आर्थिकी राजनीति चक्रीय अर्थव्यवस्था (सर्कुलर इकॉनामी) की आवश्यकता क्यों? July 9, 2024 / July 9, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment हिंदू सनातन संस्कृति हमें सिखाती है कि आर्थिक विकास के लिए प्रकृति का दोहन करना चाहिए न कि शोषण। परंतु, आर्थिक विकास की अंधी दौड़ में पूरे विश्व में आज प्रकृति का शोषण किया जा रहा है। प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग कर प्रकृति से अपनी आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति बहुत ही आसानी से की जा सकती है परंतु दुर्भाग्य से आवश्यकता से अधिक वस्तुओं के उपयोग एवं इन वस्तुओं के संग्रहण के चलते प्राकृतिक संसाधनों का शोषण करने के लिए हम जैसे मजबूर हो गए हैं। ऐसा कहा जाता है कि जिस गति से विकसित देशों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का शोषण किया जा रहा है, उसी गति से यदि विकासशील एवं अविकसित देश भी प्राकृतिक संसाधनों का शोषण करने लगे तो इसके लिए केवल एक धरा से काम चलने वाला नहीं है बल्कि शीघ्र ही हमें इस प्रकार की चार धराओं की आवश्यकता होगी। एक अनुमान के अनुसार जिस गति से कोयला, गैस एवं तेल आदि संसाधनों का इस्तेमाल पूरे विश्व में किया जा रहा है इसके चलते शीघ्र ही आने वाले कुछ वर्षों में इनके भंडार समाप्त होने की कगार तक पहुंच सकते हैं। बीपी स्टेटिस्टिकल रिव्यू आॅफ वल्र्ड एनर्जी रिपोर्ट 2016 के अनुसार दुनिया में जिस तेजी से गैस के भंडार का इस्तेमाल हो रहा है, यदि यही गति जारी रही, तो प्राकृतिक गैस के भंडार आगे आने वाले 52 वर्षों में समाप्त हो जाएगें। फाॅसिल फ्यूल में कोयले के भंडार सबसे अधिक मात्रा में उपलब्ध हैं। परंतु विकसित एवं अन्य देश इसका जिस तेज गति से उपयोग कर रहे है, यदि यही गति जारी रही तो कोयले के भंडार दुनिया में आगे आने वाले 114 वर्षों में समाप्त हो जाएगें। एक अन्य अनुमान के अनुसार भारत में प्रत्येक व्यक्ति औसतन प्रतिमाह 15 लीटर से अधिक तेल की खपत कर रहा है। धरती के पास अब केवल 53 साल का ही आॅइल रिजर्व शेष है। भूमि की उर्वरा शक्ति भी बहुत तेजी से घटती जा रही है। पिछले 40 वर्षों में कृषि योग्य 33 प्रतिशत भूमि या तो बंजर हो चुकी है अथवा उसकी उर्वरा शक्ति बहुत कम हो गई है। जिसके चलते पिछले 20 वर्षों में दुनिया में कृषि उत्पादकता लगभग 20 प्रतिशत तक घट गई है। कई अनुसंधान प्रतिवेदनों के माध्यम से अब यह सिद्ध किया जा चुका है कि वर्तमान में अनियमित हो रहे मानसून के पीछे जलवायु परिवर्तन का योगदान हो सकता है। कुछ ही घंटों में पूरे महीने की सीमा से भी अधिक बारिश का होना, शहरों में बाढ़ की स्थिति निर्मित होना, शहरों में भूकम्प के झटके एवं साथ में सुनामी का आना, आदि प्राकृतिक आपदाओं जैसी घटनाओं के बार-बार घटित होने के पीछे भी जलवायु परिवर्तन एक मुख्य कारण हो सकता है। एक अनुसंधान प्रतिवेदन के अनुसार, यदि वातावरण में 4 डिग्री सेल्सियस से तापमान बढ़ जाय तो भारत के तटीय किनारों के आसपास रह रहे लगभग 5.5 करोड़ लोगों के घर समुद्र में समा जाएंगे। साथ ही, चीन के शांघाई, शांटोयु, भारत के कोलकाता, मुंबई, वियतनाम के हनोई एवं बांग्लादेश के खुलना शहरों की इतनी जमीन समुद्र में समा जाएगी कि इन शहरों की आधी आबादी पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा। वेनिस एवं पीसा की मीनार सहित यूनेस्को विश्व विरासत के दर्जनों स्थलों पर समुद्र के बढ़ते स्तर का विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। दुनिया में जितना भी पानी है, उसमें से 97.5 प्रतिशत समुद्र में है, जो खारा है। 