बुनियादी सुविधाओं, जागरूकता एवं प्रशासन की कारगुजारियों की वजह फल-फूल रहा है कोडरमा में मानव तस्करी का धंधा
पिछले दिनों बेंगलूरू के कोल्स पार्क के इलाके में काम कर रहे झारखंड के 17 बच्चों को मुक्त किया गया। जिसमें 9 बच्चें कोडरमा के थे। मुक्त कराये गये सभी बच्चों की उम्र 12 से 18 साल के बीच है। इन सभी बच्चों को कोडरमा के ही दो बाल तस्करों द्वारा बहला-फुसला कर ले गये थे। बाल तस्करों द्वारा सभी बच्चों के माता-पिता को कुछ पैसे दिये गये थे। मुक्त कराये गये 17 बच्चों में से कुछ बच्चे पानी-पूरी बेचने का काम करते थे तो कुछ पानी लाने का काम तो कुछ साफ-सफाई का। इन्हें दिन में 10 से 14 घंटे काम काम करना पड़ रहा था। कुल मिलाकर उक्त सभी बच्चे बंधुआ मजदूर की तरह कार्य कर रहे थे। इन्हें रहने के लिए के लिए एक छोटा सा कमरा दिया गया था, वह भी बिना किसी सुविधा के। दिन भर कार्य करने के बाद ये सभी लड़के जमीन पर ही सो जाया करते थे। स्थानीय संस्थाओं के द्वारा काफी दबाव बनाने के बाद जिला प्रशासन की टीम ने सभी मुक्त कराये गये बच्चों को वापस लाये।
डोमचांच के दर्जनों गांव जंगल क्षेत्र में बसे हुए हैं। एक दशक पूर्व तक इन सभी गांवों में माईका के वैध-अवैध कारोबार से लोग अपने जीवन यापन करते थे। इधर, डेढ़ दशक से माईका उधोग ठप पड़ गया है। जिससे अब पेट कैसे भरा जाय, यह सवाल उत्पन्न हो गया है। फिलहाल, ढिबरा ;स्क्रेप माईका ही एक मात्र रोजगार का साधन बचा हुआ है। बंगाखलार एवं अन्य आस-पास के सभी गांवों में बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव है। कुछ गांव ऐसे हैं जहां के लोग आज भी नदी में चुंआ खोद कर पानी पीने को विवश है। प्रषासन की ओर से आंगनबाड़ी केंद्रों एवं स्कूलों का कभी मानिटंरंग नहीं होता है। लिहाजा, संचालन जैसे-तैसे हो रहा है। कई स्कूलों में मध्यान भोजन की बात तो दूर, स्कूल भवन बनने के बाद कभी स्कूल खुला भी नहीं है। पंचायत जनप्रतिनिधियों को भी आंगनबाड़ी केंद्रों या स्कूलों से कोई विशेष मतलब नहीं है। जबकि, पंचायती राज अधिनियम 2001 की धारा 75, 76 एवं 77 में पंचायतों को बाल अधिकारों की बहाली और संरक्षण करने का अधिकार व जिम्मेवारी पंचायत जनप्रतिनिधियों को दी गयी है। लेकिन, पंचायत जनप्रतिनिधियों द्वारा यहां विकास योजनाओं, लाल कार्ड, राशन कार्ड, बीपीएल में नाम चढ़ाने, इंदिरा आवास आदि को छोड़कर शायद ही बच्चों के मुद्दों पर कभी चर्चा होती है। अभिभावक अपने बच्चों को आंगनबाड़ी केंद्र या स्कूल भेजना भी चाहते हैं लेकिन, भेजें तो भेजें कहां? इधर, दलालों या तस्करों के लोभ-लालच एवं प्रलोभन में ऐसे गरीब मां-बाप को फंसने में देरी नहीं लगती है। लिहाजा, अभिभावक भी यह सोचकर अपने बच्चों को बाहर भेज देते हैं कि यहां पढ़ने-लिखने का कोई साधन है भी नहीं, दिन भर खेल-कूद कर समय बिताने से अच्छा है कि बाहर जाकर दो पैसा कमायेगा। नजर फिरेगा सो अलग। इस सोच के तहत अभिभावक अपने बच्चों को किसी अनजान दलाल या रिश्तेदारों के हाथों बच्चों को भेजने को विवश है। इस इलाके से पहले से भी बच्चे महानगरों में जाते रहे हैं। कुछ बच्चे आज भी महानगरों में फंसे हुए हैं। कुछ बच्चें भागकर घर आ चुके हैं।
