आर्थिकी राजनीति भारत में एकात्म मानववाद के सिद्धांत को अपना कर हो आर्थिक विकास November 22, 2024 / November 22, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment भारतीय संस्कृति के अनुसार ही भारतीय आर्थिक दर्शन में भी सृष्टि की समस्त इकाईयों, अर्थात व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र एवं समष्टि को एक माला की कड़ी के रूप में देखा गया है। एकता की इस कड़ी को ही पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय ने ‘एकात्म मानववाद’ बताया है। एकात्म मानववाद वैदिक काल से चले आ रहे सनातन प्रवाह का ही युगानुरूप प्रकटीकरण है। सनातन हिंदू दर्शन आत्मवादी है। आत्मा ही परम चेतन का अंश है। पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय ने समाज और राष्ट्र में भी चित्त, आत्मा, मन, बुद्धि एवं शरीर आदि का समुच्चय देखा है। अतः इस एकात्म मानववादी दर्शन के उतने ही आयाम एवं विस्तार है, जितनी मनुष्य की आवश्यकताएं हैं। इन विभिन्न आवश्यकताओं का केंद्र बिंदु अर्थ को ही माना गया है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र की परिभाषा में लिखा है कि अर्थशास्त्र का मुख्य अभिप्राय, अप्राप्ति की प्राप्ति; प्राप्ति का संरक्षण तथा संरक्षित का उपभोग है। एकात्म मानववाद में भी आर्थिक व्यवहार उक्त आधारों पर ही टिके होते हैं। इस प्रकार, अर्थशास्त्र की दिशा स्वतः ही विकासवादी हो जाती है। भारत के नागरिक पिछले लम्बे समय से पश्चिमी शिक्षा व्यवस्था में पले बढ़े हैं अतः वे भारत की पौराणिक एवं वैदिक ज्ञान परम्परा से विमुख हो गए हैं। इसी प्रकार, प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्र एवं आर्थिक चिंतन से भी हम भारतीय इतने अधिक दूर हो गए हैं कि प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्र को सिर्फ उक्ति एवं सिद्धांत मानने के साथ साथ अव्यवहारिक भी मानने लगे हैं। जबकि, वैदिक साहित्य में धन के 22 से अधिक प्रकारों की स्पष्ट व्याख्या की गई है, जिसमें शेयर से लेकर आय एवं मूलधन भी सम्मिलित है। प्राचीन भारत के आर्थिक चिंतन को आज यदि लागू किया जाता है तो केवल भारत ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानवता का कल्याण होगा, क्योंकि हिंदू अर्थशास्त्र एकात्म मानववाद पर आधारित है, जिसमें व्यक्ति अपने लिए नहीं, वरन समष्टि के लिए जीता है। इसे निम्नलिखित सूत्र के माध्यम से अधिक स्पष्ट किया जा सकता हैं – हिंदू अर्थशास्त्र = व्यक्ति x परमार्थ (एकात्म मानववाद एवं त्याग) पश्चिमी अर्थशास्त्र = व्यक्ति x स्वार्थ (आत्म केंद्रित एवं लाभ) एकात्म मानववादी अर्थशास्त्र में व्यक्ति अपने एवं अपनों के स्थान पर समष्टि तथा चराचर और परमार्थ के लिए जीता है। जिसमें स्वयं के लिए मुनाफा एवं लाभ के स्थान पर दूसरों की चिंता मुख्य होती है। परंतु, इसके ठीक विपरीत पश्चिम का अर्थशास्त्र आत्मकेंद्रित व्यवहार एवं स्वार्थ पर खड़ा है। पश्चिम के विकासवादी दर्शन का केंद्र मुनाफा, स्वार्थ एवं लाभ है। परंतु, हिंदू आर्थिक चिंतन के आधार पर खड़े एकात्म मानववाद का आधार अथवा केंद्र परमार्थ है। इसलिए एकात्म मानववादी आर्थिक विकास में विकास केवल अर्थ के लिए नहीं वरन परमार्थ के लिए है। हिंदू आर्थिक दर्शन परम्परा में विकास की अवधारणा को समग्रता में व्यक्त किया गया है। यह विकास त्रिगुण आधारित है। इस त्रिगुण में – सत, रज एवं तम सम्मिलित है। प्राचीन भारतीय चिंतन में सत्तवादी विकास श्रेष्ठ माना गया है। इस सत्तवादी विकास के तत्व हैं ज्ञान, तपस्या, सदकर्म, प्रेम एवं समत्वभाव तथा इसकी उपस्थिति सतयुग में मानी गई है। विकास का दूसरा स्वरूप रजस को माना गया। इस रजसवादी विकास के तत्व हैं अहंबुद्धि, प्रतिष्ठा, मानबढ़ाई, लौकिक, पारलौकिक सुखा मत्सर, दम्भ एवं लोभ तथा इसकी उपस्थिति त्रेतायुग में मानी गई है। इसे मानवीय और मध्यम माना गया है। इसी प्रकार, विकास का तीसरा स्वरूप तमस को माना गया है। इस तमसवादी विकास के तत्व हैं असत्य, माया, कपट, आलस्य, निंदा, हिंसा, विषाद, शोक, मोह, भय तथा इसकी उपस्थिति कलयुग में मानी गई है। इस प्रकार सत, रज एवं तम गुणों के आधार पर उक्त विकास के तीन रूपों के साथ एक मिश्रित विकास का भी मॉडल माना गया है, जिसमें रजस एवं तमस गुण मिले होते हैं और इस मॉडल की उपस्थिति द्वापर युग में मानी गई है। इस प्रकार भारतीय चिंतन परम्परा में विकास के उक्त चार प्रारूप माने गए हैं। इन चारों प्रारूपों का उपयोग चार युगों सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग एवं कलियुग में होता पाया गया है। इसमें सबसे उत्तम सतयुगी विकास प्रारूप को माना गया है तथा सबसे अधम कलियुगी विकास प्रारूप को माना गया है। भारत में, वर्तमान खंडकाल में त्रेतायुग के रामराज्य को भी बहुत अच्छा माना गया है एवं इसके स्थापना की कल्पना की जाती रही है। पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय ने महात्मा गांधी जी के ट्रस्टी शिप एवं हिंद स्वराज्य के विवेचन को भी अपने विमर्श में स्थान दिया है। इस प्रकार भारतीय चिंतन परम्परा का आदर्श रामराज्य है, इसमें भरत जैसे राजा एवं जनक जैसे राजा तपस्वी के रूप में राज्य करते थे। स्वयं श्रीराम धर्म की मर्यादा को अपने लिए भी लागू करते थे एवं धर्म की मर्यादा का कभी भी उल्लंघन नहीं करते थे। सदैव प्रजा एवं प्रकृति की रक्षा एवं संवर्धन करते रहते हैं। यह एक ऐसा विकास का प्रारूप है जो आज भी आदर्श है। रामराज्य की अवधारणा भी एकात्म मानववाद के आधारों पर खड़ी थी। यह शासन तथा विकास एवं व्यवस्था में सब की भागीदारी तथा सब के लिए व्यवस्था थी, जो प्रकृति आधारित विकास पर बल देती थी। भारत में सबसे छोटी इकाई व्यक्ति पर बल दिया गया है और उसका संगठन किया गया है। भारत में व्यक्ति के स्वरूप को जिस प्रकार संगठित और एकात्म किया गया वैसा पश्चिम में नहीं हो सका है। पश्चिम में केवल भौतिक प्रगति पर ही बल दिया गया है। पूरे विश्व में आज सर्वाधिक विकसित राष्ट्र अमेरिका को माना जाता है। अमेरिका में नागरिकों की भौतिक प्रगति तो बहुत हो गई है, परंतु अमेरिका के नागरिकों में सुख, संतोष और समाधान का पूर्णतया अभाव है। अमेरिका में व्यक्ति के जीवन में परस्पर विरोध, असमाधान, असंतोष, सर्वाधिक अपराध और आत्महत्याएं बहुत बड़ी मात्रा में व्याप्त हैं। अमेरिकी नागरिकों में तीव्र रक्तचाप, हृदय रोग एवं अपराध की प्रवृत्ति बहुत अधिक मात्रा में पाई जा रही है। पूरे विश्व को प्रभावित करने की क्षमता रखने वाला अमेरिका अपने नागरिकों के लिए भौतिक समाधान से आगे बढ़कर मानसिक समाधान प्राप्त नहीं कर सका है। इस धरा पर जन्म लेने के बाद प्रत्येक व्यक्ति का अंतिम लक्ष्य आखिर है क्या? सम्भवतः सुख जो चिरंतन एवं घनीभूत हो। इतनी भौतिक प्रगति करने के बाद भी अमेरिका एवं यूरोपीय देशों के नागरिकों में समाधान व सुख का अभाव है। ईसा ने कहा था कि ‘सम्पूर्ण संसार का साम्राज्य भी प्राप्त कर लिया और यदि आत्मा का सुख खो दिया तो उससे क्या लाभ?’ भारत में छोटी से छोटी इकाई व्यक्ति संगठित और एकात्म है एवं व्यक्ति को खंडो में विभक्त समझने की बुद्धिमता प्रदर्शित नहीं की गई है। परंतु, अमेरिका के एक मनोवैज्ञानिक ने वर्णन किया है कि ‘सड़कों पर एक ऐसी बड़ी भीड़ हमेशा लगी रहती है जो आत्मविहीन, मानसिक दृष्टि से अस्वस्थ, एक दूसरे से अपरिचित और निःसंग स्थिति में है। उनका अपने ही साथ समन्वय नहीं तो दुनिया के साथ क्या होगा? व्यक्ति का समाज के साथ समन्वय नहीं। व्यक्ति भी संगठित और एकात्म इकाई नहीं। केवल भौतिक स्तर पर विचार करने के कारण वहां व्यक्ति को भौतिक एवं आर्थिक प्राणी माना गया है। यदि भौतिक आर्थिक उत्कर्ष मानव को मिले तो उससे सुख की प्राप्ति होगी, यह माना गया। किंतु भौतिक आर्थिक उत्कर्ष की चरम सीमा होने पर भी सुख का अभाव है और इसका कारण यही है कि वहां खंड खंड में विचार करने की प्रणाली है, जिसमें व्यक्ति को केवल भौतिक आर्थिक प्राणी मान लिया गया है और व्यक्ति के सभी पहलुओं को ध्यान में रखकर संगठित एवं एकात्म रूप में विचार नहीं किया गया है। भारत के प्राचीन ग्रंथों में यह माना गया है कि मनुष्य एक आर्थिक प्राणी भी है एवं ‘आहार, निद्रा, भय, मैथुन, आर्थिक आवश्यकताओं, आदि’ की तृप्ति की बात भारत में भी कही गई है। इन जरूरतों की पूर्ति होना चाहिए, इस तथ्य को भी स्वीकार किया गया है। किंतु भारत में मनुष्य को आर्थिक प्राणी से कुछ ऊपर भी माना गया है। मनुष्य आर्थिक प्राणी के साथ साथ वह एक शरीरधारी, मनोवौज्ञानिक, राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक प्राणी भी है। भारतीय मनुष्य के व्यक्तित्व के अनेकानेक पहलू है। अतः यदि सम्पूर्ण व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का संगठित और एकात्म रूप से विचार नहीं हुआ तो उसको सुख समाधान की अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए भारत में इस दृष्टि से संगठित एवं एकात्म स्वरूप का विचार हुआ है। मनुष्य की आर्थिक एवं भौतिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर यह कहा गया है कि इन वासनाओं की तृप्ति होनी चाहिए लेकिन साथ ही यह भी कहा गया है कि इन आवश्यकताओं पर कुछ वांछनीय मर्यादा होना भी आवश्यक है। गीता के तृतीय अध्याय के 42वें श्लोक में कहा गया है कि इंद्रियां (विषयों से) ऊपर स्थित हैं, इंद्रियों से मन उत्कृष्ट है। बुद्धि मन से भी ऊपर अवस्थित है, जो बुद्धि की अपेक्षा भी उत्कृष्ट है और उससे भी अगम्य है – वही आत्मा है। अतः काम को स्वीकार करने के उपरांत भी उसे अनियत्रिंत नहीं रहने दिया गया है। काम की पूर्ति धर्म के विरुद्ध नहीं होनी चाहिए, ऐसा भारतीय शास्त्रों में कहा गया है। प्राचीन भारत में अर्थ के महत्व को भी स्वीकार किया गया है एवं अर्थशास्त्र की रचना भी हुई है। यह माना जाता रहा है कि राज्य के समस्त नागरिकों की भौतिक आवश्यकताओं की पर्याप्त पूर्ति होनी चाहिए ताकि इसके अभाव में अपना पेट पालने के लिए व्यक्ति को 24 घंटे चिंता करने की आवश्यकता नहीं पड़े। राज्य के नागरिकों को पर्याप्त अवकाश मिल सके, जिससे वह संस्कृति, कला, साहित्य और भगवान आदि के बारे में चिन्तनशील हो सके। इस प्रकार अर्थ और काम को मान्यता देकर साथ ही यह भी कहा गया है कि एक व्यक्ति का अर्थ और काम उसके विनाश का अथवा समाज के विघटन का कारण न बने। इस दृष्टि से भारत के प्राचीन दृष्टाओं ने विशिष्ट दर्शन दिया था। उसमें विश्व की धारणा के लिए शाश्वत नियम और सार्वजनिक नियम देखे थे, उनका दर्शन किया था। व्यक्ति को विनाश से बचाने के लिए, समाज को विघटन से बचाने के लिए एवं व्यक्ति के परम उत्कर्ष को प्राप्त करने के लिए सार्वजनिक एवं सार्वदेशिक नियमों के प्रकाश में जो अवस्था उन्होंने बनायी उसके समुच्चय को धर्म कहा गया। इस धर्म के अंतर्गत अर्थ और काम की पूर्ति का भी विचार हुआ। साथ ही, प्रत्येक व्यक्ति परम सुख यानी मोक्ष प्राप्त कर सके, इसका चिंतन भी हुआ। इस प्रकार धर्म और मोक्ष के मध्य अर्थ और काम को रखते हुए चतुर्विध पुरुषार्थ की कल्पना भारत में ही की गई है। इस समन्वयात्मक, संगठित और एकात्मवादी कल्पना में व्यक्ति का व्यक्तित्व विभक्त्त नहीं हुआ। यह आत्मविहीन एवं मानसिक दृष्टि से अस्वस्थ प्राणी न बन सका। इस चतुर्विध पुरुषार्थ ने प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक बौद्धिक क्षमताओं के अनुसार अपना जीवनादर्शन चुनने का अवसर दे दिया और साथ ही व्यक्तित्व को अखंड बनाए रखा। यह स्मरण रखना चाहिए कि जहां व्यक्ति के व्यक्तित्व रूपी विभिन्न पहलू संगठित नहीं है या व्यक्ति संगठित नहीं है, वहां समाज संगठित कैसे हो सकता है? इस संगठित आधार पर ही भारत में व्यक्ति से परिवार, समाज, राष्ट्र, मानवता और चराचर सृष्टि का विचार किया गया। एकात्म मानवदर्शन इसी का नाम है और आज भारत में आर्थिक विकास को एकात्म मानववाद के सिद्धांत का अनुपालन करते हुए ही गति दी जानी चाहिए। Read more » भारत में एकात्म मानववाद
