– डॉ सी पी राय
क्या होगा बिहार में, एक बड़ा सवाल था राजनीति में रूचि रखने वालों के जेहन में। फैसला तों बंद हुआ इ वि एम् मशीनों में और आ भी गया। बिहार वो प्रदेश है जिसने आन्दोलनों की अगुवाई किया, परन्तु कुछ सरकारों ने उसे इतना पीछे पंहुचा दिया कि वो भारत का सबसे ख़राब प्रदेश बन गया। एक ऐसा प्रदेश बन गया जिससे सबसे ज्यादा पलायन हुआ। कोई सरकार बहुत ख़राब रही हो और उसके बाद उसके मुकाबले थोड़ी भी अच्छी सरकार आ जाये, थोडा भी ईमानदार मुखिया आ जाये, थोडा भी काम होता दिखलाई पड़े तों निश्चित ही वो भयानक गरमी में ठंडी हवा का झोंका महसूस होता है। कुछ ऐसा बिहार की नितीश सरकार को लेकर भी लोग महसूस कर रहे थे। वहां के लोग तों बताते ही है कि कुछ विकास होता दिख रहा है, लेकिन बाहर या दूर बैठा आदमी भी कुछ बाते तों देख ही रहा है कि, जहां पहली सरकार में आये दिन बच्चे किसी ना किसी अपहरण के खिलाफ सड़क पर दीखते थे और तमाम भ्रष्टाचार की कहानी सुनने को मिलती थी, अब वो दिखाई नहीं पड़ती, अब टी वी की सुर्खियों में बिहार के वे समाचार नहीं होता है।
लेकिन सवाल ये था कि जबरदस्त जातिवाद की जकडन का शिकार बिहार क्या करवट लेगा? पूरे देश में लोकतंत्र की परिपक्वता दिख रही है। जिस तरह देश ने अयोध्या के मामले में परिपक्वता का परिचय दिया और जिस तरह कुछ प्रदेशो में काम करने वालों को करने वालो को जनता ने कई बार मौका दिया है और देते जा रहे है वह चाहे किसी स्तर की सरकार हो, उसी तरह बिहार की जनता ने भी विकास के सवाल पर निर्णय दिया है? खबरों से ऐसा लगता था कि बिहार भी जातिवाद की जकडन को छोड़ने को बेचैन था, वो भी देश के साथ दौड़ना चाहता था, बिहार भी २१वीं सदी की दौड़ में शामिल होने को आतुर हो रहा था। हवा जो दिख रही थी उसकी सच्चाई सामने आ गयी कि बिहार का १८ साल तक का नौजवान जिसकी संख्या ५५% हो गयी है और वो महिलाएं जो गरीबी और ख़राब कानून व्यवस्था का सबसे बड़ा शिकार होती है ,इन सबने मिल कर बिहार का चेहरा बदलने, बिहार का एजेंडा बदलने का फैसला कर लिया था और मजबूत फैसला कर लिया था।
इस चुनाव में फिर एक बड़ा और नया सन्देश दिया है जो देश भर के नेताओ और संगठनों की आँख खोलने वाला है। कोई इस सन्देश को समझ पाये तों बदल जाये और अपने खास चश्मे पर ही भरोसा करे तों मिट जाये। जब ६ राज्यों का चुनाव हुआ था तब मेरा लेख छपा था कि: अब केवल विकास की राजनीति चलेगी, जातिवाद टूट रहा है। देश बदल रहा है तों देश का, देश की नयी पीढी का एजेंडा भी पैदा हुआ है। इस नयी पीढ़ी को किसी की शक्ल, किसी के कोरे नारे, किसी की जाति का नारा, किसी का धर्म का नारा नहीं चाहिए, बल्कि उसे पहले चाहिए शांति व्यवस्था, कानून का शासन कि लोग निश्चिंत होकर घर से काम पर निकले तों घर आ सके, वे कमाए तों घर ला सके। अब की पीढी और जागरूक महिलाएं जिन पर घर का बोझ होता है वे चाहते है विकास और रोजगार। नितीश कुमार ने बिहार की जनता को इस तरफ कदम बढ़ा कर उनमे ये विश्वास पैदा किया कि वे बिहार की शक्ल बदलना चाहते है। नितिश ये विश्वास दिलाने में कामयाब रहे कि वे इमानदार है, उनके पास दृष्टि, सपना है और उन सपनों को जमीन पर लाने का संकल्प भी है। वे यह विश्वास दिलाने में कामयाब रहे कि उनके कुछ सिद्धांत है और सकारात्मक दिशा में चलने वाले सिद्धांत है। उसका परिणाम है बिहार में तीन चौथाई बहुमत का मिलना और मोदी को बिहार में नहीं आने देकर तथा आती पिछडों और अति दलितों में जो भूख जगाने का काम नीतीश ने किया वो भी उनका कारगर हथियार साबित हुआ। लालू ने तो अपने कर्मों से अपनी विश्वसनीयता और पकड़ खो ही दिया है पासवान भी पूरी तरह किसी डूबते हुए आदमी का हाथ पकड़ने की गलती का पहली बार शिकार हुए है।
