आर्यसमाज धामावाला देहरादून का रविवारीय सत्संग- ‘‘यदि अपनी रक्षा चाहते हैं तो वैदिक विधि से ईश्वर की स्तुति करें: आचार्य सोमदेव,अजमेर’’

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मनमोहन कुमार आर्य,

आर्यसमाज धामवाला, देहरादून ने 5 दिवसीय वैदिक प्रचार का कार्यक्रम धूमधाम से मनाया जिसका आज समापन आर्यसमाज मन्दिर में हुआ। पांच दिवसीय कार्यक्रम में श्री श्रद्धानन्द बाल वनिता आश्रम सहित रामप्यारी आर्य कन्या पाठशाला में यज्ञ एवं सत्संग का आयोजन किया गया। इसके साथ अन्य-अन्य तिथियों व समय पर श्रीमती उमा आर्या जी, श्रीमती स्नेहलता खट्टर जी, श्रीमती शुभरानी जी, श्रीमती वीरा गोयल, श्रीमती रीता जी एवं श्रीमती सीमा महेन्द्रु जी के निवास स्थानों पर यज्ञ एवं सत्संग का आयोजन किया गया। इन सभी आयोजनों में अजमेर के आर्य विद्वान श्री सोमदेव जी के प्रवचन तथा चण्डीगढ़ से पधारे भजनोपदेशक श्री उमेन्द्र आर्य जी के भजन हुए। सभी स्थानों पर यज्ञ का सम्पादन आर्यसमाज धामावाला के पुरोहित आर्य विद्वान पं. विद्यापति शास्त्री जी ने कराया। आज रविवार 30 सितम्बर, 2018 को प्रातः 8.00 बजे से आर्यसमाज, धामावाला में यज्ञ हुआ जिसके यजमान श्री नवीन भट्ट जी एवं श्री धीरेन्द्र मोहन सचदेव जी सपत्नीक थे। यज्ञ के बाद आर्यसमाज के सभागार में श्री उपेन्द्र आर्य के भजन हुए। श्री उपेन्द्र जी ने प्रवचन रूप में भी ऋग्वेद के मन्त्र 10/114/3 की चर्चा कर कहा कि यज्ञ की प्रक्रिया हमें वेदों ने दी है। श्री उपेन्द्र आर्य जी ने आगे कहा कि मन्त्र में एक ऐसी सुन्दर युवती का वर्णन है जिसकी चार चोटियां हैं। उन्होंने कहा कि यज्ञवेदी ही सुन्दर स्त्री है। यज्ञ वेदी के चार कोने उसकी चार चोटियां हैं। यज्ञ वेदी भी युवती के सुन्दर मुख के समान सुन्दर व भव्य है। उन्होंने कहा कि यज्ञ सजाने का निर्देश ऋषि दयानन्द जी ने किया है। मन्त्र में यह भी बताया गया है कि उस युवती ने अपने शरीर पर घी चुपड़ा हुआ है जहां दो सुन्दर पक्षी घी की वर्षा कर रहे हैं। श्री उपेन्द्र आर्य ने कहा कि यज्ञ के यजमान पति पत्नी ही वह दो पक्षी हैं जो घृत की आहुतियां देकर वर्षा कर रहे हैं। मन्त्र यह भी बताता है यज्ञ से सूर्य, अग्नि, वायु एवं जल आदि देवता अपना अपना भाग ले रहे हैं। विद्वान वक्ता ने कहा कि परोपकार के सारे काम यज्ञ के अन्तर्गत आते हैं। श्री उपेन्द्र आर्य जी द्वारा गाये प्रथम भजन का प्रथम वाक्य था ‘है कण कण में वास प्रभु का’। उन्होंने एक अन्य भजन भी सुनाया जिसके शब्द थे ‘घर जला भाई का भाई से बुझाया न गया, कौम पे आये जो दुःख दर्द उन्हें उठाया न गया’। श्री उपेन्द्र जी का तीसरा भजन था ‘जमाने को सच्चा सखा मिल गया, दयानन्द सा देवता मिल गया।’ इसके बाद बालक रजत ने सामूहिक प्रार्थना कराई। उन्होंने पहले एक भजन की कुछ पंक्तियां गाईं। उसके बाद गायत्री मन्त्र का हिन्दी गीत सहित पाठ किया। इसके बाद उन्होंने ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव मन्त्र का पाठ किया और आर्यभाषा में ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा कि हे ईश्वर आप हमारे सभी दुर्गुण व दुव्र्यसनों को दूर कर हमें अच्छे गुण, कर्म व स्वभाव प्रदान कीजिये। आप हमें उदार बनाईये। हम सत्य मार्ग पर चलकर आगे बढ़े। हम विद्यारूपी प्रकाश की ओर बढ़े। हम आपकी कृपा से आपकी भक्ति के रस का अनुभव व पान कर सकें। इसके बाद अजमेर से पधारे ऋषि भक्त आर्य विद्वान जिनमें अपनी सरस मधुर वाणी में श्रोताओं को मन्त्र मुग्ध कर देने की क्षमता है, ऐसे आचार्य सोमदेव जी ने अपना व्याख्यान आरम्भ किया।

