पराधीन भारत में आर्यसमाज पर ब्रिटिश सरकार का कोप

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-मनमोहन कुमार आर्य

               स्वामी श्रद्धानन्द जी का आर्यसमाज के इतिहास में गौरवपूण स्थान है। आर्यसमाज में उनके जीवन से संबंधित आत्मकथा, जीवनचरित एवं इस प्रकार के अन्य ग्रन्थ उपलब्ध हैं। हमें पं. सत्यदेव विद्यांलकार जी द्वारा सन् 1933 व उससे कुछ समय पूर्व लिखा गया उनका जीवनचरित स्वामी श्रद्धानन्द’ सर्वात्तम प्रतीत होता है। इसका नया संस्करण आर्यसमाज के प्रतिष्ठित विद्वान व प्रकाशक श्री प्रभाकरदेव आर्य जी ने अपनी प्रकाशन संस्था हितकारी प्रकाशन समिति, हिण्डोन-सिटी’ की ओर से कुछ समय पूर्व प्रकाशित किया है। ऋषि दयानन्द तथा स्वामी श्रद्धानन्द जी के सभी भक्तों को उसे अवश्य पढ़ना चाहिये। उसी पुस्तक में से हम उपर्युक्त विषयक कुछ सामग्री प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि भारतवर्ष का वर्तमान इतिहास बनाने वाला आर्यसमाज ही है, फिर गर्वनमेंट के कर्मचारी व्याकुल होकर आर्यसमाज पर झूठे दोषारोपण करें तो आश्चर्य क्या है? ये शब्द हैं जो महात्मा मुंशीराम जी ने आर्यसमाज पर सरकारी कोप के कारणों की मीमांसा करते हुए सम्वत् 1965 (सन् 1909) में लिखे थे। वस्तुतः आर्यसमाज एक उठती हुई संगठित शक्ति था, जिससे सरकार का भयभीत होना स्वाभाविक था। पश्चिमी देशो के राज्य के विस्तार और स्थिरता के साधनों में बाइबिल का भी प्रमुख स्थान है। सन् 1857 के राजद्रोह का दमन करते हुए अंग्रेज भारत में अपने राज का यथेष्ट विस्तार कर चुके थे। उसके बाद वे उसको स्थिर बनाने में लगे। ईसाइयों के दल के दल समूचे भारत को ईसाई बनाने के मनसूबे बांध कर वैसे ही भारत में रहे थे, जैसे कि कोई राजा अपनी सेनाओं को दूसरे देश पर विजय प्राप्त करने के लिए भेजता है।

लॉर्ड क्लाइव के बाद लॉर्ड मैकाले का भारतीयों को दोगले अंग्रेज बनाने का मिशन शिक्षा-विस्तार की आड़ में सन् 1835 से ही अपना काम कर रहा था। उसने एक पत्र में अपने पिता को ठीक ही लिखा था कि पच्चीस वर्ष बाद बंगाल में एक भी आस्तिक हिन्दू नहीं रहेगा। जो काम आरंगजेब की तलवार से मुगलों के आठ-नौ सौ वर्ष के शासनकाल में नहीं हुआ था, उसको ईसाई चौथाई शताब्दी में करने का अटूट विश्वास किये हुए थे। ब्रह्मसमाज और प्रार्थनासमाज आदि को ईसाइयत की लहर हजम कर चुकी थी। पर, आर्यसमाज उसके लिए चीन की दीवार साबित हुआ। आर्यसमाज के साथ टकराते ही ईसाई मिशनरियों का सुख-स्वप्न टूटा और उन्होंने देखा कि उनकी स्वप्न-सृष्टि की उमंगों का पूरा होना संभव नहीं है। चोर को जैसे अपने पैर की आहट से भय लगता है, वैसे ही ईसाई आर्यसमाज से घबरा उठे और उनके भरोसे भारत में अपने साम्राज्य की जड़ें पाताल में पहुंचाने की आशा लगाये हुए अंग्रेज भी व्याकुल हो गये। ऐंग्लो-इण्डियनों और ईसाई मिशनरियों को आर्यसमाज के हर एक काम में राजद्रोह दीखने लगा। सिखों और मुसलमानों की भरती को भी आर्यसमाज के प्रचार से चोट लगी। उनके चरागाह के द्वार बन्द हो गये। इस पर उन्होंने भी आर्यसमाज के विरुद्ध ईसाई पादरियों के हाथ में हाथ मिलाया। श्राद्ध, मूर्तिपूजा, अवतारवाद आदि का खण्डन करने से पोंगा पन्थी हिन्दू भी आर्यसमाज से नाराज हो विरोधी-दल के साथ जा शामिल हुए। वीर अभिमन्यु का वध करने के लिए कौरव-दल के सभी महारथियों ने कमर कस ली।