1.5 प्रतिशत बर्फ के रूप में उपलब्ध है। केवल 1 प्रतिशत पानी ही पीने योग्य उपलब्ध है। वर्ष 2025 तक भारत की आधी और दुनिया की 1.8 अरब आबादी के पास पीने योग्य पानी उपलब्ध नहीं होगा। विश्व स्तर के अनेक संगठनों ने कहा है कि अगला युद्ध अब पानी के लिए लड़ा जाएगा। अर्थात पीने के मीठे पानी का अकाल पड़ने की पूरी सम्भावना है। इसमें कोई संदेह नहीं कि पानी के पानी के लिए केवल विभिन्न देशों के बीच ही युद्ध नहीं होंगे बल्कि हर गांव, हर गली-मोहल्ले में पानी के लिए युद्ध होंगे। पर हम इसके बारे में अभी तक जागरुक नहीं हुए हैं। आगे आने वाले समय में परिणाम बहुत गंभीर होने वाले हैं। चक्रीय अर्थव्यवस्था (सर्क्यूलर इकॉनामी) का आश्य उस अर्थव्यवस्था से है जिसमें उत्पादों के निर्माण में उपयोग किए जाने वाले कच्चे माल, पानी एवं ऊर्जा के उपयोग को कम किया जाता है एवं पदार्थों के अवशेष (वेस्ट) को कम करते हुए इनके पुनरुपयोग को बढ़ावा दिया जाता है। यह लक्ष्य विभिन्न पदार्थों के उपयोग को उच्चत्तम स्तर पर ले जाकर एवं इन पदार्थों की बर्बादी को रोककर हासिल किए जाने का प्रयास किया जाता है। इससे प्राकृतिक संसाधनों के अति-उपयोग पर अंकुश लगाया जा सकता है। चक्रीय अर्थव्यवस्था के अंतर्गत उत्पादों एवं विभिन्न पदार्थों के उपयोग को कम करना, इनका पुनः उपयोग करना तथा विनिर्माण इकाईयों द्वारा इस प्रकार की प्रक्रिया अपनाना, जिससे कच्चे माल, ऊर्जा एवं पानी का कम प्रयोग हो सके, आदि उपाय भी शामिल हैं। उत्पादों को यदि रिपेयर कर पुनः उपयोग किया जा सकता है तो यह आदत भी विकसित की जानी चाहिए, इससे उस उत्पाद के कुल जीवन साइकल को बढ़ाया जा सकता है एवं उसके स्थान पर नए उत्पाद की आवश्यकता को कम किया जा सकता है। क्षतिग्रस्त अथवा खराब हुए उत्पाद को पुनरुपयोग योग्य बनाए जाने के प्रयास भी किए जाने चाहिए। उचित वेस्ट मेनेजमेंट को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इससे कुल मिलाकर प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव कम होगा। आजकल 7 आर ओफ सर्क्यूलर इकॉनामी को भी इस संदर्भ में अपनाने पर विचार किया जा रहा है – रिडयूस (Reduce -उत्पादों का उपयोग कम करें) , रीयूज (Reuse -उत्पादों का पुनः उपयोग करें), रीसाइकल (Recycle -बर्बाद हुए उत्पादों को रीसाइकल करें), रीडिजाइन (Redesign -उत्पादों की इस प्रकार डिजाइन विकसित करें कि कच्चे माल, पानी एवं ऊर्जा का कम उपयोग हो), रीपेयर (Repair -उत्पाद की मरम्मत कर पुनः उपयोग करने लायक बनाएं), रिन्यू (Renew -खराब हुए उत्पाद को ठीक कर उसका पुनः उपयोग करना), रिकवर (Recover -खराब हुए उत्पाद के कुछ पार्ट्स का पुनः उपयोग करना), रीथिंक (Rethink -नए प्रॉसेस के नवीकरण बारे में विचार करना), रिपर्पस (Repurpose), रिमैन्यूफेक्चर (Remanufacture) आदि उपाय भी सर्क्यूलर इकॉनामी के अंतर्गत किए जाते हैं। अतः कुल मिलाकर, अब समय आ गया है कि समस्त देश मिलकर इस बात पर गम्भीरता से विचार करें कि इस धरा को शोषित होने से कैसे बचाया जाय। इसके लिए आज इस धरा से लिए जाने वाले पदार्थों के उपयोग पर न केवल अंकुश लगाने की आवश्यकता है अपितु इन पदार्थों के पुनः उपयोग करने की विधियों को विकसित करने की भी महती आवश्यकता है। जैसे जीवाश्म ऊर्जा पर निर्भरता कम करने के उद्देश्य से भारत वैकल्पिक एवं नवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोतों को बढ़ावा देने पर काम कर रहा है। ऊर्जा मिश्रण में विविधता लाने पर भी ध्यान केंद्रित किया जा रहा है। इसमें सौर, पवन, पनबिजली और परमाणु ऊर्जा के उपयोग का विस्तार करना भी शामिल है। भारत, परिवहन, औद्योगिक प्रक्रियाओं, प्राथमिकता भवनों सहित, विभिन्न क्षेत्रों में ऊर्जा दक्षता उपायों को प्राथमिकता दे रहा है। इसमें ऊर्जा कुशल तकनीकों को अपनाना, औद्योगिक प्रक्रियाओं का अनुकूलन करना और मजबूत ऊर्जा संरक्षण उपायों को लागू करना शामिल हैं। साथ ही जीवाश्म तेल में