बाल ठाकरे से सीखे नेता

-डॉ. आशीष वशिष्ठ

शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे की शव यात्रा के समय उमड़े जनसमूह ने उनकी लोकप्रियता और मराठी मानुष पर उनकी गहरी पकड़ और प्रेम को तो सिद्घ किया ही है वहीं यह भी साबित किया कि बाल ठाकरे बयानवीर नहीं बल्कि जमीनी नेता थे। ïसाढे चार दशक के राजनीतिक जीवन में बाल ठाकरे ने कई उतार-चढ़ाव देखे लेकिन बाल ठाकरे का सबसे बड़ा गुण उनकी स्पष्टïवादिता और वचनबद्वता रही। उन्होंने जो सही समझा वो बोला और जो बोल दिया उस पर कायम तो रहे ही वहीं अपने शब्दों और कर्मों की पूरी जिम्मेदारी भी ली। नेताओं की भीड़ में बाल ठाकरे इसलिए अलग खड़े दिखाई देते थे। मीडिया ने उनकी छवि बयानबाज और नफरत फैलाने वाले नेता की बनाई थी लेकिन उनके व्यक्तित्व के उजले व सकारात्मक पक्ष को रखने की जहमत मीडिया ने कभी नहीं उठाई। वहीं बाल ठाकरे ने भी इसकी कभी कोई चिंता नहीं की कि मीडिया, राजनीतिक दल या दुनिया उनके बारे में क्या सोच रही है। मराठी मानुष और महाराष्टï्र के गौरव, अस्मिता और विकास के लिए उन्होंने कानून-कायदे को ताक पर रखकर कुछ भी करने से परहेज व संकोच नहीं किया। बाल ठाकरे ने जो सही समझा वो बोला और उस पर कायम रहने की मर्दानगी और साहस भी उन्होंने दिखाया। अपने समकक्ष या वर्तमान नेताओं की भांति बाल ठाकरे ने कभी अपने किसी बयान को लेकर न तो अफसोस जाहिर किया और न ही कभी अपने कहे से वो मुकरे।

 

वर्तमान दौर में गिने-चुने नेताओं को छोडक़र अधिकतर नेता वचनों के प्रति भी ईमानदार व सच्चे नहीं है। पिछले एक दश्क में देश के राजनीतिक परिदृश्य में बयानवीर नेता छाए हुए हैं। ऐसे नेता उलूल-जलूल बयान देकर वास्तविक मुद्दों को भटकाने और देश की जनता को भ्रमित करने और मीडिया के सुर्खियां बटोरने के अलावा कुछ और नहीं करते हैं। राजनीति में वैसे तो हर बयान का गूढ़ अर्थ और संकेत होता है लेकिन ठाकरे ने शब्दों को घुमाने-फिराने की बजाए पूरी ईमानदारी और स्पष्टï तरीके से अपनी बात दुनिया के सामने रखी। स्पष्टïवादिता और वचनों के प्रति ईमानदारी वर्तमान दौर के नेताओं और राजनीति में सर्वथा अभाव है। तमाम तथाकथित बड़े नेता सुबह-शाम भडक़ाऊ और एक-दूजे पर कीचड़ उछालने और गुमराह करने वाले बयान देते रहते हैं और निंदा होने पर बयान वापिस लेने और मीडिया पर बयान तोड़ मरोड़ कर पेश करने का आरोप लगाने से भी चूकते नहीं है। सुर्खियों में बाल ठाकरे भी बने रहे लेकिन उन्होंने जो कहा उसका कभी खंडन नहीं किया और ना ही अफसोस जताया। उन्होंने जो कुछ भी कहा उसकी पूरी जिम्मेदारी अपने ऊपर ओटी और उसका फल-प्रतिफल का सामना भी उन्होंने स्वयं ही किया।

 