वैसे, अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार दुनिया में भारत एक ऐसा देश है जहां सबसे ज्यादा बाल श्रम की संख्या है। यह बिल्कुल शर्मनाक बात है क्योंकि, यहां बाल श्रम के खिलाफ कानून हैं। लेकिन, ठीक से पालन नहीं होने के कारण बाल मजदूरों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। और तो और, बाल तस्करी का धंधा भी खूब फल-फूल रहा है। कोडरमा के जंगल इलाकों में बसे गांवों के ज्यादातर बच्चे आज किसी न किसी होटल, गैरज, ढाबा या बाहर महानगरों के किसी कारखानों या बाबुओं के घरों में नौकर का काम कर रहे हैं। पिछले दिनों बंगलोर से वापस लाये गये डोमचांच के 9 बाल श्रमिकों को पुर्नवासित कराने की जबावदेही प्रशासन की है। लेकिन, उन्हें उचित पुर्नवासित किये बगैर अभिभावकों को सौंप दिया गया। जिला समाज कल्याण पदाधिकारी मंजू रानी स्वांसी से पूछे जाने पर बताया कि बच्चों के व्यापक हित को ध्यान में रखते हुए अभिभावकों को सौंपा गया है।
इधर, वापस आये बच्चों की वर्तमान वस्तुस्थिति जानने के लिए समर्पण संस्था की टीम एवं डालसा के प्रतिनिधि तुलसी कुमार साव जब बच्चों के गांव गये तो जो स्थिति देखा-सुना गया वह बिल्कुल चैंकाने वाला है।
समर्पण की टीम एवं डालसा के तुलसी कुमार साव ने बताया कि बच्चों के पुनर्वास की व्यवस्था नहीं होने से संभावना है कि ये बच्चे फिर बाहर काम करने चले जायें। जिससे उनका बचपन और बाल अधिकारों का खतरा है। संस्था द्वारा संबंधित पदाधिकारियों पर दबाव बनाने और सूचनाधिकार का प्रयोग करने के बाद दिनांक 21 मई, 2014 को उपायुक्त एवं जिला समाज कल्याण पदाधिकारी के संयुक्त हस्ताक्षर से डोमचांच के बीडीओ को पत्रांक 265/21 मई, 2014 के द्वारा निर्देश जारी किया कि बंगलोर से वापस लाये गये बच्चों के माता-पिता को सरकारी लाभ से लाभान्वित करें। वहीं पत्रांक 266/21 मई, 2014 के द्वारा जिला शिक्षा अधीक्षक, कोडरमा को निर्देश दिया कि बंगलोर से वापस लाये गये बाल मजदूरों को सरकारी स्कूलों में नामांकन करायें ताकि षिक्षा अधिकार कानून का पालन किया जा सके। लेकिन, यह सब महज कागजी कार्रवाई होकर रह गया। बच्चों का न नामांकन हुआ और न ही उनके माता-पिता को सरकारी योजनाओं से जोड़ा गया। जिला समाज कल्याण पदाधिकारी, कोडरमा के एक ओर पत्र ;पत्रांक 07 दिनांक 24.06.2014 के द्वारा बंगलूरू से वापस लाये गये बच्चों के अभिभावकों को इंदिरा आवास देने का निर्देश दिया गया है। लेकिन, उस पत्र में जो पता दिया गया है उसमें अधिकांश पता गलत है। इससे प्रशासन की गैर जिम्मेदारना हरकत अपनाने का यह सबूत अपने आप में काफी है।
