बिहार: नीड़ का निर्माण फिर-फिर

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पटना स्टेशन पर उतरते ही अखबार में जिस पहली खबर पर नजर गयी वह थी छत्तीसगढ़ में जवानों पर नक्सली हमला, शहीद होने वालों में दो जवान दरभंगा (बिहार के)। बरबस सोचने लगा, कैसा है राष्ट्र एकता का यह सुत्र कि यदि सुदूर बस्तर में धमाके हो रहे हो तो उसकी अनुगुंज भारत-नेपाल की सीमा तक सुनाई देता है। यदि नक्सली नामधारी क्रूर अमानुषों से पीड़ित कोंटा का कोई परिवार हो तो उस पर आंसू बहाने के लिए मधुबनी के किसी गांव का कोई परिवार तत्पर हो। यदि हमारे भाई बंधु देश के मध्य भूभाग में पीडि़त हो तो न केवल पीड़ा की अनुभूति करने वरन् राक्षसों से संघर्ष में जान की बाजी लगाने सुदूर पुर्वोत्तर के लोग समर्पित रहे। यही पुनीत भावना तो एक सुत्र में बांधती है, हिमालय से कन्याकुमारी तक फैले हिन्दुस्तान को। इसी एक्य के कारण तो हमारा नामोनिशां तमाम संकटों के बावजूद सहस्त्राब्दियों से कायम है। अस्तु।

अभी बिहार जब अरसे बाद किसी सकारात्मक कारण से विमर्श एवं स्मरण का केंद्र बना है, एक केंद्रीय अध्ययन में जब बिहार को गुजरात के बाद विकास के पथ पर तेज़ी से अग्रसर हो रहे दुसरे सबसे अच्छे प्रदेश के रूप में चिन्हांकित किया गया है तो बरबस ही कुछ समय पहले के अपने देखे और भोगे हुए बिहार की याद आ गयी. किसी भी भू-भाग या प्रदेश के बारे में जानने के लिए एक पत्रकार के रूप में आप दो मुख्य तरीके अपना सकते हैं। पहला और सरल तरीका यह कि आप शासन के जनसम्पर्क विभआग में जाय, वहां से आकड़े एकत्रित करें और कुछ-कुछ कल्पनाओं का सहारा लेते हुए आलेख तैयार करें, बस हो गई आपकी रिपोर्टिंग। एक दूसरा थोड़ा सा कठिन लेकिन प्रामाणिक तरीका यह है कि आप स्थान विशेष की यात्रा कर वहां का अवलोकन करें और यथासंभव वहां के सुख दुख में सहभागी बन वहां की स्थितियों में स्वयं को एकाकार कर इपर प्राप्त अनुभवों को अभिव्यक्ति दें। अपनी बिहार की व्यक्तिगत यात्रा के दौरान बदली हुई राजनीतिक स्थिति के आलोक में हमने अपने इस ऐतिहासिक प्रदेश को पहली बार एक दर्शक के बतौर समझने की कोशिश की थी।

अमेरिकी बमबारी के बाद अफगानिस्तान की जो हालत हुई, कुछ-कुछ वैसी ही लगता था बिहार लालू के कुशाशन से मुक्ति के समय। 15 वर्ष के लालू के आतंकराज एवं उससे पहले की कांग्रेसी अधिनायकवाद से त्रस्त बिहार की हालत पर कोई भई संवेदनशील व्यक्ति रो देता। कुछेक अपवादों को छोड़ कहीं भी सड़कों का नामोनिशान नही, जिला मुख्यालय से किसी गांव तक की 40 किलोमीटर की दूरी तय करने में आपको 3 से 4 घंटे लगेंगे। गांव और कस्बों की तो बात ही छोड़ दे। जिला एवं संभागीय मुख्यालयों में 5 से 7 घंटे बिजली की व्यवस्था एक बड़ी उपलब्धि। फटेहाल एवं निस्तेज बच्चे, दिशाहीन युवा किंकर्तव्‍यविमूढ़ बुजुर्ग, प्राथमिक शिक्षा के हालात ऐसे की अगर मध्यान्न भोजन नही करना हो तो केवल परीक्षा के दिन ही दिखे बच्चे स्कुल में। अपहरण, गुंडागर्दी के अलावा कोई भी ससंगत उद्योग नहीं, लालू के सामाजिक (अ)न्याय के षड्यंत्र का परिणाम ऐसा कि किसी भी जाति या वर्ग के लोग किसी दूसरे पर विश्वास करने को तैयार नहीं। कुल मिलाकर बुनियादी ढांचा और मानव संसाधन की स्थिति ऐसी भयावह कि कल्पना करना भी दुष्कर कि कैसे पुन: खड़ा होगा बिहार अपने पांवों पर। प्रतिभावान विद्याथियों की फौज अभी भी है लेकिन पलायन के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं। अभी तक की स्थिति ऐसी ही थी कि चाह कर भी कोई युवा अपनी एड़ी चोटी का जोड़ लगाकर भी अपनी माटी का कर्ज उतारने में सक्षम नहीं हो सकता था।

