तो चपरासी बन जाते..

 

जिस व्यवस्था में लोग पार्षद बनने के लिए चुनाव लाखों रूपये खर्च करते हों और पार्षद बनते ही उनके चेहरे और घर दोनों की रंगत में चमक आ जाती हो, उस व्यवस्था में यदि विधानसभा में बैठने वाले मंत्री और विधायक अपने वेतन-भत्ते बढाने के लिए अपने गरीब होने का रोना रोयें तो इसे घड़ियाली आंसुओं के अलावा और क्या कहा जाएगा?

ये घड़ियाली आंसू देखने मिले जब संसदीय कार्यमंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने राज्य सरकार के मंत्रियों और राज्य के विधायकों के वेतन-भत्ते बढ़ाने का विधेयक 20 मार्च को विधानसभा में पेश किया। शुरुवात स्वयं संसदीय कार्यमंत्री ने यह कहते हुए की कि हमें जो वेतन मिलता है, वह तो मुलाकातियों को चाय पिलाने में ही निकल जाता है। अधिकारियों और कर्मचारियों को छठा वेतनमान मिला है। वे केवल आठ घंटे काम करते हैं। वे हड़ताल भी करते हैं। जबकि, हमें चौबीसों घंटे काम करना होता है और हम वेतन-भत्ते बढ़ाने के लिए हड़ताल भी नहीं कर सकते| हमें शालीनता से मांगना होता है। महिला विधायक प्रतिमा चंद्राकर का कहना था कि विधायकों के घर चपरासी के घर से भी बद्तर स्थिति में हैं। विधायक ताम्रध्वज साहू का कहना था कि लोग कहते हैं कि विधायक भ्रष्टाचार करेंगे, उनके वेतन भत्ते बढाने की क्या जरुरत? विधायक भ्रष्टाचार न करें इसलिए वेतन-भत्तों में वृद्धि जरुरी है। विधायक अमितेश शुक्ल का कहना था कि वेतन-भत्ता इतना किया जाए कि विधायक मुलाक़ात करने आने वालों को चाय के साथ समोसा भी खिला सके क्योंकि पूरा वेतन तो चाय पिलाने में ही निकल जाता है।

निश्चित रूप से त्रिपुरा के मुख्यमंत्री मानिक सरकार या वहां के किसी भी मंत्री या विधायक के समान त्याग और सादगी की आशा छत्तीसगढ़ के किसी भी मंत्री या विधायक से नहीं   की जाना चाहिए और प्रदेश की जनता करती भी नहीं होगी। जनप्रतिनिधियों को न केवल सम्मानजनक वेतन भत्ते मिलना चाहिए बल्कि वह हर परिस्थिति और सहूलियत उन्हें मिलना चाहिए, जिससे वे प्रदेश के लोगों के प्रति उनके दायित्व और लोकतांत्रिक कर्तव्यों को पारदर्शी एवं सुचारू ढंग से पूरा कर सकें। जिस राज्य में 42 लाख परिवार याने लगभग राज्य की आबादी का 80%हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे रह रहा हो, जहां की लगभग 48% आबादी कुपोषित हो और जिसे स्वयं स्वास्थ्य मंत्री स्वीकार करते हों और जिस राज्य के पांच वर्ष से कम आयु के 50% बच्चे कुपोषित हों, वहां के जनप्रतिनिधियों को अपना सम्मानजनक वेतन तय करते समय राज्य सरकार के एक डेढ़ लाख कर्मचारयों और अधिकारियों को मिलने वाले वेतन को अपनी चिंता में रखना चाहिए या गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले दो करोड़ लोगों को अपनी चिंता में रखना चाहिए, इसे तय करने के लिए जिस विवेक, बुद्धि और नीयत की जरुरत होती है, उसका प्रदर्शन हमारे जनप्रतिनिधियों ने 20 मार्च को विधानसभा में नहीं किया, यह तो तय है, वरना यह सुनने नहीं मिलता की विधायकों के घर चपरासी के घर से भी बद्तर हैं।

