आजाद भारत

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जगत मोहन

15 अगस्त 1947 भूले नहीं भूलता. दिल्ली आजाद होने की खुशियां मना रही थी. वहीं पूरा देश दंगों की आग में झुलस रहा था. लोग अपने ही घर में बेघर हो गये थे. भारत का नेतृत्व कहने लगा था, हम बूढ़े हो चले है अब हमें आजादी दे दो चाहे उसकी कितनी भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े. अंग्रेजों ने इसका फायदा उठाया और देश के तीन हिस्से कर दिये. विभाजन के इस दंश से अपने ही घर से बेघर हुये लोग आज भी इस दर्द से बाहर नहीं निकल पायें है. यह बात अलग है कि आगामी दो दशक में इस दंश का दर्द स्वतः ही समाप्त हो जायेगा क्योंकि जिस पीढ़ी ने इस दर्द को सहा था उसकी आयु पुरी हो चुकी होगी. लेकिन आजादी के नाम पर भारत की आत्मा पर लगे विभाजन के दंश को क्या हम कभी भूल पायेंगे?

भारत अंग्रेजी सियासत से तो आजाद हो गया और आज स्वतंत्रता की 64वीं वर्षगांठ भी मना रहा है. लेकिन क्या भारत के लोग 1200 वर्षो की गुलामी से निकलकर आजादी और स्वतंत्रता के महत्व और उसके अर्थ को समझ पाये हैं? कहीं आजादी और स्वतंत्रता अर्थात ‘स्व’ के ‘तंत्र’ का अर्थ हमने कुछ ओर तो नहीं निकाल लिया है? क्या इस दिन हमें इस बात की विवेचना की आवश्यकता महसूस नहीं होती है कि जिन उद्देश्यों के लिए हमारे पूर्वजों ने संघर्ष किया था क्या हम उन उद्देश्यों को प्राप्त कर सके है? यदि नहीं तो क्यों?

भारत अंग्रेजी सियासत से 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ. जैसे-जैसे दो दशक बीते आजादी के मायने बदलने लगे. किसी ने विचारों में अभिव्यक्ति की आजादी को खोजा तो किसी ने कला में अभिव्यक्ति की आजादी को तो किसी ने रहन-सहन, खान-पान मे अपनी आजादी को खोजा. विचारों की अभिव्यक्ति के नाम पर कुछ लोगों ने भारत की सम्प्रभुता पर हमला करते हुये आजाद भारत में आजादी का नारा बुलंद किया तो किसी ने कला की अभिव्यक्ति के नाम पर भारत के मानबिन्दुओं का अपमान. ये वो लोग है अथवा थेे जिन्होंने विदेशी संस्कृति और विदेशी विचार को ही अपना आधार बनाया था. वहीं नयी पीढ़ी ने सामाजिक ताने-बाने को तोड़ व्यक्तिगत स्वतंत्रता को अपनी आजादी का रुप दे दिया. अपने रहन-सहन, खान-पान तक को अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जोड़ लिया. मैं धुम्रपान करता हूँ और किसी को उससे नुकसान पहुँचता है तो मुझे क्या लेना देना? क्योंकि इससे मेरा व्यक्तिगत सुख जुड़ा हुआ है. इसलिये इस व्यक्तिगत सुख रुपी आजादी में कोई व्यवधान डालेगा तो यह मेरी व्यक्तिगत आजादी पर कुठाराघात होगा. ऐसे अनेको प्रश्नो ने आजादी को अपने अनुसार परिभाषित कर दिया.

क्या हमे इस सोच पर आधारित होना चाहिये कि आजादी का जीवन, विचारों की अभिव्यक्ति की आजादी, कलारुपी संस्कारों की आजादी, खानपान, रहन-सहन और व्यक्तिगत सुख के लिये जीवन जीने की आजादी यदि सामाजिक तानाबानों को तोड़ती है तो क्या यह आजादी सुखद है या फिर व्यवस्थाओं में बंधी आजादी जिसमें ‘मैं’ नहीं ‘तू ही’ का स्वर गुंजता हो इस प्रकार की आजादी हमारे भविष्य को सही दिशा दे पायेगी?

