14 जनवरी मकर संक्रांति पर विशेष
-प्रमोद भार्गव-
सूर्य से जुड़े जीवन संबंधी जिन रहस्यों को आज वैज्ञानिक जानने की कोशिश कर रहे हैं, उन रहस्यों का खुलासा हमारे ऋषि-मुनी हजारों साल पहले संस्कृत साहित्य में कर चुके हैं। जीव-जगत के लिए सूर्य की अनिवार्य उपादेयता को पहचानने के बाद ही सूर्य के प्रति निष्ठा जताने की दृष्टि से सूर्योपासना की शुरूआत हुर्इ। नमन के बहाने सूर्य के प्रति इस कृतज्ञता के अलावा और क्या कर सकता था मानव ? इसी कृतज्ञता को साकार आयाम देने के लिए अर्थ व साधन सम्पन्न मनुष्यों ने सूर्य मंदिरों का निर्माण भी कराया।
आम तौर से सूर्य को प्रकाश और गर्मी का अक्षुण्ण स्त्रोत माना जाता है, लेकिन अब 20वीं सदी में आकर वैज्ञानिक यह जान गए हैं कि यदि सूर्य का अस्तित्व ही समाप्त हो जाए तो पृथ्वी पर विचरण करने वाले सभी जीव-जंतु तीन दिन के भीतर मृत्यु को प्राप्त हो जाएंगे। सूर्य के हमेशा के लिए अंधकार में डूबने के भीतर वायुमण्डल में मौजूद समूची जलवाष्प ठण्डी होकर बर्फ के रूप में गिर जाएगी और असहनीय शीतलता से कोर्इ भी प्राणी जीवित नहीं रह पाएगा। करीब 50 करोड़ साल पहले से सूर्य की प्राणदायिनी उर्जा की रहस्य को हमारे ऋषि-मुनियों ने पांच हजार साल पहले ही जान लिया था और वे ऋग्वेद भी लिख गए थे, ”आप्रा धावा पृथिवी अंतरिक्ष: सूर्य आत्मा जगतस्थश्च।” अर्थात विश्व की चर तथा अचर वस्तुओं की आत्मा सूर्य ही है। ऋग्वेद के मंत्र में सूर्य का आध्यात्मिक और वैज्ञानिक महत्व उल्लेखित है। प्रकृति के रहस्यों के प्रति जिज्ञासु ऋषियों ने हजारों साल पहले जिस सत्य का अनुभव किया था, उसकी विज्ञान सम्मत पुष्टि अब 20वीं सदी में वैज्ञानिक प्रयोगों से संभव हो रही है।
सौरमंडल के सौर ग्रह, उपग्रह और उसमें सिथत जीवधारी सूर्य से ही जीवन प्राप्त कर रहे हैं। पृथ्वी पर जीवन का आधार सूर्य ही है। सभी जीव-जंतू और वनस्पति जगत का जीवन चक्र सूर्य पर ही पूर्ण रूप से आश्रित है। सूर्य के इन्हीं गुणों के कारण वैदिक काल में अनेक काव्यात्मक सूक्तों की रचना की गर्इ और ऐतिहासिक काल में सूर्य मंदिरों का निर्माण कराया गया। आदिमानव को सूर्य इसलिए चमत्कृत व प्रभावित करता था, क्योंकि वह अंधकार से मुक्ति दिलाता था और ठण्ड से बचाता था। सूर्य के प्रदेय में कोर्इ भेद नहीं है। काल-गणना का दिशा बोध भी मनुष्य को सूर्य ने ही दिया, इसलिए दुनिया की सभी जातियों और सभ्यताओं ने सूर्य को देवता के रूप में पूजा और अपनी-अपनी कल्पनाओं व लोकानुरूप मिथक गढ़े जो किवदंतियों के रूप में हमारे पास आज भी सुरक्षित हैं।
