“आर्यसमाज की स्थापना की पृष्ठभूमि एवं गुरुकुल स्थापना सहित इसके कुछ प्रमुख कार्य”

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मनमोहन कुमार आर्य

               सृष्टि के आरम्भ से महाभारत युद्ध पर्यन्त ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद के अनुयायी राजाओं का समूचे विश्व पर चक्रवर्ती राज्य रहा है। अनेक चक्रवर्ती राजाओं के नामों का उल्लेख महाभारत ग्रन्थ में आता है। संसार की अन्य सभी संस्कृतियों वा जीवन पद्धतियों का इतिहास महाभारत के बाद आरम्भ होता है। अपने इतिहास विषयक अल्प काल के कारण विदेशी व उनके अनुकर्ता विद्वान व मत-मतान्तरों के आचार्य आर्यों के 1.96 अरब वर्ष पुराने इतिहास को स्वीकार करने में संकोच करने सहित इसका विरोध भी करते हैं। अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिये उनका ऐसा करना आवश्यक लगता है। उनके अनुयायियों के पास ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज की युक्तियों का प्रतिवाद करने के लिये हेतु व युक्तियां नहीं हैं। वेद और आर्यों के इतिहास की जो अवधि आर्यसमाज मानता है वह कल्पित न होकर प्रमाणों पर आधारित है। इसकी गणना ऋषि दयानन्द व ज्योतिष आदि के ग्रन्थों व अनेक साक्ष्यों से प्रमाणित होती है। महाभारत युद्ध हुए ही पांच हजार वर्षों से अधिक समय व्यतीत हो चुका है। इसके प्रमाण में हमारे पास राजाओं की वंशावलियां हैं जिनके राज्यकाल की गणना करने से महाभारत युद्ध की अवधि पांच हजार वर्ष सिद्ध होती है। वर्तमान में कलियुग का 5245 वां संवत् वा वर्षचल रहा है।

               महाभारत युद्ध में आर्यावर्त के अनेक प्रमुख राजा व योद्धाओं सहित हमारे विद्वान व शिक्षक भी मारे गये थे। इस कारण महाभारत के बाद राज्य व्यवस्था समुचित रूप से नहीं चली। ऋषि जैमिनी पर ऋषि परम्परा बन्द होने सहित हमारे गुरुकुल आदि शिक्षण संस्थान संख्या व गुणवत्ता में न्यून होते गये थे। इसका परिणाम अंधविश्वासों का प्रचलन हुआ। यज्ञों में पशु हिंसा होनी आरम्भ हो गई थी। इसके विरोध में ही जैन व बौद्ध मत अस्तित्व में आये थे। बौद्ध व जैन मतों का प्रभाव बढ़ने पर लगभग 2500 वर्ष पूर्व स्वामी शंकराचार्य जी ने उन्हें चुनौती दी थी और जैन मत के आचार्यों से शास्त्रार्थ किया था जिसमें स्वामी शंकराचार्य जी विजयी हुए थे। इससे प्रमुख अवैदिक मत स्वामी शंकराचार्य के जीवन काल में अप्रचलित हो गये थे और वैदिक मत पुनः प्रचारित हुआ था। शंकराचार्य जी के समय व बाद में देश में अन्धविश्वासों में वृद्धि जारी रही। वेद विरोधियों व अज्ञानी लोगों ने समय समय पर वेद विरुद्ध 18 पुराणों की रचना कर अविद्या के प्रचार में योगदान किया। इनके आधार पर भी अनेक पुराणिक मत-मतान्तर उत्पन्न हुए और देश देशान्तर में अवैदिक मूर्तिपूजा, अवतारवाद की मान्यता, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, जन्मना जातिवाद आदि का आरम्भ व विस्तार हुआ। वेद का अध्ययन-अध्यापन, यज्ञ तथा दान करने व कराने वाले ब्राह्मणों ने अपने मुख्य कार्य को छोड़ कर राम, कृष्ण, शिव व विष्णु आदि की कल्पित मूर्तियां बनाकर मन्दिरों का निर्माण कराया और मूर्तिपूजा का आरम्भ हो गया। इन अवैदिक कृत्यों के द्वारा वेदों के विरुद्ध मान्यताओं का प्रचार कर वैदिक मत को निष्प्रभावी करने का प्रयत्न किया गया। इस कार्य में उन्हें आंशिक सफलता भी मिली। मूर्तिपूजा, फलित-ज्योतिष और जन्मना जातिवाद तथा आर्यों में असंगठन की भावना मान्यतायें ही मुख्यतः देश के पतन गुलामी का कारण रहीं। यदि महाभारत काल के बाद भी ऋषि परम्परा जारी रहती तो यह स्थिति शायद न आती।