लेकिन अब तस्वीर वास्तव में बदली-बदली सी लग रही है। इतने प्रतिकूल हालातों में रातों रात किसी क्रांतिकारी बदलाव की कल्पना करना तो संभव ही नहीं है, परंतु फिजा में घुला मिला नव निर्माण का संकल्प आपके दृष्टिगोचर होगा। जैसा कि बच्चन ने लिखा था…नाश के भय से कभी रुकता नहीं निर्माण का सुख, प्रलय की निस्तब्धता से सृष्टि का नवगाण फिर फिर नीड़ का निर्माण फिर फिर। विरासत में मिले परवर्ती सरकार की कुशासन के कुहासे को चीर विकास की किरणों को धरातल तक पहुंचने में वक्त तो लगेगा ही लेकिन बिहारीजनों के मानस में अरूणोदय की आकांक्षा से आपका साक्षात्कार जरूर होगा। आखिर हम उस प्रदेश की बात कर रहे है जहां हाइकोर्ट के जज तक को आतंकित हो बिहार से बाहर तबादलित कर देने की गुहार लगानाना पड़ता था। एलएलबी डिग्रीधारी अधिवक्ता तक अपने ही कोर्ट में चपरासी के लिए आवेदन करने में संकोच नहीं करते थे। आज कम से कम न्याय मित्र बन वे अपने पंचायतों में सेवा कर एक सम्मानजनक जिंदगी की उम्मीद कर सकते हैं। जहां पहले जिलाध्यक्ष तक को सरेआम गोलियों से भून दिया जाता था, वहाँ बदली हुई परिस्थितियों में उस हत्याकांड का अभियुक्त खुद भगवान को प्यारा कर दिया गया। जहां पहले ईमानदार इंजीनियर को जान देकर अपनी ईमानदारी की कीमत चुकानी पड़ती थी, आज एक चुनाव आयोग के एक इमानदार इमानदार अधिकारी के.जे. राव के गुण गाते नहीं थकते है लोग। पहले जहां सामाजिक न्याय के नाम पर चुनकर आये अन्यायी विधायकों द्वारा (याद कीजिए ललित यादव का केश) दलितों के नाखून तक उखाड़ लिये जाते थे। आज पंचायतों में 33 प्रतिशत आरक्षण घोषित हो जाने के बाद एक तथाकथित सामंतों के घर दूध पहुंचाने वाला अनुसूचित जाति का दलित भी मुखिया (ग्राम प्रधान) बनने का सपना देख सकता है।