प्राचीन मिश्र में रे, रा या एमोन रे आदि रूपों में सूर्य की बड़ी प्रतिष्ठा थी। सुमेरिया की सभ्यता में वह ‘उतु’ नाम से पूजा जाता है। बेबीलोन के धर्म में ”शम्स” के रूप में सूर्य की मान्यता है। असीरियावासी ‘अश्शुर’ नाम के सूर्यदेव के उपासक थे। र्इरानी सूर्य को ”मित्र” के रूप में मानते थे। यूनान में ”हेलिओस” और ”एपेलो” नामक देवता सूर्य का प्रतिनिधत्व करते थे। पेरू और मैक्सिको में भारत की तरह ही सूर्य मंदिर बनाए जाने की परंपरा थी। पेरू में ”इंका” जाति के लोग खुद को सूर्यवंशी मानते हैं। मध्य अमेरिकी की मय सभ्यता सूर्य को ”अह-किंचिल” के प्रतीक के रूप में देखती थी।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में वैदिक काल में सूर्योपासना ज्ञान और प्रकाश के एकीकरण के लिए की जाती थी। तैत्रिरीय-संहिता में उल्लेख है कि सूर्य के प्रकाश से ही चंद्रमा चमकता है। ‘छांदोग्य उपनिषद’ में सूर्य को ब्रह्म बताया गया है। गायत्री मंत्र में भी सुर्य को तेज और बुद्धि का पर्याय माना गया है। रामायण में राम, रावण से युद्ध का श्रीगणेश करने से पहले सूर्य की स्तुति करते हैं। महाभारत में तो कर्ण को सूर्य-पुत्र ही बताया गया है। कनिष्क तथा हुविष्क के सिक्कों पर सूर्य का अंकन है। कुषाणों ने अनेक नयनाभिराम सूर्य प्रतिमाओं का निर्माण कराया। हर्ष के राजकवि मयूर ने सूर्य की वंदना में सौ श्लोकों की रचना की। सूर्य की किरणों से चिकित्सा पर एक पूरी पुस्तक भी लिखी जा चुकी है। यजुर्वेद में स्पष्ट कहा गया है कि अंतरिक्ष में व्याप्त सभी विकीरणों में सूर्य की किरणें ही जीव जगत के लिए लाभदायी हैं। 1582 में मुगल सम्राट अकबर ने एक नए धर्म ”दीन-ए-इलाही” की शुरूआत की थी जिसमें सूर्य पूजा का ही सर्वाधिक महत्व दर्शाया गया था।
पुराण सहित्य में सूर्योपासना से जुड़ी सर्वाधिक जानकारी ”साम्बपुराण” में उपलब्ध है। इसे एक उपपुराण माना जाता है। इसे सौर संप्रदाय का आदिग्रंथ भी माना जाता है। साम्बपुराण के अनुसार र्इरान से सूर्य-अगिन के उपासक ”मग” भारत में आए। बताते हैं, मगो ने भारत में नए ढंग से सूर्योपासना आरंभ की। कुषाणों द्वारा बनार्इ गर्इ प्रतिमाओं के मूर्ति शिल्प पर मग परंपरा का प्रभाव है। वराहमिहिर ने ‘वृहत – संहिता में सूर्य मंदिरों में मगों द्वारा पूजा कराए जाने का निर्देश दिया है। बिहार के गया जिले के गोविंदपुर से प्राप्त एक अभिलेख में साम्ब द्वारा मगों को लाने का उल्लेख है। यह अभिलेख र्इसवी सन् 1137-38 का है। यही मग कालांतर में ब्राह्मण कहलाए। इन्होंने ज्योतिष, तंत्र-मंत्र और यजुर्वेद के ज्ञान में आश्चर्यजनक रूप से सफलता प्राप्त की।
वैदिक रूप में ही सूर्य को काल-गणना का कारण मान लिया गया था। ऋतुओं में परिवर्तन का करण भी सूर्य को माना गया। वैदिक समय में ऋतुचक्र के आधार पर सौर वर्ष या प्रकाश वर्ष की गणना शुरू हो गर्इ थी, जिसमें एक वर्ष में 360 दिन रखे गए। वर्ष को वैदिक ग्रंथों में संवत्सर ज्ञान से भी जाना जाता है। नक्षत्र, वार और ग्रहों के छह महीने तक सूर्योदय उत्तर-पूर्व क्षितिज से अगले छह माह दक्षिण पूर्व क्षितिज