आँधी हो तूफान घिरा हो, पथ पर कभी नहीं रूकना है

अज्ञात ने बेटियों के बारे में बड़े ही खूबसूरत शब्दों में यह लिखा है कि-‘जरूरी नहीं रौशनी चिरागों से ही हो। बेटियाँ भी घर में उजाला करती हैं।’ आज बेटियां समाज के हर क्षेत्र में अपनी भागीदारी दे रहीं हैं और अपने परिवार, समाज व देश का नाम रौशन कर रहीं हैं। सच तो यह है कि बेटियों से जीवन जन्नत है,बेटी जीवन पर बोझ नहीं है। बेटियां खुदा की नियामतें होतीं हैं। किसी ने क्या खूब कहा है कि-‘ख़ुश्बू बिखेरती फूल है बेटी, इंद्रधनुष का सुंदर रूप है बेटी, सुरों को सुंदर बनाने वाली साज है बेटी, हकीकत में इस धरती का ताज है बेटी।’ हाल ही में संघ लोक सेवा आयोग यानी कि यूपीएससी का परिणाम घोषित हुआ है। यह हम सभी के लिए अत्यंत हर्ष के साथ गौरवान्वित करने वाला विषय है कि संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा की परीक्षा में हमारे समाज, हमारे देश की बेटियों ने इतिहास रच दिया है। हमने देखा कि शीर्ष चार स्थानों पर बेटियों का ही दबदबा रहा है। बेटियों ने इस कठिन परीक्षा में सफलता के झंडे गाड़ कर यह साबित कर दिया है कि वे किसी भी मायनों में बेटों से कमतर नहीं हैं।यह हमारे भारतीय समाज की बहुत पुरानी और रूढ़िबद्ध धारणा रही है कि बेटियां चूल्हा चौका के सिवा और कुछ भी काम नहीं कर सकती हैं, और हम ये मानते आए हैं कि बेटियां घर में ही रहें तो ठीक है, इनका बाहर की दुनिया से कोई वास्ता नहीं है। सदियों सदियों से यही रूढ़िबद्ध धारणा हमारे समाज में चली आ रही हैं और कहने को आज भी हम बेटियों के बारे में यह कहते हैं कि बेटा और बेटी समान है लेकिन समाज की सोच बेटियों के प्रति आज भी कहीं न कहीं बेटों के समान नहीं है ‌‌‌‌‌। सिमोन द बोउवार का कथन है, “स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है।” समाज अपनी आवश्यकता के अनुसार स्त्री को ढालता आया है। उसके सोचने से लेकर उसके जीवन जीने के ढंग को पुरुष अभी तक नियंत्रित करता आया है और आज भी करने की कोशिश करता रहता है। सच तो यह है कि पितृसत्तात्मक समाज ने वह सब अपने अनुसार तय किया है और आज भी हमारा समाज पुरूष प्रधान समाज की सोच से बाहर नहीं निकल पा रहा है, लेकिन समाज की यह सोच गलत है, क्यों कि अकेला पुरूष ही समाज को कभी आगे नहीं ले जा सकता है। समाज को आगे ले जाने में जितनी भूमिका पुरूषों की है, महिलाओं की भूमिका भी पुरूषों से कम नहीं है, बल्कि यह बराबर व समान है। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि समाज की सोच में बेटियों के प्रति कोई बदलाव नहीं आए हैं। धीरे धीरे समाज की सोच बदलने लगी हैं और आज हम देखते हैं कि बेटियों के जन्म पर भी बेटों के जन्म की तरह ही थालियां बजाई जाती हैं, मिठाई बांटी जाती है, खुशियां मनाई जाती हैं, पार्टियों , फंक्शन्स तक का आयोजन किया जाता है। सर्वप्रथम परीक्षा में सफलता प्राप्त कर चुके सभी अभ्यर्थियों को अनेक शुभकामनाएं देना चाहूंगा। विशेषकर समस्त महिला अभ्यर्थियों को जिन्होंने इस परीक्षा में सफलता के झंडे गाड़ कर हम सभी का,इस भारत का भाल ऊंचा करने का काम किया है। आज हमारे देश की बेटियां हर क्षेत्र में बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रही हैं और हरेक क्षेत्र में काम करके देश व समाज का नाम रौशन कर रहीं हैं। भले ही आज बैंकिंग का क्षेत्र हो, शिक्षा का क्षेत्र हो, सेना हो, राजनीति हो या कोई भी क्षेत्र हो, हमारे देश की बेटियां पुरूषों/बेटों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं। हमारी बेटियां आज लड़ाकू विमान तक उड़ा रहीं हैं,खेल के क्षेत्र में तो हमारे देश की बेटियों की प्रतिभा किसी से छिपी नहीं है। इंजीनियरिंग का क्षेत्र हो या चिकित्सा, अंतरिक्ष विज्ञान का क्षेत्र हो, ज्योतिष विज्ञान का क्षेत्र हो, मीडिया रिपोर्टिंग हो, पुलिस फोर्स हो, कोरपोरेट क्षेत्र हो या सामाजिक सेवा, हमारे देश की बेटियों ने आज यह साबित कर दिया है कि भले ही आज भी हमारे समाज को पुरूष प्रधान कहा जाता हो, लेकिन महिलाओं की, हमारे देश की बेटियों की समाज के,देश के, परिवार के उत्थान में,उसकी प्रगति में, उसके उन्नयन में भागीदारी कमतर कतई नहीं है। आज पुरूषों को यह बात समझने की आवश्यकता है कि पुरूष और स्त्री इस सृष्टि के दो पहिए हैं, जहां एक के अभाव में दूसरे की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। आज सशक्त समाज के निर्माण में बेटियों की, या यूं कहें की महिलाओं की भागीदारी अति आवश्यक है तो यह बात कहना कतई गलत नहीं होगी। आज सरकार महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है। इसी क्रम में महिलाओं को प्रत्यक्ष रूप से सशक्त बनाने के लिए ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ जैसे सरकार के अनेक कार्यक्रम सही दिशा में बढ़ते हुए कदम हैं। यह ठीक है कि पहले के जमाने में महिलाओं की स्थिति कुछ ठीक नहीं थी, समाज की घृणित व तुच्छ मानसिकता ने महिलाओं को घर की चहारदीवारी में सीमित कर दिया था लेकिन आज महिलाएं घर की चहारदीवारी तक सीमित नहीं हैं और वे पुरूषों के समान समाज के हर क्षेत्र में आगे आ रही हैं। शायद प्राचीन काल में महिलाओं की स्थिति को देखकर ही राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने एकबार कहा था-‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी।’, लेकिन आज महिलाएं अबला, कमजोर नहीं हैं,वे सबला हैं, शक्ति हैं, सशक्त हैं। हाल फिलहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि

