महात्मा गांधी के लिए महाराणा प्रताप और शिवाजी नहीं बल्कि औरंगजेब आदर्श था

06 दिसम्बर 2017 को बीबीसी ने एक लेख ‘औरंगजेब और मुगलों की तारीफ क्यों करते थे- महात्मा गांधी’ – शीर्षक से प्रकाशित किया। इस लेख में बीबीसी ने बताया कि गांधी जी के औरंगजेब और मुगल शासकों के प्रति बहुत ही नेक विचार थे। वह उनके धर्मनिरपेक्ष विचारों के प्रशंसक थे और यह भी मानते थे कि उनके शासनकाल में भारत में भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी। लोग सुख -चैन के साथ परस्पर मिलकर रहते थे । कहीं भी कोई सांप्रदायिक तनाव नहीं था। सर्वत्र शांति थी । यही कारण था कि गांधीजी मुगलों या तुर्कों के भारतवर्ष में शासन को विदेशियों का शासन नहीं मानते थे और ना ही उनके शासनकाल को गुलामी का काल मानते थे। गांधीजी उसे ‘स्वराज’ का प्रतीक मानते थे । उनके लिए औरंगजेब बहुत ही आदर्श, सहिष्णु और उदार शासक था , जबकि अंग्रेज उतने उदार नहीं थे। यही कारण था कि वह अंग्रेजों के शासन को भारत की गुलामी का काल मानते थे और मुगलों को इस ‘पाप’ से मुक्त कर देते थे। गांधीजी के ऐसे विचारों को समझ कर स्पष्ट हो जाता है कि उनके ऐसे विचारों की ‘काली छाया’ वर्तमान इतिहास पर भी पड़ी है। जिसने मुगलों का गुणगान और महाराणा प्रताप जैसे राष्ट्रभक्त लोगों की उपेक्षा करने का ‘पाप’ किया है।

1 नवंबर, 1931 की सुबह लंदन के कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के पेम्ब्रोक कॉलेज में आयोजित एक कार्यक्रम में गांधीजी का एक भाषण रखा गया था। जिसके बारे में बीबीसी ने अपने उपरोक्त लेख में बताया है कि गांधी के सहयोगी महादेव देसाई के अनुसार इस बैठक में गांधी खुलकर बोल रहे थे। बोलते-बोलते एक स्थान पर उन्होंने कहा, “मैं यह जानता हूँ कि हर ईमानदार अंग्रेज़ भारत को स्वतंत्र देखना चाहता है, लेकिन उनका ऐसा मानना क्या दुःख की बात नहीं है कि ब्रिटिश सेना के वहां से हटते ही दूसरे देश उस पर टूट पड़ेंगे और देश के अंदर आपस में भी भारी मार-काट मच जाएगी ? …आपके बिना हमारा क्या होगा, इसकी इतनी अधिक चिंता आप लोगों को क्यों हो रही है ? आप अंग्रेज़ों के आने से पहले के इतिहास को देखें, उसमें आपको हिंदू-मुस्लिम दंगों के आज से ज्यादा उदाहरण नहीं मिलेंगे. …औरंगज़ेब के शासन-काल में हमें दंगों का कोई हवाला नहीं मिलता।”

इसका अभिप्राय है कि गांधी जी ने मुगलों और तुर्कों के शासनकाल में होने वाले हिंदुओं के सामूहिक नरसंहारों और लोगों के सामूहिक धर्मांतरण को न तो सांप्रदायिक दंगा माना और न ही मुस्लिम शासकों का हिंदुओं पर किसी प्रकार का अत्याचार माना । उन्होंने इस प्रकार का प्रदर्शन किया कि जैसे मुगलों व तुर्कों के शासनकाल में यदि ऐसा होता भी रहा तो वह सब कुछ क्षम्य था।
उसी दिन दोपहर को कैम्ब्रिज में ही ‘इंडियन मजलिस’ की एक सभा में गांधी ने और स्पष्ट रूप से कहा- ‘जब भारत में ब्रिटिश शासन नहीं था, जब वहाँ कोई अंग्रेज़ दिखाई नहीं देता था, तब क्या हिंदू, मुसलमान और सिख आपस में बराबर लड़ ही रहे थे ?
हिंदू और मुसलमान इतिहासकारों द्वारा दिए गए विस्तृत और सप्रमाण विवरणों के आधार पर हम कह सकते हैं कि तब हम अपेक्षाकृत अधिक शांतिपूर्वक रह रहे थे और ग्रामवासी हिंदुओं और मुसलमानों में तो आज भी कोई झगड़ा नहीं है। उन दिनों तो उनके बीच झगड़े का नामो-निशान तक नहीं था।”
स्वर्गीय मौलाना मुहम्मद अली, जो खुद एक हद तक इतिहासकार थे, मुझसे अक्सर कहा करते थे कि “अगर अल्लाह ने मुझे इतनी ज़िंदगी बख्शी तो मेरा इरादा भारत में मुसलमानी हुक़ूमत का इतिहास लिखने का है। उसमें दस्तावेज़ी सबूतों के साथ यह दिखा दूंगा कि अंग्रेज़ों ने गलती की है। औरंगज़ेब उतना बुरा नहीं था जितना बुरा अंग्रेज़ इतिहासकारों ने दिखाया है, मुग़ल हुक़ूमत इतनी खराब नहीं थी जितनी खराब अंग्रेज़ इतिहासकारों ने बताई है।”
गांधी जी ने मुगल काल के इतिहास को इस प्रकार परिभाषित करके स्पष्ट किया कि वह मुगल काल में जितने भर भी अत्याचार हिंदुओं पर होते रहे , उन्हें अत्याचार नहीं मानते। मुगलों और तुर्कों ने भारत की संस्कृति और धर्म को चाहे जितना नष्ट करने का प्रयास किया हो और चाहे जितने धर्मांतरण करके उन्होंने मुस्लिमों की संख्या बढ़ाने का काम भारत में किया हो , वे सब गांधी जी के लिए स्वीकार करने योग्य थे । उन्होंने हिंदू स्त्रियों और मुगलों व तुर्कों के द्वारा किए गए अमानवीय अत्याचारों को भी क्षमा के योग्य माना । इसके अतिरिक्त भारत पर उनके बलात शासन को भी गाँधीजी ने ‘वैध और स्वराज कहकर महिमामंडित किया।

