– सुनील अमर –
देश की लोकतांत्रिक राजनीति में व्यक्ति से लेकर जाति और धर्म तक के कई मिथक पहले चुनाव से ही गढ़ लिये गये थे और वे थोड़े बहुत रद्दो-बदल के साथ हर चुनाव में अपना असर दिखाते रहे लेकिन संतोष की बात है कि उत्तर प्रदेश में सम्पन्न हुआ विधानसभा का यह चुनाव छोटे-बड़े कई मिथक तोड़ गया है। जिन्हें यह घमंड था कि वे किसी जाति विशेष के लिए खुदा का दर्जा रखते हैं, उनकी खुदाई टूट गयी और जिन्हें यह भ्रम था कि वे खुदा को गढ़ने का हुनर जानते हैं, वे अपने लिए रास्ता तक नहीं तलाश पा रहे हैं। कई राजपुरुष जो इस मुगालते में थे कि वे तो मतदाताओं के सपनों में तैरते रहते हैं, उन्हें अब जाकर इल्हाम हुआ कि वे सपने दिखा नहीं रहे थे बल्कि खुद ही देख रहे थे। शायद यही कारण है कि चुनाव नतीजे आने के बाद प्रदेश के मतदाता वह सुकून महसूस कर रहे हैं जो कीचड़ में फॅंसी गाड़ी को जी-जान से ढकेलकर बाहर निकाल लेने के बाद गाड़ीवान को महसूस होता है। यह चुनाव नतीजा सबक है कि लोकतंत्र में राजनीतिक भूमिका अदा करने वाला महज धूल सरीखा होता है जो सर पर भी जा सकती है और वक्त आने पर वापस जमीन पर भी।
बसपा प्रमुख सुश्री मायावती का यह गुरुर टूटा कि उनकी इच्छा ही जनमत है। स्व. कांशीराम ने जब बहुजन समाज पार्टी का गठन किया था तो उस वक्त उनके कई साथी-सहयोगी थे जिनके राय-मशविरे की कद्र वे किया करते थे और वे सबके सब दलित या पिछड़े वर्ग से ही थे। बसपा का जो दिन दूना, रात चौगुना विस्तार हुआ, वह कांशीराम की सनकया तानाशाही के चलते नही बल्कि उन कार्यकर्ताओं की वजह से हुआ जो प्राण-प्रण से संगठन के साथ लगे हुए थे। कांशीराम पर काबू पाने के बाद सुश्री मायावती ने बड़े ही सुनियोजित और लक्षित ढ़ॅंग से एक-एक कर इन समर्पित दलित नेताओं-चिंतकों को निकाल बाहर करना शुरु किया। सर्व श्री राजबहादुर, रामसमुझ, बलिहारी बाबू, रामाधीन, आर.के. चैधरी, जंगबहादुर पटेल, राशिदअल्वी, मेवालाल बागी, राम खेलावन पासी, कालीचरण सोनकर आदि ऐसे जाने कितने नाम हैं जिन्हें सुश्री मायावती ने इसलिए पार्टी से निकाल दिया कि इन दलित नेताओं का कद इतना ऊंचा न हो जाय कि वे उनके लिए चैलेन्ज बन जॉंय ! जानिये कि बसपा का प्रदेश अध्यक्ष तक दलित नहीं है! यह अनायास नहीं है कि आज मायावती के इर्द-गिर्द रहने वाले तथा उनके दाहिने-बॉये हाथ के तौर पर जो भी हैं उनमें से कोई भी दलित नहीं है। हम सतीशचंद्र मिश्र का नाम जानते हैं, नसीमुद्दीन सिद्दीकी का नाम जानते हैं, स्वामीनाथ मौर्य का नाम जानते हैं, बाबूसिंह कुशवाहा को कौन नहीं जानता लेकिन इन्हीं के टक्कर के किसी भी दलित नेता का नाम हम नहीं जानते। आज सुश्री मायावती यह आरोप लगा रही हैं कि भाजपा और कॉग्रेस के ठीक से न लड़ने का लाभ सपा को मिला लेकिन तब क्या यही तर्क 2007 के