अपने सम्बोधन के आरम्भ में आचार्य सोमदेव जी ने गुरुकुल कांगड़ी से आचार्य रामदेव जी के सम्पादन में प्रकाशित होने वाली वैदिक मैगजीन पत्रिका की चर्चा कर बताया कि एक बार इसका ऋषि दयानन्द विशेषांक निकाला गया। उन दिनों योगी अरविन्द जी की देश में प्रसिद्धि हो रही थी। उनसे ऋषि दयानन्द जी पर अंग्रेजी भाषा में लिखा एक लम्बा लेख प्राप्त हुआ। उस पूरे लेख को आचार्य रामदेव जी ने पढ़ा। उस पूरे लेख में स्वामी दयानन्द के नाम से पूर्व कोई विशेषण न लगाकर सर्वत्र दयानन्द दयानन्द ही लिखा गया था। आचार्य जी ने इसकी चर्चा गुरुकुल के आचार्य अभयदेव जी जिन्होंने वैदिक विनय पुस्तक लिखी है, उनसे की और कहा कि वह योगी अरविन्द जी से पता करें कि उन्होंने ऋषि दयानन्द के नाम से पूर्व ऋषि, स्वामी आदि कोई विशेषण व उपाधि का प्रयोग क्यों नहीं किया है? उन दिनों योगी अरविन्द जी मौन रहा करते थे। आचार्य अभयदेव जी ने उन्हें पत्र लिखा। उसका उनसे उत्तर आया। पत्र में योगी अरविन्द जी ने कहा कि बहुत से लोग अपने नामों के आगे व पीछे अनेक उपाधियां, विशेषण और अलंकारिक शब्दों का प्रयोग करते हैं। स्वामी दयानन्द उनसे कही अधिक उच्च व श्रेष्ठ विचारों वाले एवं विद्या के धनी हैं। इसलिये उन्हें दयानन्द जी के नाम के साथ प्रचलित ऋषि, महर्षि व सरस्वती आदि कोई अलंकार उपयुक्त नहीं लगा। इस कारण उन्होंने दयानन्द जी को दयानन्द ही लिखा है और कहा कि दयानन्द तो दयानन्द थे। कोई उनके समान नहीं हुआ। उन्होंने यह भी कहा कि यदि उनके समय तक हुए सभी विद्वानों को पर्वतों की चोटियां मान लिया जाये तो ऋषि दयानन्द उन सभी पर्वतों में सबसे ऊंचे पर्वत की सबसे ऊंची चोटी थे।

आचार्य सोमदेव जी ने पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी की पुस्तक ‘मेरी दृष्टि में स्वामी दयानन्द और उनका कार्य’ की चर्चा की। उन्होंने कहा कि पंडित जी ने लिखा है कि ‘हमने ऋषि दयानन्द का वह स्वरूप जनता के सामने नहीं रखा जो रखना चाहिये था।’ आचार्य जी ने सन् 1925 में मथुरा में आयोजित ऋषि दयानन्द जन्म शताब्दी समारोह की चर्चा कर कहा कि उस आयोजन में लाखों महिलायें व पुरुष आये थे। उन दिनों लोग ऋषि दयानन्द को किस दृष्टि से देखते थे, इसके दो उदाहरण भजनों के रूप में प्रस्तुत किये। उन्होंने कहा कि शोभायात्रा में जो प्रमुख भजन गाये गये थे वह थे ‘वेदों का डंका आलम में बजवा दिया ऋषि दयानन्द ने’ और दूसरा ‘वेदों वालियां दयानन्द तेरे आवन दी लोड़’। विद्वान वक्ता ने कहा कि लोग ऋषि दयानन्द को वेदोद्धारक व वेदों वाले महान पुरुष के रूप में देखते थे। ऋषि दयानन्द वेदों के सिद्धान्तों को लेकर चल रहे थे। आचार्य सोमदेव जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द ने मानवता व देश हित के जो बड़े बड़े काम किये वह बिना वेदों को आधार बनाये सम्भव नहीं थे।

