बेस्ट सेलर वाली हिन्दी का उत्सव

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मनोज कुमार
सितम्बर के आने की आहट के साथ ही हम हिन्दीमय हो जाते हैं। चारों तरफ हिन्दी दिवस, पखवाड़ा और महीना मनाये जाने का अनवरत सिलसिला जारी हो जाता है। सितम्बर माह बीतते ही हम वापस अपने ढर्रे पर आ जाते हैं जहां हिन्दी केवल औपचारिक रूप से हमारे साथ होती है। हिन्दी की अनिवार्यता का महीना सितम्बर का होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि संविधान में 14 सितम्बर के दिन को मान्यता नहीं मिलती तो हिन्दी आज भी नेपथ्य में विचरण करता रहता और हम अंग्रेजी के मोहमाया में लिपटे होते। साल 1975 में नागपुर में विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन किया था और इसके बाद हर चार बरस के अंतराल में यह आयोजन विश्व मंच पर होता आ रहा है लेकिन ऐसी क्या मजबूरी है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ से हिन्दी को विश्व मंच पर मान्यता नहीं मिल पायी है? किसी और पर दोष थोपने के बजाय हमें स्वयं आत्ममंथन करना होगा। यह समझने और जानने की कोशिश करना होगी कि आखिर हम अब पायदान पर क्यों खड़े हैं? क्यों हिन्दी का ताज विश्व के माथे पर पहनाने में चूक रहे हैं? ऐसा भी नहीं है कि इन बीते वर्षों में भारत ने दूसरे कई विषयों पर पहल ना की हो और संयुक्त राष्ट्रसंघ की उन्हें मंजूरी ना मिली हो। फिर ऐसा क्या है और क्यों है कि हम हिन्दी को लेकर याचक की मुद्रा में खड़े हैं?  हिन्दी को विश्व मंच पर वह स्थान नहीं मिल पाया, इस बात का दुख तो हम हिन्दीभाषियों को है और रहेगा लेकिन यहां सवाल यह है कि भारतीय समाज में भी क्या हमने हिन्दी को वह सम्मान दे पाए जिसके लिए सालों से आस लगाए हैं? हिन्दी को राजभाषा का दर्जा है लेकिन हम अब तक उसे राष्ट्रभाषा का दर्जा क्यों नहीं दे पाए? क्यों जन-जन की बोली नहीं बना पाए? हैरानी है कि हम साहित्यिक आयोजनों को भी लिट् फेस्ट बना दिया है। हिन्दी की किताबें सर्वश्रेष्ठ होने के स्थान पर बेस्ट सेलर की श्रेणी में चिंहित किए जाने की एक परम्परा विकसित कर ली है। दुर्भाग्य और शर्मनाक यही नहीं है बल्कि यह है कि हिन्दी के इस तथाकथित प्रतिष्ठित आयोजन में हिन्दी के वो नामधारी हस्ताक्षर उपस्थित रहते हैं और गर्व के साथ लिट् फेस्ट और हिन्दी की बेस्ट सेलर किताबों को सूचीबद्ध कर गर्व से भर उठते हैं। जिनके कंधों पर हिन्दी की जवाबदारी है और जिनकी पहचान हिन्दी से है और वही लोग जब हिन्दी को पहनकर अंग्रेजी की तरफदारी करेंगे तो हिन्दी आगे सौ साल भी गरियायी जाती रहेगी। उसे प्रथम पंक्ति में खड़े होने में युग-युग लग जाएगा। इसलिए आवश्यक है कि विश्व मंच पर हिन्दी को स्थापित करने का स्वप्र देखने के पहले हम अपने घर में हिन्दी की श्रेष्ठता को बनाए और बाजार के हक में आवाज में आवाज मिलाने से खुद को बरी करने की कोशिश करें। लेकिन जो हालात हैं, वह इस बात का यकीन नहीं दिलाते हैं कि हिन्दी के लिए सचमुच में हम चिंतित हैं। इस तथाकथित साहित्यिक आयोजनों के केन्द्र में तो हिन्दी है मगर सारा तानाबाना अंग्रेजियत लिए हुए होता है। अंग्रेजी का ऐसा मुल्लमा चढ़ाया जाता है कि हिन्दी बेचारी हो जाती है और किसी कोने में बैठकर बिसूरती रहती है। हिन्दी के कंधे पर सवार होकर अंग्रेजी में बकबकाते लोग ऐसे प्रसन्न होते हैं मानो वो शिरकत नहीं करते, ये