सिनेमा समाज का प्रतिनिधित्व करता है। भारतीय सिनेमा ने भी अपने सौ वर्षों के इतिहास में समाज के विभिन्न पहलुओं को प्रस्तुत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कोइतूर समाज भारत का छोटा पर निश्चित ही महत्वपूर्ण हिस्सा है। पर यह हिस्सेदारी भारतीय सिनेमा के परिदृश्य में कहीं गुम सी हो जाती है। ‘कमर्शियल’ या ‘पोपुलर’ सिनेमा का मुख्य उद्देश्य तो वैसे भी व्यावसायिक सफलता अर्जित करना होता है इसलिए यह उम्मीद तो नहीं की जा सकती कि कोई नामचीन फ़िल्मकार कोइतूर विषय या कोइतूर समाज का बड़े पर्दे पर प्रतिनिधित्व करे। डाक्यूमेंट्री कल्पना से दूर सत्य के ज्यादा करीब होती है। इसके साथ ही डाक्यूमेंट्री बनाने का उद्देश्य फिक्शन या फीचर फिल्म से सर्वथा भिन्न होता है, जैसे व्यावसायिक सफलता से परे समाज के अनछुए पहलुओं को टटोलना, सरोकारों और व्यवस्था की बात करना। इसलिए बड़े पैमाने पर नहीं व्यक्तिगत स्तर पर और सरकार के प्रोत्साहन के चलते डाक्यूमेंट्री फिल्मों में कोइतूर समाज कहीं न कहीं नज़र आता है। समय-समय पर कोइतूर समाज की समस्याएं, समृद्ध संस्कृति और लोकविधायें को डाक्यूमेंट्री के रूप में एक प्लेटफार्म मिल रहा है। जनजातीय कार्य मंत्रालय द्वारा भी भारत के कोइतूर समुदाय का वीडियो दस्तावेजीकरण डाक्यूमेंट्रीज़ के द्वारा किया गया है, जो युट्यूब प्लेटफार्म पर बिना किसी शुल्क के उपलब्ध हैं।
विषय की पृष्ठभूमि
देखा जाये तो कोइतूर समाज को फिल्मों में दिखाने की या कहें फिल्माने की कहानी फिल्मों के उद्भव के साथ ही शुरू हो गयी थी। हिंदी सिनेमा का आदिपुरुष धुंडीराज गोविंद फाल्के को माना जाता है, जिन्हें हम दादा साहेब फाल्के नाम से भी जानते हैं। विडम्बना यह है कि अगर उनकी दो फिल्मों ‘बुद्धदेव’ और ‘सत्यवान सावित्री’ को छोड़ दिया जाये तो उनकी ज़्यादातर फिल्मों में कोइतूर समाज को जंगल में रहने वाले असभ्य मनुष्य लगभग राक्षसों के रूप में दिखाया गया है, इस दृष्टिकोण में सिनेमा के सौ वर्ष बीत जाने के बाद भी आजतक कोई बदलाव नहीं हुआ है। लोकप्रिय फिल्म बाहुबली में कालकेय समुदाय का भयावह चित्रण एक ताज़ा उदहारण है। फिल्मों की कहानी में, फिल्म बनाने की तकनीक में और दर्शकों में भी, ज़मीन-आसमान का अंतर आ गया हैं पर कोइतूर पहले भी जंगलवासी थे और आज भी जंगलवासी हैं।
कई फिल्मों में कोइतुरो को नाचते-गाते हुए, कभी अर्धनग्न, तो कभी पत्तों से लपेटे हुए दिखाया जाता है। यहाँ नाचने-गाने से सम्बन्ध कोइतूर संस्कृति या लोक गीतों से बिलकुल नहीं है जो कि सर्वथा अनुचित है। इस नज़रिए से देखने या दिखाने वाले कोइतूर समुदाय या समाज के उस यथार्थ को नज़रअंदाज कर जाते हैं, जिसमें कि वह अभावों से घिरा है फिर भी प्रकृति के सबसे समीप है और उसको बेवजह नुकसान ना पहुंचाते हुए संधारण विकास के साथ अपना जीवन व्यतीत कर रहा है। भारतीय सिनेमा के शुरुआती काल की एक और फिल्म ‘रोटी’ जो 1942 में बनी, यह फिल्म स्वयं पूंजीवादी विचारधारा की खिलाफत करती है लेकिन उसमें भी दर्शकों को आकर्षित करने के लिए उस समय के आइटम डांस के रूप में कोइतूर समुदाय को फूल-पत्ती लपेटकर रूमानी मुद्रा में नृत्य करते हुए दिखाया गया है। बिमल रॉय द्वारा निर्देशित, ऋत्विक घटक द्वारा लिखी और दिलीप कुमार, वैजैयंती माला, प्राण जैसे बेहतरीन अदाकारों से सुसज्जित 1958 में बनी फिल्म मधुमती एक बेहतरीन फिल्म थी पर उसमें भी कोइतूरों को नाचते-गाते हुए रूमानी अंदाज़ में लहराते हुए दिखाया है।
