विश्व में अव्वल है बस्तरिया कला- शिल्प !

डॉ राजाराम त्रिपाठी

उल्लेखनीय है कि बस्तर का आदिम  बुनकर, घड़वा, वादक समुदाय जो कि मुख्य रूप से गांडा समुदाय तथा  लौह कला से संबद्ध आदिम समुदाय जिन्हें अब लोहार कहा जाता है,जो कि आजादी के पूर्व तक के सामाजिक वर्गीकरण में बस्तर के  आदिम जनजातीय समुदायों में ही गिने जाते थे ,,,किंतु  वैधानिक सर्वेक्षण की अक्षम्य त्रुटियों के  कारण  गांडा तथा लोहार आदिम समुदाय को  आदिम जनजातीय समुदायों से विलग मान कर अनुसूचित जाति/ अन्य पिछड़ा वर्ग में वर्गीकृत कर दिया गया है। जिससे  बस्तर के मूल आदिम जनजातीय समुदायों के अभिन्न अंग रहे ये लोहार तथा गांडा दोनों ही समुदाय जल जंगल जमीन से अपने नैसर्गिक अधिकारों से वंचित होकर एवं सरकारी अनुदानों एवं आरक्षण की व्यवस्था से मरहूम होकर आज दर-दर को भटकने को बाध्य हो गए हैं। यह अक्षम्य गलती देर से ही सही पर अब जल्द से जल्द सुधार ली जानी चाहिए । ]*

  लेख:-  नृतत्व-विज्ञानियों के अनुसार बस्तर के ‘बाइसन-हार्न’  माड़िया को विश्व की सबसे प्राचीन जनजातियों में गिना जाता है। बस्तर की जनजातीय सभ्यता लगभग 4000 -4500 साल पुरानी तथा अंडमान निकोबार की जावंगा जनजाति के बाद सबसे पुरानी आदिम जनजाति मानी जाती है। बस्तर संभाग में निवास करने वाली  स्थानीय जातियां एवं जनजातियां शिल्प एवं कला के दृष्टिकोण से अत्यंत समृद्ध हैं । इनकी शिल्प कलाएं बहुत मनमोहक एवं अनूठेपन से भरी होती हैं इसी वजह से इनकी कलाएं हमेशा लोगों के आकर्षण का केन्द्र होती हैं । गौरतलब है कि शिल्प कलाएं या हस्तशिल्प के वर्तमान स्वरूप में आने के पीछे एक लंबी प्रक्रिया होती है उसका एक पूरा इतिहास होता है क्योंकि कोई भी शिल्प या कला केवल शिल्प या कला नहीं होती, उसका एक लंबा इतिहास भी उसमें समाया रहता है जो तत्कालीन परिस्थितियों को अपने शिल्प के माध्यम से वर्तमान के समक्ष प्रस्तुत करता है जिसमें भविष्य की झलक भी दृष्टव्य होती है । यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि बस्तर के स्थानीय जातीय-जनजातीय समाज की भूत व भविष्य के प्रति समझ एवं उनकी कल्पनाशीलता उनके शिल्प एवं कलाओं में प्रभावी तरीके से दृष्टिगत होता है । बस्तर संभाग की इन जातियों-जनजातियों में निम्नानुसार शिल्प एवं हस्तकलायें पाई जाती हैं :-

1.घड़वा शिल्पकला

2.लौह शिल्पकला

3.मृत्तिका (मिट्टी) शिल्पकला

4.बुनकर शिल्पकला

5.काष्ठ शिल्पकला

6.पत्ता शिल्पकला

7.बाँस शिल्पकला

8.कौड़ी शिल्पकला

बस्तर संभाग की जातियों-जनजातियों की उपरोक्तानुसार शिल्प एवं उनकी हस्तकलाओं का संक्षिप्त अध्ययन निम्नलिखित है :-