आर्थिकी राजनीति भारत में रोजगार के संदर्भ में बदलना होगा अपना नजरिया November 21, 2024 / November 21, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment भारतीय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति की सदस्य सुश्री शमिका रवि द्वारा हाल ही में सम्पन्न किए गए एक रिसर्च पेपर में, आंकड़ों के साथ, कई महत्वपूर्ण जानकारियां दी गई हैं। इस रिसर्च पेपर में भारत के आर्थिक विकास के कई क्षेत्रों के सम्बंध में तथ्यों पर आधारित सारगर्भित बातें बताने के साथ साथ यह भी जानकारी दी गई है कि किस प्रकार भारत में अब ग्रामीण इलाके भी देश की अर्थव्यवस्था में अपना योगदान बढ़ा रहे हैं तथा कई राज्यों की आर्थिक स्थिति में सुधार होता हुआ दिखाई दे रहा है। साथ ही, यह भी बताया गया है कि किस प्रकार भारत में तेज गति से हो रहे आर्थिक विकास का लाभ देश के युवाओं को रोजगार के अधिक अवसरों के रूप में मिल रहा है। आज भारत में केवल मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, बैंगलोर, हैदराबाद, पुणे जैसे महानगर ही देश के विकास में भागीदारी नहीं कर रहे हैं बल्कि ग्रामीण इलाकों में भी पर्याप्त विकास हो रहा है। इससे रोजगार के अवसर भी इन इलाकों में निर्मित हो रहे हैं। सबसे अधिक विकास आज अविकसित क्षेत्रों में हो रहा है। आज गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, आदि के साथ साथ उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, एवं नोर्थ ईस्ट के इलाके भी तेजी से विकास कर रहे हैं। विकास के कई नए क्षेत्रों का निर्माण हुआ है। पिछड़े हुए इन राज्यों में गति पकड़ रहा विकास, भारत के सकल घरेलू उत्पाद में और भी अधिक वृद्धि दर्ज करने में सहायक सिद्ध होगा। ग्रामीण इलाकों में मूलभूत सुविधाओं का अतुलनीय विस्तार हुआ है, जिसके चलते अब सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में कार्य करने वाली कम्पनियां भी अपने संस्थानों को ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित हो रही हैं। विशेष रूप से दक्षिणी प्रदेशों में कुछ कम्पनियों ने इस सम्बंध में अच्छी पहल की है। प्राचीन भारत में ग्रामीण क्षेत्र ही आर्थिक विकास के मजबूत केंद्र रहे हैं। इससे इन क्षेत्रों में निवासरत नागरिकों को रोजगार के अवसर भी इनके आसपास के इलाकों में मिल जाते हैं और इन्हें शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन करने की आवश्यकता ही नहीं होती है। दूसरे, सामान्यतः देश के विभिन्न राज्यों की वित्तीय स्थिति में भी मजबूती आई है। कुछ राज्यों के बजटीय घाटे में अतुलनीय सुधार दृष्टिगोचर हुआ है। परंतु, साथ ही कुछ राज्यों जैसे, पंजाब, केरल, पश्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेश, आदि प्रदेशों में आज बजटीय घाटे की स्थिति दयनीय हो रही है जिसे शीघ्र ही सम्हालने की आवश्यकता है क्योंकि एक तो इन राज्यों में विकास दर कम होती जा रही है दूसरे इन राज्यों द्वारा मुफ्त योजनाओं को धड़ल्ले से चलाया जा रहा है, बगैर यह ध्यान दिए कि इन बढ़े हुए खर्चों के लिए क्या उनके बजट में कुछ गुंजाइश भी है। इस प्रकार के बढ़े हुए खर्चे इन राज्यों के बजट पर अंततः दबाव बढ़ाते हैं। आज देश में कुछ राज्यों में ब्याज के भुगतान, प्रशासन सम्बंधी खर्चों एवं सेवानिवृत्त कर्मचारियों को पेंशन का भुगतान करने में ही पूरे बजट की राशि समाप्त हो जाती है। प्रदेश में विकास कार्य करने के लिए कुछ भी राशि बचती ही नहीं है बल्कि कुछ राज्यों को तो इन मदों पर भुगतान करने हेतु भी ऋण लेना होता है जो बजट पर और अधिक दबाव को बढ़ाता है। पूंजीगत खर्चे इन राज्यों में कम ही हो पा रहे हैं जिससे इन राज्यों में प्रति व्यक्ति आय भी कम है और ये राज्य विकास की दर को हासिल नहीं कर पा रहे हैं। दिल्ली में पिछले 10 वर्ष पूर्व तक पूंजीगत मदों पर बजट का एक बहुत बड़ा भाग खर्च होता था परंतु पिछले 10 वर्षों में पूंजीगत व्यय में भारी कमी दृष्टिगोचर हुई है। पंजाब की स्थिति भी बहुत खराब हो गई है केवल 20 वर्ष पूर्व तक पंजाब देश में सबसे अमीर राज्यों की श्रेणी में शामिल था परंतु आज इसके आसपास के राज्य, हिमाचल प्रदेश एवं हरियाणा, भी पंजाब से आगे निकल गए हैं। इन राज्यों में उद्योगों को स्थापित करने की आज सबसे अधिक आवश्यकता है। पंजाब से उद्योग निकलकर हिमाचल प्रदेश एवं हरियाणा में चला गया है। मध्यप्रदेश एवं बिहार कृषि के क्षेत्र में बहुत भारी वृद्धि दर्ज कर रहे हैं परंतु उद्योग के कम मात्रा में होने के चलते इन राज्यों में प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि दर तुलनात्मक रूप से कम है। किसी भी देश के लिए श्रम की भागीदारी एवं बेरोजगारी दो अलग अलग मुद्दे हैं। श्रम की भागीदारी में 18 वर्ष से 59 वर्ष के बीच के वे लोग शामिल रहते हैं जो अर्थ के अर्जन हेतु या तो कुछ कार्य कर रहे हैं अथवा कोई आर्थिक कार्य करने को उत्सुक हैं एवं इस हेतु रोजगार तलाश रहे हैं। पिछले 40 वर्षों के दौरान चीन में श्रम की औसत भागीदारी 75 प्रतिशत से ऊपर रही है। अर्थात प्रत्येक 4 में से 3 लोग या तो रोजगार में रहे हैं अथवा रोजगार तलाशते रहे हैं। वियतनाम में श्रम की भागीदारी 72 से 73 प्रतिशत की बीच रही है। बंगलादेश में यह 60 प्रतिशत से अधिक रही है। परंतु भारत में श्रम की भागीदारी 5 वर्ष पूर्व तक केवल 50 प्रतिशत के आसपास थी जो आज बढ़कर 57 प्रतिशत हो गई है। अर्थात इतने बड़े देश में कुल कार्य करने योग्य जनसंख्या में से आधे से कुछ कम आबादी या तो रोजगार में नहीं है अथवा रोजगार तलाश भी नहीं रही है। यह स्थिति भारत जैसे देश के लिए ठीक नहीं है। दूसरे, बेरोजगारी से आश्य ऐसे नागरिकों से है जो रोजगार तलाश रहे हैं लेकिन उन्हें रोजगार मिल नहीं रहा है। भारत में ऐसे नागरिकों की संख्या मात्र 3 प्रतिशत ही है। समय के साथ बेरोजगारी की दर में थोड़ा बहुत परिवर्तन होता रहता है। परंतु, जब इस स्थिति को विभिन्न प्रदेशों के बीच तुलना करते हुए देखते हैं तो बेरोजगारी की दर में भारी अंतर दिखाई देता है। गुजरात, छत्तीसगढ़, कर्नाटक जैसे राज्यों में बेरोजगारी की दर यह 0.9 से 1.5 प्रतिशत के बीच है, जबकि केरल में 12.5 प्रतिशत है। आर्थिक विकास में वृद्धि के साथ साथ रोजगार के अवसर भी अधिक निर्मित होते हैं। इसलिए आज देश में रोजगार के नए अवसर निर्मित करने के लिए व्यवसाय को बढ़ाना होगा, विकास को बढ़ाना होगा। केवल केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारें समस्त नागरिकों को रोजगार उपलब्ध नहीं करा सकती है। इस हेतु, निजी क्षेत्र को आगे आना ही होगा। केंद्र सरकार एवं राज्य सरकार के संस्थानों के रोजगार के अवसर निर्मित करने की कुछ सीमाएं हैं। आज भारत में 30 वर्ष के अंदर की उम्र के नागरिकों में बेरोजगारी की दर 12 प्रतिशत है, जबकि देश में कुल बेरोजगारी की दर 3.1 प्रतिशत है। अतः देश के युवाओं में बेरोजगारी की दर अधिक दिखाई देती है। देश के युवाओं में कौशल का अभाव है। इसलिए केंद्र सरकार विशेष कार्यक्रम लागू कर युवाओं में कौशल विकसित का प्रयास कर रही है। विशेष रूप से भारत में युवाओं के लिए कहा जा रहा है कि वे 30 वर्ष की उम्र तक काम करना ही नहीं चाहते हैं, क्योंकि इस उम्र तक वे रोजगार के अच्छे अवसर ही तलाशते रहते हैं। 30 वर्ष की उम्र के बाद वे दबाव में आने लगते हैं एवं फिर उन्हें जो भी रोजगार का अवसर प्राप्त होता है उसे वे स्वीकार कर लेते हैं। इसलिए 30 वर्ष से अधिक की उम्र के नागरिकों के बीच बेरोजगारी की दर बहुत कम है। यह स्थिति हाल ही के समय में विश्व के अन्य देशों में भी देखी जा रही है। युवाओं की अपनी नजर में सही रोजगार के अवसर के लिए वे इंतजार करते रहते हैं, अथवा वे अपनी पढ़ाई जारी रखते हैं। आज विशेष रूप से भारत में रोजगार के अवसरों की कमी नहीं है। युवाओं में कौशल एवं मानसिकता का अभाव एवं केवल सरकारी नौकरी को ही रोजगार के अवसर के लिए चुनना ही भारत में श्रम की भागीदारी में कमी के लिए जिम्मेदार तत्व हैं। अधिक डिग्रीयां प्राप्त करने वाले युवा रोजगार के अच्छे अवसर तलाश करने में ही लम्बा समय व्यतीत कर देते हैं। कम डिग्री प्राप्त एवं कम पढ़े लिखे नागरिक छोटी उम्र से ही रोजगार प्राप्त कर लेते हैं। यह भी कटु सत्य है कि डिग्री प्राप्त करने एवं वास्तविक धरातल पर कौशल विकसित करने में बहुत अंतर है। आज भी भारत में कई कम्पनियों की शिकायत है कि देश में इंजीनीयर्स तो बहुत मिलते हैं परंतु उच्च कौशल प्राप्त इंजीनीयर्स की भारी कमी हैं। तमिलनाडु में किए गए एक अध्ययन में यह तथ्य उभर का सामने आया है कि किसी भी देश के नागरिक जब अधिक उम्र में रोजगार प्राप्त करते हैं तो उनकी कुल उम्र भर की कुल वास्तविक औसत आय बहुत कम हो जाती है। इसके विपरीत जो नागरिक अपनी उम्र के शुरूआती पड़ाव में ही रोजगार प्राप्त कर लेते हैं उनकी कुल उम्र भर की वास्तविक औसत आय तुलनात्मक रूप से बहुत बढ़ जाती है। भारत में स्टार्ट अपस को बढ़ावा दिया जाना चाहिए एवं युवाओं को सरकारी नौकरी की चाहत को छोड़कर निजी क्षेत्र में रोजगार प्राप्त करने के प्रयास करने चाहिए। साथ ही आज युवाओं को अपने स्वयं के व्यवसाय प्रारम्भ करने के प्रयास भी करने चाहिए। प्रहलाद सबनानी Read more » भारत में रोजगार
आर्थिकी लेख जनजाति समाज के लिए चलाई जा रही आर्थिक विकास की योजनाएं November 8, 2024 / November 8, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment जनजाति समाज बहुत ही कठिन परिस्थितियों का सामना करते हुए देश में दूर दराज इलाकों के सघन जंगलो के बीच वनों में रहता है। जनजाति समाज के सदस्य बहुत ही कठिन जीवन व्यतीत करते रहे हैं एवं देश के वनों की सुरक्षा में इस समाज का योगदान अतुलनीय रहा है। चूंकि यह समाज भारत के सुदूर इलाकों में रहता है अतः देश के आर्थिक विकास का लाभ इस समाज के सदस्यों को कम ही मिलता रहा है। इसी संदर्भ में केंद्र सरकार एवं कई राज्य सरकारों ने विशेष रूप से जनजाति समाज के लिए कई योजनाएं इस उद्देश्य से प्रारम्भ की हैं कि इस समाज के सदस्यों को राष्ट्र विकास की मुख्य धारा में शामिल किया जा सके एवं इस समाज की कठिन जीवनशैली को कुछ हद्द तक आसान बनाया जा सके। भारत में सम्पन्न हुई वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार अनुसूचित जनजातियों की कुल जनसंख्या 10.43 करोड़ है, जो भारत की कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है। जनजाति समाज के सदस्यों को भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में शामिल किए जाने के प्रयास भी किए जाते रहे हैं एवं इस समाज के कई प्रतिभाशाली सदस्य तो कई बार केंद्र सरकार के मंत्री, राज्यपाल एवं प्रदेश के मुख्यमंत्री के पदों तक भी पहुंचे हैं। आज भारत की राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू भी आदिवासी समाज से ही आती हैं। केंद्र सरकार द्वारा जनजाति समाज को केंद्र में रखकर उनके लाभार्थ चलाई जा रही विभिन योजनाओं की विस्तृत जानकारी प्रदान करने के उद्देश्य से एक विशेष पोर्टल का निर्माण किया है। जिसकी लिंक है – भारत सरकार का राष्ट्रीय पोर्टल https://www.इंडिया.सरकार.भारत/ – इस लिंक को क्लिक करने के बाद “खोजें” के बॉक्स में जनजाति समाज को दी जाने वाली सुविधाएं टाइप करने से, भारत सरकार द्वारा प्रदान की जा रही विभिन्न सुविधाओं की सूची निकल आएगी एवं इन योजनाओं का लाभ उठाने के लिए उपयोग किए जाने वाले प्रपत्रों की सूची भी डाउनलोड की जा सकती है। जनजाति समाज के लिए केंद्र सरकार द्वारा चलाई जा रही विभिन्न योजनाओं को दो प्रकार से चलाया जा रहा है। कई योजनाओं का सीधा लाभ जनजाति समाज के सदस्यों को प्रदान किया जाता है। साथ ही, कुछ योजनाओं के अंतर्गत राज्य सरकारों को विशेष केंद्रीय सहायता एवं अनुदान प्रदान किया जाता है और इन योजनाओं को राज्य सरकारों द्वारा क्रियान्वित किया जाता है। जैसे, जनजातीय उप-योजना के माध्यम से राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों को जनजातीय विकास हेतु किए गए प्रयासों को पूरा करने के लिए विशेष केंद्रीय सहायता प्रदान की जाती है। इस सहायता का मूल प्रयोजन पारिवारिक आय सृजन की निम्न योजनाओं जैसे कृषि, बागवानी, लघु सिंचाई, मृदा संरक्षण, पशुपालन, वन, शिक्षा, सहकारिता, मत्स्य पालन, गांव, लघु उद्योगों तथा न्यूनतम आवश्यकता संबंधी कार्यक्रमों से है। इसी प्रकार, जनजातीय विकास हेतु परियोजनाओं की लागत को पूरा करने तथा अनुसूचित क्षेत्र के प्रशासन स्तर को राज्य/संघ राज्य क्षेत्रों के बराबर लाने के लिए राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों को भी अनुदान दिया जाता है। जनजातीय समाज के विद्यार्थियों को गुणवत्तापरक शिक्षा प्रदान करने के लिए आवासीय विद्यालय स्थापित करने हेतु भी उक्त निधियों के कुछ हिस्से का प्रयोग किया जाता है। राज्य सरकारों को वित्त उपलब्ध कराने सम्बंधी उक्त दो योजनाओं का केवल उदाहरण के लिए वर्णन किया गया है, अन्यथा इसी प्रकार की कई योजनाएं केंद्र सरकार द्वारा चलाई जा रही हैं। इसी कड़ी में जनजाति समाज के सदस्यों को सीधे ही लाभ प्रदान करने के उद्देश्य से भी केंद्र सरकार द्वारा कई योजनाएं चलाई जा रही हैं। जिनमे मुख्य रूप से शामिल हैं – (1) आदिवासी उत्पादों और उत्पादन विपणन विकास की योजना; (2) एमएसपी योजना की मूल्य श्रृंखला के विकास के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के माध्यम से लघु वनोपज के विपणन हेतु योजना; (3) आदिवासी उत्पादों या निर्माण योजना के विकास और विपणन के लिए संस्थागत सहयोग की योजना; (4) आदिवासी क्षेत्रों में व्यावसायिक प्रशिक्षण योजना के अंतर्गत वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने की योजना; (5) जनजातीय क्षेत्रों में व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना की योजना; (6) जनजातीय अनुसंधान संस्थानों के लिए अनुदान योजना; (7) उत्कृष्ट केन्द्रों के समर्थन के लिए वित्तीय सहायता योजना जिसका लाभ जनजातीय विकास और अनुसंधान क्षेत्र में काम कर रहे विश्वविद्यालयों और संस्थानों को दिया जाता है। इस योजना का उद्देश्य विभिन्न गैर सरकारी संगठनों की संस्थागत संसाधन क्षमताओं को बढ़ाना और मजबूत बनाना है ताकि इन अनुसंधान संस्थानों और विश्वविद्यालय के विभागों द्वारा आदिवासी समुदायों पर गुणात्मक, क्रिया उन्मुख और नीति अनुसंधान का संचालन किया जा सके; (8) राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति वित्त एवं विकास निगम (एनएसटीएफडीसी) और राज्य अनुसूचित जनजाति वित्त एवं विकास निगम (एसटीएफडीसी) को न्यायसम्य (इक्विटी) सहायता प्रदान करने की योजना। यह योजना केन्द्र सरकार द्वारा वित्त पोषित है और आदिवासी मामले मंत्रालय द्वारा शुरू की गई है; (9) आदिवासी आवासीय विद्यालयों की स्थापना सम्बंधी योजना; (10) अनुसूचित जनजाति के छात्रों के लिए केन्द्रीय क्षेत्र की छात्रवृत्ति योजना; (11) अनुसूचित जनजाति के छात्रों की योग्यता उन्नयन संबंधी योजना; (12) अनुसूचित जनजाति के छात्रों के लिए राष्ट्रीय प्रवासी छात्रवृत्ति योजना। उक्त समस्त योजनाओं की विस्तृत जानकारी उक्त वर्णित पोर्टल पर उपलब्ध है। इसी प्रकार केंद्र सरकार के साथ साथ कई राज्य सरकारें भी जनजाति समाज के लाभार्थ स्वतंत्र रूप से कुछ योजनाओं का संचालन करती है। मध्यप्रदेश, भारत के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में गिना जाता है एवं मध्यप्रदेश में विविध, समृद्ध एवं गौरवशाली जनजातीय विरासत है जिसका कि मध्यप्रदेश में न केवल संरक्षण एवं संवर्धन किया जा रहा है, अपितु जनजातीय क्षेत्रों के समग्र विकास तथा जनजातीय वर्ग के कल्याण के लिए निरंतर कई प्रकार के कार्य भी किए जा रहे हैं। मध्यप्रदेश में भारत की कुल जनजातीय जनसंख्या की 14.64% जनसंख्या निवास करती है। भारत में 10 करोड़ 45 लाख जनजाति जनसंख्या है, वहीं मध्यप्रदेश में 01 करोड़ 53 लाख जनजाति जनसंख्या है। भारत की कुल जनसंख्या में जनजातीय जनसंख्या का प्रतिशत 8.63 है और मध्यप्रदेश में कुल जनसंख्या में जनजाति जनसंख्या का प्रतिशत 21.09 है। मध्यप्रदेश में जनजाति उपयोजना क्षेत्रफल, कुल क्षेत्रफल का 30.19% है। प्रदेश में 26 वृहद, 5 मध्यम एवं 6 लघु जनजाति विकास परियोजनाएं संचालित हैं तथा 30 माडा पॉकेट हैं। मध्यप्रदेश में कुल 52 जिलों में 21 आदिवासी जिले हैं, जिनमें 6 पूर्ण रूप से जनजाति बहुल जिले तथा 15 आंशिक जनजाति बहुल जिले हैं। मध्यप्रदेश में 89 जनजाति विकास खंड हैं। मध्यप्रदेश के 15 जिलों में विशेष पिछड़ी जनजाति बैगा, भारिया एवं सहरिया के 11 विशेष पिछड़ी जाति समूह अभिकरण संचालित हैं। मध्यप्रदेश सरकार जनजातियों के सामाजिक-आर्थिक और शैक्षणिक विकास के साथ ही उनके स्वास्थ्य एवं जनजाति बहुल क्षेत्रों के विकास के लिए विभिन्न कल्याणकारी योजनाएं संचालित कर रही हैं। (1) मध्यप्रदेश के विशेष पिछड़ी जनजाति बहुल 15 जिलों में आहार अनुदान योजना संचालित की जा रही है, जिसके अंतर्गत विशेष पिछड़ी जनजाति बैगा, भारिया और सहरिया परिवारों की महिला मुखिया के बैंक खाते में प्रतिमाह रू. 1000 की राशि जमा की जाती रही है। (2) आकांक्षा योजना के अंतर्गत अनुसूचित जनजाति वर्ग के 11वीं एवं 12वीं कक्षा के प्रतिभावान विद्यार्थियों को राष्ट्रीय प्रतियोगी परीक्षाओं जैसे जईई, नीट, क्लेट की तैयारी के लिए नि:शुल्क कोचिंग एवं छात्रावास की सुविधा प्रदान की जाती है। (3) प्रतिभा योजना के अंतर्गत जनजाति वर्ग के विद्यार्थियों को उच्च शासकीय शैक्षिक संस्थाओं में प्रवेश के लिए प्रोत्साहन दिया जाता है। (4) आईआईटी, एम्स, क्लेट तथा एनडीए की परीक्षा उत्तीर्ण कर उच्च शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश पर रू. 50 हजार रूपये की राशि तथा अन्य परीक्षाओं जेईई, नीट, एनआईआईटी, एफडीडीआई, एनआईएफटी, आईएचएम के माध्यम से प्रवेश लेने पर रू. 25 हजार रूपये की राशि प्रदान की जाती रही है। (5) महाविद्यालय में अध्ययन करने वाले अनुसूचित जनजाति के जो विद्यार्थी गृह नगर से बाहर अन्य शहरों में अध्ययन कर रहे हैं, उन्हें वहां आवास के लिए संभाग स्तर पर 2000 रूपये, जिला स्तर पर 1250 रूपये तथा विकास खंड एवं तहसील स्तर पर 1000 रूपये प्रतिमाह की वित्तीय सहायता, आवास सहायता योजना के अंतर्गत प्रदान की जाती रही है। (6) इसी प्रकार की सहायता अनुसूचित जनजाति के विद्यार्थियों को विदेश स्थित उच्च शैक्षणिक संस्थानों में अध्ययन के लिए भी प्रदान की जाती है।(7) अनुसूचित जनजाति के विद्यार्थियों के शैक्षणिक विकास के लिए प्रदेश के 89 जनजाति विकास खंडों में प्राथमिक शालाओं से लेकर उच्चतर माध्यमिक स्तर की शालाएं संचालित की जा रही हैं जिनमें विद्यार्थियों को प्री-मेट्रिक तथा पोस्ट मेट्रिक छात्रवृत्ति दी जा रही है। (8) मध्यप्रदेश के अनुसूचित जनजाति के ऐसे विद्यार्थियों, जो सिविल सेवा परीक्षा में निजी संस्थाओं द्वारा कोचिंग प्राप्त कर रहे हैं, को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाती है। साथ ही अनसूचित जनजाति के प्रदेश के ऐसे विद्यार्थी, जो सिविल सेवा परीक्षा की प्राथमिक परीक्षा उत्तीर्ण करते हैं, उन्हें 40 हजार रूपये, जो मुख्य परीक्षा उत्तीर्ण करते हैं उन्हें 60 हजार रूपये तथा साक्षात्कार सफल होने पर 50 हजार रुपए की राशि दी जाती रही है। (9) मध्यप्रदेश में जनजातीय लोक कलाकृतियों एवं उत्पादों को लोकप्रिय करने तथा उनसे जनजाति वर्ग को लाभ दिलाए जाने के उद्देश्य से उनकी जी आई टैगिंग कराई जा रही है। प्रथम चरण में 10 जनजाति लोक कलाकृतियों एवं उत्पादों की जीआई ट्रैगिंग कराए जाने की प्रक्रिया प्रारंभ की गई है। इस प्रकार, केंद्र सरकार एवं विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा जनजाति समाज के लाभार्थ अन्य कई प्रकार की विशेष योजनाएं सफलता पूर्वक चलाई जा रही हैं ताकि जनजाति समाज की कठिन जीवन शैली को कुछ आसान बनाया जा सके एवं जनजाति समाज को देश की मुख्य धारा में शामिल किया जा सके। प्रहलाद सबनानी Read more » जनजाति समाज
आर्थिकी राजनीति भारत की आर्थिक प्रगति में समाज से अपेक्षा November 6, 2024 / November 6, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment विश्व के लगभग समस्त देशों में पूंजीवादी मॉडल को अपनाकर आर्थिक विकास को गति देने का प्रयास पिछले 100 वर्षों से भी अधिक समय से हो रहा है। पूंजीवाद की यह विशेषता है कि व्यक्ति केवल अपनी प्रगति के बारे में ही विचार करता है और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी के एहसास को भूल जाता है। जिससे, विभिन्न आर्थिक गतिविधियों के चलते समाज में असमानता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। विनिर्माण इकाईयों में मशीनों के अधिक उपयोग से उत्पादन में तो वृद्धि होती है परंतु रोजगार के पर्याप्त अवसर निर्मित नहीं हो पाते हैं। रोजगार की उपलब्धता में कमी के चलते समाज में कई प्रकार की बुराईयां जन्म लेने लगती हैं क्योंकि यदि किसी नागरिक के पास रोजगार ही नहीं होगा तो वह अपनी भूख मिटाने के लिए चोरी चकारी एवं हिंसा जैसी गतिविधियों में लिप्त होने लगता है। पूंजीवाद की नीतियों के अनुपालन के चलते वर्तमान में विश्व के कई देशों में सामाजिक तानाबाना छिन्न भिन्न हो रहा है। परंतु, प्राचीनकाल में भारत में उपयोग में लाए जा रहे आर्थिक मॉडल को अपनाए जाने के कारण भारत में प्रत्येक नागरिक को रोजगार उपलब्ध रहता था। भारत में अतिप्राचीन काल से ग्रामीण क्षेत्र ही विकास के केंद्र रहते आए हैं। भारत का कृषि क्षेत्र तो विकसित था ही, साथ में, कुटीर उद्योग भी अपने चरम पर था। पीढ़ी दर पीढ़ी व्यवसाय को आगे बढ़ाया जाता था। नौकरी शब्द तो शायद उपयोग में था ही नहीं क्योंकि परिवार के सदस्य ही अपने पुरखों के व्यवसाय को आगे बढ़ाने में रुचि लेते थे अतः भारत के प्राचीन काल में नागरिक उद्यमी थे। नौकरी को तो निकृष्ट कार्य की श्रेणी में रखा जाता था। भारत में भी आर्थिक विकास की दर में तेजी तो दृष्टिगोचर है तथा प्रति व्यक्ति आय में भी वृद्धि हो रही है और आज यह लगभग 2500 अमेरिकी डॉलर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष हो गई है। प्रति व्यक्ति आय यदि 14000 अमेरिकी डॉलर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष हो जाती है तो भारत विकसित राष्ट्र की श्रेणी में शामिल हो जाएगा। अतः प्रति व्यक्ति आय को बढ़ाने के लिए भारत में गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे नागरिकों की आय में वृद्धि करने पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। भारत में आर्थिक विकास के साथ साथ मध्यमवर्गीय परिवारों की संख्या भी बढ़ रही है। परंतु, साथ में आय की असमानता की खाई भी चौड़ी हो रही है, क्योंकि उच्चवर्गीय एवं उच्च मध्यमवर्गीय परिवारों की आय तुलनात्मक रूप से तेज गति से बढ़ रही है। हालांकि केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों द्वारा गरीब वर्ग, विशेष रूप से गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे नागरिकों, के लिए कई विशेष योजनाएं चलाई जा रही हैं और इसका असर भी धरातल पर दिखाई दे रहा है। हाल ही के वर्षों में गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे नागरिकों की संख्या में भारी कमी दिखाई दी है। भारत में आर्थिक प्रगति के चलते सम्पत्ति के निर्माण की गति भी तेज हुई है। वित्तीय वर्ष 2023 के अंत में आयकर विभाग में जमा की गई विवरणियों के अनुसार, 230,000 नागरिकों ने अपनी कर योग्य आय को एक करोड़ रुपए से अधिक की बताया है। यह संख्या पिछले 10 वर्षों के दौरान 5 गुणा बढ़ी है। वित्तीय वर्ष 2012-13 में 44,078 नागरिकों ने अपनी कर योग्य आय को एक करोड़ रुपए से अधिक की घोषित किया था। उक्त आंकड़ों में वेतन पाने वाले नागरिकों का प्रतिशत वित्तीय वर्ष 2022-23 में 52 प्रतिशत रहा है, वित्तीय वर्ष 2021-22 में यह 49.2 प्रतिशत था तथा वित्तीय वर्ष 2012-13 में यह प्रतिशत 51 प्रतिशत था। इस प्रकार एक करोड़ रुपए से अधिक का वेतन पाने वाले नागरिकों की संख्या में कोई परिवर्तन नहीं आया है। जबकि व्यवसाय करने वाले नागरिकों की आय और अधिक तेज गति से बढ़ी है। 500 करोड़ रुपए से अधिक की कर योग्य आय घोषित करने वाले नागरिकों में समस्त करदाता व्यवसायी हैं। 100 करोड़ रुपए से 500 करोड़ रुपए की कर योग्य आय घोषित करने वाले नागरिकों में 262 व्यवसायी हैं एवं केवल 19 वेतन पाने वाले नागरिक हैं। भारत के एक प्रतिशत नागरिकों के पास देश की 40 प्रतिशत से अधिक की सम्पत्ति है। अतः देश में आय की असमानता स्पष्टतः दिखाई दे रही है। एक अनुमान के अनुसार यदि उच्चवर्गीय एवं उच्च मध्यमवर्गीय परिवार की आय में 100 रुपए की वृद्धि होती है तो वह केवल 10 रुपए का खर्च करता है एवं 90 रुपए की बचत करता है जबकि एक गरीब परिवार की आय में यदि 100 रुपए की वृद्धि होती है तो वह 90 रुपए का खर्च करता है एवं केवल 10 रुपए की बचत करता है। इस प्रकार किसी भी देश को यदि उपभोक्ताओं की संख्या में वृद्धि करना है तो गरीब वर्ग के हाथों में अधिक धनराशि उपलब्ध करानी होगी। जबकि विकसित देशों एवं अन्य देशों में इसके ठीक विपरीत हो रहा है, उच्चवर्गीय एवं उच्च मध्यमवर्गीय परिवारों की आय में तेज गति से वृद्धि हो रही है जिसके चलते कई विकसित देशों में आज उत्पादों की मांग बढ़ने के स्थान पर कम हो रही है और इन देशों के सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि की दर बहुत कम हो गई है तथा इन देशों की अर्थव्यवस्था में आज मंदी का खतरा मंडरा रहा है। उक्त परिस्थितियों के बीच वैश्विक पटल पर भारत आज एक दैदीप्यमान सितारे के रूप में चमक रहा है। भारत में आर्थिक विकास दर 8 प्रतिशत के आसपास आ गई है और इसे यदि 10 प्रतिशत के ऊपर ले जाना है तो भारत में ही उत्पादों की आंतरिक मांग उत्पन्न करनी होगी इसके लिए गरीब वर्ग की आय में वृद्धि करने सम्बंधी उपाय करने होंगे तथा रोजगार के अधिक से अधिक अवसर निर्मित करने होंगे। प्राचीनकाल में भारत में उपयोग किए जा रहे आर्थिक दर्शन को एक बार पुनः देश में लागू किए जाने की आवश्यकता है। आज भारत में शहरों को केंद्र में रखकर विकास की विभिन्न योजनाएं (स्मार्ट सिटी, आदि) बनाई जा रही है, जबकि, आज भी 60 प्रतिशत से अधिक आबादी ग्रामीण इलाकों में ही निवास करती है। इसलिए भारत को पुनः ग्रामों की ओर रूख करना होगा। न केवल कृषि क्षेत्र बल्कि ग्रामीण इलाकों में कुटीर एवं लघु उद्योगों की स्थापना की जानी चाहिए जिससे रोजगार के पर्याप्त अवसर ग्रामीण इलाकों में ही निर्मित हों और इन स्थानों पर उत्पादित की जा रही वस्तुओं के लिए बाजार भी ग्रामीण इलाकों में ही विकसित हो सकें। लगभग 