बिना उपाधि के बनेंगे प्राध्यापक

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प्रमोद भार्गव

                विश्व-विद्यालय अनुदान आयोग (यूसीजी) ने एक क्रांतिकारी फैसला लिया है। अब उच्च शिक्षण संस्थानों में एक नई श्रेणी ‘शिक्षक संकाय‘ के अंतर्गत प्रतिष्ठित विषय विशेषज्ञों के रूप में ऐसे प्राध्यापक नियुक्त किए जाएंगे, जिनके पास प्रोफेसर बनने की पात्रता तो नहीं होगी, लेकिन वे संबंधित विषय के क्षेत्र में औपचारिक पात्रता, अनुभव और प्रकाशन संबंधी अर्हताएं रखते होंगे। उनके पास विशेषज्ञता सिद्ध करने के लिए 15 वर्श का अनुभव आवश्यक होगा। योजना के प्रारूप के मुताबिक इन विशेषज्ञों को अनुबंध के आधार पर विज्ञान, अभियांत्रिकी मीडिया, साहित्य, उद्यमिता, सामाजिक विज्ञान, ललित कला, लोकसेवा और सशस्त्र बल आदि क्षेत्रों में नियुक्ति दी जाएगी। यूजीसी की 560वीं बैठक में यह निर्णय लिया गया है। इसे सितंबर माह में ‘प्रोफेसर आॅफ प्रैक्टिस‘ (पेषेवर प्राध्यापक) रूप में अधिसूचित किया जाएगा। पीएचडी जैसी पात्रता भी अनिवार्य नहीं रह जाएगी। शिक्षण संस्थानों में स्वीकृत कुल पदों में से दस प्रतिशत पदों की नियुक्ति इस योजना के अंतर्गत की जाएगी। फिलहाल देशभर में पत्रकारिता के विवि में पेषेवर पत्रकार इसी आधार पर न केवल अध्यापन का कार्य कर रहे हैं, बल्कि कुलपति भी बने हुए हैं। नई शिक्षा नीति के अंतर्गत ये उपाय किए जा रहे हैं।  

तर्क अकसर अंहकार को जन्म देता है, जो अपरिपक्व ज्ञान पर आधारित होता है। हमारे देश में प्रमाण-पत्र और उपाधि ;डिग्रीद्ध आधारित शिक्षा यही कर रही है। भारत में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, लेकिन शालेय शिक्षा व कुशल-अकुशल की परिभाशाओं से ज्ञान को रेखांकित किए जाने के कारण महज कागजी काम से जुड़े डिग्रीधारी को ही ज्ञान का अधिकारी मान लिया है। जबकि परंपरा अथवा काम के प्रति श्रमसाध्य समर्पण के बूते कौशल-दक्षता प्राप्त  कर लेने वाले फिल्म, टीवी एवं लोक कलाकार, शिल्पकार, स्वतंत्र पत्रकार, मारवाड़ी व्यापारी और किसान को डिग्रीधारी शिक्षित की तुलना में अपेक्षाकृत अज्ञानी माना जाता है। डिग्री बनाम योग्यता जैसे विवादास्पद मुद्दे से जुड़ा ऐसा ही मामला सफल टीवी कलाकार व राजनेत्री स्मृति ईरानी के संदर्भ में भी आया था। इस मामले ने तूल इसलिए पकड़ा, क्योंकि बारहवीं कक्षा पास होने के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें शिक्षा की सभी संभावनाओं से संबद्ध मानव संसाधन विकास मंत्रालय की मंत्री बना दिया था। उच्च शिक्षा से लेकर सभी भारतीय तकनीकी संस्थान इसी मंत्रालय के अधीन हैं। इसलिए सवाल उठाया गया था कि जो व्यक्ति खुद इंटर तक पढ़ा है, वह शिक्षा के उच्चतम मानकों को कैसे समझेगा ? इस सोच से डिग्री आधारित अभिजात्यवादी मानसिकता झलकती है। आधुनिक व अंग्रेजी शिक्षा की इस देन ने हमारे मस्तिश्क के दायरे को संकीर्ण किया है। इससे उबरे बिना कल्पनाषील प्रतिभाओं को उनकी मेधा के अनुरुप स्थान मिलना मुष्किल हो गया है।