               इन्हीं कारणों से भारत आठवीं शताब्दी में गुलाम होना आरम्भ हुआ और सन् 1947 तक देश आंशिक रूप से पराधीन रहा। इस काल अवधि में वेदों का ज्ञान लुप्त प्रायः हो गया। आठवीं शताब्दी से सन् 1947 तक देश में मुसलमानों तथा अंग्रेजों का शासन रहा जिन्होंने वैदिक धर्म को समाप्त करने सहित धर्मान्तरण द्वारा वैदिक सनातनधर्मियों की संख्या को जो उनके आने से पूर्व शत-प्रतिशत थी, उसे काफी कम कर दिया। आश्चर्य होता है कि ऐसी अवस्था में भी हिन्दू संगठित होकर अपने धर्म विरोधियों का मुकाबला करने के स्थान पर अज्ञान व अंधविश्वासों से ग्रस्त रहे। ऐसे घोर पतन के काल में सन् 1825 में गुजरात के मेारवी नगर के टंकारा ग्राम में आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द जी का जन्म हुआ था।

               ऋषि दयानन्द अभी चौदहवें वर्ष में चल रहे थे। इन दिनों सनातन वैदिक धर्म की स्थिति यह थी कि उनकी धर्म व ईश्वर विषयक शंकाओं का समाधान करने वाले पण्डित विद्यमान नहीं थे। यदि होते तो वह किशोर वा युवावस्था में अपने पितृ गृह का त्याग कर ईश्वर व सत्य सिद्धान्तों के अनुसंधान में न जाते। उन्होंने सन् 1846 में अपने पिता के गृह का त्याग किया था और सन् 1863 तक अपनी शंकाओं सहित योग एवं विद्या की प्राप्ति में उत्तराखण्ड के वन पर्वतों सहित देश के अनेक भागों में धार्मिक विद्वानों की शरण में पहुंचे थे। उनका विद्या प्राप्ति का मनोरथ मथुरा के स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से तीन वर्ष तक अध्ययन करने पर सिद्ध हुआ था। वह योग विद्या में निष्णात होने के साथ वेद एवं समस्त वैदिक साहित्य, सृष्टि व आर्य इतिहास, संगीत, आयुर्वेद आदि अनेकानेक विषयों में अपूर्व स्थिति को प्राप्त हुए थे। गुरु की प्रेरणा से देश व मानव जाति को सत्य ज्ञान से आप्लावित व भाव-विभोर करने के लिये उन्होंने सत्य ज्ञान के पर्याय वेदों के प्रचार का सनातन मार्ग चुना।