से होता है। इसलिए सूर्य का काल विभाजन उत्तरायण और दक्षिणायन में किया गया। उत्तरायण के शुरू होने के दिन से ही रातें छोटी और दिन बड़े होने लगते हैं। यही दिन मकर तथा कर्क राशि से सूर्य को जोड़ता है। इसलिए उस दिन भारत में मकर-संक्रांति का पर्व मनाने की परंपरा है। वेदकाल में यह साफ तौर से पता लगा लिया था कि प्रकाश, उर्जा, वायु और वर्ष के लिए समस्त भूमण्डल सूर्य पर ही निर्भर है। वेदकालीन सूर्य में सात प्रकार की किरणें और सूर्य रथ में सात घोड़ों के जुते होने का उल्लेख है। सूर्य रथ का होना और उसमें घोड़ों का जुता होना अतिरंजनापूर्ण लगता है। हालांकि यह भी माना जाता है कि सूर्य रथ की कल्पना काल की गति के रूप में की गर्इ। सात प्रकार की किरणों को खोजने में आधुनिक वैज्ञानिक भी लगे हैं। नए शोधों से ज्ञात हुआ है कि सूर्य किरणों के अदृश्य हिस्से में अवरक्त और पराबैगनी किरणें होती हैं। भूमण्डल को गर्म रखने और जैव रासायनिक क्रियाओं को रखने का कार्य अवरक्त किरणें और जीवधारियों के शरीर में रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ाने का काम पराबैगनी किरणें करती हैं। हो सकता है कि इस तरह से वेदकालीन ऋषियों ने सात प्रकार की किरणों का ज्ञान उस समय हासिल किया हो।
वेदकालीन सूर्यलोक में दो और देवियों की भी कल्पना की गर्इ है। ये हैं, उषा और सूर्य। ऋग्वेद में उषा की वंदना सूर्यों के साथ बीस सूक्तों में की गर्इ है। सूर्योदय के समय अंधेरे और उजाले के बीच जो संधिवेला है, वही उषा की प्रतीक है। सौर देवी सूत्रों की ऋग्वेद में पूरे सूक्त में स्तूति की है। भूमण्डल को प्रकाशित करने का कारण उषा ही मानी जाती है। दुनिया के सबसे बड़े मेले सिंहस्थ और कुंभ भी सूर्य के एक निश्चित स्थिति में आने पर लगते हैं। सिंहस्थ का पर्व तब मानाया जाता है जब सिंह राशि में सूर्य आता है। इसमें स्नान एक निश्चित मुहूर्त में किया जाता है। वैदिक ग्रंथों के अनुसार जब देव और दानवों के बीच समुद्र मंथन के बाद अमृत कलश प्राप्त का विवाद चल रहा था, तब विष्णु ने सुंदरी रूप रखकर देवताओं को अमृत और दानवों को मदिरा पान कराया। राहू ने यह बात पकड़ ली, वह अमृत कलश लेकर भागा। विष्णु ने सुदर्शन चक्र छोड़कर राहू का सिर धड़ से अलग कर दिया। इससे सिर ‘राहू’ और धड़ ‘केतु’ कहलाया। इस छीना-झपटी में जहां-जहां अमृत की बुंदें गिरीं, वहां-वहां सिंहस्थ और कुंभ के मेले लगने लगे।
