बारिश  और बचपन  

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 मिलन  सिन्हा

दो दिनों की गर्मी के बाद आज सुबह से ही कुछ अच्छा होने का आभास हो रहा था. कहते हैं कि प्रकृति विज्ञानी तो पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों की हरकतों से जान जाते हैं कि प्रकृति आज कौन-सा रंग दिखाने वाली है. बहरहाल, अपराह्न एक बजे के बाद से तेज हवा चलने लगी, बादल आने-जाने लगे और बस बारिश शुरू हुई तो एकदम झमाझम. बालकनी से घर के सामने और बगल में फैले आम, नीम, यूकलिप्ट्स, सहजन, अमरुद आदि के पेड़ों को बारिश में बेख़ौफ़ हंसते-झूमते देख कर बहुत ही अच्छा लग रहा था. सामने की भीड़ वाली सड़क पर अभी इक्के-दुक्के लोग छाता सहित या रहित आ-जा रहे थे. सड़क किनारे नाले में पानी का बहाव तेज हो गया था, पर सड़क पर कहीं बच्चे नजर नहीं आ रहे थे. इसी सोच-विचार में पता नहीं कब अतीत ने घेर लिया.

बचपन में बारिश हो और हम जैसे बच्चे घर में बैठे रहें, नामुमकिन था. किसी न किसी बहाने बाहर जाना था, बारिश की ठंडी फुहारों का आनन्द लेते हुए न जाने क्या-क्या करना था. हां, पहले से बना कर रक्खे विभिन्न साइज के कागज़ के नाव को बारिश के बहते पानी में चलाना और पानी में छप-छपाक करना सभी बच्चों का पसंदीदा शगल था. नाव को तेजी से भागते हुए देखने के लिए उसे नाले में तेज गति से बहते पानी में डालने में भी हमें कोई गुरेज नहीं होता था. फिर उस नाव के साथ-साथ घर से कितनी दूर चलते जाते, अक्सर इसका होश भी नहीं होता और न ही रहती यह फ़िक्र कि घर लौटने पर मां कितना बिगड़ेगी…. अनायास ही गुनगुना उठता हूँ, ‘बचपन के दिन भी क्या दिन थे … … …’

आकाश में बिजली चमकी और गड़गड़ाहट हुई तो वर्तमान में लौट आया. यहाँ तो कोई भी बच्चा बारिश का आनंद लेते नहीं दिख रहा है, न कोई कागज़ के नाव को बहते पानी में तैराते हुए. क्या आजकल बच्चे बारिश का आनंद नहीं लेना चाहते या हम इस या उस आशंका से उन्हें इस अपूर्व अनुभव से वंचित कर रहे हैं या आधुनिक दिखने-दिखाने के चक्कर में बच्चों से उनका बचपन छीन रहे हैं. शायद किसी सर्वे से पता चले कि महानगर और बड़े शहरों में सम्पन्नता में रहने वाले और बड़े स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के लिए कहीं उनके अभिभावकों ने इसे अवांछनीय तो घोषित नहीं कर रखा है. चलिए, अच्छी बात है कि गांवों तथा कस्बों के आम बच्चे प्रकृति से अब तक जुड़े हुए हैं और इसका बहुआयामी फायदा पा रहे हैं. बरबस याद आ जाती है सर्वेश्वरदयाल सक्सेना  की ये पंक्तियां :

मेघ आए

बड़े बन ठन के सँवर के.

आगे-आगे नाचती-गाती बयार चली,

दरवाज़े खिड़कियाँ खुलने लगीं गली-गली,

पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के

मेघ आए

बड़े  बन-ठन के सँवर के. … …

विचारणीय प्रश्न है कि हम जाने-अनजाने अपने बच्चों को प्रकृति के अप्रतिम रूपों को देखने-महसूसने से क्यों वंचित कर रहे हैं, उन्हें कृत्रिमता के आगोश में क्यों धकेल रहे हैं?

हां, एक और बात. कहा जाता है कि बारिश में स्नान करने से घमौरियां ख़त्म हो जाती हैं, किसी तरह के कूल-कूल पाउडर की जरुरत नहीं होती. हमने तो ऐसा पाया है. क्या आपने भी ?

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