1.घड़वा शिल्प कला :- बस्तर की प्रमुख शिल्पकार घड़वा जाति (गांडा जाति की एक उपजाति) के लोग अपनी परंपरागत कलात्मक सौंदर्य भाव के लिए प्रसिद्ध हैं. इनके शिल्प सौंदर्य ने इनके कार्यों पर घड़वा कला, डोकरा आर्ट के नाम की मोहर लगाकर उनके कलात्मक जीवन को प्रसिद्ध कर दिया है । “काँसा और पीतल के मिश्रण से तैयार धातु को ‘बेलमेटल’ यानी ‘घन्टी धातु’ नाम दिया गया। कारण, घन्टी में उपयोग की जाने वाली धातु न तो पूरी तरह काँसा होती है और न पूरी तरह पीतल ही। इसमें इन दोनों ही धातुओं का योग होता है। यह शिल्प शासकीय तौर पर ‘ढोकरा शिल्प’ कहा गया है जबकि इस शिल्प के पारम्परिक शिल्पी इसे ‘घड़वा’ शिल्प” के नाम से पुकारते रहे हैं। ‘घड़वा’ शब्द मूलतः ‘गढ़वा’ है, इसमें कोई दो राय नहीं है। कारण, गढ़ने का अर्थ है बनाना और गढ़वा यानी गढ़ने वाला। कल्पनाशीलता का सहारा ले कर कोई चीज गढ़ना। सम्भवतः कालान्तर में यही शब्द पीतल-काँसा धातु से दैनिक उपयोग की सामग्री और मूर्तियाँ गढ़ने वाले समुदाय के लिये जातिवाचक हो कर पहले ‘गढ़वा’ फिर ‘गड़वा’ और अन्ततः ‘घड़वा’ हो गया होगा ।”

पीतल, काँसा और मोम से बनी घड़वा शिल्प अपने कल्पना विन्यास में अलौकिक होते हैं. घड़वा वा शिल्प के अंतर्गत देवी- देवता व पशु-पक्षी की आकृतियां तथा त्यौहारों में उपयोग आने वाले वाद्य सामग्री तथा अन्य घरेलू वस्तुएं उपयोगी आती हैं  । “घड़वा-कला, विश्व प्रसिद्ध कला है । देवों, देवियों, मनुष्यों और पशु-पक्षियों आदि की घड़वों द्वारा ढाली गयी आकृतियाँ, जगह-जगह काफी सराही जाने लगी हैं । घड़वा-शिल्प, घड़वा जाति , गांडा जाति का पारंपरिक शिल्प है और यही शिल्प उनका व्यवसाय भी है।”

2.धातु कला व लौह शिल्प :- बस्तर की घड़वा जाति द्वारा धातुओं को शिल्प कला में परिवर्तित किया जाता है इस जनजाति द्वारा सुन्दर व आकर्षक मूर्तियां बनाई जाती हैं लोहार जाति द्वारा लोहे की वस्तुओं का निर्माण है “ये लोग चाटू, चूल्हा, छुरी, हँसिया, टंगिया फरसी, तीर, साँकल, गाड़ी -पहियों के पट्टे आदि बना-बना कर प्राप्य जीवन की आवश्यकताएँ पूरी तो करते ही हैं, साथ-साथ वे लौह-पट्टिकाओं से पशु-पक्षियों की प्रदर्शनीय आकृतियाँ भी तैयार करने लगे हैं ।”

बस्तर में माड़िया,मुरिया आदिवासियों के विभिन्न अनुष्ठानों में लोहे से बने स्तंभों के साथ देवी-देवता पशु पक्षी व नाग आदिल की मूर्तियां प्रदत्त की जाती है।

“बस्तर के कई लौह शिल्पियों से बातचीत में यही बात उभर कर आयी कि सर्वप्रथम लोहे का उपयोग आखेट करने और आत्मरक्षा के लिये अस्त्र-शस्त्र बनाने में हुआ। इसके बाद बारी आयी घरेलू और कृषि प्रयोजनों के लिये लोहे से बने उपकरणों के प्रयोग की । फिर देवी- देवताओं के पूजन में उपयोगी वस्तुएँ भी इससे बनने लगीं और शान्ति-काल में संगीत तथा विवाह आदि संस्कारों में भी उपयोग हेतु इससे विविध प्रकार के उपकरण बनाये जाने लगे।” 

