सशक्त संगठन के लिए संवाद से विमुखता हानिकारक

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भारत के राजनैतिक दलों में आजकल देखने में आ रहा है कि आंतरिक लोकतंत्रा में लगातार कमी आती जा रही है। उसके क्या कारण हैं, यह एक चर्चा का व्यापक विषय है किंतु एक बात स्पष्ट तौर पर उभर कर सामने आती है कि दलों में कार्यकर्ताओं से संवाद लगातार कम होता जा रहा है। संभवतः इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि वर्तमान दौर टेक्नोलॉजी का है। टेक्नोलॉजी का प्रयोग करके चुनावी राजनीति एवं इसके अतिरिक्त तमाम तरह के राजनैतिक क्रिया-कलापों को मैनेज करने का प्रयास किया जा रहा है। शायदं इसी कारण तमाम ऐसे लोग हैं जो यह कहते हुए मिल जाते हैं कि चुनाव में सफलता पूरी तरह मैनेजमेंट का खेल है। जो लोग मैनेजमेंट के माध्यम से राजनीति में सब कुछ हासिल करना चाहते हैं, शायद वे यह भूल जाते हैं कि चुनावी मैनेजमेंट का खेल बहुत अधिक दिनों तक चलता नहीं है, यदि ऐसा होता तो राजनैतिक दलों को कार्यकर्ताओं की आवश्यकता नहीं पड़ती।
यहां एक बात यह समझ लेना जरूरी है कि दल का कार्यकर्ता स्थायी होता है। उसे कुछ मिले या नहीं, किंतु वह पार्टी के अच्छे-बुरे दिनों में साथ खड़ा रहता है उसे केवल और केवल मान-सम्मान चाहिए। कार्यकर्ता को कभी निराशा मिलती है तो कभी जलील भी होना पड़ता है किंतु वह इन सब बातों की परवाह किये बिना अपने कामों में लगा रहता है।
किसी भी राजनैतिक दल को जब थोड़ी सी भी चुनावी राजनीति में सफलता मिल जाती है तो उसका दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ने लगता है, उसे लगता है कि कार्यकर्ता रहे या न, क्या फर्क पड़ता है, क्योंकि कार्यकर्ताओं का आना-जाना तो लगा रहता है किंतु देखने में यह भी आया है कि कार्यकर्ताओं की बेरुखी राजनैतिक दलों को बहुत भारी भी पड़ती है। इस बात के तमाम उदाहरण मिल जायेंगे। जब कार्यकर्ता अपने दलों से नाराज होता है तो दलों को उनके आगे गिड़गिड़ाते भी देखा गया है। यह बात अलग है कि जब तक राजनैतिक दलों को सफलता मिलती रहती है तब तक कार्यकर्ताओं की याद नहीं आती है किंतु जब सितारे गर्दिश में होते हैं तो कार्यकर्ताओं की याद खूब आती है।
जहां तक आज की राजनीति में मैनेजमेंट की बात है तो इस तरह का पूरा खेल अर्थ पर आधारित होता है। जब तक पैसे का खेल चलता है तब तक मैनेजमेंट भी चलता है मगर जिस दिन पैसा खत्म, उसी दिन मैनेजमेंट का खेल भी खत्म। अब आसानी से यह समझा जा सकता है कि राजनैतिक दलों एवं नेताओं को कार्यकर्ताओं की पुरानी पद्धति पर भरोसा करना चाहिए या फिर मैनेजमेंट पर।
वर्तमान दौर की राजनीति में यदि कार्यकर्ता की हैसियत की बात की जाये तो नहीं के बराबर दिखती है। वैसे भी वर्तमान समय में दलों में वर्करों की संख्या कम और सुपरवाइजरों की संख्या ज्यादा होती जा रही है यानी कि नेता ज्यादा और कार्यकर्ता कम हो रहे हैं। नेता का आशय मेरा इस बात से बिल्कुल भी नहीं है कि वे कार्यकर्ता के रूप में काम नहीं करते हैैं। कार्यकर्ता का आशय मेरा इस बात से है कि जो एकदम से जमीन पर जाकर यानी ‘डोर टू डोर’ और ‘ग्राउंड’ की राजनीति करता है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या राजनैतिक दल कार्यकर्ताओं की दृष्टि से सुदृढ़ हैं। इस बात पर विचार किया जाये तो आम तौर पर सभी दल इस बात से परेशान हैं कि उनके कार्यकर्ताओं में कार्यकर्ता का भाव कम और नेता का ज्यादा हो रहा है। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? क्या राजनैतिक दलों का नेतृत्व इसके लिए जिम्मेदार नहीं है इस संबंध में निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि दलों में आम कार्यकर्ताओं के साथ नेतृत्व का संवाद निरंतर कम होता जा रहा है। इसीलिए कार्यकर्ताओं एवं नेतृत्व की राय में कभी-कभी भिन्नता भी देखने को मिलती है। तमाम मुद्दों पर नेतृत्व कुछ सोचता है तो कार्यकर्ता कुछ और सोचते हैं। उसका कारण यह है कि नेता एवं कार्यकर्ता के बीच संवाद का नितांत अभाव है, जबकि आवश्यकता इस बात की है कि पार्टी एवं संगठन की मजबूती के लिए संवाद होना बहुत जरूरी है।