मधुमती तो भारतीय सिनेमा इतिहास के स्वर्णिम युग और समानांतर सिनेमा के उद्भव काल की फिल्म है, जब यथार्थवादी विषय, किरदार, सेट डिज़ाइन और मुद्दे को प्राथमिकता दी जाती थी। ऐसी ही कई और फिल्मों के नाम गिनाये जा सकते हैं, जिनमें कोइतूर समुदाय को और नृत्यों को फिल्मों में केवल नयनाभिराम रचनांश की तरह रखा गया – ‘नागिन’, ‘विलेज गर्ल’, ‘अलबेला’, ‘दुपट्टा’, ‘श्रीमतीजी’, ‘यह गुलिस्तां हमारा’, ‘टार्जन और जादुई चिराग’, ‘दिलरुबा’, ‘टावर हाउस’ एवं ‘शिकार’ आदि। 1970 के बाद का समय, जिसे आधुनिक भारतीय सिनेमा का आगाज भी माना जाता है, यथार्थ से वैसे भी दूर था तो उससे उम्मीद करना कि वह कोइतूर समाज के किसी सकारात्मक पहलु को दिखाए या उस पर फिल्म बनाए, यह तो बहुत असंभव सी बात लगती है। 1983 में बालू महेंद्र की फिल्म ‘सदमा’ कोइतूर समुदाय के बारे में मिथ्य चरित्रकरण का एक और सशक्त उदहारण है। कमल हासन और श्रीदेवी के फ़िल्मी करियर की शायद सबसे बेहतरीन फ़िल्मों में से एक, पद्मभूषण इल्लैराजा द्वारा संगीतबद्ध इस फिल्म का एक गीत और उसके पीछे विचार गौर करने लायक हैं। फिल्म की दूसरी सहनायिका विजयालक्ष्मी वाडलापति जो दक्षिण भारतीय फिल्मों में स्टेज नाम सिल्क स्मिता के नाम से जानी जाती थी, नायक कमल हसन के साथ एक रूमानी गाना स्वप्न में देखती है, जिसके बोल हैं- “ये महुआ करे क्या इशारे”।
निर्देशक ने गाने के दृश्य में नायक-नायिका दोनों को कोइतूर पहनावे या कहा जाए निर्देशक या कॉस्ट्युम डिज़ाइनर द्वारा कल्पित अर्धनग्न कोइतूर पहनावे में बेहद रूमानी अंदाज़ में दिखाया गया गया है। गोयाकि अगर कोई अंतरंगता की कल्पना भी करे तो उसमें कोइतूर ही हो और वह महुआ के फूल से बनी ग्रामीण शराब को पीने से हो या उसके बाद होश खो दे। कोइतूर समुदाय का यह शराब पीकर उद्दंडता करने या होश खो देने वाला चरित्र ही सामान्य वर्ग के सामने आता है क्योंकि वर्षों से सिनेमा और मीडिया के अन्य माध्यमों में यही दिखाया गया है और जैसा कि लेख के आरम्भ में लिखा गया था कि सिनेमा समाज का सजीव और हुबहू चित्रण करता है और केवल कल्पित रचना लिख देने से या फ़िल्म के सभी पात्र काल्पनिक लिख देने से फिल्मकार का दायित्व समाप्त नहीं हो जाता। क्योंकि फिल्मकार की कल्पना निराधार नहीं होती बल्कि प्रच्छन्न विचार या सोच होती है, जिसे वह फिल्म के माध्यम से अभिव्यक्त करता है।
विषय की प्रासंगिकता
यदाकदा कोइतूर समाज को या किसी कोइतूर व्यक्ति विशेष को भारतीय मुख्यधारा की फिल्मों में दिखाया भी जाता है। एक दशक पहले आई ‘चक दे इंडिया’ फिल्म में भारतीय राष्ट्रीय हॉकी टीम में चार कोइतूर हॉकी प्लेयर्स को दिखाया गया था। फिल्म में वे भारतीय टीम में झारखण्ड और उत्तर भारत राज्यों का प्रतिनिधित्व करती हैं, जिनके बिना हॉकी टीम की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। संख्या के रूप में तो छोड़िये फिल्म में भी उनका रूपण कम पढ़ी-लिखी, कम समझ वाली और हिंदी न बोल पाने वाली प्लेयर्स के रूप में किया गया है। कमाल की बात यह है कि उन्हें फिल्म में भी फाइनल टीम में जगह नहीं मिलती और उन्हें पूरे समय दरकिनार रखा जाता है।