कितनी बड़ी विड़ंबना है… पन्द्रह साल से जिस पार्टी की दुकान ही उन पिछड़ों वंचितों के नाम पर चलती थी उसने कभी भी हरिजनों को ठगने के अलावा कुछ नहीं किया, लेकिन भाजपा गठबंधन की सरकार बनते ही पहला ही निर्णय था, पंचायतों में दलितों को आरक्षण देने का। इसके औचित्य-अनौचित्य पर अलग बहस हो सकती है, लेकिन नीतिश सरकार की सदभावना तो पता चलता ही है इससे। इसी तरह पहले जहां बिहार में किसी पेशे में आपके सफल होने का मतलब था आपका अपहरण और रंगदारी टैक्स के रूप में फिरौती नहीं देने पर हत्या, लेकिन आज कहीं थोड़ा सा भयमुक्त वातावरण तो बना ही है। पहले नेताओं का निवाला होता था चारा, सड़को की सारी की सारी डामर पी जाने के बाद भी कहीं दाग नहीं दिखता था मंत्रियों के दामन पर। इक्के दुक्के बचे अच्छे इंजीनियरिंग संस्थानों में छात्रों के प्रवेश का फैसला मंत्री के टेबल पर हुआ करता था। यदि तमाम घपले-घोटाले की चर्चा करने लगे तो अलग से ही ग्रन्थ तैयार करने की जरूरत होगी। अशिक्षा और पिछड़ापन के कोढ़ में खाज की तरह ही थे यह तमाम हालात। लेकिन बाद में योजना आयोग ने भी हजारों करोड़ की राशि बिहार सरकार की उपलब्ध करवा कर नयी सरकार के संकल्पों में अपनी आस्था व्यक्त की है। पहले जहां प्रदेश के सरकारी-कर्मचारियों को वर्षों वर्ष तक वेतन नहीं मिल पाया करता था आज कोई सेवानिवृत्त प्रोफेसर अपने वर्षों के बकाया वेतन पाने के प्रति आशान्वित है। यह बताते हुए उस प्रोफेसर की आंखों में चमक आ जाती है कि बकाया वेतन और सेवानिवृत्ति की राशि से बेटियों के हाथ पीले कर पेन्शन की राशि से निश्चिन्त हो साहित्य साधना में लगूंगा। बी.एड. डिग्रीधारी हजारों युवकों की फौज या तो बेरोजगारी का दंश झेलते या फिर प्राइवेट स्कूलों में 400 रू. महीने की नौकरी। आज यही डिग्री सरकारी नौकरी पाने का प्रमाण पत्र हो गया है। लाखों शिक्षित और प्रशिक्षित बेरोजगार युवाओं की फौज के लिए कुख्यात बिहार में क्या आप यह कल्पना कर सकते थे कि नौकरी ज्यादे ही गई और प्रशिक्षितों की संख्या कम। समान्य स्नातकों आदि के लिए शिक्षामित्र आदि का विकल्प तो रहेगा ही। यहां फिर यह चर्चा करना समीचीन होगा कि बिहार शासन द्वारा शुरू की गई कुछ योजनाओं की केवल झांकी है, इसे साकार रूप लेने में वक्त तो लगना ही है, लेकिन यही क्या कम ही दशकों की विसंगतियों से बुरी तरह टूट गये बिहार का आत्मविश्वास की वापसी का माहौल कायम हुआ है, उनकी आंखों में एक सपना तो जगह लेने ही लगा है।

लेकिन जैसा कि वहां के एक बैंक अधिकारी ने कहा,नीतिश सरकार के लिए राह आसान नहीं होगी और चुंकि सभी बुद्धजीवियों ने गठबंधन को अपना समर्थन दिया है अत: सबकी पैनी नजर शासन के कामकाज पर रहेगी। लेकिन अगर उस अधिकारी की बात को सकारात्मक रूप से देखें तो इन पंक्तियों के लेखक को यह लगता है कि इतनी सारी समस्याओं को प्रबुद्ध जन महसूस करेंगे और सरकार से कदमताल का अपना एवं प्रदेश का भविष्य सुरक्षित करेंगे। बिहार में सरस्वती पूजा के बाद का महीना अमराईयों का होता है। आम के मज्जरों की खुशबु जब फागुन की हवा के साथ जब पहुंचती है तो मदमस्त हो जाते हैं लोग।वास्तव में माटी के सुगंध की मादकता ही कुछ और हो जाती है। … लेकिन उन मंजरों का हमें खास ख्याल रखना पड़ता है, बार-बार लोग उन टिकोलों (केरी) पर पानी एवं कीटनाशकों का प्रयोग करते हैं ताकि कीट पतंग बर्बाद न कर दे फसल को। प्रदेश के लोगों के मन में विश्वास, आशाओं, अपेक्षाओं का भी यही हाल है। सरकार को विकास एवं प्रतिबद्धता का छिड़काव ऐसे ही सतत करते रहना होगा ताकि फिर से जातिवाद, मसखारापन, बेईमानी, गुंडागर्दी आदि का कीड़ा बर्बाद न कर दें हमारी आशाओं की फसल को। उपरोक्त वर्णित जितनी भी बातें हैं वह तो केवल सरकार की इमानदारी एवं गंभीरता को बयान करता है, और उसके थोड़े बहुत सामने आये परिणाम को ही प्रदर्शित करता है। लेकिन अभी तो बिना किसी मील के पत्थर की तरफ नजर दौड़ाये कोसों चलने का समय है। बिना आराम और विश्राम की परवाह किये।