आयोजन नहीं करते तो हिन्दी गुमनाम हो जाती। वे भूल जाते हैं कि सवा सौ करोड़ नागरिकों के इस देश में हिन्दी भाषा ही नहीं, विचार है। एक जीवनशैली है और इन सवा सौ करोड़ का 90 फीसदी लोग हिन्दी पढ़ते, बोलते और लिखते हैं। अर्थात जिन हस्ताक्षरों को इन आयोजनों में अपना रौब झाडऩे का मौका मिलता है, वे भूल जाते हैं कि हिन्दी ने उनसे किनारा कर लिया तो उन्हें बचाने वाला कोई नहीं होगा। बेहतर होगा कि वे अभी भी अपनी समझ ठीक कर लें और अंग्रेजियत के लबादे में हिन्दी को कवच बनाकर स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने से बचें। ये बौनेकद के आयोजन हिन्दी से बड़े होते हैं, हिन्दी इनसे नहीं। हिन्दी हमेशा से श्रेष्ठ है और रहेगी।   हैरानी इस बात की भी होती है कि जिन सरकारी स्कूलों में पढक़र हिन्दी के महान हस्ताक्षरों की जयकारा हिन्दी समाज करता है, वही हस्ताक्षर अपने बच्चों को हिन्दी माध्यम के सरकारी स्कूलों में पढ़ाने भेजने से रोकते हैं। पब्लिक स्कूलों में पढ़ाकर हम उन्हें अंंग्रेजी में बोलता देखकर गर्व से भर उठते हैं। निश्चित रूप से हर बच्चे को सभी भाषाएं सीखना चाहिए लेकिन हिन्दी के कंधे पर चढक़र अंग्रेजी या किसी अन्य विदेशी भाषा की जयकारा किया जाना मंजूर नहीं है। हिन्दी के मूर्धन्य हस्ताक्षर सरकारी स्कूलों के बंद किए जाने पर विलाप करते हैं।  सरकार को निकम्मी प्रमाणित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं लेकिन क्या कोई ऐसा हस्ताक्षर है जो अपने ही पुराने स्कूल में जाकर बच्चों को पढ़ाने का कोई प्रयास किया हो? उन नवोदित पीढ़ी के पास जाकर कभी यह बताने की कोशिश की हो कि श्रेष्ठता स्कूल के भवन में नहीं बल्कि मन में है। उस विश्वास में है जहां एक मल्लाह दुनिया में शीर्ष पर जा बैठता है और जिसने कभी पब्लिक स्कूल का चेहरा भी नहीं देखा। जीवन में सादगी और सभ्यता इन्हीं असुविधाहीन भवनों से आती है क्योंकि पब्लिक स्कूल के एयरकंडीशन कक्षाओं में केवल विलासिता मन में भर जाती है और डिग्री हासिल करने के बाद मन में एक ही इच्छा रह जाती है कि आगे का जीवन विलासिता के साथ ही गुजारना होगा। लालबहादुर शास्त्री के सादा जीवन को हम स्मरण में रखते हैं तो उन स्कूलों में जाकर क्यों नहीं पढ़ाते हैं। किताबों के किसी पाठ में उनके बारे में सौ-पचास पंक्तियां लिखी होती हैं और हम मान लेते हैं कि बच्चों को शास्त्रीजी की जीवनी पढऩे से उन्हें प्रेरणा मिल गई होगी। अरे साहब, सरकारी स्कूलों में जाकर बच्चों को सिखाने की बात को एकबारगी किनारे छोड़ भी दें तो वर्तमान का क्या कोई मूर्धन्य हिन्दी सेवक यह बताने की कृपा करेगा कि अपने बच्चों, नाती-पोतों को आखिर बार किसी महान नेता के बारे में चर्चा की थी? उनके जीवन से सीख लेने की प्रेरणा दी थी? तब शायद आपको उस बच्चे की तरह बगले झांकने के लिए मजबूर होना पड़ेगा जो परीक्षा में तो बैठ गया है लेकिन उसे कुछ नहीं मालूम। पिछले दिनों एक बड़े नाम के सज्जन ने बताया कि उनके पोते को हिन्दी में पचास का अर्थ नहीं मालूम लेकिन अंग्रेजी के फिफ्टी को वह समझ लेता है। इस प्रसंग को मनोरंजन की श्रेणी में रखा जाना चाहिए क्योंकि अगर बच्चा पचास का अंक भी नहीं समझ पा रहा है तो इसमें आपकी गलती है महानुभाव क्योंकि आप उसे पब्लिक स्कूल में भेजकर गलती नहीं करते तो शायद वह फिफ्टी समझ नहीं पाता लेकिन पचास समझने में वह भूल नहीं