राजनैतिक दलों में एक दौर ऐसा भी था जब छोटी-से छोटी बात पर कार्यकर्ता की राय ली जाती थी। कार्यकर्ता की राय को केंद्र में रखकर दल अपनी नीतियां बनाते थे एवं उसी के आधार पर काम करते थे किंतु अब स्थितियां बदल चुकी हैं। आमतौर पर अब राजनैतिक दलों में नेता एवं कार्यकर्ता के बीच एकतरफा संवाद चल रहा है यानी नेता बैठकों में आते हैं, अपनी बात कार्यकर्ताओं को बता देते हैं और उम्मीद करते हैं कि कार्यकर्ता उनकी बात को गीता का ज्ञान समझ कर उस पर पूरी तरह अमल करे, किंतु नेता इस बात की तनिक भी परवाह नहीं करते कि उन्होंने जो कुछ भी कहा है, उसके बारे में कार्यकर्ता क्या सोचता है? ऐसे बहुत कम अवसर आते हैं कि जब दोनों तरफ से संवाद का दौर चलता है।
कभी-कभी देखने में आता है कि औपचारिकता के तौर पर कार्यकर्ता की राय ले ली जाती है किंतु उस पर अमल होगा या नहीं, इस बात की कोई गारंटी नहीं होती। कुल मिलाकर स्पष्ट तौर पर यह कहा जा सकता है कि नेतृत्व की तरफ से सिर्फ निर्णय सुनाया जाता है। निर्णय सुनाने का जो तौर-तरीका होता है, उसे देखकर ऐसा लगता है कि वे कार्यकर्ता कम, नेताओं के कर्मचारी एवं अधीनस्थ अधिक हैं। कमोबेश इस तरह की स्थिति आज हर दल में देखने को मिलती है। यह बात अलग हो सकती है कि किसी दल में यह प्रवृत्ति जयादा होगी तो किसी में कम।
संगठन की दृष्टि से देखा जाये तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का लोहा आज पूरे देश एवं दुनिया में माना जाता है। निश्चित रूप से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ बेहद अनुशासित एवं संगठित है। उसका सबसे बड़ा कारण है कि वहां संवादहीनता की नौबत कभी नहीं आती। आरएसएस में सिर्फ निर्णय सुनाने की प्रवृत्ति नहीं है, बल्कि वहां सुनने एवं सुनाने का काम बराबर होता है यानी कि संवाद दोनों तरफ से होता है। आरएसएस में कौन छोटा कार्यकर्ता है कौन बड़ा, इस बात का कोई विशेष महत्व नहीं है, क्योंकि वहां हर कार्यकर्ता अपनी बात रख सकता है। बात इसलिए रख सकता है क्योंकि वहां बातों को सुनने का पूरा सिस्टम है। उन बातों पर कितना अमल होता है, यह अलग बात है, किंतु जब कोई कार्यकर्ता अपनी बात कह लेता है तो उसका मन हल्का हो जाता है। बातों को मन में लेकर वह अंदर ही अंदर घुटता नहीं।
इस लिहाज से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ बहुत ही बेहतर स्थिति में है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में जब भी कोई बात ऊपर से नीचे तक आती है तो उसे सहर्ष स्वीकार किया जाता है, क्योंकि उसमें स्वयं सेवकों की भावना एवं राय समाहित होती है।
एक समय था जब दलों में सामान्य से सामान्य कार्यकर्ता की राय बेहद मायने रखती थी और आर्थिक रूप से कमजोर कार्यकर्ता का दलों में स्वाभाविक विकास होता था किंतु आज आर्थिक रूप से कमजोर कार्यकर्ता का विकास बहुत मुश्किल से हो रहा है, क्योंकि अर्थ तंत्रा उसके विकास में अवरोधक बन कर खड़ा हो जाता है। हालांकि, आर्थिक रूप से कमजोर कार्यकर्ताओं का स्वाभाविक रूप से विकास आज भी हो रहा है किंतु उसका औसत पहले की अपेक्षा बहुत कम है। किसी जमाने में राजनैतिक दलों में संगठन स्तर पर चुनाव हुआ करते थे किंतु अब चुनाव की प्रक्रिया धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। यदि थोड़ी-बहुत चुनावी प्रक्रिया बची है तो उसकी प्रक्रिया को इतना जटिल बना दिया जाता है कि वही चुनकर आता है, जिसे नेतृत्व चाहता है, यानी चुनावी प्रक्रिया में भी वही बातें हो जाती हैं, जो आला कमान चाहता है। दूसरे अर्थों में यह कहा जा सकता है कि चुनावी प्रक्रिया के नाम पर मात्रा खाना-पूर्ति की जाती है।