इसी प्रकार की चर्चा स्वतंत्रता अर्थात ‘स्व’ के ‘तंत्र’ पर करनी होगी. भारत आजाद हुआ 15 अगस्त 1947 को लेकिन ‘स्व’ के ‘तंत्र’ की शुरुआत 26 जनवरी 1950 को हुई जिस दिन को देश गणतंत्र दिवस के रुप में मनाता है. ‘स्व’ के ‘तंत्र’ का आधार भारत का संविधान भारत के उस समय के विद्वानो ने रचा. उस समय के अनेक विद्वान और वर्तमान के अनेक विद्वानों का कहना है कि भारत का संविधान वैसा ही है जैसी की कहावत हैं ‘कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा. अलग-अलग देशों के संविधानों मे से अपनी आवश्यकता के अनुसार विधायों को इकट्ठा कर इसे संविधान का नाम दे दिया. अभी तक लगभग 80 बार इसमें संशोधन हो चुका है. अंग्रेजी काल की ऐसी विभिन्न धारायें जो भारतीयों के अधिकारो पर प्रतिबन्ध लगाने के लिये गढी गयी थी वे ज्यों की त्यों इसमें जोड़ दी गयी. इसका अर्थ यह निकलता है कि पहले हम पर गोरे अंग्रेज शासन करते थे आज काले अंग्रेज. अंग्रेजों ने जिन कानूनांे के आधार पर आजादी से पूर्व भारत की जनता का शोषण किया था आज आजादी के बाद उन्हीं कानूनों के आधार पर भारत की सरकार भारत की जनता का शोषण करती है.

क्या हमारी स्वयं की कोई तंत्र व्यवस्था नहीं थी. क्या हमे विदुर और चाणक्य की नीति का स्मरण नही है. विदूर और चाणक्य की नीति आज विश्व के अनेक देशों को दिशा प्रदान करती हैं फिर हम इन नीतियो को अपने संविधान का आधार क्यों नही बना सकते थे? इसे भी छोड दे, गांधी जी राम राज्य की कल्पना करते थे फिर हमारे संविधान का आधार ‘राम राज्य’ क्यों नही बना?

ऐसे क्या कारण है कि विश्व को दिशा देने वाली यह नीतियाँ अपने ही देश में पराई हो गयी है? लार्ड मैकाले ने भारत भ्रमण के बाद 1835 में अपने पिता को पत्र लिखते हुये कहा था ‘‘भारत बहुत समृद्धशाली है यहाँ घरों पर ताले नहीं लगाये जाते. यहाँ के विद्वानों की घर-घर मे पूजा होती है. अगर भारत पर हमें राज करना है तो हमें भारत के इन विश्वासों को बदलना होगा’’. आगे पत्र मे उसने लिखा ‘‘मैं भारत में ऐसी शिक्षा पद्धति लाऊँगा जो भारत को अपनी ही आस्थाओं से विमूख कर देगी, भारतीय स्वयं हीन भावना से ग्रस्त हो जायेंगें’’. मैकाले के इस संकल्प का उदाहरण नेहरू जी की अपनी इस सोच के आधार पर स्पष्ट दिखाई दिया, जब उन्होंने कहा, ‘‘मैं दुर्घटनावश हिन्दू हूँ’’. यह वाक्य इस बात का भी परिचायक है कि मैकाले अपनी रची साजिश मे सफल रहा. स्वयं से हीन भाव रखने वाली यह विदेशी मैकाले सोच आज भी भारत पर हावी है. इसलिये क्या यह संभव था कि स्वयं से हीन भाव रखने वाला देश का प्रधानमंत्री भारत में ‘स्व के तंत्र’ की कल्पना कर सकता है. क्या नेहरू जी तरह हीन भावना से ग्रस्त उस समय के विद्वान भारत मे स्व के तंत्र का आधार विदूर और चाणक्य की नीतियों को बना सकते थे?

आजादी और स्वतंत्रता की गलत परिभाषा के आधार पर 64 वर्ष का जीवन जी चूके भारत को मैकाले की विचारधारा के पोषक फिर गुलामी और परतंत्रता की ओर धकेल रहे है. इस सबके बावजूद भारतीयता से जुडा़ समाज संघर्षरत है. बाबा रामदेव, अन्ना हजारे जैसे सन्त हमे जागृत कर रहे है. आओ हम आजादी के इस पर्व पर विश्वास के साथ खड़े होकर प्रतिज्ञा करे कि छद्म आजादी और परतंत्र को अपने भारत में टिकने नहीं देंगे.

1 COMMENT

  1. ठीक ही तो कहा था नेहरु ने- उनके दादाजान घियासुदीन अंग्रेजों से जान बचाने को गंगाधर हो गए थे- तभी तो इंदिरा जी ने फ़िरोज़ खान घांडी से निकाह किया जिसे बाद में गाँधी ने घांडी से गाँधी नाम दिया. . – हुए न दुर्घटनावश हिन्दू ? नेहरूजी गाँधी को ‘ भयंकर ढोंगी बूढा ! मानते थे – नेहरु की इसी विरासती सोच से आज के ये सेकुलर शैतान ग्रस्त हैं.

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