बाल ठाकरे की छवि कट्टïर हिंदूवादी नेता की रही जो हिंदु हितों के लिए भडक़ाऊ बयानबाजी और हिंसा तक से परहेज नहीं करता था। ठाकरे की हिंदुत्व प्रेम उसकी परिभाषा और मुस्लिमों के प्रति नफरत के कई किस्से, कहानियां सुनी सुनायी जाती रही लेकिन उनके वचनों के मर्म और सकारात्मक अर्थ को जानने-समझने की किसी ने जहमत नहीं उठाई। ठाकरे भी मीडिया द्वारा गढ़ी अपनी छवि के प्रति बेपरवाह रहे हो अपने आदर्शों, सिद्वांतों और वचनों के प्रति सदैव दृढ़ और प्रतिबद्व रहे। जीवन भर एक विचारधारा में जीये और उसी के साथ अंतिम संासें भी ली। जिस दौर में नेता सत्ता प्राप्ति के लिए दल बदल से परहेज नहीं करते उस दौर में एक ही विचारधारा में जीवन खपा देना बहुत बड़ी बात है। लोकतंत्र में विभिन्न विचारधाराएं होना आम बात है और कानून के दायरे में रहकर सभी को अपनी बात कहने की स्वतंत्रता हमें हमारा संविधान भी देता है। आज ठाकरे जैसे नेताओं की संख्या उंगुलियों पर गिनी जा सकती है जो एक विचार के साथ जीवन भर रहने की हिम्मत रखते हों। राजनीति की पथरीली, कठोर और कंटीली राह से घबराकर ठाकरे ने अपनी राह नहीं बदली और दृढ़ निश्चय के साथ अपने विचारों पर अडिग रहे।

 

स्वतंत्रता प्राप्ति के दो दशकों के भीतर ही राजनीति के कप में भ्रष्टïाचार की मिठास घुलने लगी थी जो बदस्तूर जारी है। लेकिन उसक दौर के नेताओं से हटकर बाल ठाकरे ने अपने लिए एक अलग राह बनाई और मराठी मानुष जैसे स्थानीय मुद्दे को उठाकर राष्टï्रीय स्तर अपनी अलग पहचान बनाई। वो एक ही मिशन में जुटे रहे। सत्ता हासिल होने के बावजूद भी उन्होंने कोई उच्च पद या लाभ लेने की बजाए हमेशा किंग मेकर की भूमिका निभाई। आज नेता सत्ता प्राप्ति के लिए साम-दाम-दण्ड और भेद की हर नीति को अपनाने से परहेज नहीं करते हैं वहीं ठाकरे ने राजनीति में रहकर भी उससे एक दूरी हमेशा बनाई रखी। महाराष्टï्र और देश की राजनीति का हिस्सा होने और शिवसेना का सुप्रीमो होने के बावजूद उनका दामन जीवन भर बेदाग रहा। उन पर किसी कांड, घोटाले या भ्रष्टïाचार में लिप्त होने का आरोप नहीं लगा। आज राजनीति, माफिया, और नौकरशाहों को गठजोड़ आज पूरे तंत्र पर हावी है और सिर से पैर तक भ्रष्टïाचार के कीचड़ में सना हो उसे वातावरण में राजनीति से जुड़े किसी व्यक्ति का निष्कलंक होना कोई मामूल घटना नहीं है। राजनीतिक नफे-नुकसान के लिए नेता एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने और कीचड़ उछालने से बाज नहीं आते हैं ऐसे में ठाकरे के खिलाफ बयान देने से पूर्व नेताओं को सोचने को विवश होना पड़ता था कि उनके विरूद्घ आखिरकर बोला क्या जाए।

 