बंगलौर से 7 मई 2014 को वापस आये दिनेश कुमार तुरी पिता सोमर तुरी का नामांकन उ. म. वि. तुरियाटोला, बंगाखलार, डोमचांच में 5वीं कक्षा में है। पिछले 9 माह से दिनेश बंगलौर में कार्य कर रहा था, लेकिन, ताज्जूब की बात यह है कि विधालय रजिस्टर के मुताबिक दिनेश विधालय में एक दिन भी गैर हाजिर नहीं है। रोज का हाजिरी बना पाया गया। फिलहाल, दिनेश के जांघ में घाव हो गया है। जब से बंगलौर से आया है स्कूल नहीं गया है और न ही उन्हें स्कूल जाने के लिए किसी ने प्रेरित किया है। एसएमसी के अध्यक्ष श्री रामदेव तुरी ने कहा कि हम इन्हें रोज स्कूल जाने के लिए बोलते हैं पर सुनता ही नहीं है। उक्त विधालय में कुल नामांकित बच्चों की संख्या 91 हैं पर उपस्थिति औसतन 30 से 40 की होती है। इस विधालय का दूसरा कक्ष लकड़ी से भरा पाया गया। इस विधालय को आज से 6 साल पहले अतिरिक्त कमरा निर्माण के लिए आवंटन भेजा गया है। बिल्ंिडग बना भी पर आधा-अधूरा और आवंटन की राशि समाप्त हो गया। बिल्ंिडग कब पूरा होगा और कब से पढ़ाई शुरू होगा इसकी खोज-खबर लेने वाला कोई नहीं। आज तक प्रखंड षिक्षा प्रसार पदाधिकारी या अन्य कोई अधिकारी का आगमन इस विधालय में नहीं हुआ है। दिनेष के पास न स्कूल ड्रेस है और न ही किताबें । स्कूल जायें भी तो कैसे? लेकिन, शिक्षक बताते हैं कि हमने उसे ड्रेस दिया है और किताबें भी। फिलहाल, दिनेष स्कूल जाने के बजाय अपने माता-पिता के साथ माईका चुनने जंगल जा रहा है।
लगभग यही हाल भुला टोला के जितेन्द्र भुला पिता अनिल भूला का भी है। उनके पिता अनिल भूला आदतन शराबी हैं। बच्चों और पत्नी की कोई चिन्ता उन्हें नहीं है। घर की सारी जबाबदेही उनकी पत्नी यानि जितेन्द्र की मां की है। जितेन्द्र अपनी मां के साथ ढि़बरा चुनने प्रतिदिन जंगल जा रहे हैं।
इसी टोला में इसी टोला के बच्चों के लिए स्कूल बना है। लेकिन, जब से स्कूल बना है, आज तक खुला ही नहीं है। यहां 2 शिक्षक प्रतिनियुक्त हैं। लेकिन, दोनों शिक्षक महीने में एक-आध बार आते हैं और लौटकर चले जाते हैं। यह जानकारी उसी गांव के निर्मलिया देवी, पतिया मोसेमात, चंदन, नरेष और सनोज कुमार ने दिया। इस टोला में अर्द्धनिर्मित स्कूल, किचेन शेड और शौचालय तक पहुंचने के लिए कोई रास्ता नहीं है।
संस्था की टीम जब नावाडीह के मुकेश हांसदा पिता चारू हांसदा से मिलने व ताजा स्थिति जानने उनका घर गये। तब मुकेश हांसदा घर पर ही अपने बारी में कुछ काम कर रहे थे। उनसे पुछा गया कि स्कूल जाते हो तो उन्होंने कहा-स्कूल यहां है ही नहीं, तो जायेंगे कहां? उन्होंने टीम के सदस्यों को ले जाकर अपना स्कूल दिखाया, देखकर भौचक रह गये। इस विधालय में 2 शिक्षक प्रतिनियुक्त हैं लेकिन, स्कूल कभी खुलता नहीं है। बनकर तैयार भी नहीं हुआ और पैसा खत्म हो चुका है। इसी गांव के फागू हांसदा, महेश हांसदा, उमेश हांसदा, संजय हांसदा, वार्ड सदस्य तालो हांसदा आदि ने बताया कि यहां न आंगनबाड़ी है और न स्कूल। स्कूल है भी तो किस काम का? जब खुलता ही नहीं है। आवाज खूब उठाये पर कुछ हो तब तो? थक-हारकर बैठ गये हैं। स्कूल खोलवा दीजिए, बड़ी कृपा होगी।
