यस बैंक का नो बैंक बन जाना!

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-ः ललित गर्ग :-

निजी क्षेत्र के ‘यस बैंक’ का कंगाली की हालत में पहुंचना एवं इस सन्दर्भ में सरकार  द्वारा उठाये गये कदम दोंनो ही स्थितियां प्रश्नों के घेरे में हैं। यह कैसा विरोधाभास है कि एक तरफ तो सरकार अपने नियन्त्रण में चलने वाली लाभप्रद कम्पनियों की पूंजी बेच कर रोकड़ा की उगाही कर रही है और दूसरी तरफ वित्तीय घपलों-घोटालों को अंजाम देकर घाटा दिखाने वाले निजी बैंकों एवं संस्थानों के लिए अपने ही वित्तीय संस्थानों के माध्यम से बचाव अभियान चला रही है, ये आर्थिक प्रयोग एवं नीतियां भारत की आर्थिक नीतियों को धुंधलाने के ही उपक्रम हैं। यस बैंक में अपनी मेहनत की जमा पूंजी के खतरे में होने की संभावनाओं ने ही असंख्य लोगों के न केवल अर्थ को बल्कि जीवन को ही खतरों में डाल दिया है। ये घटनाएं न केवल भारतीय बैंकिंग व्यवस्था पर बल्कि शासन व्यवस्था पर भी एक बदनुमा दाग है।
आज यह स्वीकारते कठिनाई हो रही है कि देश की आर्थिक व्यवस्था को सम्भालने वाले हाथ इस कदर दागदार हो गए हैं कि नित-नया बैंक घोटाला एवं घपला सामने आ रहा है। दिन-प्रतिदिन जो सुनने और देखने में आ रहा है, वह पूर्ण असत्य भी नहीं है। पर हां, यह किसी ने भी नहीं सोचा कि जो बैंकें राष्ट्र की आर्थिक बागडोर सम्भाले हुए थे और जिन पर जनता के धन को सुरक्षित रखने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी थी, क्या वे सब इस बागडोर को छोड़कर अपनी जेब सम्भालने में लग गये? जनता के धन के साथ खिलवाड़ करते हुए घपले करने लगे।
भले ही यस बैंक के प्रमोटर राणा कपूर को प्रवर्तन निदेशालय ने घोटालेबाजी के आरोप में गिरफ्तार कर लिया है और अदालत ने उसे 11 मार्च तक न्यायिक हिरासत में रखने का आदेश भी दे दिया है परन्तु मूल सवाल यह है कि इस बैंक में धन जमा कराने वाले आम नागरिकों को किस तरह यह बैंक अपना ही पैसा निकालने के लिए विभिन्न शर्तों से बांध सकता है? सर्वविदित है कि बैंक में चल रहे फ्राड को पकड़ने की जिम्मेदारी रिजर्व बैंक आफ इंडिया की है। लोगों का पैसा सुरक्षित रहे, इसकी जिम्मेदारी भी आरबीआई की है। आरबीआई अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकता, केन्द्र सरकार भी इन स्थितियों के लिये दोषी है। घर में अपनी मेहनत की पूंजी को जमा रख नहीं सकते, बैंकों में जमा कराये तो जमा धन के सुरक्षित रहने की गारंटी नहीं, कहां जाये आम आदमी? यह कैसी शासन-व्यवस्था है? बैंकिंग व्यवस्था से लोगों का भरोसा उठा तो फिर कौन जाएगा बैंकों में? लोगों का बैंकिंग तंत्र में भरोसा बहाल करने के लिए सरकार को ठोस कदम उठाने ही होंगे अन्यथा पूरा अर्थतंत्र ही अस्थिर एवं डूबने की कगार पर पहुंच जायेगा।
