लोकतांत्रिक व्यवस्था पर आक्रमण

    

एक अज्ञात के अनमोल वचन “असल दोष यह है कि दोषों को सुधारने की कोशिश ही न की जाए।” दोषों को सुधारने व समस्याओं के हल के लिए ही आगे अग्रसर होते हुए एवं  ‘देर आये दुरस्त आये’ को चरितार्थ करते हुए भारत सरकार ने  “नागरिकता संशोधन अधिनियम” लाकर 70 वर्ष पुराने दोष को दूर किया है। इस अधिनियम द्वारा उन लाखों-करोड़ों भारतीय मूल के गैर मुस्लिम लोगों के मानवीय अधिकारों की रक्षा होगी जो पड़ोसी मुस्लिम देशों में इस्लामिक आतंक से पीड़ित होकर भारत में 31 दिसम्बर 2014 तक शरण ले चुके है।
भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है। भारतीय संविधान लोकतंत्र की व्यवस्थाओं को बनाये रखकर राष्ट्रीय नीतियों व योजनाओं को किर्यान्वित करने के लिए प्रतिबद्ध है। संविधान के सर्वोच्च पद पर देश के राष्ट्रपति विराजमान हैं। लोकसभा के चुने हुए सदस्यों के बहुमत से केंद्रीय मंत्रिमंडल गठित होता है। उच्च सदन राज्यसभा में भी कुछ विशेष नामांकित सदस्यों को छोड़कर चुने हुए नागरिक ही आते हैं।
ऐसी संवैधानिक व्यवस्था का पालन करते हुए भारत सरकार की मंत्री परिषद के गृहमंत्री श्री अमित शाह ने 9 दिसम्बर को लोकसभा में “नागरिकता संशोधन विधेयक” (कैब) प्रस्तुत किया। समस्त जन प्रतिनिधियों (सांसदों) के वाद-विवाद व अनेक प्रश्नों के निवारण के लिए लगभग 14 घण्टे चली लंबी बहस के बाद इस विधेयक के पक्ष में 311 व विपक्ष में केवल 80 मत पड़ने से लोकसभा में यह बहुमत से पारित हुआ। तत्पश्चात 11 दिसम्बर को यह विधेयक राज्यसभा में प्रस्तुत किया गया। यहां भी अनेक किन्तु-परन्तु के छोटे-बड़े प्रश्नोत्तर के लिए लगभग 9 घंटे चली बहस के पश्चात इस विधेयक के पक्ष में 125 व विपक्ष में 105 मत पड़ने से सरकार इस विधेयक को पारित करवाने में सफल हुई। इस पारित विधेयक को अधिनियम  बनवाने के लिए 12 दिसम्बर को महामहिम राष्ट्रपति जी के समक्ष प्रस्तुत करके उनकी स्वीकृति मिलने से “नागरिकता संशोधन अधिनियम” से देश में विधिवत कार्यरुप में आ गया है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में संविधान की सर्वोपरिता मान्य होती है। लेकिन यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि विधिवत बनाये गए इस अधिनियम के विरोध में भारत विरोधियों, देशद्रोहियों और सत्ताहीनता से ग्रस्त तत्वों ने मिथ्या प्रचार करके मुस्लिम समाज को उकसा कर हिंसक विरोध प्रदर्शनों द्वारा देश में अराजकता का वातावरण पैदा कर दिया है। इसको एक प्रकार से लोकतंत्र पर आक्रमण कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ध्यान रहे कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, देवबन्द मदरसा, सहारनपुर के छात्रों व आसाम सहित पूर्वोत्तर के राज्यों में तो इस कानून बनने की आहट से ही भारी विद्रोह शुरू हो गया, जिससे देश के अन्य भागों में भी आग भड़की।
क्या दिल्ली में हुई 14 दिसम्बर को कांग्रेस की रैली में आये दिल्ली से बाहर के हज़ारों लोग वापस नहीं जा पाए या जाने नहीं दिया गया या किसी षडयंत्र के अंतर्गत ही लाये गए थे। उनके विषय में यह सोचना क्या अनुचित होगा कि क्या उनका जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय व जामिया नगर आदि क्षेत्रों में 13 दिसम्बर व उसके बाद अन्य क्षेत्रों में शुरू हुआ हिंसात्मक तांडव व आगजनी आदि से तो कोई सम्बन्ध नहीं था ? चिंतनीय है कि यह न थमने वाला बवाल तो जुम्मे की नमाज (20 दिसम्बर)
के बाद तो दिल्ली सहित देश के विभिन्न क्षेत्रों में और अधिक फैल गया, इसको भड़काने में किसका हाथ था?