50 गावों के क्लस्टर विकसित किए जा सकते हैं, इन इलाकों में निर्मित उत्पादों को इस क्लस्टर में ही बेचा जा सकता है और यदि इन इलाकों के स्थित कुटीर एवं लघु उद्योगों में उत्पादन बढ़ता है तो उसे आस पास के अन्य क्लस्टर एवं शहरों में बेचा जा सकता है। इससे स्थानीय स्तर पर ही उत्पादों की मांग को बढ़ावा मिलेगा एवं रोजगार के अवसर निर्मित होने से ग्रामीण इलाकों में निवास कर रहे परिवारों के शहरों की ओर पलायन को भी रोका जा सकेगा। अंततः इससे शहरों के बुनियादी ढांचे पर लगातार बढ़ रहे दबाव को भी कम किया जा सकेगा। भारत में हिंदू सनातन संस्कृति की यह विशेषता रही है कि समाज में निवास कर रहे गरीब वर्ग के नागरिकों की सहायता के लिए सक्षम समाज हमेशा से ही आगे रहता आया है। यह सेवा कार्य विभिन्न मंदिरों, मट्ठ, सामाजिक संस्थाओं, सांस्कृतिक संस्थाओं एवं न्यासों द्वारा सफलता पूर्वक किया जाता रहा हैं। एक अनुमान के अनुसार, भारत में प्रतिदिन लगभग 10 करोड़ नागरिकों के लिए अन्न क्षेत्रों में भोजन प्रसादी उपलब्ध कराई जाती है। इसी प्रकार कई सामाजिक, सांस्कृतिक एवं न्यासों द्वारा अस्पताल चलाए जाते हैं, जहां मुफ्त अथवा बहुत ही कम कीमत पर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं। कुछ संस्थानों द्वारा स्कूल भी चलाए जाते हैं जहां गरीब वर्ग के बच्चों को शिक्षण सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती है। इस प्रकार समाज के गरीब वर्ग को यदि भोजन, स्वास्थ्य एवं शिक्षा सुविधाएं मुफ्त अथवा कम कीमत पर उपलब्ध हो सकती हैं तो उनके द्वारा अर्जित की जा रही आय को अन्य उत्पादों को खरीदने में उपयोग किया जा सकता है जिससे अंततः विभिन्न उत्पादों की मांग में वृद्धि दर्ज होती है। यह मॉडल भी केवल भारत में ही दिखाई देता है। वरना, अन्य विकसित देशों में तो कुछ भी मुफ्त नहीं है। विकसित देशों में नागरिकों को केवल अपनी प्रगति की चिंता है, समाज में गरीब वर्ग के अन्य नागरिकों के लिए कोई चिंता का भाव दिखाई ही नहीं देता है। अतः भारत में समाज के नागरिकों द्वारा गरीब वर्ग के सहायतार्थ चलाई जा रही विभिन्न योजनाओं को गति देने के प्रयास करने चाहिए, जिससे देश के विकास को और अधिक गति मिल सके। प्रहलाद सबनानी Read more » Expectations from society in India's economic progress भारत की आर्थिक प्रगति
आर्थिकी राजनीति स्वर्णऋण के प्रति बढ़ता भारतीयों का रुझान October 18, 2024 / October 18, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment किसी भी देश के आर्थिक विकास को गति देने हेतु पूंजी की आवश्यकता रहती है। तेज आर्थिक विकास के चलते यदि किसी देश में वित्तीय बचत की दर कम हो तो उसकी पूर्ति ऋण में बढ़ौतरी से की जा सकती है। भारत में ऋण : सकल घरेलू अनुपात अन्य विकसित एवं कुछ विकासशील देशों की तुलना में अभी बहुत कम है। परंतु, हाल ही के समय में भारत का सामान्य नागरिक ऋण के महत्व को समझने लगा है एवं भौतिक संपति के निर्माण में अपनी बचत के साथ साथ ऋण का भी अधिक उपयोग करने लगा है। कुछ बैंक सामान्यजन को ऋण प्रदान करने हेतु प्रतिभूति की मांग करते है। भारत में सामान्यजन के पास स्वर्ण के रूप प्रतिभूति उपलब्ध रहती है अतः स्वर्ण ऋण बहुत अधिक चलन में आ रहा है। विशेष रूप से गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों द्वारा ऋण की प्रतिभूति के विरुद्ध स्वर्ण ऋण आसानी से उपलब्ध कराया जा रहा है। भारत में तेजी से बढ़ रहे स्वर्ण ऋण के कारणों एवं कारकों का वर्णन इस लेख में किया गया है। भारत में वित्तीय वर्ष 2022-23 की प्रथम तिमाही में विभिन्न गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों द्वारा 39,687 करोड़ रुपए के स्वर्ण ऋण स्वीकृत किए गए थे, स्वीकृत की जाने वाली यह राशि वित्तीय वर्ष 2023-24 की प्रथम तिमाही में बढ़कर 62,835 करोड़ रुपए हो गई एवं वित्तीय वर्ष 2024-25 की प्रथम तिमाही में और आगे बढ़कर 79,218 करोड़ रुपए हो गई। गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों द्वारा वित्तीय वर्ष 2024-25 की प्रथम तिमाही में स्वर्ण ऋण के मामले में 26 प्रतिशत की आकर्षक वृद्धि दर हासिल की है जबकि अन्य प्रकार के ऋणों में इसी अवधि के दौरान औसत वृद्धि दर 12 प्रतिशत की रही है। भारतीय नागरिक स्वर्ण ऋण के प्रति बहुत अधिक आकर्षित हो रहे हैं। आज भारत के विभिन्न गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों एवं विभिन्न बैंकों द्वारा भारी मात्रा में स्वर्ण ऋण स्वीकृत किए जा रहे हैं। अगस्त 2024 माह में बैंकों एवं गैर बैकिंग वित्तीय कम्पनियों ने मिलकर 41 प्रतिशत की वृद्धि दर हासिल करते हुए 1.4 लाख करोड़ रुपए के स्वर्ण ऋण स्वीकृत किए हैं। आज गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों के कुल ऋण में स्वर्ण ऋण का प्रतिशत में हिस्सा सबसे अधिक है, दूसरे स्थान पर स्कूटर एवं चार पहिया वाहनों के लिए प्रदान किए गए ऋणों का ऋण हैं, इसके बाद तीसरे स्थान पर व्यक्तिगत ऋण 14 प्रतिशत के भाग के साथ है एवं इसके बाद जाकर गृह ऋण का नम्बर आता है जो कुल ऋण का 10 प्रतिशत भाग है। बैकों एवं गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों द्वारा प्रदान किए जाने वाले स्वर्ण ऋण पर पूंजी पर्याप्तता सम्बंधी शिथिल नियमों का पालन करना होता है। अन्य प्रकार के ऋणों की तुलना में स्वर्ण ऋण पर जोखिम का भार (रिस्क वेट) तुलनात्मक रूप से कम रहता है। इससे बैंक एवं गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियां भी स्वर्ण ऋण प्रदान करने की ओर आकर्षित होते हैं। यहां स्वाभाविक रूप से प्रशन्न उभरता है कि पिछले लगभग 3 वर्षों के दौरान भारत के नागरिकों में स्वर्ण ऋण के प्रति इतना रुझान क्यों बढ़ा है? भारतीय रिजर्व बैंक के पास स्वर्ण के भंडार बढ़कर 822 मेट्रिक टन से भी अधिक हो गए हैं परंतु विश्व स्वर्ण काउन्सिल के एक अनुमान के अनुसार, भारतीय नागरिकों के पास स्वर्ण के भंडार बढ़कर 25000 टन से भी अधिक के हो गए हैं, जिनकी बाजार कीमत वर्ष 2020 में 109 लाख करोड़ रुपए की थी। भारत में नागरिकों के पास स्वर्ण भंडार विश्व के कुल स्वर्ण भंडार का 11 प्रतिशत है। भारत में प्रतिवर्ष 750 से 800 टन स्वर्ण का आयात होता है और पिछले 25 वर्षों के दौरान भारत में 17,500 टन स्वर्ण का आयात हुआ है और मार्च 2019 से मार्च 2024 के दौरान भारत में स्वर्ण भंडार 40 प्रतिशत से बढ़ गए हैं। दरअसल, भारत में दीपावली (धन तेरस) के शुभ अवसर पर स्वर्ण की खरीद को शुभ माना जाता है एवं मध्यमवर्गीय परिवार भी धन तेरस के दिन स्वर्ण की खरीद प्रति वर्ष करते हैं। इससे भारत के करोड़ों परिवारों के पास स्वर्ण का स्टॉक उपलब्ध रहता है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारतीय रिजर्व बैंक ने बैंकों द्वारा स्वर्ण ऋण प्रदान करने के सम्बंध में नियमों को बहुत सरल बनाया है एवं अब भारतीय नागरिकों को स्वर्ण के स्टॉक के विरुद्ध ऋण बहुत ही आसान शर्तों पर उपलब्ध होने लगा है। भारत में प्रचिलित परम्पराओं के अनुसार मध्यमवर्गीय परिवारों द्वारा स्वर्ण को बेचना शुभ नहीं माना जाता है जबकि स्वर्ण की खरीद को शुभ माना जाता है। अतः स्वर्ण को बाजार में बेचने के स्थान पर स्वर्ण को बैंक में गिरवी रखकर उसके विरुद्ध बैंक से आसानी से स्वर्ण ऋण प्राप्त करना ज्यादा उचित माना जाता है। और फिर, हाल ही के वर्षों में भारतीय शेयर बाजार बहुत ही तेज गति से आगे बढ़ रहा है और विभिन्न कम्पनियों के शेयरों में किए गए निवेश पर 12 प्रतिशत से 20 प्रतिशत तक की आय प्रतिवर्ष होने लगी है। इससे बहुत बड़ी मात्रा में भारतीय नागरिक (खुदरा निवेशक) शेयर बाजार में निवेश करने हेतु आकर्षित हुए हैं। चूंकि स्वर्ण ऋण बहुत ही आसानी से उपलब्ध होने लगे हैं अतः मध्यमवर्गीय परिवार स्वर्ण ऋण लेकर पूंजी बाजार में निवेश अथवा चार पहिया वाहन खरीदने एवं गृहों का निर्माण करने लगे हैं। स्वर्ण ऋण की राशि आसान किश्तों में जमा करानी होती है, अतः स्वर्ण लेने वाले नागरिकों पर कोई बहुत अधिक दबाव भी नहीं पड़ता है। उक्त कारणों के चलते भारत में हाल ही वर्षों में स्वर्ण ऋण प्राप्त करने वाले नागरिकों में अतुलनीय वृद्धि दर्ज हुई है। चूंकि बैंकों एवं गैर गैंकिंग वित्तीय कम्पनियों द्वारा प्रदान किया जा रहे स्वर्ण ऋण में वृद्धि दर अतुलनीय रही है अतः भारतीय रिजर्व बैंक ने स्वर्ण ऋण स्वीकृति करने सम्बंधी नियमों के कठोर अनुपालन के लिए गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों को हाल ही में चेताया है ताकि इन बैंकों द्वारा स्वर्ण ऋण स्वीकृत करने में किसी भी प्रकार की ढील नहीं दी जा सके तथा स्वर्ण ऋण के खाते गैर निष्पादनकारी आस्तियों (एनपीए) में परिवर्तित नहीं हों। यदि बैंकों एवं गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों द्वारा भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा स्वर्ण ऋण सम्बंधी नियमों का अनुपालन अक्षरश: किया जाता है तो स्वर्ण ऋण खाते का गैर निष्पादनकारी आस्ति में परिवर्तितत होना सम्भव नहीं है। हां, यदि असली स्वर्ण के स्थान पर नकली स्वर्ण के विरुद्ध ऋण स्वीकृत किया जाता है तो स्वर्ण ऋण खाते की गैर निष्पादनकारी आस्ति में परिवर्तित होने की सम्भावना बन जाती है। इसलिए स्वर्ण ऋण प्रदान करते समय बैंकों को ऋण असली है इसकी पक्की जानकारी होना आवश्यक है। इसके लिए स्वर्ण की जांच पुख्ता तरीके से की जानी चाहिए। प्रहलाद सबनानी Read more » Indians' inclination towards gold loan Indians' inclination towards gold loan is increasing
आर्थिकी राजनीति विश्व के वित्तीय एवं निवेश संस्थान भारत के आर्थिक विकास के अनुमानों को बढ़ा रहे हैं October 1, 2024 / October 1, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment आज जब विश्व में कई विकसित एवं विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं में विभिन्न प्रकार की आर्थिक समस्याएं दिखाई दे रही है, वैश्विक स्तर पर कई प्रकार की विपरीत परिस्थितियों के बीच भी भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व में सबसे तेज गति से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था बनी हुई है। कई विदेशी एवं निवेश संस्थान भारत के सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि के सम्बंध में पूर्व में दिए गए अपने अनुमानों में संशोधन कर रहे हैं कि आगे आने वाले समय में भारतीय अर्थव्यवस्था में विकास की गति और अधिक तेज होगी। विशेष रूप से कोरोना महामारी के पश्चात भारत ने आर्थिक विकास के क्षेत्र में तेज रफ्तार पकड़ ली है। भारत में आर्थिक क्षेत्र में सुधार कार्यक्रमों को लागू किया गया है। स्टैंडर्ड एवं पूअर (एसएंडपी) नामक विश्व विख्यात क्रेडिट रेटिंग संस्थान ने हाल ही में अपने एक प्रतिवेदन में बताया है कि भारत, केलेंडर वर्ष 2024 में एवं इसके बाद के वर्षों में 6.7 प्रतिशत की आर्थिक विकास दर के साथ वर्ष 2031 तक विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा तथा भारतीय अर्थव्यवस्था का वैश्विक अर्थव्यवस्था में योगदान वर्तमान के 3.6 प्रतिशत से बढ़कर 4.5 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच जाएगा। साथ ही, भारत में प्रति व्यक्ति आय भी बढ़कर उच्च मध्यम आय समूह की श्रेणी की हो जाएगी। भारत के सकल घरेलू उत्पाद का आकार भी वर्तमान के 3.92 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 7 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो जाएगा। हालांकि एसएंडपी ने भारत में आर्थिक विकास दर के 6.7 प्रतिशत प्रतिवर्ष बढ़ने का अनुमान लगाया है जबकि वित्तीय वर्ष 2023-24 में भारत की आर्थिक विकास दर के 7.3 प्रतिशत के अनुमान के विरुद्द 8.2 प्रतिशत की रही है। भारत में अब सरकारी क्षेत्र के साथ ही निजी क्षेत्र भी पूंजीगत खर्चों को बढ़ाने पर ध्यान देता हुआ दिखाई दे रहा है, इससे आगे आने वाले समय में केंद्र सरकार पर पूंजीगत खर्चों में वृद्धि करने सम्बंधी दबाव कम होगा और केंद्र सरकार का बजटीय घाटा और अधिक तेजी से कम होगा, जिससे अंततः विदेशी निवेशक भारत में अपना निवेश बढ़ाने के लिए आकर्षित होंगे। इसी प्रकार, विश्व बैंक एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी वर्ष 2024, 2025 एवं 2026 में भारत के आर्थिक विकास सम्बंधी अपने अनुमानों के बढ़ाया है। विश्व बैंक का तो यह भी कहना है कि भारत ने केलेंडर वर्ष 2023 में विश्व के वार्धिक आर्थिक विकास में 16 प्रतिशत का योगदान दिया है और इस प्रकार भारत अब विश्व में आर्थिक विकास के इंजिन के रूप में कार्य करता हुआ दिखाई दे रहा है। भारत ने वर्ष 2023 में 7.2 प्रतिशत की आर्थिक विकास दर हासिल की थी, जो विश्व की अन्य उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं द्वारा इसी अवधि में हासिल की गई विकास दर से दुगुनी थी। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भारत की आर्थिक विकास दर के वर्ष 2024 के अपने पूर्व अनुमान 6.7 प्रतिशत की विकास दर को बढ़ा कर 7 प्रतिशत कर दिया है। ओईसीडी देशों के समूह ने भी वर्ष 2024 एवं 2025 में वैश्विक स्तर पर आर्थिक प्रगति के अनुमान जारी किए हैं। इन अनुमानों के अनुसार, वैश्विक स्तर पर वर्ष 2024 एवं 2025 में सकल घरेलू उत्पाद में 3.2 प्रतिशत की वृद्धि हासिल की जा सकेगी। वहीं भारत की आर्थिक विकास दर वर्ष 2024 के 6.7 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2025 में 6.8 प्रतिशत रहने की सम्भावना व्यक्त की गई है। चीन की आर्थिक विकास दर वर्ष 2024 में 4.9 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2025 में 4.5 रहने की सम्भावना है। इसी प्रकार रूस एवं अमेरिका की आर्थिक विकास दर भी वर्ष 2024 में क्रमशः 3.7 प्रतिशत एवं 2.6 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2025 में क्रमशः 1.1 प्रतिशत एवं 1.6 प्रतिशत रहने की सम्भावना व्यक्त की गई है। कुल मिलाकर आज विश्व के लगभग समस्त वित्तीय एवं निवेश संस्थान आगे आने वाले वर्षों में भारत की आर्थिक विकास दर के बढ़ने के अनुमान लगा रहे हैं। वैश्विक स्तर पर वित्तीय संस्थानों द्वारा भारत के आर्थिक विकास दर के सम्बंध में लगाए जा रहे अनुमानों के अनुसार यदि भारत आगे आने वाले वर्षों में प्रतिवर्ष 6.7 प्रतिशत की आर्थिक विकास दर हासिल करता है तो भारत वर्ष 2031 तक विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। इसके ठीक विपरीत भारत ने वित्तीय वर्ष 2023-24 में 8.2 प्रतिशत की आर्थिक विकास दर हासिल की थी एवं भारतीय रिजर्व बैंक के अनुमान के अनुसार भारत वित्तीय वर्ष 2024-25 में 7 प्रतिशत से अधिक की आर्थिक विकास दर हासिल करेगा, इस प्रकार तो भारत वर्ष 2031 के पूर्व ही विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। दूसरे, विश्व में भारत से आगे जापान एवं जर्मनी की अर्थव्यवस्थाएं हैं, आज इन दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं में कई प्रकार की समस्याएं दिखाई दे रही हैं जिनके चलते इन देशों की आर्थिक विकास दर आगे आने वाले कुछ वर्षों में शून्य रहने की सम्भावना दिखाई दे रही है। इस प्रकार, बहुत सम्भव है कि भारत मार्च 2025 तक जापान की अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़ देगा एवं मार्च 2026 अथवा मार्च 2027 तक जर्मनी की अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़ देगा और भारत को विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के लिए वर्ष 2031 तक इंतजार ही नहीं करना पड़ेगा। विश्व बैंक द्वारा जारी वैश्विक आर्थिक सम्भावना रिपोर्ट 2024 ने भी वित्तीय वर्ष 2025 में भारत को विश्व में सबसे तेज गति से आगे बढ़ने वाली प्रमुख अर्थव्यवस्था बने रहने के संकेत दिए हैं। पिछले तीन वर्षों में पहली बार वैश्विक अर्थव्यवस्था वर्ष 2024 में स्थिर होने के संकेत दे रही है। वैश्विक स्तर पर सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर के वर्ष 2024-25 में 2.6 प्रतिशत एवं वर्ष 2025-26 में 2.7 प्रतिशत रहने की सम्भावना विश्व बैंक द्वारा की गई है। इसी प्रकार, मुद्रा स्फीति में भी धीरे धीरे कमी आने के संकेत मिल रहे हैं एवं यह वैश्विक स्तर पर औसतन 3.5 प्रतिशत रहने की सम्भावना है। मुद्रास्फीति उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति को कम करती है एवं उनके व्यय करने की क्षमता को भी हत्तोत्साहित करती है। कई देशों को मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने के लिए ब्याज दरों को बढ़ाना पड़ता है। उच्च ब्याज दरें मुद्रास्फीति को नियंत्रित तो करती हैं परंतु आर्थिक प्रगति को धीमा भी कर देती है जिससे रोजगार के अवसरों में कमी भी दृष्टिगोचर होती है। उक्त वर्णित वैश्विक आर्थिक सम्भावना रिपोर्ट 2024 के अनुसार दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भारत ने क्षेत्रीय विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। औद्योगिक एवं सेवा क्षेत्रों के योगदान से वित्तीय वर्ष 2023-24 में भारत ने 8.2 प्रतिशत की अतुलनीय आर्थिक विकास दर हासिल की है, यह आर्थिक विकास दर देश में मानसून व्यवधानों के कारण कृषि क्षेत्र के उत्पादन वृद्धि में आई कमी के बावजूद हासिल की गई है। साथ ही, भारत में व्यापक कर आधार से राजस्व में वृद्धि के चलते सकल घरेलू उत्पाद के सापेक्ष राजकोषीय घाटे में कमी हासिल की जा सकी है। विशेष रूप से भारत में व्यापार घाटा भी कम होता दिखाई दे रहा है, जिससे दक्षिण एशियाई क्षेत्र में समग्र आर्थिक स्थिरता लाने में योगदान मिला है। जलवायु परिवर्तन के कारण भी विश्व के कई देशों में बाढ़, सूखा एवं तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाओं की बारंबारता और प्रबलता बढ़ती दिखाई दे रही है। इस तरह की आपदाएं बुनियादी ढांचे, निवास स्थानों एवं व्यवसाओं को व्यापक क्षति पहुंचा रही हैं। साथ ही, यह कृषि उत्पादन को भी बाधित कर रही है, जिससे खाद्यान के उत्पादन में कमी एवं इनकी कीमतों में वृद्धि होती दिखाई दे रही है। इससे सरकारी वित्त व्यवस्था पर भी अतिरिक्त भार पड़ रहा है। विश्व बैंक की आर्थिक सम्भावना रिपोर्ट 2024 ने वैश्विक अर्थव्यवस्था के बारे में तार्किक आशावादी दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। वर्ष 2024 में वैश्विक अर्थव्यवस्था में स्थिरता के संकेत जरूर दिए हैं परंतु कोविड महामारी से पहले के विकास के स्तरों की तुलना में वैश्विक स्तर पर विकास अभी भी धीमा बना हुआ है। वैश्विक स्तर पर मौजूदा चुनौतियों से निपटने के लिए सभी देशों को मिलकर प्रभावी उपाय करने होंगे। यहां भारत की “वसुधैव क़ुटुम्बकम” एवं “सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय” जैसी भावनाओं के साथ, वैश्विक स्तर पर आर्थिक विकास के लिए, यदि सभी देश मिलकर आगे बढ़ते हैं तो भारत के साथ साथ पूरे विश्व में भी खुशहाली लाई जा सकती है। प्रहलाद सबनानी Read more » भारत के आर्थिक विकास
आर्थिकी राजनीति शक्तिशाली देशों की सूची में भारत पहुंचा तीसरे स्थान पर September 27, 2024 / September 27, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment आस्ट्रेलिया के एक संस्थान, लोवी इन्स्टिटयूट थिंक टैंक, ने हाल ही में एशिया में शक्तिशाली देशों की एक सूची जारी की है। “एशिया पावर इंडेक्स 2024” नामक इस सूची में भारत को एशिया में तीसरा सबसे बड़ा शक्तिशाली देश बताया गया है। वर्ष 2024 के इस इंडेक्स में भारत ने जापान को पीछे छोड़ा है। इस इंडेक्स में अब केवल अमेरिका एवं चीन ही भारत से आगे है। रूस तो पहिले से ही इस इंडेक्स में भारत से पीछे हो चुका है। इस प्रकार अब भारत की शक्ति का आभास वैश्विक स्तर पर भी महसूस किया जाने लगा है। एशिया पावर इंडेक्स 2024 के प्रतिवेदन में बताया गया है कि वर्ष 2023 के इंडेक्स में भारत को 36.3 अंक प्राप्त हुए थे जो वर्ष 2024 के इंडेक्स में 2.8 अंक से बढ़कर 39.1 अंकों पर पहुंच गए हैं एवं भारत इस इंडेक्स में चौथे स्थान से तीसरे स्थान पर आ गया है। एशिया पावर इंडेक्स 2024 को विकसित करने के लिए कुल 27 देशों और क्षेत्रों से प्राप्त आंकड़ों का आंकलन एवं सूक्षम विश्लेषण किया गया है। एशिया में जो नए शक्ति समीकरण बन रहे हैं उनका ध्यान भी इस इंडेक्स में रखा गया है तथा विभिन्न मापदंडों पर आधारित पिछले 6 वर्षों के आकड़ों का विश्लेषण कर यह इंडेक्स बनाया गया है। आर्थिक क्षमता, सैन्य (मिलिटरी) क्षमता, अर्थव्यवस्था में लचीलापन, भविष्य में संसाधनों की उपलब्धता, कूटनीतिक, राजनयिक एवं आर्थिक सम्बंध एवं सांस्कृतिक प्रभाव जैसे मापदंडो पर उक्त 27 देशों एवं क्षेत्रों का आंकलन कर विभिन्न देशों को इस इंडेक्स में स्थान प्रदान किया गया है। उक्त इंडेक्स में अमेरिका, 81.7 अंकों के साथ प्रथम स्थान पर है। चीन 72.7 अंकों के साथ द्वितीय स्थान पर है। भारत ने इस इंडेक्स में 39.1 अंक प्राप्त कर तृतीय स्थान प्राप्त किया है। जापान को 38.9 अंक, आस्ट्रेलिया को 31.9 अंक एवं रूस को 31.1 अंक प्राप्त हुए हैं एवं इन देशों का क्रमशः चतुर्थ, पांचवा एवं छठवां स्थान रहा है। इस इंडेक्स में प्रथम 5 स्थानों में से 4 स्थानों पर “क्वाड” के सदस्य देश हैं – अमेरिका, भारत, जापान एवं आस्ट्रेलिया। एशिया में अमेरिका की लगातार बढ़ती मजबूत ताकत के चलते उसे इस इंडेक्स में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है। जबकि, चीन की मजबूत मिलिटरी ताकत के चलते उसे इस इंडेक्स में द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ है। जापान के इस इंडेक्स में तीसरे से चौथे स्थान पर आने के कारणों में मुख्य कारण उसकी आर्थिक स्थिति में लगातार आ रही गिरावट है। भारत ने चौथे स्थान से तीसरे स्थान पर छलांग लगाई है। आर्थिक क्षमता एवं भविष्य में संसाधनो की उपलब्धता के क्षेत्र में भारत को तीसरा स्थान प्राप्त हुआ है। साथ ही, सैन्य क्षमता, कूटनीतिक, राजनयिक एवं आर्थिक सम्बंध के क्षेत्र एवं सांस्कृतिक प्रभाव के क्षेत्र में भारत को चौथा स्थान प्राप्त हुआ है। अब केवल अमेरिका और चीन ही भारत से आगे हैं एवं जापान, आस्ट्रेलिया एवं रूस भारत से पीछे हो गए हैं। जबकि, कुछवर्षपूर्वतकविश्वकीमहानशक्तियोंमेंभारतकाकहींभीस्थाननजरनहींआताथा।केवलअमेरिका, रूस, चीन, जापान, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रान्सआदिदेशोंकोहीविश्वमेंमहाशक्तिकेरूपमेंगिनाजाताथा।अबइससूचीमेंभारततीसरेस्थानपरपहुंचगयाहै। उक्त इंडेक्स तैयार करते समय आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि अन्य शक्तिशाली देशों का भी आंकलन किया गया है। साथ ही, विश्व में तेजी से बदल रहे शक्ति के नए समीकरणों का भी व्यापक आंकलन किया गया है। इस आंकलन के अनुसार अमेरिका अभी भी एशिया में सबसे बड़ी आर्थिक ताकत बना हुआ है। चीन तेजी से आगे बढ़कर दूसरे स्थान पर आया है। तेजी से बढ़ती सेना एवं आर्थिक तरक्की चीन की मुख्य ताकत है। उक्त प्रतिवेदन में यह तथ्य भी बताया गया है कि उभरते हुए भारत से अपेक्षाओं एवं वास्तविकताओं में अंतर दिखाई दे रहा है। इस प्रतिवेदन के अनुसार, भारत के पास अपने पूर्वी देशों को प्रभावित करने की सीमित क्षमता है। परंतु, वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। भारत अपने पड़ौसी देशों नेपाल, भूटान, श्रीलंका, बंगलादेश, म्यांमार एवं अफगानिस्तान, आदि की विपरीत परिस्थितियों के बीच भारी मदद करता रहा है। आसियान के सदस्य देशों की भी भारत समय समय पर मदद करता रहा है, एवं इन देशों का भारत पर अपार विश्वास रहा है। कोरोना के खंडकाल में एवं श्रीलंका, म्यांमार तथा अफगानिस्तान में आए सामाजिक संघर्ष के बीच भारत ने इन देशों की मानवीय आधार पर भरपूर आर्थिक सहायता की थी एवं इन्हें अमेरिकी डॉलर में लाइन आफ क्रेडिट की सुविधा भी प्रदान की थी ताकि इनके विदेशी व्यापार को विपरीत रूप से प्रभावित होने से बचाया जा सके। उक्त प्रतिवेदन के अनुसार भारत के पास भारी मात्रा में संसाधन मौजूद हैं एवं जिसके बलबूते पर आगे आने वाले समय में भारत के आर्थिक विकास को और अधिक गति मिलने की अपार सम्भावनाएं मौजूद हैं। साथ ही, भारत अपने पड़ौसी देशों की आर्थिक स्थिति सुधारने की भी क्षमता रखता है। भारत ने हाल ही के वर्षों में उल्लेखनीय आर्थिक सुधार कार्यक्रम लागू किए हैं। जिसके चलते लगातार तेज हो रहे आर्थिक विकास के बीच सकल घरेलू उत्पाद की स्थिति और बेहतर हो रही है तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की मान्यता बढ़ रही है। साथ ही, बहुपक्षीय मंचों पर भी भारत की सक्रिय भागीदारी बढ़ती जा रही है। भारत ने पिछले कुछ वर्षों में एशिया के कई देशों के साथ अपने सम्बंधों को मजबूत किया है। अब तो अफ्रीकी देशों का भी भारत पर विश्वास बढ़ता जा रहा है एवं भारत में ग्लोबल साउथ का नेतृत्व करने की अपार सम्भावनाएं मौजूद हैं। भारत में हाल ही में अपनी कूटनीतिक एवं राजनयिक क्षमता में भी भरपूर सुधार किया है एवं इसके बल पर वैश्विक स्तर पर न केवल विकसित देशों बल्कि विकासशील देशों को भी प्रभावित करने में सफल रहा है। यूक्रेन एवं रूस युद्ध के समय केवल भारत ही दोनों देशों के साथ चर्चा कर पाता है एवं युद्ध को समाप्त करने का आग्रह दोनों देशों को कर पाता है। इसी प्रकार, इजराईल एवं हमास युद्ध के समय भी भारत दोनों देशों के साथ युद्ध समाप्त करने की चर्चा करने में अपने आप को सहज एवं सक्षम पाता है। आपस में युद्ध करने वाले दोनों देश भारत की सलाह को गम्भीरता से सुनते नजर आते हैं। भारत ने कभी भी विभिन्न देशों के आंतरिक स्थितियों पर अपनी विपरीत राय व्यक्त नहीं की है और न ही कभी उनके आंतरिक मामलों में कभी हस्तक्षेप किया है। इस दृष्टि से वैश्विक पटल पर भारत की यह विशिष्ट पहचान एवं स्थिति है। दक्षिण एशिया के देशों में चीन अपना प्रभाव बढ़ाने का प्रयास कर रहा है इसलिए भारत का पूरा ध्यान इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव को कम कर अपने प्रभाव को बढ़ाना है। इसी मुख्य कारण से शायद भारत दक्षिण एशिया के देशों पर अधिक ध्यान देता दिखाई दे रहा है। जिसका आशय उक्त प्रतिवेदन में यह लिया गया है कि विश्व के अन्य देशों को सहायता करने की भारत की क्षमता तो अधिक है परंतु अभी उसका उपयोग भारत नहीं कर पा रहा है। हिंद महासागर पर भारत का ध्यान अधिक है और क्वाड के सदस्य देश मिलकर भारत की इस दृष्टि से सहायता भी कर रहे हैं। दक्षिण एशियाई देशों के अलावा विश्व के अन्य देशों की मदद करने के संदर्भ में भारत ने हालांकि अभी हाल ही के समय में बढ़त तो बनाई है परंतु अभी और अधिक प्रयास करने की आवश्यकता है। भारत में आगे बढ़ने की अपार सम्भावनाएं मौजूद हैं। उक्त प्रतिवेदन में भारत को एशिया को तीसरा सबसे बड़ा ताकतवर देश बताया गया है परंतु वस्तुतः भारत अब एशिया का ही नहीं बल्कि विश्व का तीसरा सबसे बड़ा ताकतवर देश बन गया है क्योंकि इस सूची में एशिया के बाहर से अमेरिका को भी एशिया में पहिले स्थान पर बताया गया है। एक अन्य अमेरिकी थिंक टैंक का आंकलन है कि भारत यदि इसी रफ्तार से आगे बढ़ता रहा तो इस शताब्दी के अंत तक भारत, चीन एवं अमेरिका को भी पीछे छोड़कर विश्व का सबसे अधिक शक्तिशाली देश बन जाएगा। प्रहलाद सबनानी Read more »