कैसे त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण स्थिति देखने को मिल रही है कि यस बैंक के खाताधारक अपने ही पैसे निकालने के अनेक पाबंदियां झेल रहे हैं, परेशान हैं, भयभीत है, डरे हुए है। जरूरतमंद लोग बैंक से अपना ही पैसा नहीं निकाल पा रहे। जिस व्यक्ति की नौकरी छूट गई हो, उसे अपनी लड़की की शादी करने हो, क्रय किये मकान की किश्त जमा देनी हो, बच्चों की स्कूल फिस जमा देनी हो, असाध्य बीमारी का इलाज कराना हो और उसकी बैंक में लाखों की रकम जमा हो, बेबसी इतनी कि वह बैंक में जमा पैसों के बावजूद अपनी इन मूलभूत जरूरतों के लिये रकम नहीं निकाल सकता। ये खौफनाक एवं डरावनी स्थितियां शासन व्यवस्था की साख पर सवालिया निशान है।
यस बैंक के खाताधारकों की पीड़ा तो नोटबंदी की पीड़ा से कहीं अधिक है। कब तक कुछेक घोटालेबाज एवं घपलेबाज लोगों को जनता की खून-पसीने की कमाई की बैंकों में जमा रकमों को उनके ऐश और तफरीह का जरिया बनने दिया जाता रहेगा? बैंक किसी भी देश के आर्थिक विकास की रीढ़ होते हैं और इनमें आम लोगों का यकीन इस तरह होता है कि मुसीबत के वक्त अपनी रकम को पाने में उन्हें किसी तरह की समस्या नहीं आयेगी। कल तक हर शहर कस्बे में अपनी 1100 शाखाओं के माध्यम से लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करने वाला यस बैंक अचानक ही खाताधारकों के लिये नो बैंक बन कर उन्हीं लोगों से कह रहा है कि एक महीने में बस 50 हजार की रकम ही निकाल सकते हो! इन स्थितियों से पैदा हुए हालातों के लिये खाताधारक अपने दर्द को लेकर किनके पास जाये? कौन सुनेगा इनकी पीड़ा, कौन बांटेगा इनका दुःख-दर्द। यह इस देश की विडम्बना ही है कि यहां आम आदमी लुट रहा है, मुट्ठीभर राजनीतिज्ञ और पूंजीपति ऐश कर रहे हैं। आजादी के सात दशक का सफर तय करने के बाद भी आम आदमी ठगा जा रहा है, उसको लूटने वाले नये-नये तरीकें लेकर प्रस्तुत हो जाते हैं। कभी इन्हें फ्लैट देने के नाम पर लूटा जाता है तो कभी कर्ज देने के नाम पर। कभी नौकरी दिलवाने के नाम पर इनसे ठगी की जाती है, तो कभी स्कूल-कालेज में दाखिले के नाम पर। कभी बैंक का दीवाला पिट गया तो इनसे धोखा हुआ। आखिर मेहनत करने वाले लोग किसकी चैखट पर जाकर अपना दुख सुनाये, किसको अपने दर्द की दुहाई दें। आज किसको छू पाता है मन की सूखी संवेदना की जमीं पर औरों का दुःख-दर्द? बैंक घोटालों की त्रासद चुनौतियों का क्या और कब अंत होगा? बहुत कठिन है बैंकों के भ्रष्टाचार, अराजकता, घोटालों-घपलों की उफनती नदी में नौका को सही दिशा में ले चलना और मुकाम तक पहुंचाना।
दरअसल भारत में बैंकिंग व्यवसाय बड़े ही सुनियोजित ढं़ग से खैराती दुकानों में तब्दील होता गया है। आम जनता को अच्छी सेवा व लाभ के लालच में फंसा कर चन्द पूंजीपतियों को मालामाल बनाने का काम षडयंत्रपूर्वक होता रहा है और जनता की छोटी-छोटी बचत पर अपने ऐश करने का जरिया ढूंढा जाता रहा है। पंजाब व महाराष्ट्र कोआपरेटिव बैंक (पीएमसी) घोटाला ठीक इसी तर्ज पर किया गया। इस बैंक या यस बैंक में अपना धन जमा करने वाले लोग अब दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। तेजी से विकास करते अर्थ व्यवस्था वाले देश में बैंकों का ‘फेल’ होना बहुत ही खतरनाक और दुर्भाग्यपूर्ण घटना है। ऐसी जटिल एवं विषम स्थितियों में भारत की अर्थव्यवस्था को कैसे नियोजित किया जायेगा? रिजर्व बैंक ने यस बैंक को बचाने के लिए स्टेट बैंक की मार्फत जो स्कीम तैयार की है वह निजी क्षेत्र के बैंकों में फैली अराजकता का समाधान नहीं हो सकती।