*[ उल्लेखनीय है कि बस्तर की यह लोहार वस्तुत है बस्तर की जनजाति समुदायों के ही अंग हैं तथा आजादी के उपरांत वैधानिक सर्वेक्षण की अक्षम्य त्रुटि के  कारण इन्हें भी गांडा समुदाय की भांति ही आदिम जनजातीय समुदायों से विलग कर अनुसूचित जाति में वर्गीकृत कर दिया गया है।*]

आज राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बस्तर के लौह शिल्प के लाखों प्रेमी व प्रशंसक हैं ।

3.मिट्टी शिल्प :- मानव का जन्म पांच मूलभूत तत्वों के साथ हुआ है इन्हीं पंचभूतों में से एक मिट्टी है । मनुष्य ने सर्वप्रथम मिट्टी को आकार दिया और यही आकार उसका प्रथम शिल्प बना, यद्यपि मिट्टी से बर्तन आदि बनाने का कार्य कमोबेश पूरे देश मे कुम्हार जाति के लोग करते हैं परंतु मृदा शिल्प या मूर्तियां, खिलौने आदि बनाने का कार्य अन्य वर्गों के द्वारा भी किया जाता रहा है । “लोक जीवन में मिट्टी से बने पात्रों की महत्ता आरम्भ से ही रही है । लोक जीवन में इसकी उपयोगिता का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जन्म से ले कर मृत्यु तक के सभी संस्कारों और क्रिया-कलापों में इनकी उपस्थिति अनिवार्य रही है।”

छत्तीसगढ़ में बस्तर संभाग के शिल्पकारों द्वारा मिट्टी शिल्प का अति सुंदर कलात्मक अलंकरण इस प्रकार से होता है मानों मिट्टी का घोड़ा अब बस दौड़ने वाला है यही कलात्मक श्री वैभव बस्तर संभाग की अलग पहचान बनाए हुए हैं पारंपरिक पर्व त्यौहार पर मिट्टी निर्मित सामग्री का प्रयोग बहुतायत मात्रा में होता है । “अब तो कुम्हारी मृत्तिका शिल्प इधर काफी समृद्ध हो चली हैं। “टेर्राकोटा” नाम से उसकी ख्याति दिनों-दिन जोर पकड़ती जा रही है। “टेर्राकोटा” शिल्प के अंतर्गत देवी-देवताओं और पशु आकृतियों को अधिक तूल दिया दिया जाता है ।”

4. बुनकर शिल्प कला :-

छत्तीसगढ़ में बस्तर और पड़ोसी उड़ीसा में कोरापुट खनिज और हरे-भरे जंगलों के संदर्भ में प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध भूमि द्वारा पोषित आदिवासी संस्कृति और परंपराओं का घर है।

इस क्षेत्र के जातियों की अपनी एक विशेष बुनाई परंपरा है, जिसमें वनस्पतियों के रंग से रंगे कपड़े बुने जाते हैं । इनके द्वारा जो वस्त्र बुने जाते हैं उन्हें पाटा और फेंटा कहा जाता है । पाटा कमोबेश साड़ी के आकार का  होता है, जिसका उपयोग मुख्य रूप से आदिवासी महिलाओं द्वारा वस्त्र (साड़ी) के रूप में किया जाता है और फेंटा का प्रयोग पुरुषों द्वारा पगड़ी या कंधे के कपड़े (गमछा) के रूप में उपयोग किया जाता है ।

वनस्पतियों के रंग से सूत रंगने और उन्हें कपड़ा बनाने का शिल्प एक पारंपरिक रूप है जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाया जाता रहा है । लिखित अभिलेखों के अभाव में, शोध के दौरान एकत्रित मौखिक और व्यक्तिगत संचार कम से कम दो सौ वर्षों तक इसके अभ्यास की ओर इशारा करते हैं।