जनता ने यह सन्देश दे दिया है कि वह केवल विकास चाहती है, उसका एजेंडा और वादा चाहता है। देश और प्रदेश में शांति चाहता। मजबूत और साफ छवि का नेता चाहता है लेकिन साथ ही नेता को एक विनम्र नेता के रूप में देखना चाहता है और यह भी चाहता है कि नेता की व्यक्तिगत छवि साफ सुथरी दिखाई पड़े। कई प्रदेशों में ये जनता पहले भी दिखा चुकी है जहां भी नेता काम करते हुए दिखे और छवि भी ठीक हो जनता उसे बार-बार मौका देना चाहती है। लालू ने रेल मंत्री के रूप में कुछ छवि बनाने की कोशिश किया लेकिन चुनाव के मौके पर कांग्रेस को धोखा देकर फिर ये सिद्ध कर दिया कि वो क्या है और बिलकुल भी बिना किसी शिक्षा, ज्ञान और अनुभव के जिस तरह रबड़ी देवी को नेता बना दिया और पिछले १५ सालों का उनका किया भी उनका पीछा नहीं छोड़ पाया। उनके सभी समझदार और संघर्ष के साथी उनका साथ छोड़ गए जिसको लालू ने गंभीरता से नही लिया। कांग्रेस ने भी केवल दिल्ली के नेताओं पर भरोसा किया। स्थानीय संगठन और नेतृत्व को ना पैदा करना उसे भारी पड़ा और ये रास्ता सभी प्रदेशों में भारी पड़ता रहेगा। यदि कांग्रेस ने प्रदेश का नेतृत्व संगठन और विधान सभा में मजबूत लोगों को दिया होता और मीरा कुमार को भावी मुख्यमंत्री घोषित कर चुनाव लड़ा होता तो यह तो नहीं कहा जा सकता कि सरकार बन गयी होती लेकिन परिणाम कहीं बहुत ज्यादा अलग होता। लेकिन कांग्रेस का जहा अनिर्णय उसके पतन का कारण होता है, वहीं दूसरे दलों के बजाय कालिदास बन कर अपनों को ही काटने में समय बर्बाद करना भी उसको पतन की तरफ ले जाता है। दूसरे प्रदेशों के नेता जो इस प्रदेश की भाषा, भूषा और भोजन नहीं जानते, यहाँ की संस्कृति नहीं जानते यहाँ की जमीनी हकीकत नहीं जानते वे कभी प्रभारी होकर और कभी टिकट बांटने वाला बन कर बंटाधार करते रहते है। इसी तरह के नेताओं के गलत आकलन के कारण उच्च नेतृत्व पर सवाल उठने लगे है। एक और बड़ी दिक्कत है कि इस दल में ५ साल सतत् काम नहीं होता रणनीति नहीं बनती सब चुनाव के समय शुरू होता है। जबकि जनता त्याग करने वालों की तरफ आकर्षित होती है पर रणनीति की कमी और हवाई नेताओं की भाषा बोली और चालें सब बर्बाद कर देती है। ऐसा भी लगता है कि कांग्रेस में भी उच्च स्तर पर कुछ ऐसे लोग है जो नहीं चाहते कि बिहार और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस मजबूत हो और राहुल या सोनिया इतने मजबूत हो जाये कि उन पर निर्भरता ख़त्म हो जाये। दूसरी दिक्कत ये है कि जो जमीनी नेता होते हैं उन्हें आसमानी नेता किनारे रख कर अपमानित करते रहते है और सम्मान देने के बजाय उन्हें चपरासियों से मिलने और अपनी बात कहने का सन्देश दे देते है, वही नेता जब अलग दल बना कर मजबूत हो जाते है तो सबसे बड़े लोग उनको सम्मान देने लगते है। खैर कांग्रेस को भारी झटका लगा है और इसकी धमक उत्तर प्रदेश में भी दिखाई पड़ेगी।