                कुछ दिन पहले खबर आई थी कि मंगलुरू के किसान गणपति भट्ट ने नारियल और सुपारी के पेड़ों पर चढ़ने वाली बाइक बनाने में सफलता प्राप्त की है। इसी तरह द्वारिका प्रसाद चैरसिया नाम के एक युवक ने पानी पर चलने के लिए जूते बनाए हैं। उत्तरप्रदेश के इस युवक की इस खोज के पीछे की कहानी थी कि उसने सुन रखा था साधु संत साधना के बाद पानी पर चल सकते हैं। द्वारिका ने तप का आडंबर तो नहीं किया, लेकिन अपनी कल्पनाओं को पंख देकर एक ऐसा जूता बनाने की जुगाड़ में जुट गया, जो पानी पर चल सके। इस तकनीक को इजाद करने में वह सफल भी हुआ और पानी पर चलने वाले एक जोड़ी जूतों का अविश्कार कर लिया। इन दोनों आविश्कारों को ‘नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन‘ ने मान्यता भी दी है। इस प्रतिश्ठान के प्रोफेसर अनिल गुप्ता और उनकी टीम देश में मौजूद ऐसे लोगों को खोज रहे हैं, जो कम मूल्य के ज्यादा उपयोगी उपकरण बनाने में दक्ष हैं। इस अनूठी खोज यात्रा के जरिए यह दल देश भर में 25 हजार ऐसे आविश्कार खोज चुके हैं, जो गरीब लोगों की मदद के लिए बनाए गए हैं। इसके पहले विश्व प्रसिद्ध फोब्र्स पत्रिका भी ऐसे 7 भारतीयों की सूची जारी कर चुकी है, जिन्होंने ग्रामीण पृश्ठभूमि और मामूली पढ़े-लिखे होने के बावजूद ऐसी नवाचारी तकनीकें इजाद की हैं, जो समूचे देश में लोगों के जीवन में आर्थिक स्तर पर का्रंतिकारी बदलाव ला रही हैं। लेकिन डिग्री को ज्ञान का आधार मानने वाली हमारी सरकार नौकरशाही की ऐसी अब तक जकड़बंदी में रही है कि वह इन अनूठी खोजों को अविश्कार ही नहीं मानती, क्योंकि इन लोगों ने अकादमिक शिक्षा प्राप्त नही की है।

                डिग्री ही योग्यता की गारंटी हो, यह ज्ञान को मापने का पैमाना ही गलत है। देश में ऐसे बहुत से पीएचडी और डिलीट हैं, जो प्राथमिक-माध्यमिक विद्यालयों में पढ़ा रहे हैं। सरकारी नौकरी में असफल रहे, ऐसे भी बहुत से लोग हैं, जिन्होंने कोचिंग संस्थाएं खोलकर लाखों चिकित्सक व अभियता बना दिए। दूसरी तरफ हमारे यहां उच्च तकनीकी शिक्षा के ऐसे भी संस्थान हैं, जो बतौर लाखों रुपए कैपीटेशन फीस, मसलन अनियिमित प्रवेश षुल्क लेकर हर साल हजारों डाॅक्टर-इंजीनियर बनाने में लगे हैं। इनकी योग्यता को किस पैमाने से नापा जाए ? मध्यप्रदेश में बड़े पैमाने पर व्यावसायिक परीक्षा मंडल ;व्यापमद्ध का घोटाला सामने आया था, इसके माध्यम से हजारों लोग रिष्वत के बूते डाॅक्टर, इंजीनियर और पुलिस निरीक्षक बन गए थे। इस घोटाले में भारतीय प्रशासनिक व पुलिस सेवा के उच्च अधिकारी व उनकी संतानों पर भी मामले दर्ज हुए हैं। इनमें कई तो ऐसे हैं जो डिग्रियां लेकर सरकारी नौकरी में भी आ गए थे। रिष्वत के बूते हासिल इस योग्यता को किस कसौटी पर परखा जाए ?

