जीवन में क्यों कोई राह नजर नहीं आती है ?
हर राह पर क्यों नई परेशानी चली आती है ?
जब जब चाहा भूल जाऊं अपनी उलझनों को
तब तब एक और नई उलझन मिल जाती है।
खुलकर जीना और हंसना मैं भी चाहती हूं
पर ज़िन्दगी हर बार ही बेवजह रुला जाती है।
पूछना चाहती हूं ज़िन्दगी से खता क्या है मेरी
क्यों जीवन की राहें मेरी हो गयी हैं अंधेरी।
अंधेरी राहों पर आखिर कब तक ऐसे चलूंगी
एक दिन ढलती शाम के साथ मैं भी ढलूंगी।
अंधेरे इन रास्तों पर न मंज़िल का ठिकाना है
और न इस डगर पर जीने का कोई बहाना है।
कैसे जिऊं मैं इन कठिन रास्तों पर चलकर
क्यों खुशियां नहीं आती अपना रास्ता बदलकर।
ऐसा नहीं कि मैंने कोशिश नहीं की इन्हे बुलाने की
पर जैसे खुशियां कसम खा चुकी हैं मुझे भुलाने की।
जब जब चाहा जी लूं ज़िन्दगी मैं भी खुलकर।
ज़िन्दगी ने दी गम की सौगात दोबारा हंसकर।