विजय कुमार
स्वतंत्रता मिलते ही संघ ने हिन्दी पत्र जगत में प्रवेश का निश्चय किया। उन दिनों उ.प्र. में भाऊराव देवरस प्रांत प्रचारक और दीनदयाल जी उनके सहायक थे। इसके लिए दोनों की निगाह प्रखर वक्ता और कवि अटल बिहारी वाजपेयी पर गयी। प्रखर लेखनी के धनी जिला प्रचारक राजीवलोचन अग्निहोत्री को भी साथ में जोड़ लिया गया और रक्षाबंधन (31.8.1947) को अटल जी तथा राजीव जी के संयुक्त सम्पादकत्व में मासिक पत्रिका ‘राष्ट्रधर्म’ का पहला अंक प्रकाशित हुआ। इससे पूर्व पत्रिका के नाम का प्रश्न आया। तब मुख्यतः छात्रों के बीच ही संघ का काम था। मा. भाऊराव लखनऊ वि.वि. के छात्रावास की सीढ़ियों पर छात्रों के साथ बैठे थे। वहीं देहरादून के एक छात्र विद्यासागर ने ‘राष्ट्रधर्म’ नाम सुझाया, जो सबको पंसद आया। राष्ट्रधर्म के प्रथम अंक के प्रथम पृष्ठ पर अटल जी की निम्न कविता प्रकाशित हुई थी। हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय। इस अंक की 3,000 प्रतियां छपी थीं। उन दिनों किसी हिन्दी पत्रिका की प्रसार संख्या 500 से अधिक नहीं थी। इसलिए जब 3,000 का आदेश प्रेस को दिया गया, तो प्रेस वाला समझ गया कि इन लड़कों को शायद कहीं से मोटी राशि हाथ लग गयी है। या कोई ऐसा धनी आदमी मिल गया है, जिसे साहित्य सेवा की सनक सवार हुई है; पर वे 3,000 अंक तो हाथोंहाथ समाप्त हुए ही, 500 अंक और छपवाने पड़े। दूसरा अंक 8,000 और तीसरा 12,000 छपा। इससे उत्साहित होकर एक साप्ताहिक पत्र निकालने का भी निर्णय हुआ और मकर संक्रांति (14.1.1948) पर ‘पांचजन्य’ का प्रकाशन प्रारम्भ हो गया। अटल जी पर दोनों पत्रों के सम्पादन का भार आ गया। उन दिनों ‘लैटर प्रेस’ का जमाना था। सामग्री देने के बाद कई बार कुछ जगह खाली छूट जाती थी, तो गीत हो या कविता, अटल जी तुरंत कुछ पंक्तियां जोड़ देते थे। लेख या कहानी में कुछ लाइनें ऐसी लिखते थे जिससे प्रवाह भी बना रहे और ऐसा न लगे कि उसमें जबरन कुछ डाला गया है। वैसे उनका अनुमान काफी ठीक रहता था। फिर भी कभी-कभी पैबन्द लगाने ही पड़ते थे। कोई कर्मचारी बीमार या छुट्टी पर हुआ, तो दिक्कत आती थी। इसलिए अटल जी, दीनदयाल जी और भाऊराव ने भी कम्पोजिंग और प्रेस के बाकी काम सीख लिये। कभी-कभी तो मशीन चलाते हुए सब इतने थक जाते थे कि चटाई पर सिर के नीचे ईंट लगाकर पस्त हो जाते थे। बाद में दैनिक स्वदेश का प्रकाशन शुरू होने पर अटल जी को उसमें भेज दिया गया। तब काम और बढ़ गया। दैनिक, साप्ताहिक और मासिक पत्रों का एक साथ सम्पादन आसान नहीं था; पर अटल जी सहर्ष सब करते थे। क्योंकि उनका पहला प्यार पत्रकारिता से ही था। उन्होंने इसे कई बार सार्वजनिक रूप से स्वीकार भी किया है।