                योग्यता को डिग्री से जोड़कर परखने की यह अभिजात्यवादी सोच ऐसे लोगों की है, जो अपनी संतानों के लिए अनियमित प्रवेश के सभी स्त्रोत खुले रखना चाहते हैं। भारत में सोच की यह मानसिकता कोई नई नहीं है, वर्ण और जाति के आधार पर सनातन चली आ रही है। पुरातन युग में जब भी अशिक्षित जाति व वर्ण विशेष व्यक्ति की योग्यता सामने आई, तब-तब उसे या तो षंबूक की तरह मार दिया गया या एकलव्य की तरह अंगूठा दक्षिणा में ले लिया गया है। महाभारत के सूतपुत्र कर्ण दान में अग्रणी होने के साथ धनुर्विद्या में ही दक्ष थे, लेकिन द्रोपदी-स्वयंवर में यही कर्ण जब मछली की आंख भेदने को तत्पर हुए तो कृश्ण तुरंत ताड़ गए कि कर्ण लक्ष्य साधने में सफल होंगे और कृश्ण के संकेत पर द्रोपदी ने कर्ण से सूतपुत्र होने के कारण विवाह नहीं करने की इच्छा जताकर लक्ष्यभेद से रोक दिया। तय है, सत्ता-तंत्र से जुड़े सक्षमों के लिए वास्तविक योग्यता को नकारने के उपाय हमेशा होते रहे हैं। परंतु नई शिक्षा नीति में यह प्रावधान मोदी ने मुमकिन बना दिया है। 

                अकसर उच्च शिक्षा संस्थानों के विदेषी मानकों के आधार पर  हमारी उच्च शिक्षा गुणवत्तापूर्ण नहीं है, यह सवाल उठते रहे हैं। क्योंकि विश्व के दो सौ विश्व विद्यालयों की रेटिंग में अकसर हमारा कोई भी विवि शामिल नहीं हो पाता है। क्या यहां यह सवाल खड़ा  होता है कि इन 75 सालों में अनेक उच्च शिक्षित नेता केंद्रीय शिक्षा विभाग के मंत्री रहे और उच्च शिक्षित आईएएस सचिवालय संभालते रहे, तब क्यों शिक्षा गुणवत्तापूर्ण नहीं हो पाई ? भारत में आर्थिक उदारवाद लागू होने के बाद तो शिक्षा का ऐसा नीतिगत निजीकरण किया गया कि देखते-देखते औपनिवेशिक मानसिकता को विकसित करने वाले 200 से भी ज्यादा विश्व विद्यालयों के टापू खड़े कर दिए गए। बावजूद शिक्षा से गुणवत्ता नदारद है। डिग्रियां धन के बूते बांटी जा रही हैं, इसका दोशी कौन है ? दरअसल शिक्षा बनाम ज्ञान का हश्र इसलिए हुआ, क्योंकि इनमें प्रवेश की पहली शर्त प्रतिस्पर्धी योग्यता न रहकर, पच्चीस-पचास लाख रुपए बतौर षुल्क देने की अनिवार्यता कर दी गई। वह भी इस पूर्वग्राही मानसिकता से जिससे वंचित तबके के लोग पढ़ने ही न पाएं ?