बहरहाल, जब उन्होंने गरीब गुरबों से आँखें फेरकर राज्य सरकार के अधिकारियों, कर्मचारियों और चपरासियों से इश्क और रश्क कर ही लिया तो उसका भी सच देख ही लिया जाए। राज्य के शासकीय कर्मचारियों को वेतन पुनर्निर्धारण दस साल में एक बार मिलता है जबकि आपने अपना वेतन पिछले दस सालों में आठ बार पुनर्निर्धारित किया है। राज्य सरकार के किसी भी कर्मचारी को भरती होते ही 75 हजार वेतन नहीं मिलेगा, इसके लिए उसे पूरे जीवन खटना पड़ेगा, जबकि एक बार विधायक बनते ही जनप्रतिनिधी अधिकतम वेतन के हकदार हो जाते हैं। एक सरकारी कर्मचारी 30 वर्ष की नौकरी के बाद पेंशन का हकदार होता है, जबकि जनप्रतिनिधी एक बार विधायक बनते ही पूरा जीवन पेंशन और अन्य सुविधाओं का आजीवन हकदार हो जाता है। विधायक बनते ही जनप्रतिनिधी आजीवन यात्राभत्ता के पात्र हो जाते हैं। विधायकों को एक साल में तीन लाख रुपये तक की यात्रा के रेलवे कूपन दिए जा रहे हैं। जब आप इतनी यात्रा करते होंगे तो काम कब करते होंगे? वैसे बातें तो बहुत सी हैं, पर एक अंतिम बात जो थोड़ी कडुवी जरुर है, पर, सच है। राज्य सरकार ही क्या किसी भी सरकारी कर्मचारी के लिए ये बहुत आराम से कहा जाता है कि वो अपने कार्यस्थल से गायब रहते हैं, पर औसतन एक विधायक कितने दिन विधानसभा की बैठक अटेंड करता है?

निश्चित रूप से सभी विधायक या मंत्री ऐसे नहीं हैं| इनमें से कुछ अपने कार्य के प्रति समर्पित और ईमानदार भी होंगे, पर इनका प्रतिशत उतना ही होगा, जितना राज्य सरकार में कामचोर कर्मचारियों का होगा। याने, वहां अच्छों का प्रतिशत ज्यादा है और यहाँ …। तय बात है की राजनीति आज के दौर में कोई मिशन नहीं बल्कि प्रोफेशन याने व्यवसाय है। एक राजनीतिज्ञ के लिए जनसेवा वैसा ही कार्य है, जैसा डॉक्टर के लिए मरीजों को देखना, जिसका वह पैसा लेता है। जैसे डॉक्टर मरीज के दर्द का इलाज करता है, पर, उसके दर्द से संवेदना नहीं रखता है, ठीक वैसा ही जनसेवकों की जनसेवा में है। यदि ऐसा नहीं होता तो अपना वेतन-भत्ता बढ़ाते समय इन जनप्रतिनिधियों को कुछ समय पूर्व भरी ठंड में आन्दोलन करने वाले शिक्षाकर्मियों, डी.एन.तिवारी कमेटी की सिफारिशों को लागू करवाने की मांग को लेकर आन्दोलन करने वाले राज्य सरकार की लिपिकों, आंगनवाडी कार्यकर्ताओं, मितानिनों, जिनकी जमीन छीनी गई है और जिन पर लाठी बरसाई गयी है, उन किसानों की, सुध जरुर आई होती।

अरुण कान्त शुक्ला

 

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अरुण कान्त शुक्ला
भारतीय जीवन बीमा निगम से सेवानिवृत्त। ट्रेड यूनियन में तीन दशक से अधिक कार्य करता रहा। अध्ययन व लेखन में रुचि। रायपुर से प्रकाशित स्थानीय दैनिक अख़बारों में नियमित लेखन। सामाजिक कार्यों में रुचि। सामाजिक एवं नागरिक संस्थाओं में कार्यरत। जागरण जंक्शन में दबंग आवाज़ के नाम से अपना स्वयं का ब्लॉग। कार्ल मार्क्स से प्रभावित। प्रिय कोट " नदी के बहाव के साथ तो शव भी दूर तक तेज़ी के साथ बह जाता है , इसका अर्थ यह तो नहीं होता कि शव एक अच्छा तैराक है।"

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