गोपाल बघेल 'मधु'

गोपाल बघेल 'मधु'

लेखक के कुल पोस्ट: 151

गोपाल बघेल ‘मधु’
अध्यक्ष

अखिल विश्व हिन्दी समिति
आध्यात्मिक प्रबंध पीठ
मधु प्रकाशन

टोरोंटो, ओन्टारियो, कनाडा
www.GopalBaghelMadhu.com

लेखक - गोपाल बघेल 'मधु' - के पोस्ट :

कविता

वे किसी सत्ता की महत्ता के मुँहताज नहीं !

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  (मधुगीति १८०७१२) गोपाल बघेल ‘मधु’ वे किसी सत्ता की महत्ता के मुँहताज नहीं, सत्ताएँ उनके संकल्प से सृजित व समन्वित हैं; संस्थिति प्रलय लय उनके भाव से बहती हैं, आनन्द की अजस्र धारा के वे प्रणेता हैं ! अहंकार उनके जागतिक खेत की फ़सल है, उसका बीज बो खाद दे बढ़ाना उनका काम है; उसी को देखते परखते व समय पर काटते हैं, वही उनके भोजन भजन व व्यापार की बस्तु है ! विश्व में सभी उनके अपने ही संजोये सपने हैं, उन्हीं के वात्सल्य रस प्रवाह से विहँसे सिहरे हैं; उन्हीं का अनन्त आशीष पा सृष्टि में बिखरे हैं, अस्तित्व हीन होते हुए भी मोह माया में अटके हैं ! जितने अधिक अपरिपक्व हैं उतने ही अकड़े हैं, सिकुड़े अध-खुले अन-खिले संकुचित चेतन हैं; स्वयं को कर्त्ता निदेशक नियंत्रक समझते हैं, आत्म-सारथी गोपाल का खेल कहाँ समझे हैं ! वे चाहते हैं कि हर कोई उन्हें समझे उनका कार्य करे, पर स्वयं को समझने में ही जीव की उम्र बीत जाती है; ‘मधु’ के बताने पर भी बात कहाँ समझ आती है, प्रभु जगत से लड़ते २ भी कभी उनसे प्रीति हो जाती है !  

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कहानी

आज आया लाँघता मैं ! आज की अभी की

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गोपाल बघेल ‘मधु’ आज आया लाँघता मैं, ज़िन्दगी में कुछ दीवारें ; खोलता मैं कुछ किबाड़ें, झाँकता जग की कगारें ! मिले थे कितने नज़ारे, पास कितने आए द्वारे; डोलती नैया किनारे, बैठ पाते कुछ ही प्यारे ! खोजते सब हैं सहारे, रहे हैं जगती निहारे; देख पर कब पा रहे हैं, वे खड़े द्रष्टि पसारे ! क्षुब्ध क्यों हैं रुद्ध क्यों हैं, व्यर्थ ही उद्विग्न क्यों हैं; प्रणेता की प्रीति पावन, परश क्यों ना पा रहे हैं ! जा रहे औ आ रहे हैं, जन्म ले भरमा रहे हैं; ‘मधु’ घृत पी पा रहे हैं, नयन उनके खो रहे हैं ! ’

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कविता

प्रकाश धरा आ नज़र आता

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गोपाल बघेल ‘मधु’ प्रकाश धरा आ नज़र आता, अंधेरा छाया आसमान होता; रात्रि में चमकता शहर होता, धीर आकाश कुछ है कब कहता ! गहरा गहमा प्रचुर गगन होता, गुणों से परे गमन वह करता; निर्गुणी लगता पर द्रढी होता, कड़ी हर जोड़ता वही चलता ! दूरियाँ शून्य में हैं घट जातीं, विपद बाधाएँ व्यथा ना देतीं; घटाएँ राह से हैं छट जातीं, रहनुमा कितने वहाँ मिलवातीं ! भूमि गोदी में जब लिये चलती, तब भी टकराव कहाँ करवाती; ठहर ना पाती चले नित चलती, फिर भी आभास कहाँ करवाती ! संभाले सृष्टा सब ही करवाते, समझ फिर भी हैं हम कहाँ पाते; हज़म ‘मधु’ अहं को हैं जब करते, द्वार कितने हैं चक्र खुलवाते !