आचार्य सोमदेव जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द जी के जीवन में भय नाम की चीज नहीं थी। उन्होंने ऋषि जीवन की एक घटना सुनाते हुए कहा कि एक बार वह एक जंगल में गये। वहां एक हिंसक प्राणी उनके सामने आ गया। उस हिंसक प्राणी के सामने आने पर भी उनमें भय दिखाई नहीं दिया। इसका कारण था कि ऋषि दयानन्द को परमात्मा और वेद हस्तगत हो गये थे। ऐसा व्यक्ति जीवन में कभी भय नहीं खाता। आचार्य जी ने डा. धर्मवीर जी के जीवन की एक घटना सुनाई और कहा कि जिस व्यक्ति के पास ईश्वर और वेद होता है वह जीवन में कभी मार नहीं खाता। आचार्य जी ने श्रोताओं से पूछा कि ईश्वर की स्तुति कौन कर सकता है? इसका उत्तर देते हुए उन्होंने एक वेद मन्त्र का उच्चारण कर कहा कि पांच व्यक्ति कर सकते हैं। यह पांचों गुण महर्षि दयानन्द के जीवन में घटित होते हैं। पहला गुण उन्होंने अवक्ष्य को बताया। उन्होंने कहा कि अव धातु का मुख्य अर्थ रक्षण है। आचार्य जी ने कहा कि जो अपनी रक्षा चाहता है वह ईश्वर की स्तुति करता है। हम मकान सुरक्षित रहने के लिये बनाते हैं परन्तु क्या हम उसमें सुरक्षित होते हैं? आचार्य जी ने सन् 2001 के कच्छ के भूकम्प की चर्चा की और कहा कि 1 मिनट में ही बड़े बड़े भवन ढह गये थे जिससे उन भवनों में रहने वाले लोग सुरक्षित न रह सके। उन्होंने पूछा कि जिन राजाओं ने अपने किले की दीवारें 10 से 15 फीट चैड़ी बनवाईं, क्या वह सुरक्षित रहे? उन्होंने कहा कि यदि हम एक रक्षक रख लें तो क्या वह हमारी रक्षा कर सकेगा? आचार्य जी ने कहा कि देश कि प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी को उन्हीं के रक्षकों ने मार दिया था।

ऋषि भक्त विद्वान आचार्य सोमदेव जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द अपनी बहिन की मृत्यु देखकर भयभीत हो गये थे। वह स्वयं को अरक्षित अनुभव करने लगे थे। उनके चाचा धार्मिक व विद्वान थे। वह बालक दयानन्द को प्यार करते थे। मृत्यु से पूर्व वह अपने चाचा के पास गये तो ऋषि के चाचा की आंखों से अश्रुधारा बह निकली। ऋषि दयानन्द को भी रोना आया। उनकी मृत्यु होने पर ऋषि भी रोये जिससे उनकी आंखे सूज गईं। इस घटना से भयभीत ऋषि दयानन्द अपनी रक्षा के उपाय खोजने लगे। अन्त में उन्हें पता चला कि ईश्वर ही रक्षा कर सकते हैं। सुरक्षित वह मनुष्य होता है जो ईश्वर के निकट रहता है। आचार्य जी ने एक कथा सुनाते हुए कहा कि एक महात्मा एक स्थान पर 3 महीने से कथा कर रहे थे। तीन महीनों में भी उनके भक्तों का उत्साह कम नहीं हुआ। एक दिन महात्मा जी के मन में विचार आया कि आज हम वाणी से नहीं अपितु क्रियाओं से प्रवचन करेंगे। विद्वान आचार्य जी ने कहा कि आर्यजगत के गौरव पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी लम्बे प्रवचन नहीं करते थे परन्तु उनकी विद्वता की छाप पूरे देश व आर्यजगत पर थी। आचार्य जी ने महात्मा बलदेव जी की विद्वता की चर्चा कर उनकी भी प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि आचार्य बलदेव जी के तप से ही ऋषि व आर्यसमाज को गालियां देने वाला रामपाल नाम का व्यक्ति आज हिसार की जेल में है। पूर्व कथा का उल्लेख कर आचार्य जी ने कहा कि वह महात्मा जी संकल्प लेकर मंच पर आये। महात्मा जी बहुत देर तक चुपचाप मंच पर बैठे रहे। तब एक भक्त ने महात्मा जी को कुछ बोलने का निवेदन किया। महात्मा जी का मौन न टूटा। कुछ देर बाद एक दूसरे भक्त ने उनसे प्रवचन करने के लिये निवेदन किया। पुनः मौन रहने के कुछ देर बाद जनता में किसी ने कहा कि कहीं यह पागल तो नहीं हो गया। आचार्य जी ने कहा कि सन्त के पास एक पत्थर था जिसे वह हाथ में उछालने लगे। श्रोता महात्मा जी के विषय में अनेक प्रकार की बातें करते रहे। इसके बाद महात्मा जी मंच पर बैठे अपने शिष्य से बोले, नन्दलाल एक बाल्टी में पानी ले आओ। सन्त ने उस पत्थर को पानी में छोड़ा तो वह पानी में डूब गया। सन्त ने श्रोताओं से पूछा कि यह पत्थर पानी में क्यों डूबा? उन्हें किसी से कोई उत्तर न मिला। उन्होंने फिर पूछा कि क्या कोई बता सकता है कि पत्थर पानी में क्यों डूबा? उत्तर न मिलने पर उन्होंने अपने शिष्य नन्दलाल से पूछा कि यह पत्थर पानी में क्यों डूबा? नन्दलाल ने कहा कि महाराज यह तो छोटी सी बात है। जब तक यह पत्थर आपके हाथ में था तब यह सुरक्षित था। यह आपके हाथ से छूटा तो डूब गया। यह उत्तर सुनकर सन्त बोले कि यही तो रहस्य है। जो जीवात्मा परमेश्वर की गोद में रहती है वह सुरक्षित रहती है। जब वह ईश्वर से दूर हो जाती है तो डूब जाती है। आचार्य जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द को ईश्वर पर विश्वास हो गया था। इसलिये वह सुरक्षित थे।