राजधानी दिल्ली में भाजपा कार्यकर्ताओं की बैठक में एक बार भाजपा के पूर्व अध्यक्ष एवं तत्कालीन दिल्ली प्रदेश भाजपा प्रभारी श्री वेंकैया नायडू ने कहा था कि जब से फोन का प्रचलन बढ़ा है तब से कार्यकर्ताओं का घर-घर जाकर लोगों से मिलना कम हो गया है। श्री वेंकैया नायडू जी की बातों पर गौर किया जाये तो जमाना एक कदम और आगे निकल गया है। पहले कार्यकर्ता फोन पर तो बात कर लिया करते थे किंतु अब तो मैसेज, फेसबुक, वाट्सअप, ट्विटर एवं अन्य माध्यमों से संवाद स्थापित किया जा रहा है। टेक्नोलाजी के दौर में पर पुराने कार्यकर्ता अपने आपको पिछड़ते हुए पा रहे हैं।
वर्तमान समय में संचार के जितने भी आधुनिक तौर-तरीके हो सकते हैं, उनका उपयोग निश्चित रूप से बहुत लाभदायक है, किंतु जन संपर्क के पुराने तौर-तरीकों की विशेष रूप से आवश्यकता है। जन-संपर्क के पुराने तौर-तरीकों में अपनत्व दिखता था। कार्यकर्ता दूसरे कार्यकर्ता को सूचना देने के लिए उसके घर जाता था, उससे दुख-सुख की बातें करता था, इससे आपस में प्रेम विश्वास बढ़ता था और सामाजिक समरसता बढ़ती थी।
कहने का आशय यह है कि जन संपर्क के तमाम आधुनिक तौर-तरीकों के बावजूद संगठन में वह धार अब नहीं दिखती है जो पहले दिखती थी। पुराने कार्यकर्ता वैचारिक धरातल पर जितने प्रतिबद्ध थे, आज के कार्यकर्ताओं में वह बात नहीं दिखाई देती। पार्टी चाहे चुनाव हारे या जीते किंतु इन प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं पर हार-जीत का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था, किंतु वर्तमान समय में स्थिति अलग है। पार्टी के चुनाव हारते ही मौका परस्त लोग एवं अवसरवादी कार्यकर्ता पार्टी से किनारा करने लग जाते हैं। चूंकि, ये मौका परस्त लोग पार्टी की विचारधारा से प्रभावित होकर नहीं आते हैं। ये लोग अपनी स्वार्थ सिद्धि एवं अपना रुतबा बढ़ाने के लिए आते हैं। दोनों स्थितियों में यह आवश्यक होता है कि पार्टी सत्ता में आये। अतः यह स्वतः साबित होता है कि ऐसे लोग सिर्फ सत्ता के पुजारी होते हैं।
यह भी अपने आप में सत्य है कि किसी भी दल का संगठन तभी मजबूत होगा, जब उसमें पार्टी एवं पार्टी की विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध लोग शामिल हों। जिन पर पार्टी की हार-जीत का कोई असर न हो इसके लिए राजनैतिक दलों को पार्टी के प्रति समर्पित कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहन देना होगा, समय-समय पर उनका मनोेबल बढ़ाना होगा। उनकी राय को अहमियत देनी होगी। समय-समय पर उनसे संवाद कायम करना होगा। एकतरफा संवाद से संगठन कभी मजबूत नहीं हो सकता है। जो दल अपने को कैडर बेस दल होने का दावा करते हैं, उन दलों में भी ज्यादातर एकतरफा संवाद देखने को मिल रहा है। यानी कि नेता एवं कार्यकर्ता के बीच संवाद निरंतर कम होता जा रहा है।
कोई भी दल यह पता लगाने की कोशिश नहीं करता कि कार्यकर्ता क्यों उदासीन होता जा रहा है? उदासीन कार्यकर्ताओं की खोज-खबर लेने की बजाय दलों में यह चर्चा चल पड़ती है कि कार्यकर्ताओं का आना-जाना तो लगा ही रहता है। पुराने कार्यकर्ता जायेंगे तो क्या होगा, नये आ जायेंगे, जबकि सच्चाई तो यह है कि नये एवं पुराने कार्यकार्तओं में बुनियादी फर्क होता है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि संगठन की मजबूती के लिए राजनैतिक दल अपने संगठन में संवाद की गति को अनवरत बरकरार रखें।
अरूण कुमार जैन

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