ब्रिटेन में अंग्रेजी का विरोध

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

यह अपने आप में बड़ी खबर है कि ब्रिटेन के वैज्ञानिक अंग्रेजी के एकाधिकार के विरुद्ध आवाज उठा रहे हैं। युआन गोंजालीज़, विलियम सदरलैंड और तात्सुआ अमानो नामक वैज्ञानिकों ने एक विज्ञान-पत्रिका में लेख लिखकर इस बात पर नाराजी जाहिर की है कि आजकल विज्ञान संबंधी ज्यादातर शोधकार्य अंग्रेजी में होता है। गैर-अंग्रेज लोग भी अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हैं। इसका एक बुरा नतीजा यह होता है कि दुनिया के ज्यादातर लोग इन नए शोध-कार्यों का फायदा नहीं उठा पाते हैं। उन्होंने चीन का उदाहरण दिया। 2004 में चीन में लाखों पक्षियों को नहीं बचाया जा सका, क्योंकि वहां के वैज्ञानिकों को अंग्रेजी में लिखे नुस्खे समझ में नहीं आए। इसका उल्टा भी सत्य होता है। रुस और जापान के वैज्ञानिक अपना शोध-कार्य अपनी भाषा में करते हैं, जिसका लाभ दुनिया के कई देश तब तक उठा ही नहीं पाते, जब तक कि उनका अंग्रेजी में ठीक-ठाक अनुवाद न हो जाए। ब्रिटेन के वैज्ञानिकों का आग्रह है कि दुनिया के सभी वैज्ञानिकों को बहुभाषी या कम से कम द्विभाषी होना चाहिए ताकि उनका लाभ सबको मिल सके।

इन वैज्ञानिकों का एक तर्क यह भी है कि पराई भाषा में विज्ञान पढ़ना और पढ़ाना आपकी मौलिकता नष्ट करता है। विदेशी भाषा को माध्यम बनाने से आपके सोच-विचार का तरीका बदलने लगता है और बुद्धि पर भी बोझ बढ़ जाता है। अजनबी भाषा के प्रयोग में बौद्धिक शक्ति का अपव्यय होता है। विदेशी माध्यम सहज नहीं होता। विज्ञान के अनेक महारथी कोपरनिकस, न्यूटन, केपलर्स आदि ने अपनी खोजें लेटिन में ही की थीं। किसी जमाने में विज्ञान की मुख्य भाषा जर्मन ही थी। इसका मतलब यह नहीं कि गैर-अंग्रेज वैज्ञाानिक अंग्रेजी न सीखें या अंग्रेजी में काम न करें। इन वैज्ञानिकों की जोर इसी बात पर है कि अंग्रेजी के शोध-पत्रों को अन्य विदेशी भाषाओं में अनुवाद या सार-संक्षेप जरुर दिया जाए और विदेशी भाषाओं में होनेवाले शोध का अता-पता अंग्रेजीदां वैज्ञानिकों को भी मिलता रहे। क्या हमारे भारतीय वैज्ञानिक इन अंग्रेज वैज्ञानिकों की राय पर ध्यान देंगे? भारत-जैसे पूर्व-गुलाम देशों में अभी भी विज्ञान तो क्या, सभी शोध-कार्यों में अंग्रेजी का एकाधिकार चला आ रहा है।

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