आचार्य जी ने कहा कि दूसरा गुण कणवासव है जिसका अर्थ है बुद्धिमान होना। परमात्मा की उपासना बुद्धिमान ही कर सकते हैं। मूर्ख व्यक्ति तो अन्धविश्वासों मंेे फंसा करते हैं। उन्होेंने श्रोताओं से पूछा कि मन्दिर में जाने वाले भक्ति करते हैं या डिमाण्ड करते हैं? आचार्य जी ने नवरात्रों में माता की पूजा की चर्चा की और कहा कि एक माता पूजा का गीत गा रही थी ‘मां मुरादें पूरी कर दे हलवा बांटूगीं।’ उन्होंने कहा कि यह भक्ति नहीं डिमाण्ड है। माता जी से लोगों ने पूछा कि डिमाण्ड क्या हैं? इसकीएक लिस्ट बनी। उस लिस्ट में 30 करोड़ रुपयों का सामान था। आचार्य जी ने कहा कि हमारे भक्तों को पाव भर हलवे में 30 करोड़ चाहियें। आचार्य जी ने निष्कर्ष रूप में कहा कि समझदार लोग ही ईश्वर की स्तुति करते हैं, मूर्ख नहीं कर सकते। नादान लोग तो ईश्वर के स्वरूप को बिगाड़ देते हैं।

आचार्य जी ने कहा कि आजकल किसी से पूछो कि परमात्मा कहां है, तो लोग कहते हैं कि वह ऊपर है। प्रायः लोग कहा करते हैं कि ऊपर वाला देख रहा है। विद्वान वक्ता ने महात्मा प्रभु आश्रित जी की चर्चा की। उनका भक्त हृदय था। उन्होंने एक पुस्तक लिखी है ‘डरो वह बड़ा जबरदस्त है’। आचार्य जी ने पूछा कि परमात्मा ऊपर है या सर्वत्र व्यापक है? उन्होंने कहा कि हमारी पृथिवी गोल है। इस गोलाकार पृथिवी की सब तरफ लोग रहते हैं। भारत ऊपर की ओर है और अमेरिका नीचे की ओर है। भारत का ऊपर तथा अमेरिका का ऊपर दोनों परस्पर विपरीत दिशाओं में हैं। आचार्य जी ने प्रश्न किया कि परमात्मा भारत के ऊपर की ओर है या अमेरिका के ऊपर की ओर? दोनों परस्पर विपरीत दिशायें हैं। उन्होंने कहा कि मत-मतान्तरों की यह बातें असत्य हैं। वेद का परमात्मा सर्वव्यापक होने से सभी स्थानों पर है। वह ऊपर व नीचे, दायें व बायें सभी दिशाओं में समान रूप से विद्यमान है। यही तर्कसंगत एवं स्वीकार्य उत्तर है। आचार्य जी ने कहा विद्वान परमात्मा को कण-2 में देखते हैं। उन्होंने कहा कि हम परमात्मा की कृति वेद व सृष्टि को कम तथा अपनी कृति को अधिक देखते हैं।

