दिल्ली का चुनाव इसलिये रोका था कि बाद में आसानी से जीत लेगें लेकिन रधुवंश प्रसाद, सतीश उपाध्याय व निर्मला सीतारमन के कडुवाहट भरे बोल ने सारा समीकरण बिगाड दिया। दिल्ली विधानसभा चुनाव हार गये।सबसे खराब यह हुआ कि एक षडयंत्र के तहत शाहनवाज को इस पूरे चुनाव के दौरान मीडिया से दूर रखा गया। इसके बाद बिहार में लगा सबकुछ ठीक है, सरकार बना लेगें, लेकिन पैरासूट से आये चुनावी गणितज्ञों ने सबपर पानी भेर दिया। सबकुछ गुड गोबर हो गया । अब उप्र की बारी है। जहां अगले साल चुनाव होने है। पार्टी के लिये वहां खोने को कुछ नही है , सिर्फ मिलना है , मगर कैसे? इस बार क्या हासिल कर पायेगें , सभी समीकरण इसी पर आकर रूक गये है। प्रधानमंत्री एक बार फिर जहां अपने जिगरी अमितशाह को अघ्यक्ष बनाने की फिराक में है वहीं संगठन नये नेता को चुनाव को मंजूरी देता सा दिख रहा है। वैसे भी भाजपा में लोकतंत्र नही रहा , जिलाध्यक्ष से लेकर सभी पदों पर निर्वाचन की प्रकिया लगभग खत्म सी हो गयी है और सिर्फ मनोनयन का खेल हो रहा है। अब कार्यकर्ता ऐसे में क्या करें , किस ओर जाये । जब दाल में काला के बजाय , सारी दाल ही काली हो। कार्यकर्ताओं को अब लगता है कि कांग्रेस से दूर वह भाजपा में किस लिये आये थे, यह बात अब उनकी समझ से दूर होती चली जा रही है।
लोगों की माने तो भारतीय जनता पार्टी में उथल पुथल का समय करीब आ रहा है और कुछ नेताओं को इस बात का इंतजार है कि उंट कुछ इसतरह बैठे कि उनके चेहरे भी उन लोगो के बीच दिखे जो इस समय पार्टी की मुख्यधारा से बाहर बैठे है। पूरे जीवन इस पार्टी के लिये क्या क्या नही किया और जब कुछ पाने का मौका मिला तो किनारे बैठकर समुद्र की लहरें देख रहे हैं। सभी को विश्वास है कि नया साल कुछ नये सवेरे के साथ उनके लिये भी कुछ लेकर आयेगा । लेकिन कुल मिलाकर बात वहीं अटक जाती है कि इसरतजहां व गोधरा से आगे निकलकर ,प्रधानमंत्री जी पार्टी के लिये भी कुछ करना चाहेगें या पार्टी यही से खत्म हो जायेगी? जैसा कि उत्तर प्रदेश में अटल बिहारी बाजपेयी के समय में हुई थीं । जब दो लोगों की स्पर्धा पार्टी हित से उपर चली गयी थी।
यहां यह बात बता देना उचित होगा कि यदि लोकसभा चुनाव में भाजपा की ऐतिहासिक जीत को प्रधानमंत्री वर्तमान अध्यक्ष का प्रयास मानते है तो यहां वह गलत है। उत्तर प्रदेश ने केन्द्र के लिये भाजपा को जिताया है न कि प्रदेश की राजनीति के लिये , क्योंकि यह प्रदेश कल्याण सिंह के समय में उनके द्वारा सत्ता की छीछालेदर व मतो का अपमान देख चुका है। और इस बात की शुरूआत बिहार में हो चुकी है, अब अन्य राज्यों मे भी होने वाली है। इसका मूल कारण यह है कि प्रधानमंत्री का अपना वर्चस्व पार्टी में बनाये रखने का प्रयास करना। भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह को चाहिये था कि वह सभी कार्यकर्ताओं व पदाधिकारियों के बीच समन्वय स्थापित कर पार्टी को एक नयी दिशा प्रदान करते व उस उंचाई पर ले जाते जहां आसानी से आम जनता उनसे मिल सकती । मगर अफसोस पार्टी अघ्यक्ष पूरे कार्यकाल के दौरान न तो मीडिया में अपनी पकड बना पाये और न ही पार्टी के पदाधिकारियों व कार्यकर्ताओं में । प्रधानमंत्री द्वारा उनको अगर वीटो देने की सिफारिश की जाती है तो अध्यक्ष के रवैये से ऐसा नही लगता कि वह पार्टी के साथ न्याय करेगे।
अमितशाह के कार्यकाल को उल्लेख किया जाय तो उनकी दो उपलब्धियां है पहला राकेश मिश्रा उनका आफिस देखते है और दूसरा कोई उनसे तभी मिल सकता है जब उससे उनको फायदा हो । इस तरह की विचार धारा वाले और भी लोग है जिन्हें उनके अपने घरों के वोट नही मिलते और दूसरा निर्वाचन क्षेत्र देखना पडता है ताकि लोग उनके बारे में न जान सके और बडे नेता का लिबास ओढे वह सदन में पहुंच जाये। दिक्कत यहां यह है कि पार्टी के लिये जी जान से जुडने से कार्यकर्ता कहां जाये। टिकट की बारी आती है तो पैरासूट उम्मीदवार को टिकट थमा दिया जाता है , शिकायत करने जाओ तो कहा जाता है पहले जिताओ, फिर देखेगें और जब जिता देते हैं तो उनके प्रतिनिधियों से नही मिलते, उनके लिये समय कहां है। किसी भी सांसद का कोई काम उप्र में नही हो रहा है, यह बात वह बिहार व दिल्ली के चुनाव से पहले कहने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन उनकी बातों को अनसुना कर दिया गया। जबकि अध्यक्ष व प्रधानमंत्री जी को इस बारे में एक बार विचार करना चाहिये था जो उन्होने नही किया। अब सवाल यह है कि जिस पार्टी ने उन्हें इतना बडा सम्मान दिया, उस पार्टी के साथ वह ऐसा कर सकेगें या नही। उन्हें अपने निर्णय पर पुनः विचार करना चाहिये क्योंकि इसी में अमितशाह ही नही बल्कि पूरे भाजपा की भलाई है।