                डिग्रीधारी शिक्षा का शड्यंत्र इसलिए भी रचा गया जिससे परंपरा से ज्ञान हासिल करने वाले लोग सरकारी नौकरियों से वंचित बने रहें। आज फिल्म और टीवी से जुड़े ज्यादातर कलाकारों की षैक्षणिक योग्यता न्यूनतम है, लेकिन कलाकार श्रेश्ठतम हैं। यदि फिल्म में अभिनय को अकादमिक शिक्षा की बाध्यता से जोड़ दिया जाए तो सिनेमा जगत से  उत्कृश्ठ कला का वैसे ही लोप हो जाएगा, जैसे शिक्षा से गुणवत्ता का लोप हो गया है। हमारे प्रसिद्ध लोक एवं शास्त्रीय संगीत के गायक और खिलाड़ी भी उच्च शिक्षित नहीं हैं। राश्ट्रपति ज्ञानी जेलसिंह, के. कामराज और बीजू पटनायक भी पढ़े-लिखे नहीं थे। अनेक प्रतिष्ठित साहित्यकार  और पत्रकार भी पढ़े लिखे नहीं थे, लेकिन उनके रचनाकर्म पर विवि उपाधियां दे रहे हैं। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव भी ज्यादा पढ़े लिखे नहीं हैं, लेकिन सत्ता में बदलाव के वाहक रहे हैं।

                दरअसल, आधुनिक शिक्षा और शिक्षा में अंग्रेजी माध्यम ने प्रतिभाशाली विद्यार्थियों की मौलिक कल्पनाषीलता को कुंद करने का काम किया है। माइक्रोसाॅफ्ट कंपनी के मालिक और दुनिया के प्रमुख अमीर बिल गेट्स गणित में बेहद कमजोर थे। इस विषय में दक्षता हासिल करने की बजाय वे गैराॅज में अकेले बैठे रहकर कुछ नया सोचा करते थे। तब उनके पास कंप्यूटर नहीं था, लेकिन विलक्षण सोच थी, जिसने कंप्युटर की कृत्रिम बुद्धि के रूप में माइक्रोसाॅफ्ट वेयर का आविश्कार किया। यदि बिल गणित में उच्च शिक्षा हासिल करने में अपनी मेधा को खफा देते तो साॅफ्टवेयर की कल्पना मुष्किल थी ? मदन मोहन मालवीय ने जब काषी हिंदू विश्वविद्यालय को स्थापित किया तब उन्होंने विषय विशेषज्ञों को ही संस्थान का प्राध्यापक और रीडर बनाया था। रामचंद्र षुक्ल (इंटर), ष्याम सुंदर दास (बीए) आयोध्या सिंह उपध्याय हरिऔध (मिडिल) थे, लेकिन इनके योगयता के आधार पर इन्हें विभाग प्रमुख बनाया गया। इसी तरह स्नातक नहीं होने के बावजूद देवेंद्र सत्यार्थी को प्रकाशन विभाग की पत्रिका ‘आजकल‘ का संपादक बनाया गया था। प्रसिद्ध पत्रकार प्रभाश जोषी महज दसवीं तक पढ़े थे, लेकिन उनकी असाधारण योग्यता के बूते इंडियन एक्सप्रेस समूह के मालिक रामनाथ गोयनका ने उन्हें ‘जनसत्ता‘ का संस्थापक संपादक और ‘इंडियन एक्सप्रेस‘ का संपादक बनाया था। प्रसिद्ध लेखक आरके नारायण दसवीं कक्षा में अंग्रेजी में अनुत्तीर्ण हो गए थे, लेकिन कालांतर में यही आरके नारायण अंग्रेजी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक बने। डाॅ राधाकृश्णन कहा है कि नौकरियों में उपाधि को महत्व नहीं देकर विषय की परीक्षा लेनी चाहिए। यदि कोई व्यक्ति विषय में परंगत है तो उसे नौकरी में लेना चाहिए। लेकिन नौकरशाही ने इन विद्धानों के कथनों और प्रयोगों को नकार कर मैकाले की डिग्री आधारित पद्धति को आजादी के बाद भी बनाए रखा। जािहर है, संकल्प के धनी और परिश्रमी लोग औपचारिक शिक्षा के बिना भी अपनी योग्यता साबित कर सकते हैं। उपाधि पढ़ाई-लिखाई निर्धारित संकायों का प्रमाण जरुर होती हैं, किंतु वह व्यक्ति की समग्र प्रतिभा, अंतदृष्टि  और बहुआयामी योग्यता का पैमाना नहीं हो सकती ?