आर्थिकी राजनीति ब्याज दरों को कम करने का चक्र हुआ प्रारम्भ September 19, 2024 / September 19, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | 1 Comment on ब्याज दरों को कम करने का चक्र हुआ प्रारम्भ अमेरिकी फेडरल रिजर्व के अध्यक्ष जर्मी पोवेल ने दिनांक 19 सितम्बर 2024 को यूएस फेड दर में 50 आधार बिंदुओं की कमी करने की घोषणा करते हुए यूएस फेड दर को 5.5 प्रतिशत से घटाकर कर 5 प्रतिशत कर दिया है। 4 वर्ष पूर्व पूरे विश्व में फैली कोविड महामारी के खंडकाल के पश्चात मुद्रा […] Read more »
आर्थिकी राजनीति अमेरिका में लगातार बिगड़ती आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति September 13, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment काल चक्र का बदलता स्वरूप विश्व में कई गतिविधियां एक चक्र के रूप में चलती रहती है। एक कालखंड के पश्चात चक्र कभी नीचे की ओर जाता है एवं एक अन्य कालखंड के पश्चात यह चक्र कभी ऊपर की ओर जाता हुए दिखाई देता है। विदेशी व्यापार के मामले में वर्ष 1750 तक पूरे विश्व में भारत की तूती बोलती रही है, परंतु इसके पश्चात यूरोपीयन देशों ने विस्तारवादी नीतियों के चलते अपने आर्थिक हित साधते हुए विभिन्न देशों पर अपना कब्जा जमा लिया। ब्रिटेन, फ्रांन्स, डच जैसे देशों ने एशियाई देशों एवं कुछ अफ्रीकी भू भाग पर पर अपना कब्जा जमाया तो स्पेन आदि देशों ने अमेरिकी महाद्वीप पर अपना कब्जा जमाया। समय के साथ चक्र कुछ इस प्रकार चला कि वर्ष 1950 आते आते अमेरिका पूरे विश्व में सबसे अमीर देशों की श्रेणी में शामिल हो गया और ब्रिटेन, जिसके बारे में कभी कहा जाता था कि ब्रिटेन की महारानी के राज्यों में सूरज कभी डूबता नहीं है, का आर्थिक दृष्टि से ढलान शुरू हो गया और आज ब्रिटेन के आर्थिक एवं सामाजिक ढांचे की स्थिति हम सभी के सामने है। ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था हाल ही में पूरे विश्व में छठे स्थान पर पहुंच गई है तथा अमेरिका, चीन, जापान, जर्मनी के पश्चात भारत आज विश्व की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। जबकि वर्ष 1750 के पश्चात जब ब्रिटेन ने भारत पर अपना कब्जा स्थापित कर लिया था उसके बाद भारत की स्थिति यहां तक बिगड़ी थी कि पूरी विश्व की अर्थव्यवस्था में भारत के विदेश व्यापार की हिस्सेदारी वर्ष 1750 के 32 प्रतिशत से घटकर वर्ष 1947 में 3 प्रतिशत के नीचे आ गई थी। परंतु, एक बार फिर कालचक्र अपना रंग दिखाता हुआ नजर आ रहा है और अमेरिकी अर्थव्यवस्था के साथ ही वहां का सामाजिक ताना बाना भी छिन्न भिन्न होता हुआ दिखाई दे रहा है। दरअसल, अमेरिका ने पूंजीवादी नीतियों को अपनाकर अपने नागरिकों में केवल आर्थिक उन्नति को ही विकास के एकमात्र मार्ग के रूप में चुना था, इससे वहां के नागरिकों में किसी भी प्रकार से धन अर्जन करने की प्रवृत्ति विकसित हुई एवं सामाजिक, आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक ताना बाना छिन्न भिन्न हो गया। परिवार व्यवस्था समाप्त हो गई जिसका परिणाम आज हमारे सामने हैं कि आज अमेरिका में नागरिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा योजना, मेडीकेयर योजना, मेडीकैड योजना, प्रौढ़ नागरिकों को सुविधाएं एवं केंद्र (फेडरल) सरकार के कर्मचारियों को अदा की जा रही पेंशन, आदि योजनाएं सरकार द्वारा नागरिकों के हितार्थ अमेरिका में चलानी पड़ रही हैं। इन योजनाओं पर खर्च किए जा रहे 2 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर की भारी भरकम राशि का लाभ करोड़ों अमेरिकी नागरिक प्रतिवर्ष उठा रहे हैं। यह राशि अमेरिकी सकल घरेलू उत्पाद का 14 प्रतिशत है। सुरक्षा की मद पर भी अमेरिका द्वारा 70,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर का खर्च प्रतिवर्ष किया जाता है। बेरोजगारी बीमा लाभ योजना पर भी भारी भरकम राशि अमेरिकी सरकार द्वारा प्रतिवर्ष खर्च की जाती है। अमेरिका में सेवा निवृत्त हो रहे कर्मचारियों की संख्या लगातार बढ़ रही है जिसके कारण इस मद पर व्यय की जाने वाली राशि में भी बेतहाशा वृद्धि हो रही है, साथ ही लगातार बढ़ रहा सुरक्षा खर्च, स्वास्थ्य सेवाओं पर व्यय की लगातार बढ़ रही राशि के बीच वर्तमान में कर की दरों में वृद्धि नहीं करने के कारण बजटीय घाटे पर दबाव बढ़ता जा रहा है। इकोनोमिक रिपोर्ट आफ द प्रेजीडेंट के अनुसार अमेरिका में वर्ष 2000 में 23,600 करोड़ अमेरिकी डॉलर का बजट आधिक्य था जो वर्ष 2001 में घटकर 12,600 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया। परंतु, वर्ष 2002 में एक बार जो 15,800 करोड़ अमेरिकी डॉलर का बजट घाटा प्रारम्भ हुआ तो इसके बाद से वह बढ़ता ही गया है। वर्ष 2009 में तो बजट घाटा बढ़कर 141,300 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया, वर्ष 2010 में 129,400 करोड़ अमेरिकी डॉलर, वर्ष 2011 में 130,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर, वर्ष 2012 में 108,700 करोड़ अमेरिकी डॉलर एवं वर्ष 2020 में 313,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर, वर्ष 2021 में 277,000 करोड़ अमेरिको डॉलर एवं वर्ष 2022 में 188,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर का रहा है। अमेरिका में प्रति परिवार वास्तविक औसत आय वर्ष 1973 में (वर्ष 2015 में डॉलर की कीमत पर) 50,000 अमेरिकी डॉलर थी। अमेरिका के लगभग आधे परिवारों की वास्तविक औसत आय 50,000 अमेरिकी डॉलर से अधिक थी एवं शेष आधे परिवारों की 50,000 अमेरिकी डॉलर से कम थी, जिससे आय की असमानता आज की तुलना में कम दिखाई देती थी। वर्ष 1973 से वर्ष 2015 तक अमेरिका में उत्पादकता में 115 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है जबकि परिवारों की औसत आय (मुद्रा स्फीति के समायोजन के बाद) केवल 11 प्रतिशत ही बढ़ी है। यह भी, इस बीच, अमेरिकी महिलाओं को भारी मात्रा में प्रदान किए गए रोजगार के अवसरों के चलते सम्भव हो पाया है। इस प्रकार, मुद्रा स्फीति के समायोजन के पश्चात, अमेरिका में वर्ष 1973 के पश्चात औसत आय में वृद्धि नगण्य ही रही है। वर्ष 1973 से वर्ष 2007 के बीच अमेरिकी मध्यवर्गीय परिवारों ने उपभोग पर औसत खर्च को दुगने से भी अधिक कर दिया है। जिसके कारण इन परिवारों की बचत दर 10 प्रतिशत से घट कर 2 प्रतिशत हो गई है। बल्कि कई परिवारों को तो अपने मकानों पर ऋण लेकर एवं क्रेडिट कार्ड के माध्यम से ऋण लेकर भी काम चलाना पड़ रहा हैं। जोसेफ शूम्पटर के अनुसार अमेरिका में कार ने घोड़ा गाड़ी को खत्म कर दिया एवं कम्प्यूटर ने टाइपराइटर को खत्म कर दिया। इसे “रचनात्मक विनाश” (क्रीएटिव डेस्ट्रक्शन) का नाम दिया गया, क्योंकि इससे उत्पादकता का स्तर बढ़ा था, परंतु रोजगार के लाखों अवसर समाप्त हो गए थे। अमेरिका में आज 5 में से 4 रोजगार के अवसर, सेवा क्षेत्र में उत्पन्न होते हैं, जहां तुलनात्मक रूप से आय कम है। कृषि एवं उद्योग (विनिर्माण सहित) क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बहुत कम मात्रा में उपलब्ध हो पा रहे हैं। 60 वर्ष पूर्व तक अमेरिका विदेशी व्यापार के मामले में आत्मनिर्भर था। अमेरिका में विभिन्न उत्पादों का जितना उपभोग होता था उन लगभग समस्त उत्पादों का उत्पादन भी अमेरिका में ही होता था। बल्कि, विदेशी व्यापार के मामले में तो उस समय अमेरिका के पास विदेश व्यापार आधिक्य शेष रहता था। आज अमेरिका में विभिन्न उत्पादों का जितना उत्पादन होता है उससे कहीं अधिक उपभोग होता है। अमेरिकी नागरिक आज अपनी आय से अधिक व्यय करता हुआ दिखाई देता है। अमेरिका में कई नए शहरों की बसावट के पहिले, समस्त बड़े नगरों में 75 प्रतिशत श्रमिक रेल्वे एवं बसों से यात्रा करते थे। परंतु आज केवल 5 प्रतिशत नागरिक ही पब्लिक वाहनों का उपयोग, एक स्थान से दूसरे स्थान पर आने जाने के लिए, करते हैं। समस्त नागरिकों के पास अपनी अपनी कार है एवं केवल स्वयं ही उस कार में वे यात्रा करते हुए पाए जाते हैं। इससे पेट्रोल, डीजल एवं गैस की खपत में बेतहाशा बृद्धि दर्ज हुई है। द्वितीय विश्व युद्ध तक अमेरिका कच्चे तेल का एक निर्यातक देश हुआ करता था परंतु आज अमेरिका अपनी कच्चे तेल की कुल आवश्यकता का एक तिहाई भाग आयात करता है। अमेरिका में वर्ष 2000 में विदेशी व्यापार घाटा 38,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर का था जो 2021 में बढ़कर 86,100 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया है। 1970 के दशक तक, लगभग प्रत्येक वर्ष, अमेरिका के पास विदेशी व्यापार आधिक्य हुआ करता था। परंतु, इसके पश्चात अमेरिका की स्थिति विदेशी व्यापार के मामले में लगातार बिगड़ती चली गई है। अमेरिका में उच्च आय वाले क्षेत्रों में रोजगार के अवसर लगातार कम हो रहे हैं। अमेरिका में प्रति घंटा औसत मजदूरी की दर वर्ष 1973 से (मुद्रा स्फीति की दर के समायोजन के पश्चात) लगभग नहीं के बराबर बढ़ी है। अमेरिका में आय की असमानता लगातार बढ़ती जा रही है। फेडरल बजट घाटा अब अरक्षणीय (अनसस्टेनेबल) स्तर पर पहुंच गया है। विदेशी व्यापार घाटा के लगातार बढ़ते जाने से आज अमेरिका 100 करोड़ अमेरिकी डॉलर से अधिक की राशि का ऋण प्रतिदिन ले रहा है। देश में लगातार बढ़ रही गरीबी अब एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी की ओर स्थानांतरित हो रही है। कुल मिलाकर उक्त वर्णित अमेरिकी अर्थव्यवस्था की वर्तमान हालत को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि पश्चिमी आर्थिक दर्शन पर टिका पूंजीवादी मॉडल पूर्णतः असफल हो रहा है। इसी कारण से अमेरिकी अर्थशास्त्रियों द्वारा भी अब यह कहा जाने लगा है कि पूंजीवादी मॉडल समाप्ति की ओर अग्रसर हो रहा है अतः साम्यवाद एवं पूंजीवाद के बाद एक तीसरे आर्थिक रास्ते की अब सख्त आवश्यकता है, जो संभवत: केवल भारत ही उपलब्ध कर सकता है। प्रहलाद सबनानी Read more »