ईस्वी सन् 1883 से ही ईसाई पादरियों ने आर्यसमाज को राजनीतिक संस्था कहना शुरू कर दिया था। मुंशीराम जी ने इस सम्बन्ध में लिखा था-‘‘आर्यसमाज के पोलिटिकल जमायत (संस्था) होने का सारा सन्देह ईसाई मिशनरियों ने ब्रिटिश कर्मचारियों के दिलों में डाला था। गरीब हिन्दुओं को वाग्युद्ध में सदा पछाड़ने के अभ्यासी पादरियों को जब आर्यसमाज में पले बालकों तक से पटकनी पर पटकनी मिलने लगीं, तब वे ओछी करतूतों पर उतर आये और उन्होंने सरकारी अधिकारियों को विश्वास दिलाना आरम्भ किया कि आर्यसमाज से क्रिश्चियन मत को तो कम भय है, अधिक भय गवर्नमेंट को है। इस सन्देह के लिए ऋषि दयानन्द के लेखों में काफी गुंजायश भी थी। भले ही आर्यसमाज उस समय की कांग्रेस की नीति से सहमत नहीं था और चाहे इस समय की नीति से भी सहमत हो, (यह शब्द सन् 1933 में लिखे गये थे) भले ही उस समय उसके नेताओं ने आर्यसमाज को संन्यासी, धर्मोपदेशक, सुधारक तैयार करने वाली एवं सार्वभौम धार्मिक-संस्था सिद्ध करने का यत्न किया था और चाहे अब भी वैसा ही यत्न क्यों किया जाता हो, पर इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि आर्यसमाज की अपीलों में धर्म के साथ-साथ देश का नाम भी बराबर लिया जाता था और अब भी लिया जाता है। ऋषि दयानन्द के मिशन का लक्ष्य सब संसार को वैदिक धर्म की शरण में लाना क्यों रहा हो, पर देश की दुर्दशा, दरिद्रता एवं पराधीनता का दर्द उनके लिए असह्य था, अपने देश के लिए स्वराज्य, साम्राज्य और चक्रवर्ती राज्य की महत्वाकांक्षा पैदा करने वाले इस युग में वे पहले व्यक्ति हैं। ब्रह्मचर्य, वेद एवं धर्म ही क्यों उस एकता का आधार हों, किन्तु देश में एकता स्थापित कर उसको अपना देशीय राज्य भोगते हुए देखने के लिये वे तरसते थे और अब भी उनके लेख राजनीतिक दृष्टि से भी मुरदा दिल में जान फूंकने वाले हैं।

ऋषि दयानन्द का धर्म, देश-प्रेम, देशभक्ति और मातृ-पूजा के भावों से रहित नहीं था, अपितु मनुष्य के देह में रुधिर के समान उनसे पूरी तरह ओत-प्रोत था। भारतीय संस्कृति के गौरव को देशवासियों में पैदा करते हुए उनमें स्वदेशाभिमान की स्फूर्ति पैदा करने वाला आर्यसमाज नही तो और कौन है? बाईबिल द्वारा भारत में अपने साम्राज्य को सदा के लिए स्थिर करने वालों के सुख-स्वप्न को आर्यसमाज ने भंग नहीं किया तो किसने किया है? आर्यसमाज के नेताओं को गृह-कलह से जैसे ही छुटटी मिली, वैसे ही वे वेदप्रचार तथा गुरुकुल आदि के विधायक-कार्यक्रम में लग गये और सरकारी लोगों के मनों में संदेह के बादल और भी अधिक मंडराने लगे। उनको आर्यसमाज के हर एक काम में राजद्रोह, विप्लव और राज्यक्रांति दीखने लगी। बंग-भंग के आस-पास के दिनों में देश में जब दमन का दौर-दौरा शुरू हुआ, तब हिन्दुओं, सिखों और मुसलमानों ने आर्यसमाज को बलिदान का बकरा बनाकर अपने को बचाने के लिए जो हरकतें कीं, उससे ऐसा मालूम होता है, मानों आर्यसमाज के विरुद्ध देश में कोई षड्यन्त्र ही रचा गया था और उसमें सरकार के बड़े से बड़े अधिकारी भी शामिल थे।”

               गुरुकुल के प्रकरण में गुरुकुल के प्रति किये गये सन्देह का वर्णन किया जा चुका है। आर्यसमाज के प्रति किये गये सन्देह की कहानी भी उतनी ही मनोरंजक है, और साथ ही निराधार भी। आत्माराम सनातनी बहुत गन्दी और अश्लील भाषा में आर्यसमाज के विरुद्ध प्रचार किया करता था। ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के लिए वह गन्दी से गन्दी और अश्लील से अश्लील भाषा काम में लाया करता था। इस गन्दगी के लिए उसके विरुद्ध सरकार की ओर से सन् 1902 में इलाहाबाद में और सन् 1905 में करांची में मुकदमा चलाया गया। इलाहाबाद में उसने आर्यों को राजद्रोही ओर सत्यार्थप्रकाश को राजद्रोह के लिए उसकाने वाला बताते हुए अपना बचाव पेश किया। करांची में उसने यह चाल चली कि सत्यार्थप्रकाश को राजद्रोही बता कर वहां के आर्यसमाज की तलाशी करवा दी और मन्त्री पर मुकदमा दायर करवा दिया। दोनों जगह उसकी दाल नही गली, किन्तु आर्यसमाज के प्रति पैदा हुए सन्देह की उसकी ऐसी हरकतों से पुष्टि अवश्य हुई।