               ऋषि दयानन्द ने अपने ज्ञान विवेक से जाना था कि ईश्वर सत्य, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, अनादि, नित्य अविनाशी है। जीवात्मा भी सूक्ष्म, एकदेशी, ससीम, अल्पज्ञ, जन्म-मरण धर्मा, मोक्षगामी, कर्मानुसार सुख दुःख पाने वाली अनादि सनातन सत्ता है। सृष्टि का काल 4.32 अरब वर्ष होता है और इतनी ही अवधि की प्रलय अवस्था होती है। यह सृष्टि प्रवाह से अनादि है। कभी इस सृष्टि का आरम्भ नहीं हुआ और ही कभी अन्त होगा। जीवात्मायें मोक्ष प्राप्ति पर्यन्त अपने कर्मानुसार जन्म-मरण को प्राप्त होती रहेगीं। वेद ज्ञान को प्राप्त कर मनुष्य सद्कर्मों यथा ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, पितृ-अतिथि यज्ञ व बलिवैश्वदेव यज्ञ करने सहित दान-परोपकार एवं पुण्य कर्मों को करते हुए योगाभ्यास द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार कर मोक्ष को प्राप्त होकर 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों तक ईश्वर के सान्निध्य में रहकर आनन्द का भोग करता है। मोक्ष में ईश्वर मुक्त जीवात्मा को अनेक शक्तियां प्रदान करते हैं जिससे वह इच्छित सुखों को भोगता एवं मोक्ष में रहने वाली अन्य जीवात्माओं से सम्पर्क कर सभी दुःखों से सर्वथा मुक्त रहता है। ऋषि दयानन्द महाभारत काल के बाद वेदों मन्त्रों के अर्थों का साक्षात्कार किये हुए सच्चे योगी ज्ञानी थे। उन जैसा विद्वान ऋषि महाभारत के बाद दूसरा नहीं हुआ। उन्होंने अपनी समस्त मान्यताओं को प्रस्तुत करने वाला उन्होंने एक ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश” लिखा है। इस ग्रन्थ को पढ़कर मनुष्य की अविद्या का नाश एवं विद्या की वृद्धि होती है। मनुष्य की प्रायः सभी शंकाओं का समाधान हो जाता है। संसार में कोई एक ग्रन्थ मनुष्य की धर्म व जीवन सम्बन्धी सभी शंकाओं का समाधान नहीं करता। सभी मत-पन्थों के ग्रन्थों में बहुतायत में अविद्या विद्यमान है जिसका दिग्दर्शन ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के अन्तिम चार समुल्लासों वा अध्यायों में कराया है। इस प्रकार से सत्यार्थप्रकाश अविद्या दूर कर मनुष्य को सच्चे ईश्वर का पता देता है जिसका अध्ययन, चिन्तन मनन करने से मनुष्य ईश्वर आत्मा से परिचित होकर उनको प्राप्त कर लेता है। संसार की सबसे मूल्यवान वस्तुयें भी ईश्वर जीवात्मा का सत्य ज्ञान एवं इनको प्राप्त होना ही है। इसी से मनुष्य के जीवन के सभी दुःख दूर हाते हैं दुःखों का कारण अविद्या एवं जन्म मरण के बन्धनों से उन्हें मुक्ति मिल जाती है।

               दिनांक 10 अप्रैल, 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना कर ऋषि दयानन्द ने तीव्र गति से अविद्या अन्धविश्वासों का खण्डन तथा सत्य मान्यताओं का युक्ति, तर्क एवं प्रमाणों सहित मण्डन किया। उन्होंने मनुष्य को पतन पर ले जाने वाले कृत्यों मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, अवतारवाद की मिथ्या मान्यता, मृतक श्राद्ध, सामाजिक असमानता, भेदभाव व जन्मना जातिवाद का भी विरोध व खण्डन किया। विद्या के प्रसार के लिये उन्होंने गुरुकुलों को खोलने की प्रेरणा की तथा उसका पाठ्यक्रम भी अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में दिया। स्वामी दयानन्द देश की पराधीनता से चिन्तित थे। इसी कारण उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में स्पष्ट शब्दों में पराधीनता का विरोध एवं स्वदेशी राज्य को सर्वोपरि उत्तम बताया। वह स्वराज्य की स्थापना तथा स्वदेश में जन्में लोगों को ही राजा व अन्य उच्चस्थ पदों पर आसीन करने का विचार दे गये हैं। संसार में इसको स्वीकार भी किया जाता है और सभी देशों में स्वदेशी लोगों को ही राज्याधिकारी बनाया जाता है। स्वामी जी ने गोहत्या बन्द करने तथा हिन्दी को देश की प्रमुख राजकार्य जनसम्पर्क की भाषा बनाने के प्रति भी आन्दोलन किया था। वह अपनी बात तर्क युक्ति से निर्भीकता पूर्वक कहते थे और इसके लिये अंग्रेज अधिकारियों से लिखित मौखिक आग्रह करते थे। उनके सभी कार्यों में वसुधैव कुटुम्बकम्’ का भाव विद्यमान दिखाई देता है। असत्य अविद्या के वह इतिहास में सबसे बड़े विरोधी थे। हमें लगता है कि उनसे बड़ा सत्याग्रही इसका पुरस्कर्ता महापुरुष दूसरा केवल भारत अपितु विश्व में भी नही हुआ। वर्तमान में तो किसी छोटी मोटी मांग के लिये साधारण आन्दोलन को सत्याग्रह कहा जाता है परन्तु ऋषि दयानन्द ने तो सबसे पूर्व ईश्वर व जीवात्मा के स्वरूप सहित ईश्वर की उपासना पद्धति को लेकर भी प्रभावशाली व सफल सत्याग्रह किया था। काशी शास्त्रार्थ में उनकी विजय भी इसका एक प्रमाण है। ऋषि दयानन्द ने अन्धविश्वासों से पूर्णतया मुक्त तथा प्रत्येक मनुष्य को शिक्षित ज्ञान-विज्ञान से युक्त बनाने के लिये सत्यार्थप्रकाश लिखकर आन्दोलन सत्याग्रह ही तो किया था। इसलिये ऋषि दयानन्द से बड़ा सत्य-आग्रही आन्दोलन कर्ता हमें दूसरा कोई दृष्टिगोचर नही होता।