अहराई गांव के कृष्णा कुमार पिता शिबू हेम्ब्रोम हर रोज रोड़ निर्माण में काम करने जाता है। स्कूल नहीं जाने के सवाल पर उन्होंने बताया कि स्कूल खुलेगा तब न जायेंगे। स्कूल में 2 टीचर है लेकिन, उनका आने-जाने, खुलने-बंद होने का कुछ पता ही नहीं चलता है। कृष्णा का नाम उ0 प्रा0 वि0 लेवड़ा में नामांकित है। 2 दिन स्कूल गया भी, स्कूल में 2-3 बच्चे मात्र पहुंचा था। लेकिन, वहां न उसे ड्रेस मिला और न ही किताब। तीसरा दिन स्कूल गया तो स्कूल बंद मिला। उस दिन से कृष्णा स्कूल जाना बंद कर दिया और रोड़ निर्माण में दिहाड़ी खटने लगा। जहां उन्हें प्रतिदिन 200 रूपये मिलता है। पिता शिबू हेम्ब्रोम जंगल से लकड़ी लाकर खाट आदि बनाकर बेचते हैं और किसी तरह गुजारा करते हैं। कृष्णा की मां शांति हांसदा ने बताया कि इनके पिता अक्सर बीमार रहते हैं। ईलाज के पैसे नहीं हैं। बेटे काम नहीं करेंगे तो खायेंगे क्या?
कोबराबूट गांव के पवन कुमार पिता मानिक तुरी भी प्रतिदिन अन्य बच्चों की तरह अपने माता-पिता के साथ ढिबरा चुनने जंगल जाया करते हैं। पवन ने पहले तो बताया कि हम स्कूल जाते हैं। लेकिन, बाद में बोला कि स्कूल में पढ़ाई होती ही नहीं, तो वहां जाने से क्या फायदा? इन्हें स्कूल की ओर से पिछले साल ही किताब और ड्रैस मिला है। फिलहाल ड्रैस तो इनके पास नहीं है पर किताबें हैं। पवन बोलने में काफी तेज है और समझदार भी। उन्होंने अपने घर की हालत बताया। फोटो दिखाया और कहा मेरे बड़े भाई लक्ष्मण तुरी उम्र 14 मेरे तरह ही काम करने दिल्ली गया था। पिछले 2 साल से दिल्ली में लापता है। नावाडीह के सुरेश तुरी उन्हें लेकर दिल्ली गया था। आज तक न लौटा है और न कुछ अता-पता है। पुलिस-प्रषासन में रपट लिखवाने के सवाल पर उन्होंने बताया कि पिताजी यदि एक दिन ढिबरा चुनने नहीं जायेंगे तो हमलोग खायेंगे क्या? पुलिस-प्रषासन थोड़े न हमारे भाई को ढुंढ़कर ला देंगे। ई आपलोग थे कि हमलोग 9 लोग बंगलौर से वापस लौट आये।
कमौवेश अन्य बच्चों की भी हालत इसी तरह है। इस इलाके में स्कूलों व आंगनबाड़ी केंद्रों का संचालन मात्र कागज पर हो रहा है। माॅनिटरिंग के अभाव में और जिला प्रशासन व राजनेताओं के उपेक्षापूर्ण रवैयों के कारण डोमचांच के जंगल क्षेत्र में बसे गांवों व बच्चों की स्थिति आज ऐसी बनी हुई है। क्षेत्र में व्यापक जागरूकता, संगठन निर्माण और एडभोकेशी कार्यक्रम चलाने की सख्त जरूरत है।
इन्द्रमणि साहू