आचार्य जी ने कहा कि वेदमंत्र में तीसरा गुण घास या कुशा को बताया है जिसे दर्ब भी कहते हैं। कुशा के आसनों का प्रयोग यज्ञ में किया जाता है। कुशा का आसन पवित्र माना जाता है। कुशा का आसन पवित्र होने के कारण यज्ञ के पात्र इसी पर रखे जाते हैं। आचार्य जी ने केरल के एक याग की चर्चा की जिस पर डेढ़ या दो करोड़ का व्यय हुआ। आचार्य जी ने कुरुक्षेत्र के छपरा गुरुकुल में आचार्य वेदव्रत जी द्वारा कराये गये यज्ञ का भी उल्लेख किया जिसमें लगभग 25 से 40 लाख रुपये व्यय हुए थे। आचार्य जी ने कहा कि एक समय के यज्ञ में डेढ़ से दो किलो घृत ही व्यय होता है। इसके बाद आचार्य जी ने मंझावली में स्वामी चित्तेश्वरानन्द सरस्वती द्वारा कराये गये लक्ष आहुति वाले यज्ञ की चर्चा की और कहा कि इसमें कई क्विंटल घृत लगा था। उन्होंने कहा कि इस यज्ञ में भी लगभग 1 करोड़ रुपये व्यय हुआ होगा। आचार्य जी ने बताया कि यज्ञ व याग में अन्तर होता है, एक में बैठ कर आहुति देते हैं तो दूसरे में खड़े होकर। अन्य अन्तर भी आचार्य जी ने बताये। विद्वान आचार्य सोमदेव जी ने कहा कि जिसने अपने अन्तःकरण को पवित्र कर लिया है वही ईश्वर की स्तुति करता है। आचार्य जी ने कंस और रावण का भी उल्लेख किया और कहा कि लोग कहते हैं कि यह दोनों स्वर्ग में गये क्योंकि इन्हें भगवान ने मारा था। आचार्य सोमदेव जी ने इस मान्यता का भी प्रतिवाद किया और इसे असत्य व अतार्किक बताया। ऋषि दयानन्द के अन्तःकरण को उन्होंने पवित्र बताया और इसके उदाहरण भी दिये। उन्होंने कहा कि ऋषि दयानन्द मनुष्य सहित प्राणी मात्र की उन्नति चाहते थे। आचार्य जी ने ऋषि दयानन्द और उनके सिद्धान्तों को पकड़ने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि ऐसा करने पर वेद पकड़ में आ जायेंगे। जिसके हाथ वेद के सिद्धान्त लग गये वह जीवन में कभी मार नहीं खायेगा। समय पूरा हो चुका था अतः आचार्य जी ने अपने सम्बोधन को विराम दिया।

युवा, ऊर्जावान व वैदिक सिद्धान्तों को समर्पित आर्यसमाज के मंत्री श्री नवीन भट्ट जी ने आचार्य जी के भजन व श्री उपेन्द्र आर्य जी के भजनों की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की। समाज के यशस्वी प्रधान डाॅ. महेश कुमार शर्मा जी ने आगामी सप्ताह पड़ने वाले जन्म दिवसों से संबंधित सभी सदस्यों के नाम सुनाकर उन्हें शुभकामनायें एवं बधाई दी। वैदिक सिद्धान्तों एवं ऋषि जीवन के विद्वान प्रधान जी ने कहा कि ऋषि के जीवन काल में हरिद्वार में 5 कुम्भ पड़े। ऋषि बाद के तीन कुम्भ मेलों ,सन् 1845, 1867 और 1879, में सम्मिलित हुए थे। उन्होंने कहा कि सन् 1879 के कुम्भ मेले में ही आर्यसमाज धामावाला की स्थापना का संयोग बना था। प्रधान जी ने ऋषि के छकड़े से हरिद्वार से देहरादून पधारने का भी उल्लेख किया। शान्ति पाठ के साथ सत्संग का समापन हुआ। इसके बाद सभी को प्रसाद वितरित किया गया जिसमें खीर, पूरी, पाव, छोले, कद्दू की सब्जी, रायता, जल व चाय आदि व्यंजन सम्मिलित हैं। आज समाज मन्दिर पूरा भर गया था। लोगों ने नीचे व कुर्सियों पर बैठ कर तथा खड़े होकर भी आचार्य जी के प्रवचन को सुना। बहुत दिनों बाद आर्यसमाज में वृहद जनसमूह के दर्शन हुए। अनेक आर्यसमाजों के लोग भी आज इस मुख्य आर्यसमाज में सत्संग सुनने पधारे थे।

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