गोयाकि कोइतूर समाज को एक काल्पनिक कहानी में भी हाशिये पर रखा गया है। प्रसिद्ध फ़िल्मकार मणिरत्नम द्वारा निर्देशित फिल्म ‘रावण’ की कहानी एक ऐसे कोइतूर समाज के मुखिया बीरा के इर्द-गिर्द घूमती है जो कि हिंसक-उग्रवादी है और अपने साथियों के साथ समाज का बहिष्कार करता है, लोगों का अपहरण करता है। कोइतूर समाज को उग्रवादी, हिंसक, अनपढ़ और समाज विरोधी दिखने की परंपरा भारतीय फिल्मों में लगातार चली आ रही है। फिल्म ‘टैंगो चार्ली’ भारतीय सेना के एक बड़े ऑपरेशन पर आधारित है जिसे असम राज्य में प्रतिबंधित कर दिया गया था। फिल्म में एक बोडो जनजाति विद्रोही को एक बंदी का कान काटकर अपनी प्रेमिका को भेंट करते दिखाया गया था।
एक अन्य फिल्म ‘रेड अलर्ट’ भी नक्सलवाद के इर्द-गिर्द ही घूमती है और अन्य फिल्मों की तरह इसमें भी कोइतूर समाज की समस्या का कोई समाधान नहीं बताया है बल्कि उसे फिल्म में समाज, सरकार और व्यवस्था विरोधी बताया गया है। 1980 में आई ‘द नक्सलाइट’, 2002 में आई ‘लाल सलाम’, 2003 में आई ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ और 2012 में आई ‘चक्रव्यूह’ में भी कोइतूर प्रतिनिधित्व है जो नक्सलवाद पर केंद्रित है। फिल्म में उनके संगठन, भर्ती, अनुशासन, नेतृत्व, रणनीति, पुलिस के साथ मुठभेड़, मुखबिरी, महिला कैडर की उपस्थिति, प्रेम संबंध वगैरह को चित्रित किया गया है। “आपने इस इलाके में आकर बड़ी गलती कर दी। ये आदिवासी न इंसान हैं और न जानवर, ये शैतान हैं।” ये डायलॉग है हिंदी फीचर फिल्म ‘एमएसजी-2 का, जो कि डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह द्वारा निर्मित निर्देशित की गयी थी जिसमें मुख्य किरदार भी उन्हीं के द्वारा निभाया गया था। कोइतूर समाज के देशव्यापी विरोध के बाद इसे कई राज्यों में रिलीज़ होने से रोक दिया गया था। बाद में गुरमीत राम रहीम ने एक टीवी चैनल को अपनी सफाई देते हुए कहा था कि “फिल्म जब बनी भी नहीं उससे पहले मैं 2000-2002 के बीच छत्तीसगढ़ के घने जंगलों में आदिवासियों के बीच गया था। वहां मैंने देखा कि वे लोग बिल्कुल मध्ययुगीन तरीके से बिना कपड़ों के सिर्फ पत्ते लपेटे रहते हैं। जिंदा जानवर का मांस खाते हैं। ऐसे लोगों को जो जंगली हैं, शैतान हैं, उन्हें हमने इंसान बनाने की बात कही है, जो कहीं से भी गलत नहीं है”। कोइतूर समाज का रूपण अगर इस तरह सामान्य दर्शक के सामने जायेगा तो कहीं न कहीं वह उसकी विचारधारा का हिस्सा बन ही जाती है। इसी तरह के मिथ्या निरूपण की पराकाष्ठा हमें देखने को मिलती है हिंदी सिनेमा की सबसे बड़ी और व्यावसायिक रूप से सफल फिल्म ‘बाहुबली’ में। इसमें नेगेटिव किरदार में कालकेय जनजाति को वीभत्स, खूंखार, हिंसक, बलात्कारी के रूप में दिखाया गया था, जिसको उतनी ही क्रूरता से खत्म करने पर युवा राजकुमार अपने को कुशल प्रशासक के रूप में स्थापित करता है।
पीरियड फिल्मों में कोइतूर समाज का चित्रण तो एक अलग नज़रिया है पर सच्चाई से प्रेरित बायोपिक फिल्मों में ऐसे कोइतूर व्यक्तित्व के चित्रण में उसके समाज को पूरी तरह से भुला दिया जाता है। जबकि एक व्यक्तित्व के निर्माण में उसकी परवरिश और उसके समाज के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। जैसे वर्ल्ड चैंपियन बॉक्सर और ट्राइब्स इंडिया की ब्रांड एम्बेसडर मैंगते चंग्नेइजैंग मैरी कॉम पर बनी फिल्म ‘मैरी कॉम’ में उत्तर-पूर्वी राज्य की समृद्ध संस्कृति, लोकगीतों और भाषा को दरकिनार कर दिया गया था, व्यावसायिक मापदंडो के चलते। फिल्म की मुख्य