आजादी के बाद से लेकर अब तक गर आप बिहार के दुर्दशा की पृष्ठभूमि तलाशेंगे, राजनीति एवं नेताओं की आखेट भूमि बनते रहने के दो मुख्य कारण थे। पहला भूमि विवाद और दूसरा जातिवाद। पूरे देश में कांग्रेस जिस तरह धर्म आधारित तुष्टिकरण करती रही है वही बिहार में जाति आधारित हो गया था। इसी कारण उस बिहार को जिसे 1952 में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. पाल हेन्सन ने भारत का सबसे सुशासित राज्य बताया था, उसे सदी की समाप्ति तक कुशासन का पर्याय बना दिया गया। प्रदेश हिंसा और जातिवाद की आड़ में सड़ता रहा और मसखरे नेतागण गिद्ध बन मंडराते रहे अपने ही बंधुजनों के उम्मीदों की सड़ी लाश पर। बिहार का भू हदबंदी, कानून जिसमें तथा कथित सामंतों की जमीन छिन उसे गरीबों में बांटना था, सबसे बड़ा सहयोगी रहा उन नेताओं के लिए। आखिर इस कानून की आड़ लेकर सभी भूधारियों को दरिद्र एवं वकीलों को अमीर बनाकर, उससे उपजे हिंसा में लाखों मजलूमों के प्राण की आहूति दिलवा कर भी मसखरा नेता इतनी भी जमीन छीन कर गरीबों में नहीं बंटवा पाया जितना विनोबा भावे ने जमींदारों से हाथ फैलाकर मांग लिया था। गरीब,गरीब ही रहे और किसान या जमींदार भी गरीब होते गये। बस मरता रहा समाज, लिप्सा पूरी होती रही जोकरों की , सत्ता मिलती रही बेईमानों को। अभी तो स्थिति ऐसी हास्यास्पद है कि सरकारी रिकार्ड में हजार एकड़ जमीन ज़मीन रखने वाले किसानों के पास वास्तविकता में गुजारे लायक भी संसाधन नहीं है। लेकिन अब पुरानी बातों को दोहराने से कोई फायदा नहीं, अब तो सरकार को केवल इतना करना चाहिए कि भूमि सुधार के लिए एक न्यायिक आयोग का गठन कर जमीन से जुड़े सारे मुद्दों को संवेदनशीलता के साथ अलग-अलग सुनवाई कर उसका निपटारा करें। वास्तव में जातिगत विभेद एवं विभाजन की समाप्ति तथा भूमि संबंधी मामलों का निपटारा कर ही बिहार अपना प्राप्य हासिल करने में सफल होगा। हाँ समूचे सूबे को मजाक का पात्र बना देने वाले जोकर से बचाना भी बिहार विकास का एक उपयोगी सूत्र है।

बहरहाल…. जब कभी अगली बार कभी बिहार जाने का अवसर प्राप्त हो, तो हो सकता है दशकों के अनुभवों की झुर्री अपने चेहरे पर समेट ढेर सारे आशीर्वाद से आपको नवाज रहे स्नेहातुर आंखें सदा के लिए बंद हो चुकी हों। कुछ युवा अच्छे भविष्य की तलाश में, तो कुछ किशोर उच्च शिक्षा के लिए पलायन कर गये हों। लेकिन बुद्ध का बिहार कायम रहेगा। सत्य अहिंसा, बुद्धत्व, विद्यापति, विदेहराज की भूमि रहेगा ही। अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश करता, फिर से संसार में ज्ञान का प्रकाश फैलाता, दुनिया को चाणक्य नीति की शिक्षा देता। बस यही कामना करें कि शंति और सौर्हाद्र की जिस राह पर प्रदेश ने पिछले कुछ वर्षों से चलना शुरू किया है वह कदम रुके नहीं। बिहार बालू के लिए भी जाना जाता है, और किसी विचारक ने सही कहा है ‘ रेत पर अपने पावों के निशान आप बैढ़ कर नहीं बना सकते। चरैवेति चरैवेति….!

– पंकज झा

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  1. क्या कहूँ….अभी आपके लिए दुयाएँ ही दुआएं निकल रही है…सच कहूँ तो पहली बार ऐसा निष्पक्ष आलेख पढ़ रही हूँ सचमुच ही बिहार की दिशा दशा बयां कर रही है…
    आपने एक एक शब्द सही कहा…नितीश राज्य से पहले तक अपने आप को बिहारी कहने में भी लज्जा आती थी..क्योंकि बिहार अशिक्षा, मूढ़ता, भ्रष्टाचार, गुंडागर्दी का पर्याय बन गया था…बिहार का नाम आते ही कोई मानने को तैयार नहीं होता था कि वहां से जुदा कोई व्यक्ति अच्छा या सच्चा हो सकता है….कभी वहां जाने पर प्रदेश की दुर्गति देख आत्मा कलाप उठती थी…

    अब तो बस यही लगता है कि ईश्वर बिहारवासियों को सद्बुद्धि दें कि वह जाति धर्म इत्यादि की जहर फैला राजनीती करने वालों की चंगुल में न फंसे और वर्तमान सरकार के सद्प्रयासों को सद्गति देने के लिए इसे अगले पांच वर्ष तक शाशन करने का अवसर दे…

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