मनमोहन आर्य

मनमोहन आर्य

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लेखक - मनमोहन आर्य - के पोस्ट :

धर्म-अध्यात्म

मेरा धर्मग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश

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  मनुष्य जब जन्म लेता है तो उसे किसी भाषा का ज्ञान नहीं होता है, अन्य विषयों के ज्ञान होने का तो प्रश्न ही नही होता। सबसे पहले वह अपनी माता से उसकी भाषा, मातृभाषा, को सीखता है जिसे आरम्भिक जीवन के दो से पांच वर्ष तो नयूनतम लग ही जाते हैं। इसके बाद वह भाषा ज्ञान को व्याकरण की सहायता से जानकर उस पर धीरे धीरे अधिकार करना आरम्भ करता है। भाषा सीख लेने पर वह व्यक्ति उस भाषा की किसी भी पुस्तक को जानकर उसका अध्ययन कर सकता है। संसार में मिथ्या ज्ञान व सद्ज्ञान दोनों प्रकार के ग्रन्थ विद्यमान हैं। मिथ्या ज्ञान की पुस्तकें, भले ही वह धार्मिक हां या अन्य, उसे असत्य व जीवन के लक्ष्य से दूर कर अशुभ कर्म वा पाप की ओर ले जाती हैं।

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चिंतन धर्म-अध्यात्म

ऋषि दयानन्द जीवन के प्रमुख महान कार्य

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ऋषि दयानन्द का पहला प्रमुख कार्य तो उनका गुरु विरजानन्द जी से आर्ष शिक्षा को प्राप्त करना था जिससे वह वेदों के यथार्थ स्वरूप सहित वेद मन्त्रों के यथार्थ अर्थ जान सके। यदि यह न हुआ होता तो फिर ऋषि दयानन्द, दयानन्द व स्वामी दयानन्द ही रहते जैसे कि आज अनेकानेक साधु संन्यासी व विद्वान हैं। कोई उनको जानता भी न। गुरु विरजानन्द जी की शिक्षा ने उन्हें संसार के सभी विद्वानों से अलग किया जिसका कारण उनकी प्रत्येक मान्यता का आधार वेद सहित सत्य व तर्क पर आधारित होने के साथ उनका सृष्टि क्रम के अनुकूल होना भी है।

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धर्म-अध्यात्म

ऋषिभक्त आर्यों, नेताओं व विद्वानों का राग-द्वेष से मुक्त होना आवश्यक

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सत्यार्थप्रकाश को ऋषि दयानन्द सरस्वती जी का सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ कह सकते हैं। इसके उत्तरार्ध के चार समुल्लासों में अन्तर्देशीय व दूर विदेशों में उत्पन्न मतों की समालोचना की गई है। ऋषि ने इन सभी चार समुल्लासों की पृथक भूमिका लिखी है। चतुर्दश समुल्लास की भूमिका में उन्होंने लिखा है कि उनका यह लेख हठ, दुराग्रह, ईष्र्या, द्वेष, वाद-विवाद और विरोध घटाने के लिये किया गया है, न कि इनको बढ़ाने के अर्थ क्योंकि एक दूसरे की हानि करने से पृथक् रह, परस्पर को लाभ पहुंचाना हमारा मुख्य कर्म है। अब यह विवेच्य मत विषय सब सज्जनों के सामने निवेदन करता हूं। विचार कर, इष्ट का ग्रहण, अनिष्ट का परित्याग कीजिये। हमारे विद्वानों को इसी भावना से ही अन्य विद्वानों की आलोचना करनी चाहिये। हमारी आलोचना पढ़कर कोई विद्वान हमसे क्षमा याचना ही करे, इसकी अपेक्षा करना उचित नहीं है।

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