महिलाएं अपना जीवन बाधाओं या संघर्ष के बीच ही शुरू करती हैं। 21वीं सदी में जब हमने लगभग लगभग हर क्षेत्र में कल्पनातीत प्रगति कर ली है, तब भी कई देशों में कोई महिला राष्ट्राध्यक्ष नहीं बन सकी है। इससे भी दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि दुनिया के तमाम हिस्सों में पुरूषों की तुलना में आज भी महिलाओं को दोयम दर्जे का माना जाता है। उन्हें आज वे वे अधिकार नहीं दिये जाते हैं जो कि पुरूषों को धड़ल्ले से दिए जाते हैं। कितनी बड़ी बात है कि स्कूल जाना भी किसी लड़की के लिए जिंदगी और मौत का सवाल बन जाता है। हालांकि, सदैव ऐसी स्थितियां भी नहीं रही हैं। जानकारी देना चाहूंगा कि भारत में ही ऐसे कालखंड भी रहे, जब महिलाएं स्वयं अनेक निर्णय लिया करती थीं। हमारे शास्त्रों और इतिहास में ऐसी बहुत सी महिलाओं का उल्लेख मिलता है जो अपने शौर्य, विद्वत्ता और प्रभावी प्रशासन के लिए जानी जाती थीं। आज भी अनगिनत महिलाएं अपनी पसंद के क्षेत्रों में कार्य करके राष्ट्र निर्माण में योगदान दे रही हैं। डॉ. अंबेडकर जी ने एकबार यह कहा था कि ‘यदि किसी समाज की प्रगति के बारे में सही-सही जानना है तो उस समाज की स्त्रियों की स्थिति के बारे में जानो। कोई समाज कितना मजबूत हो सकता है, इसका अंदाजा इस बात से इसलिए लगाया जा सकता है क्योंकि स्त्रियाँ किसी भी समाज की आधी आबादी हैं। बिना इन्हें साथ लिए कोई भी समाज अपनी संपूर्णता में बेहतर नहीं कर सकता है।’ वास्तव में यह बात ग़लत नहीं कही गई है कि एक शांतिपूर्ण और समृद्ध समाज निर्माण के लिए महिला-पुरुष असमानता पर आधारित जड़वत पूर्वाग्रहों को समझना तथा उनसे मुक्त होना जरूरी है। अब यहां बात करते हैं नारी के सशक्त होने की। आखिर नारी के सशक्त होने का मतलब क्या है ? तो इसका सीधा सा और सटीक सा उत्तर यह है कि सशक्त होने का आशय केवल घर से बाहर निकल कर नौकरी करना या पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर चलना भर नहीं है। यहां नारी के सशक्त होने का आशय है उसके निर्णय ले सकने की क्षमता का आधार‌। मतलब यह है कि वह अपने निर्णय स्वयं ले रही है या इसके लिए वह किसी और पर निर्भर है। बहरहाल, यहां यह कहना चाहूंगा कि कहीं ना कहीं आज भी यह भी एक कड़वा सच है कि पैतृक सत्ता समाज होने के कारण पुरुषों को ही मान सम्मान दिया जाता है तथा आज भी कई ऐसे प्रांत हैं जहां बेटियों के होने पर निराशा ज़ाहिर की जाती है, जो कि ठीक नहीं है। वास्तव में, आज का युग ऐसा युग है जिसमें महिलाओं को हमारे देश के संविधान में कई अधिकार दिए गए हैं। आज महिलाएं विकासशील भारत को विकसित बनाने के लिए लगातार अपना योगदान दे रही हैं। आज के समय में हमें यह समझने व जानने की जरूरत है कि