इस चुनाव परिणाम का असर उत्तर प्रदेश की राजनीति पर भी जरूर पड़ेगा क्योंकि अगर बिहार ने करवट लिया है तो उत्तर प्रदेश उससे और ज्यादा ही करवट लेगा। ऐसे स्थिति में ये देखना दिलचस्प होगा कि बहुत फूहड़ परिवारवाद ही नही बल्कि सम्पूर्ण परिवारवाद का शिकार लोगो को, जंगल राज चलाने वाले लोगो को, अपहरण को दल का मुख्य व्यवसाय बनाए वाले लोगो को, हर जगह हस समय केवल लूट करने वाले लोगो को, विकास का पैसा व्यक्तिगत सनक पर खर्च करने वाले लोगो, खुद भ्रष्टाचार की प्रतिमूर्ति बन गए लोगों, कोई सपना नहीं, कोई सिद्धांत नहीं, कोई संकल्प नहीं केवल जाती और धर्म के नाम पर वर्षों से राजनीति की फसल काटते और भूखी नंगी स्थिति से खरबपति बनते लोगो को उत्तर प्रदेश की जनता क्या जवाब देती है? और जनता के सामने विकल्प क्या आता है? क्या कोई विकल्प, कोई विकास का नया मॉडल नया एजेंडा, सरकार चलाने का नया फार्मूला यहाँ की जनता को दे पायेगा या जो दे सकते है वे आपस में लड़ने, गणेश परिक्रमा करने और एक दूसरे का गिरेबान पकड़ने में ही खर्च हो जायेंगे। केवल चापलूसी और किसी चमत्कार का इंतजार करते रह जायेंगे या रोजमर्रा की जिन्दगी में संघर्ष को हथियार बना कर लड़ेंगे और उत्तर प्रदेश को भी नए सूरज का दर्शन करवाएंगे। यह सवाल खड़ा है मुंह बाये हुए और नितीश के रूप में उत्तर भारत में एक बड़े लेकिन विनम्र �¤ �र संकल्प तथा स्वीकार्यता वाले नेता का जन्म हो चुका है, इस पर गहराई से निगाह रख कर भी रणनीति बनानी होगी जो बढाना चाहता है, जो लड़ना चाहता, और जो आगे आना चाहता है। नहीं तो क्या कुए और खाई में से एक को चुनने की मजबूरी फिर से केवल भ्रष्टाचार की प्रतिमूर्ति को जनता इसलिए मौका दे देगी कि उसके राज में अपराध उद्द्योग नहीं है और काम से काम एक खिड़की खुली है हर गली कूचा तथा परिवार तथा रिश्तेदार का हर चमचा तक मुख्यमंत्री बन कर लूओत तों नही रहा है। ये तो आने वाला समय बताएगा कि देश की जिम्मेदारी लेने वाले और देश के नेता कहलाने वाले अपने घर के पूरे नेता है कि नहीं। पर बिहार ने राजनीति का नया एजेंडा भी तय कर दिया, नई शक्ल भी दिखा दी है और नया स्वरुप भी दिखा दिया है। भारत का लोकतंत्र नई करवट ले रहा है इसमें अब किसी को कोई शक नहीं होना चाहिए और इसमें भी कोई शक नहीं होना चाहिए कि झोपड़ी से निकल कर और बिना किसी पूर्वज के नाम के भी नेता बना जा सकता है संघर्ष से संकल्पों से और कितना भी आगे बढ़ा जा सकता है और कितनी भी बार आगे आया जा सकता है। इशारों को अगर समझो…।
डॉ. साहब आपका विश्लेसन इतना सटीक है की उसकी जीतनी तारीफ की जय कम है,एक तठस्थरो से किया गया है बधाई स्वकर करे मैंने जैसे ही नेट खोला मेल में सबसे उपर प्रवक्त था और उसमे बिहार चुनाव से संबधित पहला लेख आपका ही पढ़ा.अपने बिहार उनाव के संकेतो का राष्ट्रिय स्तर पैर संकेत साफ है जनता ने विकास की दिशा को बड़ा समर्थन दिया है कि वास्तव उनके पास बिहार की उन्नति का खाका है और वह ईमानदारी से उसे लागु करना चाहते है इस चुनाव ने बताय्दारो कानून किस वजह से और किन लोगो नहीं i होने दिया उनकी नीयत पर किसी को अविश्वास नहीं था यह भी उनके सकारात्मक वोटो को किसी चाहे बहकावे में आने दिया भ.ज.पा.को की जीत उसके सकारत्मक सहयोग का उदहारण दिखाया दिखने का मामला हो या पाच साल बिना किसी विरोध के मिलजुल केर विकास को मामूली बातो को नजरंदाज केर प्राथमिकता बिहार का किसी कीमत पर उद्धार,इसका साबुत पचासल में दे केर जनता को विनम्रता का असली चेरा किख्या है.