चुपचाप सा सुनसान सा !
चुपचाप सा सुनसान सा, मेरा जहान है लग रहा;
ना कह कहे चुलबुला-पन, इतना नज़र आ पा रहा !
वाला कहाँ अठखेलियाँ, लाला कहाँ गुलडंडियाँ;
उर उछलते पगडंडियाँ, मन विचरते कर डाँडिया !
सोचों बँधे मोचों रुँधे, रहमों करम पर हैं पले;
आत्मा खुली पूरी कहाँ, वे समझ पाए रब कहाँ !
संघर्ष में रह कर सदा, हस्ती को हैं खोए यहाँ;
हँसते कहाँ खिलते कहाँ, खिल-खिला कर चलते कहाँ !
जीवन दिए में लौ कहाँ, वह ऊर्ध्व गति धाया कहाँ;
‘मधु’ मनोहर लागा कहाँ, प्रभु धरोहर पाया कहाँ !
है गाँठ कोई पुरातन !
है गाँठ कोई पुरातन, संस्कार की उलझी हुई;
बहका अहं है उसी धुन, तरतीब ना मिल पा रही !
तरकीब़ कोई साधना की, खोल देगी वह कड़ी;
ना जुड़ी रह पाएगी तब, श्रंखला की वह लड़ी !
ना रहेगा भ्रम कोई, औ चला गुरुडम जाएगा;
संगीत हर जग लहर होगा, साधना सुर छाएगा !
अपने पराए ना लगेंगे, कर्म करना आएगा;
सिकुड़ना निज में अकड़ना, फिर कहाँ हो पाएगा !
प्रीति की वाँशी बजेगी, सहजता आ जाएगी;
‘मधु’ की संयत सुधा सी, बात तब मन भाएगी !
सुगबुगाहट झनझनाहट !
सुगबुगाहट झनझनाहट, हो रही संसार में;
विचरता केहरी जैसे, कोई आया तिमिर में !
डरे हैं कुछ खुश हुए कुछ, बदलते कुछ जा रहे;
प्रपंचों के भेद खुलने, धरा पर हैं जा रहे !
बदलना आसान कहाँ है, पकड़ना दुस्तर यहाँ है;
बुद्धि पारंगत निशाचर, युद्ध में तत्पर जहान है !
समर्पण कर सुर जगत जब, स्रोत से मिल एक हों;
आसुरी शक्ति पछाड़ें, रण किए उर उऋण हों !
प्रकाशों की जगमगाहट, छाएगी इस भुवन में;
‘मधु की मृदु गुनगुनाहट, आएगी हर प्राण में !
अलहदा हो अलविदा कहना !
अलहदा हो अलविदा, कहना कहाँ कोई चाहता;
अनमने-पन से चला वह, खोजता निज रास्ता !
राफ़ता जब नहीं होता, टिक न पाता कोई रिश्ता;
चले चलता वह चितवता, भाव-वातों की महत्ता !
परिस्थिति औ प्रकृति रमता, झाँकता चलता गुलिस्ताँ;
नाचता नचता नचाता, तके चलता सुगम नुक़ता !
पथों की आँधी वयारें, ढालतीं नित नए नाते;
पास आते दूर जाते, जलजले लखते खिजाते !
ख़ज़ाना पाया हृदय था, निभाना आया कहाँ था;
‘मधु’ हर ही रूह रहता, कहाँ कोई समझ पाता !
त्रिलोकी का लोक चलना !
त्रिलोकी का लोक चलना, कहाँ कोई भासता;
प्रकृति रचता कृति कराता, कहाँ प्राणी बूझता !
तटस्थित हर आत्म रहता, पर कहाँ वह दीखता;
बना द्रष्टा नित विचरता, द्रष्टि दल दल झाँकता !
सोच की हर लहर रहता, वही हर कविता बनाता;
परागित हर कर्म करता, फूल फल बन वेल जाता !
सकल श्रंखल वह निरखता, विषय विषयी वही बनता;
भाव सरिता भव बहाता, तैरता तरता तराता !
तान दे वह ही उड़ाता, टाँग खींचे कभी चलता;
‘मधु’ विलो माखन खिलाता, प्रलय में लय कभी करता !