आर्थिकी राजनीति भारत के मार्च 2026 तक विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के संकेत September 13, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment भारत के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 3.93 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है। जबकि, जापान के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 4.21 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का है एवं जर्मनी के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 4.59 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का है। भारत की आर्थिक विकास दर लगभग 8 प्रतिशत प्रतिवर्ष बनी हुई है और जापान एवं जर्मनी की आर्थिक विकास दर लगभग स्थिर है अथवा इसके ऋणात्मक रहने की भी प्रबल सम्भावना है। इस दृष्टि से मार्च 2025 तक भारत जापान की अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़कर विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा एवं मार्च 2026 तक भारत जर्मनी की अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़ते हुए विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। हाल ही के समय में जर्मनी एवं जापान की अर्थव्यवस्थाओं में विभिन्न प्रकार की समस्याएं दृष्टिगोचर हैं, जिनके कारण इन दोनों देशों की आर्थिक विकास दर आगे आने वाले वर्षों में विपरीत रूप से प्रभावित रह सकती है। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात लगातार 4 दशकों तक जर्मनी पूरे यूरोपीयन यूनियन में तेज गति से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था बना रहा। इस दौरान विनिर्माण इकाईयों के बल पर जर्मनी ने अपने आप को विश्व में विनिर्माण केंद्र के रूप में स्थापित कर लिया था एवं विभिन्न उत्पादों, विशेष रूप से कार, मशीनरी एवं केमिकल उत्पादों का निर्यात पूरे विश्व को भारी मात्रा में किया जाने लगा था। पिछले 20 वर्षों के दौरान जर्मनी पूरे यूरोपीयन यूनियन के विकास का इंजिन बना हुआ था। चूंकि चीन की अर्थव्यवस्था बहुत तेजी से विकास कर रही थी अतः पिछले 20 वर्षों के दौरान चीन, जर्मनी से लगातार मशीनरी, कार एवं केमिकल पदार्थों का भारी मात्रा में आयात करता रहा है। परंतु, अब परिस्थितियां बदल रही हैं क्योंकि चीन की अर्थव्यवस्था भी हिचकोले खाने लगी है और चीन ने विभिन्न उत्पादों का जर्मनी से आयात कम कर दिया है। अतः अब जर्मनी अर्थव्यवस्था पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता हुआ दिखाई दे रहा है। आज बदली हुई परिस्थितियों में चीन, जर्मनी में निर्मित विभिन्न उत्पादों का आयात करने के स्थान पर वह जर्मनी का प्रतिस्पर्धी बन गया है और इन्हीं उत्पादों का निर्यात करने लगा है। दूसरे, पिछले लगभग 2 वर्षों से रूस ने भी ऊर्जा की आपूर्ति यूरोप के देशों को रोक दी है, रूस द्वारा निर्यात की जाने वाली इस ऊर्जा का जर्मनी ही सबसे अधिक लाभ उठाता रहा है। तीसरे, जर्मनी में प्रौढ़ नागरिकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है और एक अनुमान के अनुसार जर्मनी में आगे आने वाले एक वर्ष से कार्यकारी जनसंख्या में प्रतिवर्ष एक प्रतिशत की कमी आने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। इससे उपभोक्ता खर्च पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। चौथे, जर्मनी में नागरिकों की उत्पादकता भी कम हो रही है। जर्मनी में प्रत्येक नागरिक वर्ष भर में केवल 1300 घंटे का कार्य करता है जबकि OECD देशों में यह औसत 1700 घंटे का है। पांचवे, यूरोपीयन यूनियन में वर्ष 2035 में पेट्रोल एवं डीजल पर चलने वाले चार पहिया वाहनों के उत्पादन पर रोक लगाई जा सकती है जबकि इन कारों का निर्माण ही जर्मनी में अधिक मात्रा में होता है तथा जर्मनी की कार निर्माता कम्पनियों ने बिजली पर चलने वाले वाहनों के निर्माण पर अभी बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया है। साथ ही, जर्मनी ने नवाचार पर भी कम ध्यान दिया है एवं स्टार्ट अप विकसित करने में बहुत पीछे रहा है आज इन क्षेत्रों में अमेरिका एवं चीन बहुत आगे निकल गए हैं एवं जर्मनी आज अपने आप को असहाय सा महसूस कर रहा है। अतः जर्मनी अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव आगे आने वाले लम्बे समय तक चलने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया का प्रभाव भी जर्मनी अर्थव्यवस्था पर पड़ा है एवं अब पूरे विश्व में गैरवैश्वीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी है। आज प्रत्येक विकसित एवं विकासशील देश अपने पैरों पर खड़ा होकर स्वावलंबी बनना चाहता है। अतः जर्मनी जैसे देशों से मशीनरी एवं कारों का निर्यात कम हो रहा है साथ ही इन उत्पादों की तकनीकि भी लगातार बदल रही है जिसे जर्मनी की विनिर्माण इकाईयां उपलब्ध कराने में असफल सिद्ध हुई हैं। पिछले 5 वर्षों के दौरान जर्मनी अर्थव्यवस्था में विकास दर हासिल नहीं की जा सकी है। जर्मनी में सितम्बर 2023 माह में वोक्सवेगन (Volkswagen) कम्पनी ने अपनी दो विनिर्माण इकाईयों को बंद करने का निर्णय लिया है। यह कम्पनी जर्मनी में 3 लाख से अधिक रोजगार के प्रत्यक्ष अवसर उपलब्ध कराती है तथा अन्य लाखों नागरिकों को अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार के अवसर उपलब्ध कराती हैं। इस कम्पनी ने जर्मनी में अपनी विनिर्माण इकाईयों में उत्पादन कार्य को काफी हद्द तक कम कर दिया है क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से इस कम्पनी के उत्पादों की बिक्री लगातार कम हो रही है। पिछले 5 वर्षों के दौरान इस कम्पनी की बाजार कीमत आधे से भी कम रह गई है। इस कम्पनी की उत्पादन इकाईयों में चार पहिया वाहनों का निर्माण किया जाता रहा है परंतु अब इन उत्पादन इकाईयों में बिजली पर चलने वाली कारों के निर्माण में बहुत परेशानी आ रही है। बिजली पर चलने वाली कारों का जर्मनी में उत्पादन बढ़ाने के स्थान पर चीन से इन कारों का बहुत भारी मात्रा में आयात किया जा रहा है। अपनी आर्थिक परेशानियों को ध्यान में रखते हुए जर्मनी ने यूक्रेन को टैंकों की आपूर्ति भी रोक दी है। दरअसल कोरोना महामारी के बाद से ही, वर्ष 2020 के बाद से, जर्मनी की अर्थव्यवस्था अभी तक सही तरीके से पूरे तौर पर उबर ही नहीं सकी है। एक अनुमान के अनुसार जर्मनी अर्थव्यवस्था का आकार वर्ष 2024 में भी कम होने जा रहा है, यह वर्ष 2023 में भी कम हुआ था और इसके वर्ष 2025 में भी सुधरने की सम्भावना कम ही दिखाई दे रही है। जर्मनी के सकल घरेलू उत्पाद में वर्ष 2024 के दौरान 0.1 प्रतिशत की कमी की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। बेरोजगारी की दर भी 6.1 प्रतिशत के स्तर तक ऊपर जा सकती है। जर्मनी अर्थव्यवस्था केवल चक्रीय ही नहीं बल्कि संरचनात्मक क्षेत्र में भी समस्याओं का सामना कर रही है। इसमें सुधार की कोई सम्भावना आने वाले समय में नहीं दिख रही है। हालांकि यूरोपीयन यूनियन में जर्मनी की अर्थव्यवस्था सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है परंतु फिर भी भारत, उक्त कारणों के चलते, जर्मनी की अर्थव्यवस्था को मार्च 2026 तक पीछे छोड़ देगा, ऐसी सम्भावना व्यक्त की जा रही है। इसी प्रकार, पिछले लगभग 30 वर्षों के दौरान जापान की अर्थव्यवस्था में मुद्रा स्फीति, ब्याज दरें एवं येन की कीमत स्थिर रही है। परंतु, हाल ही के समय में येन का अंतरराष्ट्रीय बाजार में अवमूल्यन हो रहा है एवं यह 160 येन प्रति अमेरिकी डॉलर के स्तर पर आ गया है, जो वर्ष 2009 के बाद से कभी नहीं रहा है। जापान की अर्थव्यवस्था कई उत्पादों के आयात पर निर्भर करती है। जापान अपनी ऊर्जा की आवश्यकताओं का 90 प्रतिशत एवं खाद्य सामग्री का 60 प्रतिशत हिस्सा आयात करता है। जापान द्वारा आयात की जाने वाली वस्तुओं की अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमत बढ़ने से जापान में भी आयातित मुद्रा स्फीति की दर बढ़ रही है जो पिछले एक दशक के दौरान लगातार स्थिर रही है। वर्ष 1955 से वर्ष 1990 के बीच जापान की अर्थव्यवस्था औसत 6.8 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से आगे बढ़ती रही। वर्ष 1990 तक जापान का स्टॉक मार्केट लगातार बढ़ता रहा एवं अचानक वर्ष 1990 में यह बुलबुला फट पढ़ा और जापान में आवासीय मकानों की कीमत 50 प्रतिशत तक गिर गई एवं व्यावसायिक मकानों की कीमत 85 प्रतिशत तक गिर गई। जापान के पूंजी बाजार में निक्के स्टॉक सूचकांक भी 75 प्रतिशत तक गिर गया। जापान की अर्थव्यवस्था में तेजी के दौरान आस्तियों की बढ़ी हुई कीमत पर ऋण लिए गए थे परंतु जैसे ही इन आस्तियों की कीमत बाजार में कम हुई, नागरिकों को ऋणराशि की किश्तें चुकाने में भारी परेशानी का सामना करना पड़ा और इससे भी जापान में आर्थिक समस्याएं बढ़ी थी। दिवालिया होने वाले नागरिकों की संख्या बढ़ी और देश में अपस्फीति की समस्या प्रारम्भ हो गई थी। जापान की सरकार ने आर्थिक तंत्र में नई मुद्रा की मात्रा बढ़ाई और ब्याज दरों को लगभग शून्य कर दिया। इन समस्त उपायों से भी जापान में आर्थिक समस्याओं का हल नहीं निकल सका। वर्ष 2022 में जापान में भी विश्व के अन्य देशों की तरह मुद्रा स्फीति बढ़ने लगी थी परंतु जापान ने ब्याज दरों को नहीं बढ़ाया। अब कुल मिलाकर जापान अपनी आर्थिक समस्याओं से जूझ रहा है एवं वहां पर आगे आने वाले समय में आर्थिक विकास के पटरी पर आने की सम्भावना कम ही नजर आती है अतः भारत जापान की अर्थव्यवस्था को मार्च 2025 तक पीछे छोड़कर विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है। प्रहलाद सबनानी Read more »
आर्थिकी राजनीति भारत विश्व में सबसे तेज गति से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था बना रहेगा September 4, 2024 / September 4, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment वित्तीय वर्ष 2024-25 की प्रथम तिमाही (अप्रेल-जून 2024) में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर के आंकडें जारी कर दिए गए हैं एवं हर्ष का विषय है कि भारत अभी भी विश्व में सबसे तेज गति से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था बनी हुई है। वित्तीय वर्ष 2024-25 की प्रथम तिमाही में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 6.7 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। जबकि वित्तीय वर्ष 2023-24 की प्रथम तिमाही (अप्रेल-जून 2023) में 8.2 प्रतिशत की वृद्धि दर दर्ज हुई थी तथा पिछली तिमाही (जनवरी मार्च 2024) में वृद्धि दर 7.8 प्रतिशत की रही थी। भारतीय रिजर्व बैंक ने अप्रेल-जून 2024 तिमाही में 7.1 प्रतिशत की वृद्धि दर का अनुमान लगाया था। पिछले लगातार 5 तिमाही के दौरान भारत के सकल घरेलू उत्पाद में यह सबसे कम वृद्धि दर है। हालांकि चीन में 4.7 प्रतिशत की वृद्धि दर दर्ज हुई है तथा विश्व की अन्य बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में वृद्धि दर भारत की तुलना में अभी भी बहुत कम बनी हुई है। भारत में वित्तीय वर्ष 2024-25 की प्रथम तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद में कम हुई वृद्धि दर के पीछे कुछ महत्वपूर्ण कारण बताए गए है। प्रथम तो इस तिमाही में लोक सभा चुनाव सम्पन्न हुए हैं जिसके चलते आम जनता ने अपने खर्चे को रोक रखा था। साथ ही, लोक सभा चुनाव के समय केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों द्वारा कोई भी बड़ा निर्णय नहीं लिया जा सकता है जिसके चलते सरकारों को अपने खर्चों को नियंत्रण में रखना होता है, इससे देश की विकास दर पर प्रभाव पड़ता है। दूसरे, इस तिमाही के दौरान देश में अत्यधिक गर्मी के चलते पर्यटन एवं कृषि के क्षेत्र में विकास दर अत्यधिक कम हो गई है। कृषि के क्षेत्र में वित्तीय वर्ष 2024-25 की प्रथम तिमाही में वृद्धि दर केवल 2 प्रतिशत की रही है जो पिछले वर्ष की इसी तिमाही में 3.7 प्रतिशत की रही थी। परंतु, वित्तीय वर्ष 2024-25 की द्वितीय तिमाही में मानसून ने लगभग पूरे देश में तेज गति पकड़ ली है अतः विभिन्न फसलों के बुआई के क्षेत्र में अच्छी वृद्धि दर्ज हुई है इसलिए वित्तीय वर्ष 2024-25 के द्वितीय एवं तृतीय तिमाही (जुलाई-सितम्बर एवं अक्टोबर-दिसम्बर 2024) में कृषि क्षेत्र में वृद्धि दर के आकर्षक रहने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। खरीफ मौसम की फसल के साथ ही अब रबी मौसम की फसल में भी अच्छी वृद्धि दर रहने की सम्भावना है क्योंकि देश के विभिन्न जलाशयों में पानी के संचयन में भारी वृद्धि दर्ज हुई है, जिसे कृषि क्षेत्र में सिंचाई के लिए उपयोग किया जा सकेगा। इन्हीं कारणों के चलते वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेन्सी मूडीज ने वित्तीय वर्ष 2024-25 में भारत के आर्थिक विकास दर के अपने अनुमान को बढ़ाकर 7.2 प्रतिशत कर दिया है, मूडीज ने पहिले यह अनुमान 6.8 प्रतिशत का लगाया था। विनिर्माण इकाईयों द्वारा किए गए उत्पादन में अप्रेल-जून 2024 की तिमाही में 7 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है जबकि पिछले वर्ष की इसी तिमाही में 5.7 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई थी। निर्माण के क्षेत्र में 8.6 प्रतिशत एवं सेवा के क्षेत्र में 7.1 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है। ट्रेड, ट्रान्स्पोर्ट, होटल, टेलिकॉम की ग्रोथ 5.7 प्रतिशत की रही है। विनिर्माण, निर्माण एवं कोर इंडस्ट्री को मिलाकर बनने वाले सेकेण्डरी सेक्टर में वृद्धि दर बढ़ी है। वित्तीय वर्ष 2023-24 की प्रथम तिमाही में यह 5.9 प्रतिशत की रही थी जो वित्तीय वर्ष 2024-25 की प्रथम तिमाही में बढ़कर 8.4 प्रतिशत की हो गई है। यह वृद्धि दर देश में निजी उपभोग के बढ़ने की ओर इशारा कर रही है। विश्व में बहुत लम्बे समय से चल रहे दो युद्धों के बीच भारत की उक्त आर्थिक विकास दर अच्छी विकास दर ही कही जाएगी। एक युद्ध तो रूस यूक्रेन के बीच चल रहा है एवं दूसरा इजराईल एवं हम्मास के बीच चल रहा है। इजराईल के साथ युद्ध में तो लेबनान एवं ईरान भी कूदने को तैयार बैठें हैं। साथ ही, यूरोपीयन देशों में कुछ देशों की आर्थिक विकास दर में कमी होती दिखाई दे रही है। जापान एवं अमेरिकी अर्थव्यवस्थाओं में भी विकास दर में कमी आंकी गई है। जर्मनी एवं चीन भी अपनी अपनी अर्थव्यवस्थाओं में वृद्धि दर को बढ़ाने हेतु संघर्ष करते हुए दिखाई दे रहे हैं। जापान एवं जर्मनी में यदि विकास