               

अशिक्षित वैज्ञानिक

 कहते हैं कि पक्षियों के पंख प्राकृतिक रूप से ही संपूर्ण रूप में विकसित हो जाते हैं, लेकिन हवा के बिना उनमें पक्षी को उड़ा ले जाने की क्षमता नहीं होती है। अर्थात उड़ने के लिए वायु आवश्यक तत्व है। इसी तथ्य के आधार पर हम कह सकते हैं, आविश्कारक वैज्ञानिक को जिज्ञासु एवं कल्पनाषील होना जरूरी है। कोई वैज्ञानिक कितना भी शिक्षित क्यों न हो, वह कल्पना के बिना कोई मौलिक या नूतन आविश्कार नहीं कर सकता है। शिक्षा संस्थानों से विद्यार्थी जो शिक्षा ग्रहण करते हैं, उसकी एक सीमा होती है, वह उतना ही बताती व सिखाती है, जितना हो चुका है। आविश्कार कल्पना की वह श्रृंखला है, जो हो चुके से आगे की अर्थात कुछ नितांत नूतन करने की जिज्ञासा को आधार तल देती है। स्पश्ट है, आविश्कारक लेखक या नए सिद्धांतों के प्रतिपादकों को उच्च शिक्षित होने की कोई बाध्यकारी अड़चन पेश नहीं आनी चाहिए।

अतएव हम जब लब्ध-प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों की जीवन-गाथाओं को पढ़ते हैं, तो पता चलता है कि न तो वे उच्च शिक्षित थे, न ही वैज्ञानिक संस्थानों में काम करते थे और न ही उनके इर्द-गिर्द विज्ञान-सम्मत परिवेश था। उन्हें प्रयोग करने के लिए प्रयोगशालाएं भी उपलब्ध नहीं थीं। सूक्ष्मजीवों का अध्ययन करने वाले पहले वैज्ञानिक ल्यूवेनहाॅक द्वारपाल थे और लैंसों की घिसाई का काम करते थे। लियोनार्दो विंची एक कलाकार थे। आइंस्टीन पेटेंट कार्यालय में लिपिक थे। न्यूटन अव्यावहारिक और एकांतप्रिय थे। उन्होंने विवाह भी नहीं किया था। न्यूटन, थाॅमस अल्वा एडिसन और आइंस्टीन को मंदबुद्धि कहकर स्कूल से निकाल दिया गया था। इसी क्षीण बुद्धि बालक एडिसन ने कालांतर में बल्व और टेलीग्राफ का आविश्कार किया। फैराडे पुस्तकों पर जिल्दसाजी का काम करते थे। लेकिन उन्होंने ही विद्युत-मोटर और डायोनामा का आविश्कार किया। प्रीस्टले पुरोहित थे। लेवोसिएर कर विभाग में कर वसूलते थे। संगणक (कंप्युटर) की बुद्धि अर्थात साॅफ्टवेयर बनाने वाले बिलगेट्स का शालेय पढ़ाई में मन नहीं रमता था, क्योंकि उनकी बुद्धि तो साॅफ्टवेयर निर्माण की परिकल्पना में एकाग्रचित्त से लगी हुई थी। स्वास्थ्य के क्षेत्र में अनेक रोगों की पहचान कर दवा बनाने वाले आविश्कारक भी चिकित्सा विज्ञान या चिकित्सक नहीं थे। आयुर्वेद उपचार और दवाओं का जन्म तो हुआ ही ज्ञान परंपरा से है। गोया, हम कह सकते हैं कि प्रतिभा जिज्ञासु के अवचेतन में कहीं छिपी होती है। इसे पहचानकर गुणीजन या शिक्षक प्रोत्साहित केवल प्रोत्साहित कर सकते हैं।

प्रमोद भार्गव

                ज्ञान परंपरा से है। गोया, हम कह सकते हैं कि प्रतिभा जिज्ञासु के अवचेतन में कहीं छिपी होती है। इसे पहचानकर गुणीजन या शिक्षक प्रोत्साहित केवल प्रोत्साहित कर सकते हैं।

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