इस वैदिक घटना को वैज्ञानिक संदर्भ में भी देखा जा रहा है और इस आख्यान एवं वैज्ञानिक शोध के बीच सामंजस्य बिठाया जा रहा है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. राम श्रीवास्तव का इस सिलसिले में कहना है, ‘हमारे सौर मंडल में एमएस 403 का एक तारा है। यह हमारे सूर्य से दस हजार गूना बड़ा सूर्य है और इसे एक ब्लैक होल निगल रहा है। जिस तरह से शेर के मुंह से अपने को छुड़ाने को जानवर भागता है, उसी तरह यह दस हजार गुना बड़ा सूर्य ब्लैक होल के चारों और छूटकर भागने के चक्कर काट रहा है। इस पूरी प्रक्रिया में जैसे किसी अनारदाने से आतिशबाजी की चिंगरियां निकलती हैं, एमएस 433 के दोनों ओर यह अतिशबाजी निकल रही है। वैज्ञानिकों ने इसके प्रकाश का जब परीक्षण किया तो पाया कि 433 में ऐसे अनेक तत्व हैं, जिन्हें हमारा विज्ञान आज भी नहीं पहचानता। आज भी ऐसे तत्व अन्य किसी तारे में मौजूद नहीं हैं। यह भी एक विचित्र संयोग है, जब सिंहस्थ का मेला लगता है तो एमएस 433 सूर्य के साथ सिंह राशि में बीचों-बीच सिथत रहता है और सिंहस्थ व कुंभ स्नान के समय इससे निकलने वाला प्रकाश तथा आतिशबाजी सीधे पृथ्वी की ओर इंगित रहती है। मसलन हमारे ऋषि मुनियों ने सूर्य के अनेक रहस्यों को जानने के साथ मनुष्य के लिए उसकी उपयोगिता भी जान ली थी। इसलिए सिंहस्थ और कुंभ जैसे मेलों की शुरूआत हुर्इ।
ऋग्वेद में सूर्यग्रहण का भी उल्लेख है। प्रसिद्ध ऋषि अत्रि सूर्य को सुर्यग्रहण से मुक्त कराने का उपाय भी जानते थे। ऋग्वेद में उल्लेख है कि अंधकार रूपी स्वर्भानू असुर ने सूर्य को ग्रस लिया, तब रात्रि ने उसे अपने प्रताप के ग्रहण से छुटकारा दिलाया। ब्रह्माण्ड में घटी इस तरह की घटनाओं के प्रतिफलरूवरूप ही लोक जीवन से पुराकथाओं और मिथकों का जन्म हुआ। इसी तारतम्य में भारतीय संदर्भ में प्रमुख कथा है, ‘एक बार गणेश जी भरपूर आहार ग्रहण करने के बाद आराम कर रहे थे, तब उन्होंने सूर्य और चंद्रमा को उपने ऊपर हंसते पाया। इससे गणेश क्रोधित हो गए और उन्होंने कमर में लिपटे हुए अजगर को आदेश दिया कि वह ब्रह्माण्ड में पड़े इन पिण्डों को निगल जाए। अजगर ने सूर्य को निगलना शुरू कर दिया और पूरी दुनिया अंधकार में डूब गर्इ। चराचर में हाहाकर मचने लगा। तब भूलोकवासियों ने गणेश से इस संकट से मुक्त कराने की प्रार्थना की। गणेश पिघल गये। लेकिन उन्होंने एक शर्त रखी की सूर्य व चंद्र को अपने किए का आभास कराने के लिए वे कुछ निर्धारित दिनों में आंशिक रूप से फिर सूर्य को निगल लिया करेंगे। इस मिथक के आधार पर ही संभवत: सूर्य ग्रहण देखने की जिज्ञासा जनमानस में उत्पन्न हुर्इ और मिथक का सिलसिला आज भी बदस्तूर है।
इस कथा के पीछे वैज्ञानिक मत है कि पूर्ण सूर्यग्रहण से करीब 30 सेकेण्ड पहले आकाश में एकदम अंधेरा छा जाता है और सूर्य की किरणें ग्रहण के एक कोने से मुक्त होने लगती हैं, तब आकाश में ऐसी तरंगें फैल जाती हैं जैसे कि लाखों सांपों के उलझे हुए गुच्छे फैल गए हों। पूर्ण ग्रहण समाप्त होने के बाद ऐसा ही अनुभव होता रहता है। करीब छह हजार साल पहले किए एक पूर्ण सूर्यग्रहण के अध्ययन से अनुमान लगाया गया कि दो धुरियां हैं, पहली जिस पर धरती घूमती है और सूर्य का चक्कर लगाती है, दूसरी धुरी जिस पर चंद्रमा धरती का चक्कर लगाता है। जिन बिंदुओं पर आकर वे एक-दूसरे से मिलते हैं उन्हें राहू और केतु कहा जाता है। ग्रहण का प्रभाव तभी सामने आता है जब सूर्य और चंद्रमा एक सीध में आमने-सामने आकर परस्पर निकट से निकलते हैं।