विधानसभा चुनाव के लिये नहीं दिया जाना चाहिए जब उन्हें (यानी बसपा को) ऐसी ही सफलता मिल गयी थी। आज सपा को अगर प्रतिक्रियात्मक वोटों का लाभ मिला बताया जा रहा है तो क्या तब इसी तरह का लाभ बसपा को मिला हुआ नहीं माना जाना चाहिए? काहे का सर्वजन समाज? दलित आज भी निःसंदेह बसपा के साथ हैं लेकिन यह उनकी मजबूरी है, बहन मायावती की खुदाई नहीं। उन्हें जानना चाहिए कि आसमान के सभी सितारे अगर मर जायेंगें, तो चाँद भी नहीं बचेगा।
भाजपा के नेताओं को इल्हाम हो गया था कि वे खुदा गढ़ने की कला जानते हैं। अपने बगल बच्चे विहिप की अयोध्या, वाराणसी और जयपुर में मंदिर के पत्थर तराशने की कार्यशालाओं की बदौलत उन्हें लगता था कि जब वे काशी-मथुरा और बनारस में भगवान को पुनर्जन्म देने का हुनर जानते हैं तो भगवान को मानने वाले मतदाता उन्हें छोड़कर कैसे जा सकते हैं! अपने भगवान को भी कोई छोड़ सकता है भला! उन्हें आज भी यह यकीन नहीं आ रहा है कि सन् 1984 से उन्होंने अयोध्या के नाम पर कोई आंदोलन नहीं बल्कि एक मेला बटोरना शुरु किया था जो 1991 में जब अपने उरुजपर आया तो उ.प्र. विधानसभा की 221 सीटों की शक्ल में बदल गया था। मेले कुछ समय बाद छॅंट जाते हैं। यह मेला भी लगातार छंटता जा रहा है। आगे जाकर यह कहाँ पर थमेगा, इसे भाजपा के नेता ही बेहतर जानते होंगें। आखिर देश में बहुत सी राजनीतिक पार्टियॉ खत्म भी हो चुकी हैं। शीर्ष स्तर पर इस पार्टी में कैसा दिग्भ्रम है इसकी बानगी देखिये कि विधानसभा क्षेत्र अयोध्या की अपनी चुनावी सभा में श्री लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि अयोध्या में मंदिर निर्माण उनके जीवन का लक्ष्य है लेकिन उसी के अगले दिन बलिया की अपनी चुनावी सभा में श्री गडकरी ने कहा कि मंदिर निर्माण उनके एजंडे में ही नहीं है! इनकी आत्म-मुग्धता देखिए कि ये अपनी अच्छाइयों की बदौलत नहीं, सत्तारुढ़ बसपा की बुराइयों के फलस्वरुप सत्ता पाने का ख्वाब देख रहे थे मानों सत्ता पाने के लिए कोई लाइन लगी हो कि इस बार तो मेरा नम्बर है ही! वर्ष 1991 में भाजपाने अयोध्या सीट जीती थी। तब से लगातार वह इस पर काबिज थी। इस दौरान वह वहाँ की संसदीय सीट जीती और हारी भी लेकिन विधानसभा सीट पर बरकरार रही। इस बार सपा वह सीट भी ले गई! अयोध्या सीट को भाजपा हिन्दुत्व और मंदिर आंदोलन की आन-बान-शान का प्रतीक बताती रही है। यह मिथक भी टूटा। राजधानी लखनऊ की सीटों को भाजपा श्री अटल बिहारी बाजपेयी की जागीर बताते थकती नहीं थी। वहाँ श्री कलराज मिश्र किसी तरह अपनी सीट निकाल ले गये हैं, बाकी सब गया। बाजपेयी के स्वयंभू वारिस लालजी टंडन अपने बड़बोले बेटे तक को नही जिता सके।
