैदिक साहित्य के सभी  निष्पक्ष अध्येता व मनीषियों के हैं। इसी कारण से अतीत में सभी मतों व विचारधाराओं के विद्वान लोगों ने वैदिक मत को अपनाया है। सृष्टि के आरम्भ काल से महाभारत युद्ध के समय तक देश में वेद व ऋषि परम्परा के विद्यमान होने के कारण 1.96 अरब वर्षों तक संसार में अज्ञान व अविद्या से युक्त कोई मत अस्तित्व में नहीं आ सका। संसार के सभी लोग महाभारत के समय तक केवल वेद मत व धर्म को ही स्वीकार करते व पालन करते थे। मनुस्मृति के श्लोक एतद्देशप्रसूतस्य सकाशाद् अग्रजन्मः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेन् पृथिव्यां सर्व मानवाः’ (मनुस्मृति 2/20) से इसकी पुष्टि होती है जिसमें कहा गया है कि इस आर्यावर्त देश में उत्पन्न हुए विद्वानों से भूगोल के सभी मनुष्य आदि अपने अपने योग्य विद्या और चरित्रों की शिक्षा ग्रहण करने सहित विद्याभ्यास करें। यह शब्द महाराज मनु ने तब लिखे थे जब वह पूरे देश के चक्रवर्ती राजा थे और ज्ञान व विद्या में भी उनके समान कोई नहीं था। वैदिक साहित्य के अध्ययन से विदित होता है कि संसार में वेदों से विद्या व प्रेरणा ग्रहण करने का क्रम सृष्टि की आदि से महाभारत काल तक चला है।

               आर्यसमाज ने समस्त वैदिक ज्ञान-विज्ञान तथा परम्पराओं को अपने भीतर समेटा हुआ है। वह अपने किसी हानि लाभ के लिये नहीं अपितु विश्व के कल्याण के लिए सर्वश्रेष्ठ वैदिक विचारधारा सिद्धान्तों का प्रचार करता है। वेदों की मान्यता है कि संसार में ईश्वर, जीव प्रकृति तीन अनादि, नित्य अविनाशी पदार्थ हैं। ईश्वर जीव चेतन सत्तायें हैं। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक तथा सर्वान्तर्यामी सत्ता है। जीव अनेक अगणित हैं तथा यह अल्प परिणाम, अल्पज्ञ, ससीम जन्म-मरण धर्मा सत्ता है। प्रकृति जड़ है तथा तीन गुणों सत्व, रजः व तम गुणों वाली है। इस प्रकृति से ही प्रकृति के अणु-परमाणु व महतत्व, अहंकार, पांच तन्मात्रायें, दश इन्द्रियां, मन, बुद्धि आदि सहित पंच महाभूतों का निर्माण परमात्मा ने किया है और इन्हीं से यह समस्त दृश्यमान जगत वा ब्रह्माण्ड बना है। यह सृष्टि परमात्मा ने अपनी अनादि शाश्वत प्रजा जीवों के सुख के लिये बनाई है। ईश्वर अनादिकाल से जीवों के कर्मों के अनुसार सुख व दुःख देता आ रहा है। वेदज्ञान प्राप्त कर तथा वेदानुसार समस्त कर्मों को करने से मनुष्य की आत्मा की मुक्ति होती है जिसमें वह सभी दुःखों से मुक्त होकर ईश्वर में अमृत व असीम आनन्द से युक्त सुखों को प्राप्त करता है। जीवात्मा का उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करना है। यह उसे ईश्वर को जानकर उसकी वैदिक विधि से उपासना, अग्निहोत्र देवयज्ञ आदि पंचमहायज्ञों सहित शुद्ध आचरण एवं परोपकारमय जीवन व्यतीत करने से प्राप्त होते हैं। वेदों से यह भी ज्ञान होता है कि इस सृष्टि का पालन करने वाली एक मात्र सत्ता केवल परमात्मा ही है। परमात्मा हमारे माता-पिता के समान हैं और वही जन्म जन्मान्तरों में हमारे मित्र व सखा रहे हैं व आगे भी रहेंगे। परमात्मा से हमारा साथ कभी नहीं छूटेगा। हमारे इस जन्म के सभी सम्बन्ध पूर्वजन्मों में नहीं थे और न आगे रहने वाले हैं। वह बदलते रहेंगे परन्तु ईश्वर से हमारा नित्य, व्याप्य-व्यापक, उपास्य-उपासक, स्वामी-सेवक, पिता-पुत्र, माता-पुत्र, आचार्य-शिष्य, राजा-प्रजा आदि का है। अतः हमें इस संबंध को अधिक गहन व निकट बनाने के लिये ईश्वर की नित्यप्रति स्तुति, प्रार्थना व उपासना सहित वेदविहित सभी शुभकर्मों को करते हुए जीवन व्यतीत करना चाहिये। आर्यसमाज में आकर व उसके साहित्य का अध्ययन कर मनुष्य सच्चा व श्रेष्ठ मानव बनता है। यही हमारे आकर्षण का कारण है। वेद की शिक्षाओं से हम इस जीवन में सुख पा रहे हैं और मृत्यु के बाद भी सभी वेदानुयायियों को सुख व उन्नति की प्राप्ति होगी। हम यह भी अनुभव करते हैं कि विश्व में पूर्ण सुख-शान्ति एवं कल्याण तभी उत्पन्न हो सकता है कि जब संसार के सभी मनुष्य ईश्वर प्रदत्त सत्य सिद्धान्तों के पोषक वेदों का धारण व पालन करें। ओ३म् शम्।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

15,446 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress