–मनमोहन कुमार आर्य-
वेदों का अध्ययन करने पर हमें ज्ञात होता है कि ईश्वर ने हमारे लिए ही यह सृष्टि बनाई है और इसमें हमारे सुख के लिए नाना प्रकार के पदार्थ बनाकर हमें निःशुल्क प्रदान किये हैं। यही नहीं, हमारा शरीर भी हमें ईश्वर से निःशुल्क प्राप्त हुआ है जिसका आधार हमारे पूर्व जन्मों के कर्म वा प्रारब्ध है। हम ईश्वर के इन उपकारों के लिये कृतज्ञ हैं। हम ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना कर ही कृतघ्नता से बच सकते हैं। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हमें भावी जन्म-जन्मान्तरों में मानव जीवन का सदुपयोग न करने का भारी मूल्य चुकाना पड़ेगा, इसमें किंचित सन्देह नहीं है। हमारे ऋषि मुनियों ने हमारा यह काम आसान कर दिया है। महाभारत काल तक का समस्त वेद व धर्म संबंधी साहित्य अब सुलभ नहीं है। महाभारत युद्ध के बाद सारे विश्व में अज्ञानान्धकार फैलने से सन्ध्या व यज्ञ की वैदिक सत्य पद्धतियां विलुप्त हो गई थी जिन्हें उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में महर्षि दयानन्द जी ने अपने अपूर्व वैदिक ज्ञान, पुरूषार्थ व तप से हमें पुनः उपलब्ध कराया है। उनके द्वारा ब्रह्मयज्ञ वा सन्ध्योपासना हेतु पंचमहायज्ञ विधि की रचना की गई। इसमें प्रमुख ब्रह्मयज्ञ जिसे ईश्वरोपासना भी कहते हैं, उसका सविस्तार वर्णन किया है और उसकी पूरी विधि भी लिखी है। सन्ध्योपासना विधि में शिखा बन्धन, आचमन, इन्द्रिय स्पर्श, मार्जन, प्राणायाम, अघमर्षण व मनसा परिक्रमा के मन्त्रों व उनके संस्कृत व आर्य भाषा हिन्दी में अर्थों व विधियों को लिखकर व समझाकर दयानन्द जी ने उपस्थान मन्त्रों को लिखा है और इसके बाद गायत्री मन्त्र, समर्पण मन्त्र व अन्त में नमस्कार-शान्तिपाठ के मन्त्रोच्चार से सन्ध्या का समापन किया है। ईश्वरोपासना की संसार में यह सर्वोत्तम व एकमात्र विधि है जिससे लक्ष्य ‘मोक्ष’ की प्राप्ति होती है। आज के लेख में हम उपस्थान के मन्त्रों को अर्थ सहित प्रस्तुत कर रहे जिससे पाठक इनसे परिचित होने के साथ इनका महत्व जान सकें और इसका सेवन कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष रूपी लाभ प्राप्त कर सकें।
उपस्थान व उपासना दोनों का एक ही अर्थ है। उप का अर्थ समीप और आसन व स्थान का अर्थ बैठना व स्थित होना है। ईश्वर किसी स्थान विशेष पर न होकर सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी है। इस कारण वह हमारे शरीर के अन्दर भी विद्यमान है तथा हृदय गुहा में हमारी आत्मा विद्यमान होने व उसके अन्दर ईश्वर के व्यापक होने से इसी हृदय गुहा में ईश्वर का साक्षात्कार किया जा सकता है। उपस्थान का अर्थ जहां ईश्वर के समीप स्थित होना है वहीं ईश्वर को अपनी आत्मा के भीतर अनुभव कर उसके साक्षात्कार का प्रयत्न करना भी है। हम पहले उपस्थान के मन्त्रों को प्रस्तुत कर रहे हैं।
ओ३म् उद्वयं तमसस्परि स्वः पश्यन्तऽउत्तरम्। देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरूत्तमम्।। यजुर्वेद 35/14
उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यम्।। यजुर्वेद 33/31
चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुमित्रस्य वरुणस्याग्नेः। आप्रा द्यावापृथिवीः अन्तरिक्षं सूर्यऽ आत्मा जगतस्तस्थुषश्च स्वाहा।। यजुर्वेद 7/41
तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं श्रुणुयाम शरदः शतं प्र ब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्।। यजुर्वेद 36/24
आईये, अब इन 4 मन्त्रों के क्रमशः हिन्दी में भाषार्थों को भी क्रमशः जान लेते हैं।
इन मन्त्रों में सन्ध्या, उपासना वा ध्यान करने वाला भक्त ईश्वर से प्रार्थना करता हुआ कहता है कि हे परमेश्वर ! सब अन्धकार से अलग, प्रकाशस्वरूप, प्रलय के पीछे सदा वर्तमान, देवों में भी देव अर्थात् प्रकाश करने वालों में प्रकाशक, चराचर के आत्मा, जो ज्ञानस्वरूप और सबसे उत्तम आपको जान कर हम लोग सत्य को प्राप्त हुए हैं। हमारी रक्षा करनी आपके हाथ में है क्योंकि हम लोग आपकी शरण में हैं।
हे ईश्वर ! ऋग्वेदादि चार वेद आपसे ही प्रसिद्ध हुए हैं, आप ही प्रकृत्यादि सब भूतों में व्याप्त हो रहे हैं तथा आप ही सब जगत् के उत्पत्तिकत्र्ता हैं, इन कारणों से आप ‘जातवेदा’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। आप सब देवों के देव और सब जीवादि जगत् के भी प्रकाशक हैं। अतः आपकी विश्वविद्या की प्राप्ति के लिये हम लोग आपकी उपासना करते हैं। हे परमेश्वर ! आपको वेद की श्रुति और जगत् के पृथक–पृथक रचना आदि नियामक गुण जनाते और प्राप्त कराते हैं। आपके विश्व के सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी स्वरूप की ही हम उपासना करें अन्य किसी की नहीं क्योंकि आप सर्पोपरि हैं।
प्राणों और जड़ जगत् के स्वामी व आत्मा को ‘सूर्य’ कहते हैं। हे ईश्वर ! आप ही सूर्य और अन्य सब लोकों को बना कर उनका धारण और रक्षा करने वाले हैं। आप ही रागद्वेषरहित मनुष्यों तथा सूर्य लोक और प्राणों का प्रकाश करने वाले मित्र के समान हैं। आप ही सब उत्तम कामों तथा वर्तमान मनुष्य में प्राण, अपान और अग्नि का प्रकाश करने वाले हैं, आप ही सकल मनुष्यों के सब दुःखों का नाश करने के लिये परम उत्तम बल हैं, वह आप परमेश्वर हमारे हृदयों में अपने यथार्थ रूप से प्रकाशित रहें।
हे ईश्वर ! आप ब्रह्म हैं अर्थात् आप सब से बड़े हैं। आप सब के द्रष्टा और धार्मिक विद्वानों के परम हितकारक हैं। आप सृष्टि के पूर्व, पश्चात् और मध्य में सत्यस्वरूप से वर्तमान रहते हैं। सब जगत् के बनाने वाले आप ही हैं। हे परमेश्वर ! आपको हम लोग सौ वर्ष पर्यन्त देखें, सौ वर्ष पर्यन्त तक जीवित रहें, सौ वर्ष पर्यन्त तक कानों से आपकी स्तुति व महिमा के गीतों को सुनें और आपकी महिमा का ही सर्वत्र उपदेश करें। हे परमेश्वर ! हम आपकी कृपा से कभी किसी के आधीन न रहे अर्थात् पराधीन न हों तथा सदैव स्वाधीन रहें। आपकी ही आज्ञा का पालन और कृपा से हम सौ वर्षों के उपरान्त भी देखें, जीवें, सुनें–सुनावें और स्वतन्त्र रहें। आरोग्य शरीर, दृढ़़ इन्द्रिय, शुद्ध मन और आनन्दसहित हमारा आत्मा सदा रहे। हे ईश्वर ! आप ही एकमात्र सभी मनुष्यों के उपास्य देव हैं। जो मनुष्य आपको छोड़ कर आप से भिन्न किसी अन्य की उपासना करता है, वह पशु के समान होके सदैव दुःख भोगता रहता है।
इन उपस्थान के 4 मन्त्रों के भाषार्थ लिखकर महर्षि दयानन्द के एक बहुत महत्वपूर्ण पंक्ति यह लिखी है कि मनुष्य वा उपासक ईश्वर के प्रेम में अत्यन्त मग्न होकर अपनी आत्मा और मन को परमेश्वर में जोड़ कर उपर्युक्त मन्त्रों से स्तुति और प्रार्थना सदा करते रहें।