महिला सशक्तिकरण में उनकी स्वतंत्रता, समानता के साथ-साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पहलू भी शामिल हैं। इसके माध्यम से, वास्तविक प्रयास यह सुनिश्चित करने में निहित है कि हम लैंगिक समानता लाएं। आज महिलाओं के विचारों को महत्व देने की जरूरत है, हर क्षेत्र में नवनिर्माण के लिए अवसरों को प्रदान करने की जरूरत है, उनकी स्वतंत्रता, सुरक्षा सम्मान जरूरी है। वैसे,21 वी सदी में महिलाओं के प्रति समाज का दृष्टिकोण बदल रहा है, अब पहले की सी स्थितियां नहीं रहीं हैं। अंत मे शैलेन्द्र कुमार सिंह चौहान के शब्दों में यही कहना चाहूंगा कि-‘आया समय, उठो तुम नारी।युग निर्माण तुम्हें करना है।। आजादी की खुदी नींव में।तुम्हें प्रगति पत्थर भरना है।। अपने को, कमजोर न समझो। जननी हो सम्पूर्ण जगत की, गौरव हो।। अपनी संस्कृति की, आहट हो स्वर्णिम आगत की।तुम्हें नया इतिहास देश का, अपने कर्मो से रचना है।। दुर्गा हो तुम, लक्ष्मी हो तुम। सरस्वती हो, सीता हो तुम।। सत्य मार्ग, दिखलाने वाली, रामायण हो, गीता हो तुम। रूढ़ि विवशताओं के बन्धन, तोड़ तुम्हें आगे बढ़ना है।। साहस, त्याग, दया ममता की, तुम प्रतीक हो अवतारी हो। वक्त पड़े तो, लक्ष्मीबाई, वक्त पड़े तो झलकारी हो, आँधी हो तूफान घिरा हो, पथ पर कभी नहीं रूकना है।।

(आर्टिकल का उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है।)

सुनील कुमार महला

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