सोनिया गांधी की निजी स्टार प्रचारक प्रियंका गांधी जब उनके संसदीय इलाके रायबरेली में अपने जलवे बिखेर रही थीं तो भाजपा के एक नेता ने उन्हें बरसाती मेढ़क कहा जिस परसुश्री प्रियंका ने गर्वोक्ति करते हुए कहा था कि हाँ वे हैं बरसाती मेंढक। विपक्षियों के वार को जिस अहिंसक अदा से उन्होंने झटक दिया था वो देव-दुलर्भ था। ‘विपस्यना’ की साधिका प्रियंका के मन में यह आत्म विश्वास संभवतः कहीं गहरे और जन्मजात बैठा हुआ था कि देवी-देवता रोज कहाँ दर्शन देते हैं लेकिन जब देते हैं तो भक्त सुध-बुध खो बैठते हैं। यह घटना आने वाले दिनों में शोध का विषय होनी चाहिए कि सुश्री के दर्शन की ताब कम हो गयी या भक्त ही बे-मुरौव्वत हो चले। शायद ऐसी ही जमीन पर ‘फैज’ कभी लिखे रहे होंगें -‘‘…तेरे दस्ते-सितम का इज़्ज़ नहीं, दिल ही काफ़िर था जिसने आह नकी।’’ वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में कॉग्रेस को 22 सीटें मिल गई थीं। उस आधार पर राजनीतिक प्रेक्षकों का अनुमान था कि इन सीटों के तहत आने वाली विधानसभा सीटें भी कांग्रेस को मिल ही जाऐगीं। उधर कॉग्रेस के नीति-नियंता भी आरक्षण के नाम पर एक को खाली बन्दूक तो दूसरे को कारतूस पकड़ाकर यह सोच रहे थे कि चलो कुछ न कुछ तो सबको दे ही दिया। असल में किसी के चतुर होने में कोई दिक्कत नहीं है। दिक्कत तब होती है जब वह बाकी सबको मूर्ख समझने लगे। जिन सीटों पर कॉग्रेसी सांसद जीते थे, जरा उनकी पड़ताल कर ली गई होतीकि किन चुनावी समीकरणों के चलते वे जीत गये थे तो शायद 100 सीट पाने की कांग्रेसी आकांक्षा जरा थम गयी होती और इतना सदमा न लगता।
माया और राहुल के साथ ही भाजपा को भी अपनी औकात अखिलेश ने समझा दी है.
विश्लेषण कैसे भी किया जाये असलियत ये है की देश और खास तौर पर उत्तर प्रदेश में राजनीती में वोटों का जातीय और मजहबी धुर्विकरण हो चूका है. २००७ के चुनावों में भी ये कहा जा रहा था की किसी दल को बहुमत नहीं मिलेगा और हंग विधान सभा बनेगी. ये अफवाह भी काफी गरम थी की कल्याण सिंह और शिवपाल यादव की दोस्ती के चलते आपस में ये समझ बन चुकी है की किसी को बहुमत न मिलने की स्थिति में भाजपा और सपा मिलकर सर्कार बना लेंगे. कई लोगों ने मुझसे कहा की जिस दल की ज्यादा सीट होंगी उसका मुख्या मंत्री बन जायेगा. इसका नतीजा ये हुआ की मुस्लिम मतदाता अधिकतर बसपा के पाले में चले गए और सत्ता की दौड़ में दो दशक से पिछड़ रहे कुछ ब्राह्मणों ने भी बसपा का दामन थाम लिया.२००९ में भी मुस्लिम मतदाताओं ने भाजपा के खिलाफ स्ट्रेटेजिक वोट किया.जहाँ जो प्रत्याशी भाजपा को हराने की स्थिति में दिखाई दिया वहां उसे वोट दिया. इस बार भी यही नीति रही और बसपा के सत्ता च्युत होने के चलते भाजपा के मुकाबले सपा को मुस्लिम वोट मिला. जिससे सपा को बहुमत हासिल हुआ. इसका प्रभाव ये हो सकता है की हिन्दू वोटों को एकजुट करने के प्रयासों में तेजी आएगी.आगे का घटनाक्रम दिलचस्प होगा.