की रफ्तार कम होती है एवं भारत की आर्थिक विकास दर यदि इसी रफ्तार से आगे बढ़ती है तो शीघ्र ही भारत, जापान एवं जर्मनी की अर्थव्यवस्थाओं को पीछे छोड़ते हुए विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। अभी भारत विश्व की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और जापान एवं जर्मनी ही भारतीय अर्थव्यवस्था से थोड़ा आगे बने हुए हैं। अर्थ से सम्बंधित कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भारत सराहनीय प्रगति करता हुआ दिखाई दे रहा है। जैसे – (1) पिछली तिमाही में भारत के निर्यात में 8.7 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है जबकि वैश्विक स्तर पर यह वृद्धि दर केवल एक प्रतिशत की रही है। (2) बैंकों द्वारा प्रदान किए जा रहे ऋणों में लगातार वृद्धि दर 15 प्रतिशत से ऊपर बनी हुई है, विशेष रूप से कृषि के क्षेत्र में ऋण की मांग (जुलाई 2024 में 18.1 प्रतिशत की वृद्धि दर) एवं विनिर्माण के क्षेत्र में ऋण की मांग (जुलाई 2024 में 10.2 प्रतिशत की वृद्धि दर) बनी हुई है। इससे देश की अर्थव्यवस्था के तेज गति से आगे बढ़ने के स्पष्ट संकेत दिखाई दे रहे हैं। (3) वित्तीय वर्ष 2024-25 में जुलाई 2024 माह के अंत तक समाप्त अवधि के दौरान केंद्र सरकार की कुल आय 10.23 लाख करोड़ रुपए की रही है। यह वित्तीय वर्ष 2024-25 के आय के कुल बजट का 31.9 प्रतिशत है और इसमें 7.15 लाख करोड़ रुपए की करों की मद से आय तथा 3.01 लाख करोड़ रुपए की अन्य मदों से आय भी शामिल है। (4) इस दौरान केंद्र सरकार का राजकोषीय घाटा भी नियंत्रण में रहा है एवं यह 2.77 लाख करोड़ रुपए तक सीमित रहा है जो वित्तीय वर्ष 2024-25 के कुल बजटीय घाटे का केवल 17.2 प्रतिशत ही है। (5) इसी प्रकार विदेशी मुद्रा भंडार भी 23 अगस्त 2024 को समाप्त हुए सप्ताह में 702 करोड़ अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 68,168 करोड़ अमेरिकी डॉलर के नए रिकार्ड उच्च स्तर पर पहुंच गया है। पिछले सप्ताह में भी विदेशी मुद्रा भंडार 454 करोड़ अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 67,466 करोड़ अमेरकी डॉलर के स्तर पर पहुंच गया था। (6) जुलाई 2024 माह में 8 कोर सेक्टर (कोयला, कच्चा तेल, प्राकृतिक गैस, रिफाइनरी प्रोडक्ट, उर्वरक, इस्पात, सिमेंट एवं बिजली उत्पादन के क्षेत्र) में वृद्धि दर 6.1 प्रतिशत की रही है जो जून 2024 माह में 5.1 प्रतिशत की रही थी। (7) भारत में प्रत्येक 5 दिनों में एक बिलिनायर (भारतीय नागरिक जिसके पास 100 करोड़ अमेरिकी डॉलर से अधिक की सम्पत्ति है) बन रहा है। 2014 में भारत में 109 बिलिनायर थे जो आज बढ़कर 334 हो गए हैं। जिनकी कुल सम्पत्ति 1.9 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर की है जो सऊदी अरब के सकल घरेलू उत्पाद से भी अधिक है। इसी प्रकार, भारत के बिलिनायर की सम्पत्ति भारत के कुल सकल घरेलू उत्पाद के आधे से भी अधिक है। भारत की अर्थव्यवस्था तो प्रत्येक तिमाही में बढ़ रही है परंतु यदि यह सम्पत्ति केवल बिलिनायर की संख्या बढ़ाने के रूप में बढ़ रही है तो यह उचित नहीं कहा जा सकता है क्योंकि इससे तो देश में अमीरों एवं गरीबों के बीच में असमानता की खाई भी बढ़ती जा रही है और इस खाई को शीघ्र ही पाटने के प्रयास किए जाने चाहिए। वित्तीय वर्ष 2024-25 की प्रथम तिमाही में कम हुई आर्थिक विकास दर को बढ़ाने के उद्देश्य से क्या अब भारतीय रिजर्व बैंक ब्याज दरों में कमी कर सकता है। अब यह प्रश्न अर्थशास्त्रियों के मन में उभर रहा है। इस बीच अमेरिका में भी फेड रिजर्व के अध्यक्ष ने अमेरिका में ब्याज दरों को सितम्बर 2024 माह में कम करने के स्पष्ट संकेत दिए हैं। प्रहलाद सबनानी Read more » India will continue to be the fastest growing economy in the world
आर्थिकी राजनीति विनिर्माण क्षेत्र में बदलती भारत की तस्वीर August 22, 2024 / August 22, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment भारत में आज भी देश की लगभग 60 प्रतिशत आबादी ग्रामीण इलाकों में निवास कर रही है और वह अपने रोजगार के लिए सामान्यतः कृषि क्षेत्र पर निर्भर है तथा देश की कुल अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का योगदान केवल 16-18 प्रतिशत के आसपास बना रहता है। अब यदि देश की 60 प्रतिशत आबादी देश के सकल घरेलू उत्पाद में केवल 16-18 प्रतिशत तक का योगदान दे पा रही है तो स्वाभाविक रूप से इस क्षेत्र में गरीबी तो बनी ही रहेगी। परंतु, यह स्थिति अब धीरे धीरे बदल रही है क्योंकि हाल ही के वर्षों में भारत के विनिर्माण क्षेत्र का योगदान देश के सकल घरेलू उत्पाद में बढ़ता जा रहा है, जिसके चलते ग्रामीण इलाकों के नागरिक शहरी क्षेत्रों में स्थापित की जा रही विनिर्माण इकाईयों में रोजगार के नए अवसर प्राप्त करने के उद्देश्य से शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। विनिर्माण क्षेत्र में कई ऐसे नए क्षेत्र भी उभरकर सामने आए हैं जिन क्षेत्रों में भारत में उत्पादन बहुत कम मात्रा में होता रहा है। उदाहरण के लिए रक्षा क्षेत्र, दवा क्षेत्र, सेमी-कंडक्टर निर्माण क्षेत्र एवं आरटीफिशियल इंटेलिजेन्स का क्षेत्र आदि का वर्णन यहां प्रमुख रूप से किया जा सकता है। वित्तीय वर्ष 2023-24 के दौरान भारत में स्वदेशी रक्षा के क्षेत्र में उत्पादन की मात्रा 1.27 लाख करोड़ रुपए की रही है जो पिछले वर्ष की तुलना में उल्लेखनीय 16.7 प्रतिशत अधिक है। यह भारत सरकार द्वारा देश में उत्पादन के विभिन्न क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से सरकारी नीतियों और सरकार के प्रयासों की प्रभावशीलता को रेखांकित करता है। वर्तमान में रक्षा के क्षेत्र में उत्पादन करने वाली इकाईयों में सरकारी क्षेत्र की कम्पनियों एवं निजी क्षेत्र की कम्पनियों द्वारा संयुक्त रूप से प्रयास किए जा रहे हैं। वित्तीय वर्ष 2023-24 के दौरान उक्त वर्णित उत्पादन में सरकारी क्षेत्र की कम्पनियों का योगदान 79.2 प्रतिशत का रहा है जबकि निजी क्षेत्र की कम्पनियों का योगदान 20.8 प्रतिशत का रहा है। हर्ष का विषय तो यह भी है कि रक्षा के क्षेत्र में भारत में निर्मित किए जा रहे उत्पादों की अन्य देशों में भारी मांग निर्मित होती जा रही है और इन उत्पादों का निर्यात भी लगातार बढ़ रहा है। वित्तीय वर्ष 2023-24 में 21,083 करोड़ रुपए के मूल्य का निर्यात भारत से विभिन्न देशों में किया गया है जो पिछले वर्ष की तुलना में 32.5 प्रतिशत अधिक है और यह भारत में रक्षा के क्षेत्र में हुए कुल उत्पादन का लगभग 20 प्रतिशत है। निर्यात में यह वृद्धि न केवल वैश्विक रक्षा बाजार में भारत के बढ़ते पदचिन्हों को दर्शाती है, बल्कि आत्मनिर्भरता और नवाचार के प्रति इसकी प्रतिबद्धता को भी दर्शाती है। भारत में विनिर्माण इकाईयों की स्थापना को बढ़ावा देने के उद्देश्य से हाल ही के समय में कई रणनीतिक पहल भी केंद्र सरकार द्वारा की गई है, जैसे, मजबूत नीतिगत ढांचे को विकसित करना, सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ावा देना, अनुसंधान एवं विकास कार्यों में पर्याप्त निवेश को बढ़ावा देना, आदि शामिल हैं। स्वदेशीकरण की नीति के अनुपालन का असर भी रक्षा के क्षेत्र में उत्पादन एवं निर्यात में हो रही भारी भरकम वृद्धि के रूप में दिखाई देने लगा है। रक्षा के क्षेत्र में उपयोग होने वाले सैकड़ों उत्पादों के आयात पर रोक लगाकर इन उत्पादों का उत्पादन भारत में ही करने के निर्णय का असर भी अब धरातल पर स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा है। रक्षा के क्षेत्र में विभिन्न उत्पादों का उत्पादन भारत में ही करने की नीति को लागू करने से देश में न केवल राष्ट्रीय सुरक्षा को बढ़ावा मिलेगा बल्कि देश में आर्थिक प्रगति, तकनीकी उन्नति एवं रोजगार सृजन को भी बढ़ावा मिलेगा। रक्षा क्षेत्र की तरह ही, हाल ही के समय में भारत ने उत्पादन के कई नए क्षेत्रों में प्रवेश किया है। कुछ वर्ष पूर्व तक दवा निर्माण के क्षेत्र में उपयोग किए जाने वाले API (ऐक्टिव फार्मास्यूटिकल इंग्रीडीयंट) नामक कच्चे माल का लगभग पूरे तौर पर चीन से आयात किया जाता था। परंतु, कोरोना महामारी के दौरान भारत को यह अहसास हुआ कि यदि चीन इस कच्चे माल का निर्यात भारत को करना कम कर दे अथवा बंद कर दे तो भारत में तो दवा उद्योग की इकाईयों में निर्माण कार्य ही ठप्प पड़ जाएगा। इसके बाद केंद्र सरकार ने API के उत्पादन को भारत में ही करने का फैसला लिया, आज स्थितियां पूर्णत: बदल गई है एवं API का निर्माण भारत में ही किया जाने लगा है। सम्भव है कि आगे आने वाले कुछ समय में API के निर्माण के क्षेत्र में भी भारत आत्मनिर्भरता हासिल कर लेगा। भारत आज API के उत्पादन के क्षेत्र में विश्व में तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश बन गया है एवं भारत की वैश्विक API उद्योग में 8 प्रतिशत की हिस्सेदारी बन गई है। आज भारत में 500 से अधिक प्रकार के विभिन्न API का उत्पादन किया जा रहा है। भारत में API का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में भारतीय दवा उद्योग में तेज गति से वृद्धि दृष्टिगोचर हुई है और आज यह देश के सकल घरेलू उत्पाद में 1.72 प्रतिशत का योगदान देने लगा है एवं दवा उद्योग आज देश में रोजगार के करोड़ों अवसर निर्मित कर रहा है। भारतीय दवा उद्योग के वर्ष 2024 के अंत तक 6,500 करोड़ अमेरिकी डॉलर से बढ़कर वर्ष 2030 तक 13,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद की जा रही है। वर्ष 2013-14 के बाद से वर्ष 2021-22 तक भारतीय दवा निर्यात में 103 प्रतिशत की वृद्धि अंकित की गई है। जेनेरिक दवाओं के वैश्विक निर्यात में भारत की हिस्सेदारी 20 प्रतिशत हो गई है, जिससे भारत को अब “विश्व का फार्मेसी हब” भी कहा जाने लगा है। केंद्र सरकार API के उत्पादन को भारत में बढ़ाने के उद्देश्य से एक समग्र एवं अनुकूल पारिस्थितिकीय तंत्र का निर्माण करने पर जोर दे रही है। वर्ष 2020 में केंद्र सरकार ने API के घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए उत्पादन लिंक्ड प्रोत्साहन योजना के लिए 6,940 करोड़ रुपए की राशि निर्धारित की थी। 35 सक्रिय दवा सामग्री का विनिर्माण, जो API का लगभग 67 प्रतिशत है, जिसके लिए भारत की 90 प्रतिशत आयात पर निर्भरता है, भारत में PLI योजना के तहत प्रारम्भ किया जा चुका है। वर्ष 2022 के बाद से भारत के फार्मास्यूटिकल व्यवसाय में जबरदस्त बदलाव आया है एवं भारत अब वॉल्यूम उत्पादक से एक मूल्यवान आपूर्तिकर्ता देश बन गया है। दवाई के क्षेत्र में भारत अब वैश्विक स्तर पर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने को तैयार हो गया है। लगभग 4 वर्ष पूर्व वैश्विक स्तर पर ऑटोमोबाइल विनिर्माण के क्षेत्र में सेमीकंडक्टर की उपलब्धतता में आई भारी कमी के चलते वाहनों के उत्पादन को भारी मात्रा में घटाना पड़ा था। परंतु, इसके बाद केंद्र सरकार ने यह बीड़ा उठाया था कि सेमीकंडक्टर के निर्माण के क्षेत्र में भारत को वैश्विक हब बनाया जाएगा। भारत में सेमीकंडक्टर का बाजार 2,400 करोड़ अमेरिकी डॉलर का है जो वर्ष 2025 तक बढ़कर 10,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो जाने की सम्भावना है। इस संदर्भ में केंद्र सरकार ने कई कदम उठाए हैं एवं सेमीकंडक्टर की विनिर्माण इकाईयां भारत में अधिक से अधिक संख्या में स्थापित हों इसके लिए भी केंद्र सरकार द्वारा गम्भीर प्रयास किए जा रहे हैं। भारत द्वारा सेमीकंडक्टर उत्पादन में वैश्विक नेतृत्व हासिल किया जा सकता है। भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी तो वैश्विक स्तर पर कई प्रौद्योगिकी फर्म से भारत में सेमीकंडक्टर उद्योग लगाने के लिए सीधे ही चर्चा भी कर चुके हैं। काउंटरपोईंट रीसर्च और इंडिया इलेक्ट्रॉनिक्स एंड सेमीकंडक्टर एसोसीएशन की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत का सेमीकंडक्टर बाजार वर्ष 2026 तक लगभग 6,400 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो जाएगा जो वर्ष 2019 के बाजार से तीन गुना अधिक होगा। इसी प्रकार, भारत में आज आरटीफिशियल इंटेलिजेन्स के क्षेत्र में भी बहुत अधिक शोध चल रहा है ताकि आगे आने वाले समय में पूरे विश्व में भारत ही इस क्षेत्र में अपनी सर्वश्रेष्ठता सिद्ध कर सके। इस क्षेत्र में कार्य करने वाली अमेरिका की कुछ बहुराष्ट्रीय कम्पनियां तो बैंगलोर में आकर इस क्षेत्र के इंजीनियरों की भर्ती हेतु प्रयास भी करती दिखाई दे रही हैं। कुल मिलाकर अब यह कहा जा सकता है कि भारत आज विनिर्माण क्षेत्र के कई ऐसे क्षेत्रों में कार्य करता हुआ दिखाई दे रहा है जिनमे कभी भारत का प्रभुत्व ही नहीं रहा है। इससे भारत में रोजगार के लाखों नए अवसर निर्मित हो रहे हैं एवं ग्रामीण क्षेत्रों पर नागरिकों का दबाव भी कम हो रहा है। Read more » Changing picture of India in manufacturing sector