श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा की इंग्लैण्ड और फ्रांस की राजनीतिक हलचलों को भी आर्यसमाज के माथे मढ़ा गया। लाला लाजपतराय को देश निकाला देना सन्देह के लिए सबसे प्रबल प्रमाण माना गया। सरदार अजीतसिंह का आर्यसमाज के साथ कुछ भी सम्बन्ध होते हुए भी उसको आर्यसमाजी बताया गया। भाई परमानन्दजी के यहां तलाशी होने के बाद तो आर्यसमाज के विप्लवी होने में कोई सन्देह ही बाकी रहा। वैलेण्टाइन शिरोल की लम्बी नाक से ऋषि दयानन्द के गोवध बन्द कराने के यत्नों में ब्रिटिश-विरोधी-भावना की गन्ध आती थी। सन् 1907 में रावलपिंडी के दंगे में पकड़े गये आर्यों के निरपराध छूट जाने के बाद भी शिरोल ने लिखा था ‘‘पंजाब और संयुक्त प्राप्त के राजद्रोही आंदोलन में आर्यों ने प्रमुख हिस्सा लिया है। रावलपिंडी के सन् 1907 के दंगों में आर्य प्रमुख नेता थे और पिछले दो वर्षों के उस भयानक आंदोलन में, जिसके परिणमस्वरूप वास्तव में उपद्रव हुए, लाला लाजपतराय और अजीतसिंह दोनों आर्यसमाजी हैं।” अन्त में उसने यहां तक लिखा था-‘‘जहां-जहां आर्यसमाज का जोर है, वहां वहां राजद्रोह प्रबल है। आर्यसमाज का विकास हठात् सिख-सम्प्रदाय की याद दिलाता है, जो सोलहवीं शताब्दी के आरम्भ में नानक द्वारा प्रारम्भ किये जाने पर धार्मिक एवं नैतिक सुधार का आन्दोलन था और पचास ही वर्षों में हरगोविंद की आधीनता में वह एक शक्तिशाली राजनीतिक और सैनिक सगठन बन गया।” इस प्रकार पूरे व्यवस्थित तौर पर आर्यसमाज को राजनीतिक संस्था सिद्ध करने का यत्न किया गया। दयानन्द कालेज लाहौर में बंगाली प्रोफेसरों की नियुक्ति का और एकांत जंगल में गुरुकुल खोलने का भी यही अर्थ लगाया गया। 

               उपर्युक्त पंक्तियों में लेखक पं. सत्यदेव विद्यालंकार जी ने अंग्रेजों के ही शासनकाल में आर्यसमाज का जो तेजस्वी स्वरूप प्रस्तुत किया है वह वर्तमान में आर्यसमाज के अनुयायियों के लिये प्रेरक होने के साथ आर्यसमाज में आयी गिरावट पर विचार करने के लिए भी विवश करता है। देश के स्वतन्त्र होने पर जहां आर्यसमाज का काम बढ़ना चाहिये था और उसकी सभी योजनायें व मान्यतायें सरकारी स्तर पर लागू होनी चाहियें थी, वैसा न होकर आर्यसमाज एक निष्क्रिय संस्था की स्थिति को प्राप्त हुआ। इसका एक कारण आर्यसमाज का नेतृत्व सुयोग्य हाथों में न होना भी रहा है। आज पुनः आर्यसमाज को अपने अतीत का सिंहावलोकन कर अपनी वर्तमान और भविष्य की नीति तय करनी चाहिये। आज की परिस्थितियों में प्रतीत होता है कि देश को आर्यसमाज की पहले से भी अधिक आवश्यकता है। आज सभी मत-मतान्तरों के अन्धविश्वास बढ़ते ही जा रहे हैं। आर्यों व हिन्दुओं की जनसंख्या घट रही है जबकि कुछ मतावलम्बियों की जनसंख्या बढ़ रही है। पाकिस्तान का आधार भी दो मतों की जनंसंख्या ही बनी थी। इसका परिणाम हम सबके लिये अहितकर होगा इसकी पुष्टि इतिहास से होती है। अतः हमें समय रहते सोच विचार कर उचित निर्णय लेने होंगे। ओ३म् शम्।

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