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कविता

समर्पण बढ़ रहा है प्रभु चरण में!

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समर्पण बढ़ रहा है प्रभु चरण में, प्रकट गुरु लख रहे हैं तरंगों में; सृष्टि समरस हुई है समागम में, निगम आगम के इस सरोवर में ! शान्त हो स्वत: सत्व बढ़ जाता, निमंत्रण प्रकृति से है मिल जाता; सुकृति हो जाती विकृति कम होती, हृदय की वीणा विपुल स्वर बजती ! ठगा रह जाता नृत्य लख लेता, स्वयम्बर अम्बरों का तक लेता; प्राण वायु में श्वाँस उसकी ले, परश मैं उसका पा सिहर लेता ! वे ही आए सजाए जग लगते, संभाले लट ललाट लय ललके; साथ चल दूर रह उरहिं उझके, कबहु आनन्द की छटा छिटके ! कराएँगे न जाने क्या मगों में, दिखा क्या क्या न देंगे वे पलों में; जहान जादूगरी है झाँकते बस, मिला कर नयन ‘मधु’ उनके नयन में ! रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’

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कविता

सुकुमार सी मोहन हँसी !

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सुकुमार सी मोहन हँसी, है श्याम सखि जब दे चली; वसुधा की मृदुता मधुरता, उनके हृदय थी बस चली ! करि कृतार्थ परमार्थ चित, हो समाहित संयत विधृत; वह सौम्य आत्मा प्रमित गति, दे साधना की सुभग द्युति ! है झलक अप्रतिम दे गई, पलकों से मुस्काए गई; संवित सुशोभित मन रही, चेतन चितेरी च्युत रही ! भूलत न भोले कृष्ण मन, वह सहजपन अभिनव थिरन; बृह्मत्व की जैसे किरण, विकिरण किए रहती धरणि ! वह धवलता सुकुमारिता, ब्रज वालिका की गहनता; हर आत्म की सहभागिता, ‘मधु’ के प्रभु की ज्यों खुशी ! रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’

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कविता साहित्‍य

स्वच्छ सुन्दर पथ सँवारे !

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स्वच्छ सुन्दर पथ सँवारे, गा रही हिम रागिनी; छा रही आल्ह्वादिनी उर, छिटकती है चाँदनी ! वन तड़ागों बृक्ष ऊपर, राजती सज रजत सी; घास की शैया विराजी, लग रही है विदूषी ! रैन आए दिवस जाए, रूप ना वह बदलती; रूपसी पर धूप चखके, मन मसोसे पिघलती ! वारिशों में रिस रसा कर, धूलि से तन तरजती; त्राण को तैयार बैठी, प्राण को नित धारती ! धवलता से जग सजाए, सहजता प्रतिपालती; ‘मधु’ को मोहित किए वह, वारती मन योगिनी !         स्वर स्वप्न की गति को तके   स्वर स्वप्न की गति को तके, उर दहन की ज्वाला लखे; सुर हृदय की भाषा पढ़े, त्वर गति चले मन बढ़ चले !   लखके विपिन पृथ्वी नयन, ज्यों यान से भास्वर मनन; करि कल्पना निज अल्पना, हृद भाव से चखते सुमन ! जो गगन की वीरानगी, मधु मेघ की वह वानगी; स्वर दे चले प्रभु यामिनी, शुभ मन बसे ज्यों दामिनी !   जग स्वप्न को दे चाँदनी, पग हर तके सौदामिनी; हर कल्पना को रंग दे, हर अल्पना को ढंग दे ! बढती चले संकल्प ले, चढती चले सोपान ले; नभ की थिरन मन में रखे, ‘मधु’ विहग को नव पँख दे !           आज अद्भुत स्वप्न समझा ! आज अद्भुत स्वप्न समझा, […]

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