चाणक्य नीति रही है कि महात्वाकांक्षा इंसान को दुश्मन बना देती है, अच्छे काम करने वाले लोग भी इस महात्वांकाक्षा के चलते खराब से दिखते है और लगता है कि वह ही सबकुछ है। यहां यह कहना पडेगा कि प्रधानमंत्री जी को जिस पद के लिये महात्वांकाक्षा थी उसकी प्राप्ति हो चुकी है इस पद पर आने के बाद किसी तरह की महात्वांकाक्षा का कोई आधार नही रह जाता। पार्टी और आगे बढे उसका विस्तार हो इस पर सही निर्णय लेकर, उन हाथों को मजबूत करना चाहिये जिससे नये राहों का सृजन हो सके। गलत हाथों में गुजरात की सत्ता देकर पार्टी पहले ही गुजरात में खामियाजा भुगत रही है। आंनदी बेन पटेल का वर्चस्व ऐसा नही है, जैसा मोदी का था, वहां एक सशक्त नेता की तलाश है और अमितशाह वहां की राजनीति भी भलीभांति जानते है , उन्हें वहां समायोजित करने का प्रयास करना चाहिये। सुदामा कृष्ण से दान लेकर घनवान तो बन सकते लेकिन कृष्ण नही बन सकते, न ही पांडु पुत्रों की बराबरी कर सकते है, यह बात भलीभांति सभी को समझने का प्रयास करना चाहिये।
फिलहाल पार्टी में अब तक चाणक्य का किरदार निभाने वाले रामलाल जी को पार्टी राज्यपाल बनाने वाली है। इसके अलावा जिन दो अन्य लोगों के नाम पर चर्चा चल रही है उनमें पार्टी को उंचाईयों पर लाने वाले व मीडिया में अपना रसूख कायम करने वाले श्रीकांत व शाहनवाज को भी राज्यपाल बनाया जा सकता है। अघ्यक्ष पद की जिम्मेदारी संजय विनायक जोशी या कैलाश विजयवर्गीय को दी जा सकती है। इसके कई कारण भी है क्योंकि संजय जोशी को कब क्या बोलना है , कहां बोलना है ,कैसे बोलना है यह आता है और दूसरी बडी बात यह कि वह कार्यकर्ताओं के साथ साथ संघ की पहली पसंद है। कैलाश विजयवर्गीय को इसलिये बनाया जा सकता है क्योंकि वह मिलनसार होने के साथ साथ इलाज अच्छा करने का विशेष दर्जा प्राप्त है लेकिन बात तब भी घूमफिर कर वही आ जाती है कि इससे भाजपा मजबूत होगी क्योंकि यह सब तभी सभव है जब प्रधानमंत्री अपने वीटो का इस्तेमाल न करें।
बाक्स: प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर मोदी की एक खासियत है कि वह जो पाना चाहते है उसे हासिल करके रहते है , लेकिन अब तक जो उन्होने पाया है वह उनकी मेहनत तो है ही साथ ही किस्मत का भी योगदान रहा है। लेकिन संजय जोशी के मामले में जो कुछ उनके या उनके सहयोगियों की तरफ से हुआ वह शायद राजनैतिक दृष्टि से भले ही सही रहा हो लेकिन इंसानियत के तौर पर गलत रहा । अब समय आ गया है कि प्रधानमंत्री को अपने उच्च आदर्शों पर विद्यमान रहते हुए , उन सारी चीजों को उन हाथों में देकर पार्टी से किनारा कर लेना चाहिये, जो उनकी गरिमा को कलंकित कर रही हैं। इस मामले में वह विश्व हिन्दू परिषद या संघ का मार्गदर्शन ले सकते है। क्योंकि जिस राह पर वह चल रहें है वह उन्हीं राह के राही के ओर उनको अग्रसर कर रही है जिसपर कभी आडवाणी व जोशी चला करते थे। पार्टी है तो सबकुछ है , नही तो कुछ नही इस बात को अब समझ लेना चाहिये। नही तो अब पछताये क्या होत है जब चिडिया चुग गयी खेत वाली कहावत चरित्रार्थ होने में देर नही लगती ।
दिल्ली और बिहार में भाजपा के विरुद्ध सभी भृष्टाचारी, जातीयतावादी, अराजकतावादी एवं वोट बैंक की राजनीति करने वाली पार्टिया कदम से कदम मिला कर चल रही थी। मुझ लगता है की उत्तर प्रदेश की जनता परिपक्व एवं संवेदनशील है। वहाँ परिणाम भाजपा के पक्ष में रहेंगे।
आशावादी होना अच्छी बात है. एक बात और,मुझे यह नहीं लगता कि दिल्ली में जातिवाद का बोलबाला है,ऐसे यह कोई नई बात नहीं है.यह तो आम बात है कि हर भारतीय अपने आप में ईमानदार और चरित्रवान है,पर आंकड़ा यह दिखाता है कि शायद ही के किसी भी देश में . इतना भ्रष्टाचार और बेईमानी हो.वह पार्टी किसी दूसरे पर क्या लांछन लगाएगी,जिसने सबसे ज्यादा अपराधी संसद में भेजे हैं?