करता। वही बच्चा जब स्कूल से लौटता है तो उसे श्रीमुख से लिटिल लिटल वंडर स्टार सुनकर आप झूम उठते होंगे लेकिन मां खादी की चादर दे दे, मैं गांधी बन जाऊं ना सुना पाने से आप खीझ उठते हैं। मां खादी की चादर बच्चे को सिखाने के बजाय आप सभाओं में बच्चे की कमियां गिनाकर कहते हैं कि आज के बच्चों को हिन्दी शिक्षा की अनिवार्यता है। सवाल यह है कि यह अनिवार्यता बच्चों के लिए या हम पालकों के लिए है, इस पर मंथन किया जाना, आवश्यक है। हिन्दी कमतर होती जा रही है, का सारा आरोप, सारा दोष हिन्दी पत्रकारिता के मत्थे मढ़ दिया जाता है। कुछ हद तक बात सही हो सकती है लेकिन सभी दोष, सभी आरोप सही हो, यह अनावश्यक है। निश्चित रूप से इस बात का पक्ष नहीं लिया जा सकता है कि जो गलत हो रहा है, वह गलत नहीं है। लेकिन जिस पत्रकारिता को आपने मीडिया बना दिया हो, जो मीडिया बाजार के नियंत्रण में हो, उससे आप कितनी और कैसी अपेक्षा करेंगे? शुक्र मनाना चाहिए कि जो कुछ हिन्दी पढ़ और बोल पाने की स्थिति में आप अपने को पाते हैं तो वह इन्हीं हिन्दी प्रकाशनों के माध्यम से ही। अन्यथा जो अपेक्षा बाजार की मीडिया से है, वह तो आपको नेपथ्य में ले जाकर पटक देती है। कुछेक शीर्षक जरूर हिन्दी के साथ अंग्रेजी में लिखे जा रहे हैं लेकिन इनके परिशिष्ट में आप देखेंगे कि हिन्दी की शुद्धता कायम है। बल्कि हिन्दी के साथ हिन्दुस्तानी भाषा की जो मिठास है, वह आपको तरोताजा कर देती है। मुद्रण की नवीनतम विधि और उस पर होने वाले खर्च का भार बाजार ही उठाता है तो हल्के-फुल्के समझौता किए जाने पर कोई हंगामा करने के स्थान पर उनकी मजबूरी को समझते हुए स्वीकार करना चाहिए। यह इसलिए भी कि हम स्वयं बोलचाल में 25-30 प्रतिशत तो अंग्रेजी का उपयोग करते ही हैं, तब दूसरे से एतराज करने का कोई हक हमें नहीं बनता है। आवश्यक यह है कि हम हिन्दी को अपने जीवन में उतारें, वह भी पूरी ईमानदारी से। हिन्दी को प्रतिष्ठा की भाषा बनाए ना कि दोयम दर्जे की। दुर्भाग्य की बात यह है कि अंग्रेजी हमें बोलना आए या नहीं आए लेकिन हम बोलेंगे अंग्रेजी जरूर लेकिन हिन्दी को लेकर मन में एक अविश्वास का भाव पनपता रहता है। यही नहीं, हम हिन्दी के संवर्धन के लिए कभी कोशिश इसलिए नहीं करते हैं क्योंकि हमारा जन्म तो भारत में हुआ है और हम हिन्दी परिवार में पले-बढ़े हैं तो हिन्दी क्या सीखना? यहीं से हिन्दी के गौरव का क्षरण शुरू होता है। बाजार की पहली सीख यही होती है कि जिसे असरदार बनाना है, उसकी गुणवत्ता का भी ध्यान रखा जाए। हिन्दी की गुणवत्ता की तरफ हमने कभी ध्यान ही नहीं दिया तो हिन्दी को लेकर विश्व मंच की सहमति की ओर ताकना हमारी मजबूरी है। हमारी कमजोरी है कि हमारा कोई बड़ा प्रतिनिधि विश्व मंच पर अपनी बात कहता है तो सालों-साल उसे हम गाते रहते हैं लेकिन इस सिलसिले का आगे जारी रखे जाने की कोई कोशिश नहीं की जाती है। बेहतर होगा कि हमारा हर नेता, हर प्रतिनिधि विश्व मंच पर हिन्दी में ही अपनी बात कहे तो भारत की श्रीवृद्धि होगी। यह विनय नहीं, नियम होना चाहिए कि हम हिन्दी में ही बात करेंगे। बेहतर होगा कि इस बार संकल्प लें कि चाहे जो हो, हिन्दी को अपनाने के लिए विश्व मंच हमें आमंत्रित करें क्योंकि दुनिया की श्रेष्ठ भाषा हिन्दी ही है। 

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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