मनमोहन कुमार आर्य
हम मनुष्य हैं और हमारा यह मनुष्य जन्म ईश्वर के नियमों के अनुसार प्रारब्ध के कर्मों के भोग व नये कर्मों को करके विवेक प्राप्ति व जीवन उन्नति के लिए हुआ है। मनुष्य का आत्मा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, ज्ञानादि गुणयुक्त, अल्पज्ञ और नित्य है। आत्मा अनादि, नित्य, अजर, अमर, एकदेशी, कर्म करने में स्वतन्त्र और फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार परतन्त्र भी है। जीवात्माओं को उनके पूर्व जन्मों के कर्मानुसार सुख व दुख प्रदान करने व नये कर्मों को करके जीवन की उन्नति के लिए ही ईश्वर जीवात्माओं को जन्म देता है। हर मृत्यु के बाद जीवात्मा का कर्मानुसार तब तक जन्म होता रहता है जब तक की उसकी मुक्ति नहीं हो जाती। यह आत्मा के वैदिक स्वरूप व उसके जन्म-मरण-मुक्ति के चक्र की स्थिति है।
ईश्वर वह सत्ता है जिससे इस सृष्टि की उत्पत्ति, रक्षा व पालन तथा सृष्टि काल पूरा होने पर प्रलय होती है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। ईश्वर सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है। ऋषि दयानन्द ने आत्मा और परमात्मा का यह स्वरूप अपने ग्रन्थों में प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार ईश्वर के अनन्त गुण, कर्म व स्वभाव हैं और उसी के अनुसार उसके निज नाम ओ३म् के अतिरिक्त गुणवाचक व सम्बन्धवाचक अनेक नाम भी हैं। ईश्वर की सत्ता केवल और केवल एक है, वह दो, तीन, चार व अधिक नहीं है।
ऋषि दयानन्द ने बताया है कि ईश्वर के मनुष्यों व सभी प्राणियों पर अनन्त उपकार हैं। इसलिए प्रत्येक जीव का यह कर्तव्य है कि वह ईश्वर की उपासना करे। उपासना का सही प्रकार उसके गुणों, कर्मों व स्वभाव का चिन्तन, उसकी स्तुति, प्रार्थना व ध्यान करना है। यदि हम ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना और ध्यान नहीं करते तो हम कृतघ्न सिद्ध होते हैं। ऐसा इसलिए कि हमने ईश्वर से सभी प्रकार की सुविधायें, सुख, माता, पिता, पत्नी, पुत्र, पुत्री, संबंधी, धन, वैभव, आश्रय, स्वास्थ्य आदि तो प्राप्त किया परन्तु इसके लिए उसका धन्यवाद नहीं किया। यह बात तो समान्य शिष्टाचार के अन्तर्गत आती है कि जिससे हमें कोई लाभ प्राप्त होता है तो हम उसका धन्यवाद करते हैं। ईश्वर के हमारे ऊपर विगत अनन्त जन्मों में अनन्त उपकार हुए हैं। अतः उनको स्मरण कर उपासना द्वारा उसका धन्यवाद करना हमारा नैतिक कर्तव्य है। यह सब बातें ऋषि दयानन्द जी ने अपने समय में हमें बताई व अपने ग्रन्थों में समझाईं हैं। उनसे पूर्व संसार के लोगों को न तो ईश्वर के सत्य स्वरूप का ही ज्ञान था और न ही जीवात्मा के स्वरूप का ही सत्य ज्ञान था। अतः स्वामी दयानन्द ने एक ऐसे अभाव की पूर्ति की है जिससे हमें अनेक प्रकार से सुख प्राप्त होने के साथ हमारा भावी जीवन व परजन्म भी सुधरता है। अतः संसार के सभी लोगों को ऋषि दयानन्द द्वारा प्रदत्त उपासना विषयक सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों को अपनाना चाहिये और ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना व धन्यवाद करने के साथ ही ऋषि के ग्रन्थों का अध्ययन कर सत्य को अपनाने के साथ उनका धन्यवाद करना चाहिये क्योंकि ऋषि दयानन्द के सिद्धान्तों से हमारा व मानवता का कल्याण होता आ रहा है व भविष्य में भी होगा।
उपासना के लिए महर्षि पतंजलि रचित योगदर्शन पठनीय ग्रन्थ है। इससे उपासना विषयक अन्य अनेक तथ्यों का ज्ञान होता है। ऋषि दयानन्द ने भी अपने ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में उपासना का प्रकरण लिखा है। वह भी महत्वपूर्ण होने से पठनीय है। हम व सारा संसार ऋषि दयानन्द द्वारा जीवात्मा व ईश्वर के स्वरूप का सत्य ज्ञान देने सहित ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना का ज्ञान कराने व उसकी सही विधि बतानें के लिए ऋणी हेै। ऋषि दयानन्द का ऋण चुकाने के लिए हमें उनके सभी ग्रन्थों को पढ़कर उनकी सत्य मान्यताओं को जानना होगा ओर सत्य का आचरण कर वर्तमान जीवन को सुधारना होगा जिससे हमारा भावी जीवन व परजन्म भी सुधरेगा और सुखमय बनेगा। हम यह भी अनुभव करते हैं कि यदि ऋषि दयानन्द किसी कारण संसार में न आते तो आज विश्व का जो दृश्य वर्तमान है, वह वैसा न होकर उससे कुछ बुरा ही होता। वैदिक आर्य हिन्दू संस्कृति की रक्षा न हो पाती जैसी उन्होंने की है। आज वैदिक धर्म व संस्कृति जिस उन्नत व सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त है, उसका समस्त श्रेय ऋषि दयानन्द जी को ही है। इसी के साथ इस संक्षिप्त चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।