बांग्लादेशी घुसपैठ ने बदला पश्चिम बंगाल का जनसंख्या चरित्र

राजेन्द्र चड्डा

आज देश में मुख्य राजनीतिक धारा में अपवाद स्वरूप ही एकआध को छोड़कर शायद कोई राजनीतिक दल भारत के विभिन्न राज्यों में बड़े पैमाने पर बांग्लादेश से लगातार हो रही मुसलमानों की अवैध आवाजाही और घुसपैठ से इंकार करेगा। जबकि दूसरी ओर, धार्मिक समुदायों की जनसंख्या के जनगणना 2011 के आंकड़े दूसरी ही कहानी बताते हैं। अगर देश के पूर्वोत्तर भाग, जहां पर बांग्लादेशी आबादी की व्यापक स्तर पर हुई अवैध घुसपैठ के कारण भू राजनीतिक-सांस्कृतिक परिदृश्य
ही परिवर्तित हो चुका है, को देंखे तो असम में मुसलमानों की जनसंख्या में वृद्धि हैरानी के साथ चिंता में डालने वाली है। असम में मुसलमान 2001 में 30.9 प्रतिशत से बढ़कर 2011 में 34.22 प्रतिशत हो गए हैं यानी तीन प्रतिशत से भी अधिक। ऐसे ही, पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की हिस्सेदारी 2001 में 25.2 प्रतिशत की तुलना में 2011 में बढ़कर 26.94 प्रतिशत हो गई है। मुसलमान बहुल जनसंख्या वाले बड़े राज्यों में असम में मुसलमानों की वृद्धिदर 29.59 प्रतिशत और पश्चिम बंगाल 21.81 प्रतिशत रही हैं।
अब मुसलमानों की इस वृद्धि को स्वाभाविक या प्राकृतिक मानना जनसंख्या के आंकड़ों की बेमानी व्याख्या है। असली सवाल यह है कि आखिर इतनी अधिक जनसंख्या कहां से आbangladeshi-muslim-influx-in-indiaई? आखिर आसमान से तो उतरी नहीं।
आज बेशक असम में धार्मिक जनगणना रिपोर्ट के परिणाम एक झटका हो लेकिन पश्चिम बंगाल और बिहार में धार्मिक जनसांख्यिकी परिवर्तन भी उतनी ही चिंताजनक है क्योंकि यहां पर भी बांग्लादेशी मुसलमानों की घुसपैठ अच्छी खासी रही है। इन दोनों राज्यों के राजनीतिक दल सत्ता पर काबिज होने के लिए बांग्लादेशी मुसलमानों के वोटबैंक पर निर्भर हैं। यह अनायास नहीं है कि राजद ने बांग्लादेश के करीब पूर्वी बिहार में ज्यादातर सीटें जीती थी।
जनगणना के आंकड़ों ने पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की जनसंख्या की अप्रत्याशित वृद्धि का विषय बहस के कंेद्र में ला दिया है। बांग्लादेश से मुसलमानों का अवैध आगमन के मुद्दे पर भाजपा को छोड़कर सभी राजनीतिक दलों में दुरभसंधि है। इसी का परिणाम है कि सबने इस पर मौन साधा हुआ है। पश्चिम बंगाल में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए यह विषय अति संवेदनशील बन गया है क्योंकि मुसलमानों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद, मालदा और दक्षिण 24 परगना के सीमावर्ती जिलों में बांग्लादेशी मुसलमानों की घुसपैठ के कारण व्यापक रूप से जनसांख्यिकीय परिवर्तन हुआ है। इन स्थानों पर स्थिति खतरनाक है। पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनावों में सीटों के लिए संघर्ष में कई पार्टियों में मुस्लिम वोट के लिए पागलपन की हद तक की होड़ होगी। ऐसा कई स्थानों पर मुसलमानों के चुनाव परिणामों को प्रभावित करने की क्षमता के कारण होगा खासकर मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में। देश में इस बहुलता का परिणाम मुसलमानों के भारी संख्या में मतदान के लिए निकलने और ध्रुवीकरण की राजनीति की एक प्रवृत्ति स्थापित करने के रूप में हुआ है।