अभिनेत्री प्रियंका चोपडा, जिन्होंने मैरी कॉम का किरदार निभाया था, उन्हें मैरी कॉम जैसा दिखने के लिए प्रोस्थेटिक और मेकअप का इस्तेमाल करना पड़ता था, जिसमें फिल्म प्रोडक्शन की दृष्टि से काफी समय और पैसा खर्च हुआ। इसकी जगह मैरी कॉम के जैसे चेहरे और ढीलढौल वाली उत्तर पूर्व की किसी मूल निवासी को लेकर भी यह फिल्म बनायी जा सकती थी, जिससे न केवल बजट कम होता बल्कि किसी नये चेहरे को हिंदी सिनेमा में परिचय करवाया जा सकता था। सोनम वांगचुक जो कि लद्दाख की पहचान के रूप में जाने जाते हैं और आजकल चीन की घुसपैठ के विरोध में और चीन के उत्पादों के बहिष्कार का मुख्य चेहरा बनकर सामने आये हैं, उन्हीं से प्रेरित था फिल्म 3-इडियट्स का मुख्य किरदार जो कि आमिर खान द्वारा अभिनीत किया गया था। 3-इडियट्स जो कि एक व्यावसायिक रूप से सफल और अत्यंत प्रेरणादायक फिल्म थी, उसमें भी मैरी कॉम के समान ही सोनम वांगचुक के कोइतूर व्यक्तित्व और लद्दाखी संस्कृति को केवल मुख्य प्लॉट का हिस्सा ही बनाया गया। अगर नये भारत के ये दो कोइतूर आदर्श व्यक्तित्व सिनेमा के माध्यम से अपनी बात नहीं कह पाएंगे तो सामान्य लोगों को मुख्यधारा में आने में बरसों लग जायेंगे
भारतीय सिनमा में कोइतूर जीवन शैली को यथार्थ से परे दिखाने वाली अनेकों फिल्मों के बावजूद कुछ फिल्मकार या फ़िल्में ऐसी भी हैं जो घनी काली घटाओं में उम्मीद की किरण के सामान हैं। अगर फीचर फिल्मों की बात की जाए तो यथार्थवादी फिल्मकार मृणाल सेन की 1977 में ‘मृगया’ एक दर्शनीय फिल्म है, जो एक संथाली युवक की कहानी हैं, जो अंग्रेजी हुकमत द्वारा अपनी पत्नी के यौन शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाता है। जानने योग्य बात यह है कि फिल्म में बेहतरीन अभिनय के लिये मिथुन चक्रवर्ती को अपनी पहली ही फिल्म में राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। आदिवासी विषयों को विश्वसनीयता के साथ फिल्माने वाली ‘मृगया’ में पद्मभूषण, पद्मविभूषण और दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से नवाज़े गए निर्देशक मृणाल सेन ने दिखाने का प्रयास किया है कि फ़िल्म में वास्तविक शिकारी धूर्त साहूकार है, शायद उसी तरह जिस तरह भारत की सामाजिक संरचना रही है, उसमें निचली जाति या तबके का शोषण उनकी नियति बन गई है। पर यह सब तभी तक संभव है जब तक वह निरंतर दमन से परेशान तबका जाग न जाए। इसी विचार का समर्थन करती है गोविन्द निहलानी की 1998 में आई नेशनल अवार्ड से पुरस्कृत फिल्म ‘हजार चौरासी की मां’। जया बच्चन, अनुपम खेर, जोय सेनगुप्ता, सीमा बिस्वास, नंदिता दास और मिलिंद गुनाजी जैसे मंझे हुए कलाकारों से सुसज्जित और नक्सलवाद का एक अलग कोण दिखाती इस फिल्म का निष्कर्ष है कि क्रांति की समाप्ति तभी हो सकती है जब शासन गरीबों और शोषितों को मूलभूत अधिकारों के साथ ही सम्मान भी देगा। कोइतूर समुदाय या समाज स्वचैतन्य है और धीरे-धीरे प्रकृति के साथ चलते हुए भी निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर है। फिल्म निर्माताओं के साथ ही दर्शक भी अपनी विचारधाराओं को व्यापक उड़ान भरने दे, वर्षों से आये पूर्वाग्रहों, एकतरफ़ा विचारधाराओं और मानसिकताओं को विराम दे ताकि फिल्मकार भी आज़ाद होकर हर विषय, हर समाज, हर समस्या को सामने ला सके।
राहुल खडिया
सहायक प्राध्यापक
एम सी यू विश्वविद्यालय
फ़िल्म मेकर, कोइतूर