इस क्षेत्र में बुनकरों की तीन मुख्य जातियाँ पनका, महार और चंडार (गांडा)  हैं । बुनकर अपने बच्चों को 10-12 साल की उम्र में रंगाई और बुनाई का प्रशिक्षण देना शुरू करते हैं और सत्रह या अठारह साल की उम्र तक वे कुशल बुनकर बन जाते हैं । सूत तैयार करने से लेकर बुनाई आदि का समस्त कार्य महिलाओं के सहयोग से पुरूष वर्ग द्वारा किया जाता है जबकि कपड़ों की रंगाई का काम एवं विपणन हेतु बाजार ले जाने का कार्य मुख्य रूप से महिलाओं द्वारा किया जाता है ।

*[उल्लेखनीय है कि बस्तर का यह   बुनकर, घड़वा, वादक समुदाय मुख्य रूप से गांडा समुदाय है जो कि आजादी के पूर्व तक के सामाजिक वर्गीकरण में बस्तर के  आदिम जनजातीय समुदायों में ही गिना जाता था ,,,किंतु बस्तर के लोहारों की भांति ही वैधानिक सर्वेक्षण की अक्षम्य त्रुटि के  कारण  गांडा समुदायको भी आदिम जनजातीय समुदायों से विलग कर अनुसूचित जाति में वर्गीकृत कर दिया गया है। जिससे  बस्तर के लोहार तथा गांडा दोनों समाज जल जंगल जमीन से वंचित होकर एवं सरकारी अनुदान एवं आरक्षण से मरहूम होकर आज दर-दर को भटकने को बाध्य हो गए हैं। यह गलती देर से ही सही पर सुधारी जानी चाहिए । ]*

5.काष्ठकला :- सम्पूर्ण प्रदेश में सबसे अधिक वन क्षेत्रफल वाले बस्तर संभाग में काष्ठ शिल्प की बहुत पुरानी व समृद्ध परंपरा है क्षेत्र का जनजातीय जीवन प्रकृति का अन्यतम साथी है वह जन्म से लेकर मृत्यु तक वह वनों पर आश्रित रहता है । “काष्ठ-शिल्प की परम्परा बहुत प्राचीन और समृद्ध है । लकड़ी में विभिन्न रूपाकारों को उतारने की कोशिश मनुष्य ने आदिम युग से शुरू कर दी थी। जब से मानव ने मकान में रहना सीखा, तब से काष्ठ-कला की प्रतिष्ठा हुई है।

संभाग के जातियों-जनजातियों के जीवन यापन से लेकर मनोरंजन तक सभी पहलू वनों से ही सम्बद्ध रहते हैं, इसलिए प्रकृति के प्रति उनका प्रेम चिरस्थाई होता है । प्रकृति के प्रति जब वह अपना संपूर्ण प्रेम लकड़ी के टुकड़ों पर जब उकेरता है तब वह काष्ठ अप्रतिम शिल्प बनकर अद्भुत कला उत्कर्ष का प्रतीक बनती है फिर चाहे वह घोटुल के खंभे हो, देवी-देवताओं के झूले हों, कलात्मक रूप से बने मृतक-स्तंभ हों, देवी-देवताओं सहित वनवासी महिला-पुरुषों या पेड़-पौधों की मूर्तियां हो या पशु पक्षियों की की आकृति हो वे लकड़ी के फर्नीचरों के अलावा कई तरह की कलात्मक वस्तुएँ बनाते हैं ।

“काष्ठ शिल्प का अद्भुत नमूना हैं जगदलपुर एवं दन्तेवाड़ा के बीच मृतकों की स्मृति में गाड़े गये ‘माड़ेया खमा’ यानी मृतकों की स्मृति में गाड़े गये स्मृति-स्तम्भ । इन स्मृति-स्तम्भों में उकेरे गये चित्र सजीव लगते हैं । मृतक स्तम्भों के ऊपर पक्षी अवश्य ही बनाया जाता है ।”