देश के विभाजन के बाद 1951 की जनगणना में पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की कुल जनसंख्या 49,25,496 थी जो कि 2011 की जनगणना में बढ़कर 2,46,54,825 यानी लगभग पांच गुना हो गई। भारत के जनगणना आयुक्त की रिपोर्ट के अनुसार, पश्चिम बंगाल में 2011 में हिंदुओं की 10.8 प्रतिशत दशकीय वृद्धि की तुलना में मुस्लिम जनसंख्या की दशक वृद्धि दर 21.8 प्रतिशत है। इस तरह, हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों की दशकीय वृद्धि दर दोगुने से भी अधिक है।
1951 के बाद से हर जनगणना में पश्चिम बंगाल के औसत की तुलना में हिंदुओं की दशकीय वृद्धि दर कम ही रही है। इसी तरह, यह बात ध्यान में आती है कि मुसलमानों की दशकीय वृद्धि दर हमेशा से हिंदुओं की वृद्धि दर के साथ-साथ पश्चिम बंगाल की औसत वृद्धि दर की तुलना में काफी अधिक रही है। हिंदू जनसंख्या की वृद्धि दर के मुकाबले मुस्लिम जनसंख्या 1981 में 8.18 प्रतिशत अंक अधिक, 1991 में 15.80 अंक अधिक, 2001 में 11.68 अंक अधिक और 2011 में 11 अंकों की अधिक दर्ज की गई। यही नहीं, वर्ष 2011 में पश्चिम बंगाल में मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर प्रदेश की औसत दशकीय वृद्धि की तुलना में 7.87 अंक अधिक थी। अगर जनसांख्यिकीय नजरिए से देंखे तो इस तरह लगातार एक लंबे समय तक वृद्धि दर में इतना अधिक अंतर हैरतअंगेज ही नहीं बल्कि बेहद चिंताजनक हैं।
पश्चिम बंगाल में देश विभाजन के बाद जहां एक ओर प्रत्येक जनगणना के साथ हिंदुओं का संख्या बल क्षीण हुआ है वहीं दूसरी ओर तुलनात्मक रूप से मुसलमानों का राज्य की धार्मिक जनसंख्या में अनुपात में तेजी से बढ़ा है। मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि और आकार में बढ़ोत्तरी बिना इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हुई कि राज्य में ऐसी बढ़ी हुई आबादी को वहन करने की क्षमता नहीं है। इतना ही नहीं, परिवार नियोजन के राष्ट्रीय कार्यक्रम तथा गुणवत्ता वाले जीवन की पूरी उपेक्षा हुई।
यह बात, हर जनगणना के साथ साफ होती गई है कि मुसलमानों की उच्च वृद्धि दर के दबाब के कारण पश्चिम बंगाल के सभी जिलों में मुस्लिम जनसंख्या बढ़ी है।
कुल प्रजनन दर (टीएफआर) का अर्थ एक महिला को उसके समूचे प्रजनन काल में पैदा हुए बच्चों की औसत संख्या है। 2001 की जनसंख्या गणना पर आधारित एनएफएचएस के एक अध्ययन के अनुसार, पश्चिम बंगाल के सभी जिलों में मुस्लिम महिलाओं की कुल प्रजनन दर (टीएफआर) अत्यंत अधिक पाई गई। हिंदू महिलाओं के लिए 2.2 टीएफआर (2.1 के स्तर से थोड़ा ही अधिक) तो मुस्लिम महिलाओं में यह 4.1 होने का अनुमान लगाया गया था।
पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की जनसंख्या की वृद्धि और विशेष रूप से मुसलमानों की धार्मिक आनुपातिक हिस्सेदारी (2001 में यह 25.2 प्रतिशत थी) के बढ़ने का एक सबसे बड़ा कारक मुस्लिम महिलाओं का अधिक टीएफआर होना था। वर्ष 2001 में राज्य के कुछ जिलों जैसे मुर्शिदाबाद (63.67 प्रतिशत), मालदा (49.72 प्रतिशत), उत्तर दिनाजपुर (47.36 प्रतिशत), बीरभूम (35.08 प्रतिशत), और दक्षिण 24 परगना (33.2 प्रतिशत) में मुसलमानों का प्रतिशत अप्रत्याशित था।
पश्चिम बंगाल के जिलों में लगभग एक समान सामाजिक पर्यावरण को देखते हुए केवल महिलाओं की प्रजनन क्षमता ही इस अभूतपूर्व वृद्धि का एकमेव कारण नहीं हो सकता क्योंकि यह प्राकृतिक मानव उत्पत्ति के सभी तर्क खारिज करता है। यह स्पष्ट है कि इस वृद्धि का एक बड़ा हिस्सा बांग्लादेशी घुसपैठ यानी बांग्लादेश के मुसलमानों का अवैध आगमन है।