अब सवाल यह है कि भ्रष्ट लोगों और बैंक का पैसा डकार कर भागने वाले के गुनाह का खामियाजा बैंक के ग्राहक क्यों भुगतें? घोटालेबाज क्यों नहीं सजा पाते? क्यों नहीं भविष्य में ऐसे घोटाले न होने की गारंटी सरकार देती? सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों और निचले पायदान पर खड़े लोगों के बीच आखिर कब तक एक धोखेभरा खेल चलता रहेगा? महंगाई के दौर में पाई-पाई जोड़ने और अपनी बचत को बैंक में डालने वाले आम नागरिक मनी लांड्रिंग या हवाला जैसा कुछ नहीं कर रहे हैं। फिर उनकी जमा पूंजी को निकालने के लिये तरह-तरह की पाबंदियों क्यों? यह उनकी मेहनत की कमाई है। जो स्थिति पीएमसी के बाद अब यस बैंक में देखने को मिल रही है, उसके बाद स्पष्ट है कि यदि हर सहकारी बैंक एवं निजी बैंक की छानबीन की जाए तो आधे से ज्यादा बैंकों के फ्राड सामने आ जाएंगे। समय रहते उनकी जांच क्यों नहीं की जाती? सभी कोई पीएमसी और अब यस बैंक काण्ड के माध्यम से भ्रष्टाचार के दानव को ललकार रहे हैं। गांव में चोर को पकड़ने के लिए विरले ही निकलते हैं, पर पकड़े गए चोर पर लाते लगाने के लिए सभी पहुंच जाते हैं।
इस यस बैंक ने बैंकों के प्रति विश्वास की हवा निकाल दी। भ्रष्टाचार का रास्ता चिकना ही नहीं ढालू भी होता है। क्या देश मुट्ठीभर राजनीतिज्ञों और पूंजीपतियों की बपौती बनकर रह गया है? लोकतंत्र के मुखपृष्ठ पर बहुत धब्बे हैं, अंधेरे हैं, वहां मुखौटे हैं, गलत तत्त्व हैं, खुला आकाश नहीं है। मानो प्रजातंत्र न होकर सज़ातंत्र हो गया। व्यवस्था और सोच में व्यापक परिवर्तन हो ताकि अब कोई अपनी जमा पूंजी के डूबने के भय एवं डर में जीने को विवश न हो। मोदी सरकार को ऐसा उपाय करना होगा कि बैंक के विफल होने पर कम से कम लोगों की मेहनत की कमाई पूरी मिल सके। इसके लिए कानून में संशोधन भी करना पड़े तो किया जाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं किया गया तो बैंकिंग व्यवस्था से विश्वास उठने के साथ-साथ वह जानलेवा भी बनती जायेगी। समानान्तर काली अर्थव्यवस्था इतनी प्रभावी है कि वह कुछ भी बदल सकती है, कुछ भी बना और मिटा सकती है। तेजी से विकास करते अर्थ व्यवस्था वाले देश में बैंकों का ‘फेल’ होना बहुत ही खतरनाक और असाधारण घटना है। इसका मतलब होता है कि बैंक बाजार के प्रभाव में नहीं बल्कि बाजार बैंक के प्रभाव में काम करता है।  भारतीय वित्तीय ढांचा चरमराने की जो स्थितियां देखने को मिल रही है, वे बैंकों की बदनुमा होते जाने की ही निष्पत्तियां हंै।

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