प्राचीन भारतीय साहित्य में ब्रह्माण्ड के रहस्यों को समझने की ये ऋषि-मुनियों की जिज्ञासाएं हैं। इन उल्लेखों से यह स्पष्ट होता है कि ऋषि-मुनि प्रकृति के रहस्यों से पर्दा हटाने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहे। उन्हें दीपावली के पर्व के मौके पर भी सूर्य ग्रहण के पड़ने का अनुभव था। शायद इसीलिए उन्होंने दीपावली को एक दिन पहले मनाने का प्रावधान रखा। आमतौर से दीपावली अमावस की काली रात को ही पड़ती है। लेकिन ऐसा विकल्प भी सुझाया गया कि यदि अमावस दिन को पड़े तो दीपावली उसके पहले दिन ही मना लेनी चाहिए। इस तरह के वैकल्पिक प्रावधान प्रकृति के रहस्यों का गंभीरता से अध्ययन करने के बाद ही रखे गये। भारतीय वैज्ञानिकों की एक शाखा अत्रि ऋषि द्वारा सूर्य ग्रहण को हटाए जाने की विधा खोजने में भी लगी है। अत्रि कुल में सूर्य ग्रहण को विलोपित या नियंत्रित करने की विधियों का अध्ययन करने की परंपरा रही है।
सूर्य दुनिया भर में इसलिए वंदनीय है, क्योंकि वे सिर्फ देते हैं। सजीव-निर्जीव का अस्तित्व उन्हीं के प्रकाश से है। वे एकमात्र ऐसे वंदनीय हैं जो सार्वभौमिक हैं। वनों के तेजी से हो रहे विनाश के साथ उर्जा के दोनों नए स्त्रोत सूर्य के प्रकाश में ही तलाशे जा रहे हैं। सूर्य इस मायने में साक्षात देव हैं, क्योंकि वह प्रत्यक्षत: भूलोक को अनुदान देते हुए दिखते हैं। इसलिए उनके प्रति विनम्र नमन हमें किसी अंधविश्वास से नहीं जोड़ता। उनके प्रदेय के प्रति यह हमारी कृतज्ञता का ज्ञापन भर है।
सूर्य का वैज्ञानिक स्वरूप :-
पृथ्वी से सूर्य की औसत दूरी : लगभग 15 करोड़ कि.मी.
सूर्य का व्यास : 13,92,000 कि.मी.
सूर्य का आयतन : पृथ्वी के आयतन के लगभग 13 लाख गुना अधिक
सूर्य की द्रव्य राशि : पृथ्वी की द्रव्यराषि से 3,30,000 गुना अधिक
सूर्य का औसत घनत्व : 1,41 ; पृथ्वी का औसत घनत्व 5.5
सूर्य का घूर्णनकाल : 25 दिन ; विशुवत – रेखा पर
सूर्य की सतह पर तापमान : करीब 6000
सूर्य के केंद्र भाग का तापमान : लगभग 1,60,00,000
प्रकाश किरणों की गति : 30,00,000 कि.मी. प्रति सेकेण्ड
सूर्य की किरणों को पृथ्वी तक
पहुंचने में लगने वाला समय : 8 मि. 18 सेकेण्ड
प्रकाश वर्ष : 94,63,00,00,00,000 कि.मी,
आकाशगंगा का व्यास : लगभग 1,00,000 प्रकाश वर्ष
आकाशगंगा में तारे : करीब 150 अरब
आकाशगंगा के केन्द्र में सूर्य की
दूरी : लगभग 30,000 प्रकाश वर्ष
आकाशगंगा में सूर्य की कक्षीय
चाल : 220 कि.मी. प्रति सेकेण्ड
सूर्य को आकाशगंगा केंद्र की एक परिक्रमा पूरी करने में लगने वाला
समय : 25 करोड़ वर्ष
सूर्य की आयु : लगभग 6 अरब वर्ष