गांधी जी ने अपने उपरोक्त भाषण में यह भी स्पष्ट किया कि भारत में मुस्लिम सांप्रदायिकता या हिंदू मुस्लिम दंगों का इतिहास बहुत अधिक पुराना नहीं है ।”यह झगड़ा तो तब शुरू हुआ जब हम ग़ुलामी की शर्मनाक स्थिति में पड़े।”
गांधी जी ने मुगलों वे टीपू सुल्तान जैसे शासकों के इतिहास को तोड़ मरोड़ कर हिंदू विरोधी दिखाने के प्रयासों की आलोचना अपनी पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ में भी की है । जिसमें उन्होंने तत्कालीन विदेशी इतिहासकारों को इस दुर्भावना के लिए जिम्मेदार ठहराया है।
गांधी जी स्वयं चरखा चलाते थे और इस चरखा चलाने के ढोंग व पाखंड का सच उस समय चाहे लोग न जानते हो पर आज सभी जानते हैं कि वह जिस बकरी का दूध पीते थे वह भी बादाम खाती थी। जिस बापू या ‘महात्मा’ की बकरी भी बादाम खाती हो , उसके लिए आश्रम में वे सारी ‘सुविधाएं उपलब्ध’ रहती थीं या कहिए की सारी सुविधाएं उपलब्ध होने में किसी प्रकार की कोई समस्या नहीं आती थी जो आज के आश्रम वाले ‘ बापुओं’ के लिए उपलब्ध होती हैं। यही कारण था कि उन्होंने ‘महात्मा’ रहकर भी वह सारी सुख सुविधाएं भोगीं , जिन्हें एक साधारण व्यक्ति नहीं भोग पाता । गांधी जी ने औरंगजेब को अपने समरूप मानते हुए उसकी इस बात के लिए प्रशंसा की कि वह भी ‘टोपियां सीकर’ अपना जीवन यापन करता था अर्थात गांधीजी का चरखा चलाना और औरंगजेब का टोपी सीकर गुजारा करना दोनों समान थे । स्वाभाविक है कि यदि इस सब के पीछे गांधी जी का यह आदर्श नायक औरंगजेब भी वही काम करता था जो गांधीजी करते थे तो उसे गांधीजी क्यों बुरा मानते ?
उपरोक्त लेख से हमें पता चलता है कि 21 जुलाई, 1920 को ‘यंग इंडिया’ में लिखे अपने प्रसिद्ध लेख ‘चरखे का संगीत’ में गांधी ने कहा था, “पंडित मालवीयजी ने कहा है कि जब तक भारत की रानी-महारानियां सूत नहीं कातने लगतीं, और राजे-महाराजे करघों पर बैठकर राष्ट्र के लिए कपड़े नहीं बुनने लगते, तब तक उन्हें संतोष नहीं होगा. उन सबके सामने औरंगज़ेब का उदाहरण है, जो अपनी टोपियां खुद ही बनाते थे।”
इसी प्रकार 20 अक्तूबर, 1921 को गुजराती पत्रिका ‘नवजीवन’ में उन्होंने लिखा, “जो धनवान हो वह श्रम न करे, ऐसा विचार तो हमारे मन में आना ही नहीं चाहिए। इस विचार से हम आलसी और दीन हो गए हैं. औरंगज़ेब को काम करने की कोई ज़रूरत नहीं थी, फिर भी वह टोपी सीता था। हम तो दरिद्र हो चुके हैं, इसलिए श्रम करना हमारा दोहरा फर्ज है।”
ठीक यही बात वह 10 नवंबर, 1921 के ‘यंग इंडिया’ में भी लिखते हैं, “दूसरों को मारने का धंधा करके पेट पालने की अपेक्षा चरखा चलाकर पेट भरना हर हालत में ज्यादा मर्दानगी का काम है. औरंगज़ेब टोपियां सीता था , क्या वह कम बहादुर था ?”
टोपी सीकर हिंदुओं पर अत्याचार करने वाला औरंगजेब गांधी जी को ‘बहादुर’ दिखाई देता था।