6.पत्ता शिल्पकला :- घने जंगलों से आच्छादित क्षेत्र बस्तर संभाग काष्ठ शिल्पकला के अतिरिक्त पेडों के पत्तों से क्षेत्र के जातीय-जनजातीय समाज के द्वारा पत्ता शिल्पकारी का एक बेहतरीन उदाहरण में जनजाति क्षेत्रों के प्रस्तुत किया जाता है ।वास्तविक तौर पर देखा जाय तो क्षेत्र के हर जातियों – जनजातियों के लोक जीवन में पत्तों की महत्ता वैसे ही है जैसे किसी मैदानी क्षेत्र में पशुधन का महत्व होता है । इस क्षेत्र के निवासियों द्वारा पत्तों का निम्नलिखित प्रकार से उपयोग करते हुए पत्ता शिल्पकला का बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत किया जाता  है :-

(1) बस्तर संभाग के वन क्षेत्रों में पाये जाने वाले पलाश और  सिंयाड़ी नाम के पेड़ों से पाए जाने वाले पत्तों का उपयोग बहुतायत में किया जाता है । इन पत्तों से ग्रामीण वर्षा एवं धूप से बचने के लिए एक विशेष प्रकार के बिना हत्थे के छत्तेनुमा आकृति बनाई जाती है जिसे स्थानीय बोली में “छतोडी” के नाम से जाना जाता है । सिंयाड़ी पत्तों से सनहा (बरसाती) भी तैयार किया जाता है. छतोड़ी ओढ़ने और सनहा पहन लेने पर आदमी बरसात में भीगता ही नहीं है ।

(2) उक्त के अतिरिक्त साल, सिंयाड़ी और पलाश के पत्तों का उपयोग खाना खाने हेतु  पत्तल और दोने बनाए जाने हेतु किया जाता है जो कि दैनिक उपयोग हेतु आवश्यक होता है । स्थानीय बोली में आकार के आधार पर इन्हें ‘डोबला-डोबली व पतरी’ कहा जाता है ।

(3) उक्त के अतिरिक्त साल, सिंयाड़ी और पलाश के पेड़ों के रेशों से रस्सी बनाई जाती है जो कि बहुत मजबूत होती है ।

(4) आम के पत्ते कलश में रखने और तोरण बनाने के काम में आते हैं, तथा तेंदू के पत्तों से स्थानीय स्तर पर बीड़ी बनाई  जाती है जिसे ग्रामीण क्षेत्रों में ‘चोंगी’ के नाम से जाना जाता है ।

(5) बस्तर में पाई जाने वाली खजूर की छोटी प्रजाति जिसे ‘छिंद’ के नाम से जाना जाता है उसके पत्तों का कलात्मक उपयोग स्थानीय निवासी करते हैं साथ ही जनजातीय जीवन में ‘छिंद’ के पत्ते बहुत उपयोगी हैं विवाह अवसर पर दुल्हा दुल्हन हेतु ‘महुड़’ यानी कि सेहरा भी छिंद (छोटी खजूर की प्रजाति) के नए और मुलायम पत्तों से बनाए जाते हैं । “छिंद के पत्तों से कलात्मक खिलौने, चटाई, आसन, दूल्हा-दुल्हन के मोढ़ आदि बनाए जाते हैं। पत्तों की कोमलता के अनुरूप उनमें विभिन्न कलाभिप्रायों को बुनने में अनेक जातियों और जनजातियों के पारम्परिक कलाकार आज भी लगे हैं ।”