जीवनभर जिस शख्स का काला पक्ष देश की जनता व दुनिया के समक्ष रखा जाता रहा वो असल में वैसा कतई नहीं था यह बात उनकी मृत्यु के समय उमड़े विशाल जनसमूह ने साबित कर दिया। ठाकरे ने जीवनभर मीडिया की बनाई छवि से बाहर निकलने की खुद भी कोशिश नहीं की। उनकी मौत ने मीडिया के बनाए मिथक और तमाम कहानियों को झुठला व झकझोर दिया और जिंदगी भर उन्हें उग्र नेता के तौर पर पेश करने वाला मीडिया खुद भी दो दिन तक उनकी शान में कसीदे गढ़ता रहा। उस दौर में जब राजनीति भ्रष्टïाचार के अंधेरे में ढकी हो, नेता ईमानदारी, स्पष्टïवादिता, सच्चाई और वचनों के प्रति सच्चे और ईमानदार न हो ऐसे समय में बाल ठाकरे जैसे नेता से वर्तमान राजनीति को उनकी वचनों के प्रति ईमानदारी, स्पष्टïवादिता और प्रतिबद्वता, देश और मातृभूमि से प्रेम का सबक तो सीखना चाहिए।

 

2 COMMENTS

  1. किसी के मरणोपरांत उसकी बडाई करने की हमारे यहाँ एक परम्परा चली आ रही है,पर उस परम्परा का निर्वाह कम से कम एक बार प्रवक्ता में नहीं हुआ था ,जब अर्जुनसिंह के मृत्यु के बाद उनके बारे में ईमानदारी पूर्वक कुछ बातें कही गयी थी।उस समय मैंने लिखा था कि किसी का भी सही मूल्यांकन उसके मरणोपरांत ही हो सकता है ,आज मैं उसी बात को आगे बढाते हुए यह कहना चाहता हूँ कि बाल ठाकरे में कुछ गुण तो अवश्य थे,जिसमें शायद सर्वोपरी था,सही या गलत जो भी हो एक बार कह दिया तो उस पर अडिग रहे।दूसरा गुण था सत्ता का कोई लोभ नहीं होना,पर आशीष वशिष्ठ जी यह भूल गए हैं कि बाल ठाकरे ने जबसे राजनीति में प्रवेश किया वे खतरनाक खेल ही खेलते रहे,और अधिकतर घृणा की राजनीति करते रहे।कार्टूनिस्ट के रूप में प्रसिद्धि पाने के बाद उनका 1966 में धमाकेदार राजनैतिक प्रवेश दक्षिण भारतीयों के प्रति घृणा के साथ हुआ,जो कतईउचित नहीं कहा जा सकता।मराठियों के उस तबके का जो कि अपने को दबा हुआ महसूस करते थे,सहयोग भी उनको वहीं से मिलना आरम्भ हुआ।कट्टर हिंदुत्व के चलते उन्होंने दूसरे धर्म वाले मराठियों को भी कोई अहमियत नहीं दी।समय के चक्र के साथ ही वे गुजरातियों ,बिहारियों आदि के विरुद्ध भी जहर उगलते रहे।इन सबकी सराहना तो नहीं की जा सकती।व्यक्तिगत रूप से वे भले ही बिहारी बाबू(शत्रुघ्न सिन्हा)या अमिताभ बच्चन पर मेहरबान रहे ,पर इससे उनकी उत्तर भारतीयों विशेष कर बिहारियों के प्रति उनकी विद्वेष भावना को तो कम करके नहीं आँका जा सकता।रही बात उनकी लोकप्रियता की ,तो मराठियों का एक बहुत बड़ा तबका उनको अपना भगवान् मानता रहा है और उनके लिए हर तरह का कार्य संपन्न करने को सदैव तत्पर रहा है ,अतः उनकी अंत्येष्ठी में यह जन सैलाब कोई आश्चर्य की बात नहीं है।आज जब लोग हिटलर को ही अच्छा नहीं मानते तो उसके विचार धारा का अनुसरण करने वाले को तो अच्छा कहने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता ,चाहे उसके जनाजे के साथ कितने भी शामिल क्यों न हो जाएँ।

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