दुर्भाग्य से भारत में और विशेष रूप से पश्चिम बंगाल में जनसंख्या वृद्धि के विषय वोट बैंक की राजनीति के साथ जुड़ गया है और इसी का परिणाम है कि यह जनसांख्यिकीय हमला किसी भी सार्वजनिक प्रतिरोध के बिना बेरोकटोक जारी है। इस तरह जनसंख्या का यह मौन हमला नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
देश के समाजशास्त्री इस अस्वाभाविक वृद्धि यानी मुसलमानों की उच्च जन्म दर का कारण सामाजिक भेदभाव और गरीबी बताते हैं। जबकि मुसलमानों की उच्च जन्म दर के लिए गरीबी को जिम्मेदार ठहराने का तर्क अर्धसत्य है। केरल में जहां मुसलमान किसी भी भारतीय मानक के हिसाब से गरीब नहीं हैं, वहां 2011 के दशक में मुस्लिम अनुपात 24.7 प्रतिशत से काफी अधिक 26.6 प्रतिशत दर्ज किया गया है। दूसरी ओर, पाकिस्तान और बांग्लादेश दोनों ही भारत के मुकाबले गरीब हैं लेकिन फिर भी उनकी जन्म दर कम है। भारत में मुसलमानों की दशकीय जनसंख्या वृद्धि 24 प्रतिशत की तुलना में पाकिस्तान में दशकीय जनसंख्या वृद्धि 20 प्रतिशत और बांग्लादेश में सिर्फ 14 प्रतिशत रही है। ऐसे में भारतीय मुस्लिम जनसांख्यिकी पर विचार के लिए सांस्कृतिक और राजनीतिक कारकों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
इतना ही नहीं, देश में हिन्दुओं की 14.5 प्रतिशत दशकीय वृद्धि की तुलना में मुसलमानों की दशकीय जनसंख्या वृद्धि लगभग 10 प्रतिशत अधिक है। जनगणना 2011 के अनुसार, देश की जनसंख्या में मुसलमानों के प्रतिशत में 2001 और 2011 के दशक में 0.8 प्रतिशत अंक (14.23 प्रतिशत या 17.22 करोड़) की वृद्धि हुई है। पिछले दशक में 1991 और 2001 के बीच कुल आबादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी (1.73 प्रतिशत अंक से 13.43 प्रतिशत) अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है। मुसलमान एकमात्र ऐसा धार्मिक समुदाय है, जिसकी कुल आबादी में हिस्सेदारी में इजाफा हुआ है। उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश (24.29 प्रतिशत ) को छोड़कर, सभी बड़े राज्यों में मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि दर 24.6 प्रतिशत के राष्ट्रीय औसत से अधिक है।
वहीं 2001-2011 के दशक में हिंदुओं के प्रतिशत में 0.7 प्रतिशत अंक की गिरावट दर्ज की गई है। यही कारण है कि देश में पहली बार हिंदुओं की जनसंख्या 80 प्रतिशत से कम हुई है। अब देश की कुल आबादी का 79.8 प्रतिशत हिंदू है। भारत के 1971 के जनसंख्या मानचित्र की 2011 के जनसंख्या मानचित्र के साथ तुलना करने पर मुसलमानों की जनसंख्या का सच स्पष्ट हो जाता है। जहां 1971 के भारतीय जनसंख्या मानचित्र में जम्मू-कश्मीर के अलावा से देश में केवल दो मुस्लिम बहुल जिले थे, केरल में मल्लापुरम और पश्चिम बंगाल में मुर्शिदाबाद। वहीं 2011 के भारतीय जनसंख्या मानचित्र को देखने से पता चलता है कि भारत में बिहार, पश्चिम बंगाल और असम में 10 से 15 ऐसे जिले हैं, जहां मुसलमान बहुमत में हैं। इस बहुमत का एक बड़ा कारण मुस्लिम महिलाओं की अधिक प्रजनन क्षमता से अधिक बांग्लादेश से हो रही मुसलमानों की अवैध घुसपैठ है। इस हिसाब से मुसलमानों की वृद्धिदर को बांग्लादेश के संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

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