7.बांस शिल्प :- बस्तर का जनजातीय जीवन में बाँस का महत्वपूर्ण उपयोग होता है । दैनिक जीवन मे उपयोग आने वाली बांस से बनी वस्तुओं के निर्माण में अपनी शिल्पकला को पिरोकर बांस शिल्प के रूप में संपूर्ण क्षेत्र सहित देश-प्रदेश में अपनी बेहतरीन आकर्षक लोकशिल्पकला का परिचय प्रस्तुत किया है । “बाँस शिल्प का बस्तर के जनजीवन से जीवन्त सम्बन्ध रहा है। चाहे वे ‘सुपा’, ‘टुकना’, ‘गपा’, ‘गवली’, ‘चरेया’, ‘परला’ आदि घरेलू उपकरण हों, कृषि उपकरण हों या कि आखेट के लिये प्रयुक्त धनुष और तीर । ये सभी बाँस शिल्प की ही देन रहे हैं ।”

बांस के झुरमुटों के बीच जिंदगी जीने वाले आदिवासियों ने बाँस की इतनी सुंदर परिकल्पना कर जीवनोपयोगी वस्तुएं बनाकर अपने अप्रतिम कला शिल्प का उदाहरण दिया है । “बस्तर आदि जिलों में जनजातियों के लोग अपने दैनिक जीवन में उपयोग के लिए बाँस की बनी कलात्मक चीजों का स्वयं अपने हाथों से निर्माण करते हैं। बाँस का कार्य करने वाली कई जनजातियों में कई सिद्धहस्त कलाकार हैं। बस्तर, रायगढ़, सरगुजा में बाँस-शिल्प के अनेक परंपरागत कलाकार हैं ।”

8.कौड़ी शिल्पकला :- कौड़ी समुद्र में पाये जाने वाले एक जीव का कड़ा आवरण होता है जिसका पूजा-पाठ, जादू-टोने, टोटके आदि के लिए किया जाता है । पुराने समय मे इसका चलन मुद्रा  के रूप में भी किया जाता था । बस्तर संभाग के दूर-दूर तक समुद्र नहीं पाया जाता ऐसी स्तिथि में यह बस्तर के जातीय-जनजातीय समाज शिल्प के रूप में अपनाए जाने को लेकर यह कहा जा सकता है कि विभिन्न क्षेत्रों से व्यापार व्यवसाय के लिए बस्तर क्षेत्र में आने वाली जातियों द्वारा इसे समाज के समक्ष प्रस्तुत किया गया होगा । इनमें ‘बंजारा’ जाति के लोगों का नाम लिया जाता है  जो कि एक घुमंतू जाति रही है । “बस्तर में कौड़ी शिल्प का आगमन राजस्थान से यहाँ आये बंजारों के साथ ही हुआ । इसके पहले इस शिल्प का अस्तित्व इस अंचल में नहीं था ।”

इन कौड़ियों से ग्रामीणों द्वारा पूजा हेतु प्रयुक्त होने वाले देवी-देवताओं के परिधान, मुकुट (देव-मकुट) एवं पूजा हेतु आवश्यक सामान रखे जाने वाली टोकरियां जो कि बांस की बनी होती हैं उसके चारों ओर कौड़ियों को सजाकर बनाई जाती हैं जिन्हें स्थानीय भाषा मे ‘देव-गपली’ कहा जाता है।

यह कुछ इनके अलावा भी कल की कई विधाएं हमारे बस्तर के जनजाति समुदाय में प्रतीत रही है पर दुख का विषय है कि सर्वव्यापी वैश्विक बाजारवाद के दबाव तथा हमारी भोगवादी संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के कारण यह कलाएं अब दिनों दिन तिरोहित होते जा रही हैऔ। इनमें से कई कलाएं तो विलुप्तप्राय हो गई हैं। इनके संरक्षण संवर्धन के नाम पर सरकारें  इन्हें इन्हें म्यूजियम में बस कैद कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेती हैं।

‍  जबकि उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि बस्तर की जनजाति समुदाय की कला परम्परा वर्तमान तथाकथित सभ्य समाज की कला परंपराओं की मूल आधार रही है। अपनी इन  मूर्त अमूर्त नानाविध कलाओं की इन गौरवशाली परंपराओं को आने वाली पीढियां के लिए संरक्षित संवर्धित करना, उनका दस्तावेजीकरण करना हमारा दायित्व है। 

डॉ राजाराम त्रिपाठी

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