जरा सोचो लोकतंत्र पर ऐसा आक्रमण करके राजकीय व्यवस्थाओं को बाधित करवा कर सामान्य जनजीवन अस्तव्यस्त करने में सबसे अधिक लाभ किसे मिलने वाला है? सत्ताहीनता की पीड़ा से दशकों राज करने वाला एक परिवार सर्वाधिक दुखी क्यों हैं? क्या कांग्रेस सत्ता की पीड़ा को झेल नहीं पा रहीं ? उसने देश में हुई अराजकता और आगजनी करने वाले देशद्रोही तत्वों का विरोध करने के स्थान पर राष्ट्रहितैषी कार्य करने वाली सरकार के विरोध में अति शीघ्रता करते हुए सम्भवतः 13 दिसम्बर को रात 11 बजे ही प्रेस वार्ता भी कर दी थी। घुसपैठियों व आतंकियों को रोकने और उत्पीड़ित शरणार्थियों को बसाने के लिये इस कानून में किये गए संशोधन का विरोध करने के लिए दिल्ली में रैली और फिर देश के अनेक नगरों में आगजनी करने वाले तत्व इतने आतुर व आक्रोशित क्यों है?जबकि इस संशोधित कानून से भारतीय नागरिकों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । क्या इन चालबाजों को लोकतांत्रिक राजनीति में घुसपैठियों व उनको भारत में बसाने वालों की वोट बैक की चिंता अधिक है? ऐसे नेताओं को देश में शांति, सौहार्द व विकास से कुछ लेना-देना नहीं। बल्कि देशव्यापी इस हिंसक आंदोलन में मारे गए युवकों को शहीद कहने में कांग्रेस की महासचिव श्रीमती प्रियंका गांधी को प्रसन्नता होती है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि “दिल्ली वक्फ बोर्ड” ने इन विरोध प्रदर्शनों में हुई हिंसात्मक घटनाओं में मारे गए अराजक तत्वों को 5-5 लाख रुपये देने का निश्चय किया है। इसी संदर्भ में बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस कानून के विरुद्ध “संयुक्त राष्ट्र संघ” में जाने के लिए विवादस्पद बयान देकर देश के साथ बड़ी धृष्टता की है। कुछ गैर भाजपा शासित प्रदेशों ने इस अधिनियम को लागू न करने का निर्णय लिया है, साथ ही कुछ अभी इसपर विचार कर रहे हैं। क्या यह भारतीय संघीय ढांचे को चुनौती नहीं है? जबकि नागरिकता पर निर्णय लेने का केंद्रीय सरकार का ही एकमात्र अधिकार है। क्या यह व्यवहार केवल राजनैतिक चालबाजी नहीं है? क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था  के विधिवत निर्णय के विरुद्ध वातावरण को दूषित व हिंसात्मक बनाने वाले कभी सुपात्र हो सकते?