वैसे इस चुनाव ने राहुल गाँधी बिहार के जनता के उनके भाषण सुनाने के लिए नहीं मुन्नी –भाम के लिए ही जुटते थे उनके दलितों के यहाँ के खाने और,टोकरी या बच्चा उठाने के नाटक को अपने जीने के सघर्शो के परिहास के रूप में लिया यह कांग्रेस के लिए खास रूप से नकारात्मक हुआ जहा तक बात युवको की है तो पुरे हिंदुस्तान में हिंदी पत्रिकाओ का प्रतिशत बहुत अधिक है जगुकता में यहाँ के अनपढ़ भी राजनीत पर बोलते समझते है युवको ने तो जब भी नेत्रित्व बिहार के नौजवानों ने किया है राहुल गाँधी मिरांडा,होसे सेंत जेवियर के छारो के नेता हगे जो सहरुख,हकन सलमान खान से अधिक मह्त्य्व रखते नहीं तो दिल्ली विश्वविद्यालय के चुनाव ने जिसमे वहा के दर्जनों काललेगे शामिल होते है राहुल के नेत्रत्य्व का महत्य्व्पुर्द चुनाव में चार सीटो में सिर्फ एक ही स्थान पर रह गयी बहार के वोटरों में ६०%नौजवान है नीतीश को तीन चौथाई बहुमत का अर्थ है कि युवको ने राहुल गाँधी को गंभीरता से नहीं लिया है यही वह रही कि जिन २७ जगहों पर उनकी सभाए हुई उसमे सिर्फ एक में सफलता मिली.यहाँ के युवको का बहुमत तीन से चौथाई से अधिक का कोई समर्थन या प्रन्हाव नहीं है.क्योकि एक तरफ जोकर कि तरह कहना कि हिंदुस्तान में दो हिनदुस्तान है और वह का अखबार एकलाख पचहत्तर हजार करोड़ का धोताला वह भी मामला १२०-बी का बनता है क्यों कि प्रधानमंत्री से ले कर बाबु तक को मालूम था लेकिन अमेरिका से पर,पेर्मदु समझौते पर सर्कार दव पर लगा देने वाले इमानदार और कर्मठत प्रधानमंत्री भी नहीं जानते देखते किड देश हित या जन हित पर क्या उनमे इतनी प्रधान मंत्री मंत्री भी जानते हुए इतने बड़े में धोताले को होना देना सोनिया गाढ़ी कि निष्ठां पर सवाल खड़ा केर दिया है कुओकी बिना सोनिया के निर्देश पर ही किते होगे यानि हिस्सा सोनिया के स्विस में भी गया है शायद मनमोहन की खोमोशी का राज हो?
दोस्त जब आप किसी के मन का लिखते है तो उसे अच्छा लगता है और जब आप का लिखा किसी को नहीं पचता है तो कभी आप देशद्रोही ,कभी हिंदुत्व विरोधी और पागल तक कहे जाते है |पर खास चश्मे लगाये और अपने दिमाग को किसी संकुचित विचारधारा या सोच में गिरवी रखे लोग यह सोच ही नहीं सकते की विचार करने वाले लोग स्वतंत्र होते है और स्वतंत्र रूप से विचार व्यक्त करते है |जो सच लगा वाही मैंने हमेशा लिखा और कहा और लिखता तथा कहता रहूँगा | उससे कौन खुश होता है कौन नाराज होता है उसकी मुझे परवाह नहीं है |मेरा ११ जनवरी २००९ को ६ प्रदेशो के चुनाव के बाद अमर उजाला अख़बार में छपा लेख पढ़े तो आप को पता लग जायेगा की मई क्या सोच रहा हूँ | मैंने तभी लिख दिया था की अब केवल विकास की राजनीती चलेगी और जाती और धर्मवाद राजनीती से विदा होगी | बिहार ने उसी को मजबूत किया है पर गलतफहमी नहीं होनी चाहिए की ये जीत केवल नितीश कुमार की जीत है | ईमानदारी और बेईमानी यहाँ भी हुई जहा नितीश कुमार ने ईमानदारी से अपना वोट भा जा पा को वोट डलवाया वाही भा जा पा वाले उनसे छल करते नजर आये | उन्होंने कोशिश पूरी किया की नितीश की सीटे कम हो जाये और उनकी ज्यादा हो जाये जिससे वो नितीश को औकात बता सके पर जनता नितीश के साथ थी इसलिए ये लोग सफल नहीं हो पाए | ये सच बहुत जल्दी सामने आ जायेगा | मेरे इस लेख में सच लिख देना यदि अवसरवाद है तो यह अवसरवाद मै करता रहूँगा | वैसे मै न तो बिहारी हूँ ,न बिहार से कोई सम्बन्ध है और बिहार की सत्ता से कोई कम है | बस कलम का कर्तव्य निभा रहा हूँ |
आपके आकलन और विश्लेषण से मैं खुद को बहुत ही सहमत पा रहा हूँ .अब पता नहीं की आप अवसरवादी या पाला बदलने वाले हैं की नहीं 🙂 ,लेकिन आपके विचारों से तो असहमत होना संभव नहीं है .
अवसरवादी लोग पला बदलने मैं देर नहीं करते चाहे वो एक लेखक ही क्यों न हो????