जातिगत जनगणना के विरोध में आगे आए विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े प्रमुख लोग
-आर. एल.फ्रांसिस
जनगणना में जाति को शामिल किया जाए या नही इसको लेकर देश में जोरदार बहस खड़ी हो गई है। इस बहस को धारधार बनाने एवं इसे जनता के बीच ले जाने के मकसद से विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े कुछ प्रमुख लोगों ने ”मेरी जाति हिंदुस्तानी” नाम से जन-चेतना फैलाने का कार्य षुरु किया है। वहीं दूसरी और सरकार ने इस मुद्दे पर लाभ-हानि का आकलन करने के लिए मंत्रियों के एक समूह का गठन किया है जो एक महीने के अंदर अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप देगा।
जनगणना में जाति और महजब को जोड़ने का काम अंग्रेज सरकार ने 1871 में शुरु किया था तांकि 1857 में पैदा हुई अपूर्व राष्ट्रीय एकता को भंग किया जा सके। इस भारत-विरोधी षड्यंत्र में अंग्रेज काफी हद तक सफल भी हुए। 1947 में महजबी राजनीति के कारण भारत का विभाजन हुआ और इसके बाद भारतीय समाज में जाति के तत्व का राजनीतिकरण हो गया।
डॉ. सुभाष कश्यप (पूर्व लोकसभा महासचिव) का कहना है कि हमारे संविधान-निर्माताओं ने इस खतरे को पहचाना और इसलिए उन्होंने भारत को जातिविहीन और वर्ग-विहीन राष्ट्र बनाने की घोशणा की। उन्होंने जातियों, महजबों और समूहों के आधार पर पृथक निर्वाचन – क्षेत्रों की प्रथा को समाप्त कर दिया। उन्होंने जाति, महजब, वंश, लिंग, जन्म आदि पर आधारित भेदभाव को सर्वथा असवैंधानिक घोशित किया। डॉ. भीमराव अम्बेदकर ने संविधान प्रस्तुत करते हुए कहा था कि उन्हें डर है कि कहीं महजब और जाति जैसे शत्रु दुबारा जिंदा न हो जाए। इसीलिए अंग्रेज सरकार द्वारा षुरु की गई जातीय जनगणना को आजाद भारत की किसी भी सरकार ने दोबारा षुरु नही किया।
”मेरी जाति हिंदुस्तानी” मूवमेंट से जुड़ी सुश्री सोनल मानसिंह ने कहा कि आज सरकार कुछ जातिवादी नेताओं एवं सगठनों के समक्ष झुकते हुए हमारी गिनती ‘जानवरों के झुंड’ की तरह करना चाहती है -यह भेड़ है, यह भेड़िया है, यह बकरी है, यह शेर है, यह सांप है और यह सपेरा है-उन्होंने कहा कि मानव की गिनती आप मानव के रुप में करे तभी प्रत्येक मानव में समानता का भाव पैदा होगा।
”मेरी जाति हिंदुस्तानी” मूवमेंट के संयोजक एवं प्रसिद्व पत्रकार डा. वेद प्रताप वैद्विक जातीय जन-गणना को देश के लिए खतरा मानते है और इसी के साथ कहते है कि इसका अर्थ यह कतई नही है कि हम अपने देश के वंचित भाई-बहनों को दिए गये विशेष अधिकारों, विशेष सुविधाओं और विशेष अवसरों के विरुद्ध है। वास्तव में हम उनके पक्ष में है और हम यह मानते है कि हमारे वचितों को दिये गये विशेष अधिकार, विशेष सुविधाएँ और विशेष अवसर पर्याप्त नही है। आजादी के बाद उनके साथ जो न्याय होना चाहिए था वह नही हुआ है। जातीय आधार पर अगर जनगणना होती है तो वंचित वर्गो को लाभ होने की उपेक्षा नुकसान उठाना पड़ सकता है। वंचितों में भी अनेक बड़ी-छोटी जातियाँ उठ खड़ी होगी और ऐसे लोग भी विषेश सुविधाओं के लिए दावे करेगें जिसकी उन्हें वास्तव में जरुरत नही है। इसके अलावा हमारे गणतंत्र का मूल लक्ष्य भी तिरोहित हो जाएगा। वह है प्रत्येक नागरिक को उसकी जरुरत और योग्यता के अनुसार अवसर प्रदान करना। जातीय गणना नागरिकों को व्यक्ति नहीं, समूह का रुप प्रदान कर देगी।
दलित ईसाई नेता आर.एल.फ्रांसिस का मत है कि जातीय आधार पर की जाने वाली जन-गणना उन करोड़ों धर्मांतरित ईसाइयों एवं मुस्लमानों के साथ एक धोखा है जिन्होंने जातिवादी व्यवस्था से छुटकारे के लिए धर्मांतरण का मार्ग चुना था। ऐसे करोड़ों लोगो को जातीय अधार पर की जाने वाली जनगणना वहीं ले जाएगी जहां वह हजारों वर्ष पूर्व थे। आज चर्च अधिकारी एवं मुस्लिम नेताओं का एक वर्ग ऐसे करोड़ों लोगों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने की मांग कर रहा है ऐसी जनगणना ”रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट” को जहां लागू करने का रास्ता खोलेगी वहीं भारतीय दलितों में ‘गृहयुद्ध’ जैसी स्थितियों का निर्माण भी करेगी। सरकार का मकसद अगर गरीबी दूर करना है तो उसे जातियों के आंकड़े इकठ्ठे करने की बजाय गरीबी के आंकड़ों और कारणों की खोज करनी चाहिए। यहीं वैज्ञानिक जनगणना है।
भारतीयों का एक बड़ा समूह आज जाति को कोई बड़ा मुद्दा नही मानता आजादी के बाद से अधिक्तर समाज सुधारक आदोंलनों के चलते जातिवाद/जाति की धार कुंद पड़ी है हालांकि यह अभी भी सांप की तरह अपना फन यदा-कदा उठाती है। पूर्व राजदूत जे.सी.शर्मा कहते है कि अगर आप लगातार लोगों को एक झुंड की तरह बने रहने देते है तो उनकी मानसिकता वैसी ही बन जाती है। विदेश सेवा में आने से पहले वह कुछ समय भारतीय सेना में रहे है उन्होंने कहा कि सेना में विभिन्न जातियों के लोगों को मिलाकर जो रेजीमेन्ट बनाई गई है वह जातीय आधार पर बनने वाली रेजीमेंन्ट से बेहतर नतीजे दे रही है।