               ऋषि दयानन्द की प्रेरणा से ही महात्मा मुंशीराम जी जो बाद में स्वामी श्रद्धानन्द जी के नाम से प्रसिद्ध हुए, उन्होंने प्राचीनतम आर्ष व वैदिक शिक्षा के प्रचार व प्रसार के लिये हरिद्वार के निकट कांगड़ी ग्राम में विस्तृत भूभाग पर सन् 1902 में एक ‘‘गुरुकुल” की स्थापना की थी। इसके बाद ऋषि दयानन्द के अनुयायियों ने शताधिक व लगभग एक सहस्र गुरुकुलों की स्थापना व संचालन कर वेदों व ऋषियों के ग्रन्थों का अध्ययन अध्यापन कराया जिससे वैदिक धर्म व संस्कृति संसार का सबसे महान व श्रेष्ठ धर्म व संस्कृति के रूप में स्थापित हुआ। आर्यसमाज किसी भी मत की शास्त्रार्थ की चुनौती को अपने आरम्भ काल से स्वीकार करता आया है। उसने अपना मन्तव्य सत्यार्थप्रकाश सहित अनेक ग्रन्थों के माध्यम से स्पष्ट कर दिया है। आर्यसमाज के अनुयायियों द्वारा संचालित गुरुकुलों की विशेषता यह है कि यहां आर्ष व्याकरण पढ़े हुए वेद, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति व अनेक प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों के विद्वान उत्पन्न हुए हैं। बड़ी संख्या में वेदों के भाष्यकार तथा शास्त्रार्थ महारथी हुए हैं जिन्होंने वेद को सामान्य जनों में लोकप्रिय बनाया है। महाभारत काल के बाद ऐसा वेदान्दोलन पहली बार हुआ है। संसार के अनेक महापुरुषों ने भी ऋषि दयानन्द के वैदिक मन्तव्यों को स्वीकार किया है व उनके प्रशंसक रहे हैं। हमारे देश के राजनीतिज्ञों ने ऋषि दयानन्द व उनके सत्य सिद्धान्तों के साथ न्याय नहीं किया है जिससे उनका उज्जवल स्वरूप देश व विदेश में उस स्थिति को प्राप्त नहीं हुआ जो कि होना था। आज भी ऋषि दयानन्द के साथ न्याय नहीं हो रहा है। मनुस्मृति के अनुसार जो सत्य व धर्म की रक्षा करता है, सत्य धर्म उसकी व उनकी रक्षा करता है। जो सत्य की व धर्म की रक्षा नहीं करता वह नाश को प्राप्त होता है। हम ऋषि दयानन्द के सत्य सिद्धान्तों को न अपनाकर विनाश की ओर बढ़ रहे हैं। यह प्रसन्नता की बात है कि वर्षों बाद ऋषि दयानन्द के अनुयायी स्वामी रामदेव जी ने योग को विश्व के धरातल पर प्रतिष्ठा दिलाई है। इसी प्रकार व इससे भी अधिक प्रतिष्ठा वेद, अग्निहोत्र, वैदिक संस्कृत की शिक्षा को दिया जाना अपेक्षित है। आर्यसमाज व आर्यसमाज के गुरुकुल इसी लक्ष्य की प्राप्ति में संलग्न हैं। आर्यसमाज के स्कूल व डी0ए0वी0 स्कूल व विद्यालय भी कुछ-कुछ इसी ओर बढ़ रहे हैं। हमें लगता है कि देश का उद्धार तभी होगा जब देश का बच्चा-बच्चा सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर उस पर चिन्तन व मनन कर सत्य का स्वीकार व असत्य का परित्याग करेगा। आर्यसमाज का लक्ष्य महान है और उसे अभी बहुत लम्बी यात्रा करनी है और इसके लिये तैयार रहना है।

               हमने इस लेख में आर्यसमाज तथा गुरुकुलों की महत्ता की कुछ चर्चा की है। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

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