अभिलेख यादव

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गजल

शीर्षक: आँखों में सँभालता हूँ पानी

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डॉ. रूपेश जैन ‘राहत’ आँखों में सँभालता हूँ पानी आया है प्यार शायद ख़ुशबू कैसी, झोंका हवा का घर में बार बार शायद रात सी ये ज़िंदगी और ख़्वाब हम यूँ बिसार गए बार बार नींद से जागे टूट गया है ए’तिबार शायद सिमटके सोते हैं अपने लिखे ख़तों की सेज बनाकर माज़ी की यादों से करते हैं ख़ुद को ख़बरदार शायद कुछ रोज़ की महफ़िल फिर ख़ुद से ही दूर हो गए लम्बी गईं तन्हाई की शामें दिल में है ग़ुबार शायद हमारा दिल है कि आईना देख के ख़ुश हुआ जाता है सोचता है वो आये तो ज़िंदगी में आये बहार शायद उठाए फिरते हैं दुआओं का बोझ और कुछ भी नहीं वक़्त में अब अटक गए हैं हौसले के आसार शायद सारी उम्र इन्तिज़ार करें तो कैसे बस इक आहट की अरमाँ तोड़ने का ‘राहत’ करता है कोई व्यापार शायद

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समाज

मीणा भाषा की उत्पत्ति और विकास

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श्री पिंटू कुमार मीना “निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को शूल ।” भारतेंदु हरिश्चन्द्र का उक्त प्रसंग आज भी प्रासंगिक बना हुआ है । हम अपनी भाषा के अभाव में न अपना विकास पर पाएंगे और न ही अपने हृदय को आत्मसंतुष्टि दे पाएंगे […]

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