नागरिकता के इस नए प्रावधान के विरोध में 13 दिसम्बर को जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय,दिल्ली में हुए हिंसक प्रदर्शन को नियंत्रित करने के लिए पुलिस का उस परिसर में बिना अनुमति प्रवेश को अनुचित बताने वालों को क्या यह ज्ञान नहीं कि हिंसा व अपराध की स्थिति में भारतीय दंड संहिता (सीआरपीसी) की धारायें 41,46,47 व 48 में पुलिस को किसी भी ऐसे अशांत क्षेत्र में प्रवेश करने व वैधानिक कार्यवाही करने के लिए पूर्ण स्वतंत्रता है। पुलिस वाले जब प्रदर्शनकारियों द्वारा आगजनी, पथराव, एसिड व पेट्रोल भरी बोतलें फेंकी जा रही हो और फॉयरिंग तक होती रहें तो क्या वह मौन रहकर जान-माल की हानि होने दे? जब दंगाई पुलिस पर आक्रामक होकर इन कानून के रक्षकों को ही मारने पर आ जाय तो क्या वे अपने संवैधानिक व मौलिक जीवन रक्षक अधिकार भी भूलाकर इन आतताईयों से पिटते और मरते रहे ? शिव सेना प्रमुख उद्वव ठाकरे ने तो राष्ट्रहित से ऊपर उठ कर अपने नए आकाओं को खुश करने के लिए इस घटना की तुलना जलियांवाला बाग कांड से करने में भी संकोच नहीं किया।
क्या यह अनुचित नहीं कि इन बलवा फैलाने वाले को समझाने के स्थान पर कुछ बुद्धिजीवी वर्ग  उनको उकसाने के लिए सरकार पर यह भी आरोप लगा रहे हैं कि धारा 144 क्यों लगायी व इंटरनेट सेवा क्यों बन्द की गयी? जबकि यह स्पष्ट है कि धारा 144 द्वारा स्थानीय अधिकारी हिंसक व अराजकता फैलाने वालों को एकत्रित होने से रोक कर जान-माल की सुरक्षा करना चाहते हैं। इंटरनेट सेवा बंद करना अवांछित व राजनैतिक चालबाजों पर बड़े स्तर पर मिथ्या प्रचार करने से रोकने में सहायक होता है। देश में ऐसा सोचने वाले दुष्ट लोगों की चाहे संख्या नगण्य हो फिर भी भारतविरोधी शक्तियों को दुःसाहसी बना देती है।
चिंतन करना होगा कि क्या देश जलता रहे,दंगाई बलवा करते रहें, सामान्य जीवन अस्त-व्यस्त होता रहे, करोड़ों-अरबों की सार्वजनिक व व्यक्तिगत सम्पत्तियां नष्ट होती रहे, सुरक्षाकर्मी पिटते व मरते रहें और अरबों का व्यापार प्रभावित होता रहे…. तो ऐसे में अहिंसा व शांति का पालन करने वाला सभ्य समाज जब भयभीत हो कर अपने को असुरक्षित पाता है तो भी लोकतंत्र में संविधान के रक्षक शासन व प्रशासन का मौन उचित होगा? हमारे देश के जो तत्व ऐसा सोचते हैं इससे उनकी राष्ट्र के प्रति  खतरनाक मानसिकता का आभास हो रहा है। लोकतंत्र में विरोध प्रदर्शन व आंदोलन आदि शांतिपूर्ण ढंग से सहज स्वीकार होते हैं,परन्तु भीड़ का हिंसात्मक होना पूर्णतः गैरकानूनी है।
अतः नागरिकता संशोधन अधिनियम पर देश में भ्रम फैला कर ऐसी विस्फोटक स्थिति बनाने वाले सत्ताहीनता की पीड़ा से जूझ रहे राजनैतिक दलों को यह सोचना चाहिए कि क्या देश का सभ्य समाज अपने भले-बुरे का आंकलन करने में असमर्थ है ? क्या इससे उनके प्रति सभ्य समाज में कोई सहानुभूति उभरेगी  जो उनको निकट भविष्य में लाभान्वित कर सकें? ऐसे नेताओं को समझना होगा कि यह कोई योजना नहीं मानवता हितार्थ एक सशक्त कानून है, जिसे संविधान का पालन करते हुए लोकतांत्रिक प्रक्रिया से मूर्त रुप दिया गया है। अतः समस्त विपक्षी राजनीतिज्ञों का हित इसी में है कि वे मानवता की रक्षार्थ बनाये जाने वाले कानूनों को सहर्ष स्वीकार करके लोकतंत्र की मर्यादाओं का पालन करें।अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि रबर को अधिक खींचने के चक्कर में रबर ही टूट जाये। वैसे भी आज यह सभी समझ चुके है कि क्यों और किस लिए उग्र और अराजक विरोध का सहारा लिया जा रहा है? कितने लोग जानते है कि यह कानून क्या है और किसके लिए है? क्या इससे यह प्रतीत नहीं होता कि वर्तमान शासन के प्रति केवल विरोधात्मक व्यवहार के कारण कुछ धर्मांध मुस्लिम समाज में मिथ्या प्रचार करके उनमें असुरक्षा की भावना को भड़काया जा रहा है। धिक्कार है ऐसे सत्तालोभियों को जो राजनीति को दूषित करके समाज में घृणा फैलाना चाहते हैं। अतः इन देशव्यापी हिंसात्मक आंदोलनकारियों को राजनैतिक चालबाजों, कट्टरपंथियों व भारतविरोधियों के चंगुल से बाहर निकलना होगा।
ऐसे में कट्टरपंथी मुस्लिम समाज को भी इस कानून पर भ्रमित होने से पहले यह सोचना चाहिये कि भारत सरकार मुस्लिम छात्र-छात्राओं को उच्च शिक्षा देकर आईएएस, पीसीएस, डॉक्टर व इंजीनियर्स आदि बनाने के लिए राजकीय कोष से अरबों रुपया व्यय करती है।उन्हें समझना चाहिये कि भारत सरकार हिंदुओं से अधिक अधिकार उनको देती आ रही है। इसके अतिरिक्त अल्पसंख्यकों विशेषतः मुसलमानों की सहायतार्थ प्रति वर्ष अरबों रुपये की अन्य योजनायें भी बनायी जाती है। अल्पसंख्यक आयोग व मंत्रालय आदि का विशेष गठन इसका प्रमाण है। लेकिन देशभक्ति का परिचय देते हुए हिंदुओं ने इस भेदभाव का कभी भी विरोध नहीं किया। ऐसे भटके हुए धर्मांध मुस्लिम समाज में देश के प्रति प्रेम जगाने के लिए भारत भक्त मुस्लिम बुद्धिजीवियों को आगे आना होगा।
अतः पड़ोसी मुस्लिम देश अफगानिस्तान, बंग्ला देश व  पाकिस्तान में कट्टरपंथियों से पीड़ित गैर मुस्लिम भारतीय बन्धुओं के मानवीय अधिकारों की रक्षार्थ व आतंक एवं अपराध को बढ़ावा देने वाले घुसपैठियों से देश की रक्षा करने वाले “नागरिकता संशोधन अधिनियम” का हिंसात्मक विरोध एक प्रकार से लोकतांत्रिक व्यवस्था पर आक्रमण है और इसको अगर राष्ट्रद्रोह भी माना जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
विश्व के अनेक क्षेत्रों में रहने वाले भारतीय मूल के नागरिकों ने इस संशोधित कानून का स्वागत किया है और इससे उत्साहित होकर वे अपने-अपने क्षेत्रों में उत्सव का वातावरण बना कर परस्पर शुभकामनाएं दे रहे हैं।
जबकि भारत में आतंकवादी संगठन व उनके स्लीपिंग सेल और ओवर ग्राउंड वर्कर व अनेक विदेशी सहायता प्राप्त एन जी ओ (NGO)आदि ने भी इन विपरीत परिस्थितियों का अनुचित लाभ उठाते हुए देश को आतंकित करने का दुःसाहस किया है। जिसके लिए भी विपक्षी दलों को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है।
यह सोचना होगा कि कोई भी राष्ट्र दूसरे देशों के नागरिकों को संवैधानिक अधिकार देने को बाध्य नहीं है। ऐसे में कोई लोकतांत्रिक व्यवस्था का अनुचित लाभ उठाते हुए उन विदेशी नागरिकों को जो विशेष षडयंत्र के अंतर्गत घुसपैठ करके देश में बसाये गए हो, नागरिकता प्रदान करने के लिए सरकार पर अहिंसात्मक व हिंसात्मक दबाव बनाये तो क्या इसको “लोकतांत्रिक व्यवस्था पर आक्रमण” कहना उचित नहीं होगा ?

विनोद कुमार सर्वोदय

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