इन उपस्थान के मन्त्रों का अर्थ सहित पाठ करते हुए सर्वान्तर्यामी ईश्वर को अपनी आत्मा में अनुभव करना है। मल, विक्षेप व आवरण के होने के कारण ईश्वर का प्रत्यक्ष होने में बाधा आती है। निरन्तर उपासना से मल, विक्षेप व आवरण कट व छंट जाते हैं और ईश्वर का प्रत्यक्ष अथवा साक्षात्कार ईश्वर की कृपा होने व उपासक में उसकी पात्रता होने पर हो जाता है। यह साक्षात्कार ही मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा पुरूषार्थ रूपी धन है। इस धन से संसार का सबसे अधिक आनन्द तो मिलता ही है, जन्म व मरण से छूटकर बहुत लम्बी अवधि 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों तक मुक्ति का सुख प्राप्त होता है। यदि यह कार्य इस जीवन में नहीं किया तो फिर युगों–युगों तक यह अवसर दूबारा मिलेगा या नहीं, इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। बिना वैदिक विधि की उपासना किए केवल अच्छे कर्मों से ही ईश्वर के साक्षात्कार का लाभ व आनन्द तथा मोक्ष प्राप्त नहीं होता। इसके लिए ईश्वरोपासना सहित पंच महायज्ञ व सभी वैदिक कर्मों का करना परमावश्यक है अन्यथा मृत्योपरान्त दुःख ही दुःख भोगना होगा। यह हमारे तत्वदर्शी ऋषियों की सर्वसम्मत घोषणा है।
उपस्थान के मन्त्रों का पाठ व तदनुरूप भावना करने के बाद गायत्री मन्त्र का पाठ, समर्पण मन्त्र और नमस्कार मन्त्र का भी विधान है। इसे पूरा करके सन्ध्या समाप्त होती है। यह तीन मन्त्र क्रमशः निम्न हैंः
गायत्री मन्त्र = ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोे देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।। यजुर्वेद 36/3
समर्पण मन्त्र = हे ईश्वर दयानिधे ! भवत्कृपयाऽनेन जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः।
नमस्कार मन्त्र = ओ३म् नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च मयस्काराय च नमः शिवाय च शिवतराय च।। यजुर्वेद 16/41
शांतिपाठ का अंतिम मन्त्र: ओ३म् शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः।
गायत्री मन्त्र का संक्षिप्त अर्थ = ईश्वर हमारे प्राणों का भी प्राण अर्थात् वह हमें प्राणों से भी अधिक प्रिय है, वह दुःख निवारक है तथा सभी सुखों को देने वाला है। ईश्वर सब जगत को उत्पन्न करने वाला है तथा सब ऐश्वर्य का देने वाला है। सब की आत्माओं का प्रकाश करने वाला और सबको सब सुखों का दाता है। वह अत्यन्त प्रहण करने योग्य है। वह शुद्ध विज्ञानस्वरूप है तथा हम लोग सदा प्रेम भक्ति से निश्चय करके उसे अपनी आत्मा में धारण करें। किस प्रयोजन के लिये? इसलिये कि वह सविता देव परमेश्वर हमारी बुद्धियों को कृपा करके सब बुरे कामों से हटाकर सदा उत्तम कामों में प्रवृत्त करे।
समर्पण मन्त्र का भाषार्थ = हे ईश्वर दयानिधे ! आपकी कृपा से जो–जो उत्तम काम हम लोग करते हैं, वे सब आपको समर्पित हैं। हम लोग आपको प्राप्त होकर ‘धर्म’ जो सत्य न्याय का आचरण करना है, ‘अर्थ’ जो धर्म से पदार्थों की प्राप्ति करना है, ‘काम’ जो धर्म और अर्थ से इष्ट भोगों का सेवन करना है और ‘मोक्ष’ जो सब दुःखों से छूटकर सदा आनन्द में रहना है। इन चार पदार्थों की सिद्धि हमको शीघ्र प्राप्त हो।
नमस्कार मन्त्र = हे सुखस्वरूप ईश्वर ! आप संसार के उत्तम सुखों को देने वाले हो, कल्याण के कत्र्ता हो, मोक्षस्वरूप, धर्मयुक्त कामों को ही करते हो, अपने भक्तों को सुख को देने वाले हो और धर्म कामों में युक्त करने वाले हो, अत्यन्त मंगलस्वरूप और घार्मिक मनुष्यों को मोक्ष का सुख देने वाले हो। इसलिए हम बार–बार आपको नमस्कार करते है। नमस्कार मन्त्र के बाद ओ३म् शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः बोलने का विधान है। तीन बार शान्तिः शब्द का उच्चारण करने का उद्देश्य यह है कि ईश्वर द्यु–लोक, अन्तरिक्ष लोक तथा भूलोक में शान्ति रखे।
हम आशा करते हैं कि पाठक इस संक्षिप्त लेख में प्रस्तुत विचारों को लाभप्रद अनुभव करेंगे। यदि किसी भी पाठक को इस लेख से कुछ लाभ होता है तो हम अपने परिश्रम को सार्थक समझेंगे।