उड़ीसा के कटक में एक सभा को संबोधित करते हुए गांधी जी ने संकेत किया था कि – ‘अंग्रेज़ों के शासनकाल में भारतीय मानसिक रूप से ग़ुलाम हो गए और उनकी निर्भीकता और रचनात्मकता जाती रही. जबकि मुग़लों के शासन में भारतीयों की स्वतंत्र चेतना और सांस्कृतिक स्वतंत्रता पर कभी आंच नहीं आई।”
24 मार्च, 1921 को आयोजित इस कार्यक्रम में महात्मा गांधी के शब्द थे, “अंग्रेज़ों से पहले का समय ग़ुलामी का समय नहीं था. मुग़ल शासन में हमें एक तरह का स्वराज्य प्राप्त था. अकबर के समय में प्रताप का पैदा होना संभव था और औरंगज़ेब के समय में शिवाजी फल-फूल सकते थे. लेकिन 150 वर्षों के ब्रिटिश शासन ने क्या एक भी प्रताप और शिवाजी को जन्म दिया है ? कुछ सामंती देशी राजा जरूर हैं, पर सब-के-सब अंग्रेज़ कारिंदे के सामने घुटने टेकते हैं, और अपनी दासता स्वीकार करते हैं।”
ऐसा कहते समय गांधीजी यह भूल गए थे कि महाराणा प्रताप और शिवाजी को समाप्त करने के हर संभव प्रयास उस समय के मुगल शासकों ने किए थे। वह यह भी भूल गए थे कि महाराणा प्रताप और शिवाजी के बनाने में मुगलिया शासन का योगदान नहीं था , बल्कि इन दोनों महान देशभक्तों की देशभक्ति और उनकी शूरवीरता ही इसके लिए उत्तरदायी थी । वे देश की मूल चेतना के प्रतीक थे जो इस बात के लिए कुलबुला रही थी कि देश आजाद हो। इस प्रकार वे उस समय हमारी स्वाधीनता की लड़ाई के नायक थे । गांधीजी में इतना साहस नहीं था कि वे स्वाधीनता के इन महानायकों को इस प्रकार की उपाधि से विभूषित कर पाते। गांधी जी यह भी भूल गए कि महाराणा प्रताप और शिवाजी की इसी क्रांतिकारी सोच व स्वाधीनता प्राप्ति की उत्कट अभिलाषा की विचारधारा को अर्थात क्रांतिकारी विचारधारा को गांधीजी के समकालीन नेताजी सुभाष चंद्र बोस तथा वीर सावरकर और उनके अन्य साथियों ने यथावत अपनाया हुआ था। जैसे प्रताप और शिवाजी मुगलकाल में भारत की मूल चेतना के प्रतीक बनकर खड़े हुए थे , वैसे ही हमारी इसी मूल चेतना के प्रतीक बनकर हमारे ये क्रांतिकारी अंग्रेजों के काल में मुगलों के काल से भी अधिक तीव्र गति से उठ खड़े हुए थे और अंत में इन्हीं के बलिदान, त्याग व तपस्या के कारण देश स्वतंत्र हुआ था।
जब तक हमारे देश के वर्तमान इतिहास पर गांधी जी के मुगलों व औरंगजेब संबंधी इन विचारों की ‘काली छाया’ पड़ी रहेगी तब तक हमारे महाराणा प्रताप , शिवाजी , सुभाष व सावरकर जैसे अनेकों क्रांतिकारी देशभक्तों के महान कार्यों को उनके विचारों की यह काली छाया दबाए रखेगी। निश्चित रूप से अब समय आ गया है जब हम गांधीजी के इन विचारों की इतिहास पर पड़ने वाली ‘काली छाया’ का पर्दाफाश करें और अपने इतिहास को सही रूप में स्थापित कर वर्तमान पीढ़ी को पढ़ने के लिए प्रस्तुत करें।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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  1. भोपाल की परम विदुषी प्रोफेसर डॉ. कुसुमलता केडिया जी का यह वीडियो अवश्य देखें|

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