—विनय कुमार विनायक
ब्राह्मणत्व को जाति में ढालने वाले,
अभिजात वर्ग के अधिकारी!
क्या तुम इसकी परिधि में समा जाते
अगर ब्राह्मण में द्विजत्व की
पराकाष्ठा का अमृतत्व है,
तो लघुता का विष,पतितों का अस्तित्व
और शूद्रत्व का हलाहल भी है!
जिसे मुश्किल हैतुम्हें पचा जाना!
तुम महारस पायी देव हो!
क्षुद्रता के रसपान से
तुम्हारी हाजमा शक्ति बिगड़ जाती!
फिर हलाहल का हलचल,
तुम्हें अस्तित्वहीन कर देगा,
उसे तो कोई शंकर ही पी सकता है!
हां शंकर या घोषित वर्णसंकर
जिसे ना उच्चता का गर्व
और ना गिरने का डर!
दुर्भाग्य कि तुम शंकर नहीं हो!
किंतु घोषित वर्णसंकर जिसकी उद्घोषणा तो
ईमानदार पूर्वजों ने बार-बार की है
क्या तुम्हें पता नहीं था
कि ब्राह्मणत्व की आभा
गणिकगर्भ से निकलकर
अक्षत यौवना की कुक्षिद्वार तक पहुंची थी!
अक्षत यौवना भी क्या
आज की तथाकथित सवर्ण जाति
या ब्राह्मण वर्ग की कुमारियां?
कदापि नहीं, दासी अक्षमाला,
स्वपाकीकुमारिकाया धीवरवाला!
हे तथाकथित सवर्ण केलाल!
कुवर्ण श्वपाक्यास्तुपराशरः
या किविवर्ण व्यासास्तुकैवर्त्या की
परंपरा के ब्रह्मणत्व के उत्तराधिकारी!
जब हमसब सवर्ण,असवर्ण,
हरिजन, आदिवासीसभी मनु पुत्र हैं!
मानव जन हैं!
फिर क्यों?
अभिजात भेड़िए की खाल पहनकर
सबके हिस्से की अमृतधार को
खुद पी लेते हो?
और विष पिछड़े सर्वहारा की झोली में,
डाल देते हो!
अवर्ण!कुवर्ण!विवर्ण!
वर्णसंकर!शूद्दर!कहकर!