ईथेनाल का सम्मिश्रण भी किया जा रहा है ताकि पेट्रोल एवं डीजल के उपयोग को कम किया जा सके। आज समय की मांग है कि विश्व के समस्त देश ऊर्जा सम्मिश्रण के क्षेत्र में साथ मिलकर काम करें। भारत ने सुझाव दिया है कि पेट्रोल में ईथेनाल सम्मिश्रण को वैश्विक स्तर पर 20 प्रतिशत तक ले जाने के लिए सामूहिक प्रयास किए जाएं, अथवा वैश्विक भलाई के लिए कोई और सम्मिश्रण पदार्थ की खोज की जाए, जिससे ऊर्जा की आपूर्ति निर्बाध रूप से बनी रहे और पर्यावरण भी सुरक्षित रहे। भारत ने उत्सर्जन वृद्धि को कम करने के उद्देश्य से बहुत पहले (2 अक्टोबर 2015 को) ही अपने लिए कई लक्ष्य तय कर लिए थे। इनमें शामिल हैं, वर्ष 2030 तक वर्ष 2005 के स्तर से अपने सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता को 30 से 35 प्रतिशत तक कम करना (भारत ने अपने लिए इस लक्ष्य को अब 45 प्रतिशत तक बढ़ा दिया है), गैर-जीवाश्म आधारित ऊर्जा के उत्पादन के स्तर को 40 प्रतिशत तक पहुंचाना (भारत ने अपने लिए इस लक्ष्य को अब 50 प्रतिशत तक बढ़ा लिया है) और वातावरण में कार्बन उत्पादन को कम करना, इसके लिए अतिरिक्त वन और वृक्षों के आवरण का निर्माण करना, आदि। इन संदर्भों में अन्य कई देशों द्वारा अभी तक किए गए काम को देखने के बाद यह पाया गया है कि जी-20 देशों में केवल भारत ही एक ऐसा देश है जो पेरिस समझौते के अंतर्गत तय किए गए लक्ष्यों को प्राप्त करता दिख रहा है। जी-20 वो देश हैं जो पूरे विश्व में वातावरण में 70 से 80 प्रतिशत तक उत्सर्जन फैलाते हैं। जबकि भारत आज इस क्षेत्र में काफी आगे निकल आया है एवं इस संदर्भ में पूरे विश्व का नेतृत्व करने की स्थिति में आ गया है। भारत ने अपने लिए वर्ष 2030 तक 550 GW सौर ऊर्जा का उत्पादन करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। भारत ने अपने लिए वर्ष 2030 तक 2.6 करोड़ हेक्टेयर बंजर जमीन को दोबारा खेती लायक उपजाऊ बनाने का लक्ष्य भी निर्धारित किया है। साथ ही, भारत ने इस दृष्टि से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सौर संधि करते हुए 88 देशों का एक समूह बनाया है ताकि इन देशों के बीच तकनीक का आदान प्रदान आसानी से किया जा सके। प्रहलाद सबनानी Read more » Why is there a need for circular economy?
आर्थिकी राजनीति भारतीय आर्थिक दर्शन के अनुरूप हो इस वर्ष का बजट July 9, 2024 / July 9, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment वित्तीय वर्ष 2024-25 का पूर्णकालिक बजट माननीय वित्तमंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमण द्वारा भारतीय संसद में 23 जुलाई 2024 को पेश किया जा रहा है। वर्तमान में भारत सहित विश्व के लगभग समस्त देशों में पूंजीवादी नीतियों का अनुसरण करते हुए अर्थव्यवस्थाएं आगे बढ़ रही हैं। परंतु, हाल ही के वर्षों में पूंजीवादी नीतियों के अनुसरण के कारण, विशेष रूप से विकसित देशों को, आर्थिक क्षेत्र में बहुत भारी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है और यह देश इन समस्याओं का हल निकाल ही नहीं पा रहे हैं। नियंत्रण से बाहर होती मुद्रा स्फीति की दर, लगातार बढ़ता कर्ज का बोझ, प्रौढ़ नागरिकों की बढ़ती जनसंख्या के चलते सरकार के खजाने पर बढ़ता आर्थिक बोझ, बजट में वित्तीय घाटे की समस्या, बेरोजगारी की समस्या, आदि कुछ ऐसी आर्थिक समस्याएं हैं जिनका हल विकसित देश बहुत अधिक प्रयास करने के बावजूद भी नहीं निकाल पा रहे हैं एवं इन देशों का सामाजिक तानाबाना भी छिनभिन्न हो गया है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के अंतर्गत चूंकि व्यक्तिवाद हावी रहता है अतः स्थानीय समाज में विभिन्न परिवारों के बीच आपसी रिश्ते केवल आर्थिक कारणों के चलते ही टिक पाते हैं अन्यथा शायद विभिन्न परिवार एक दूसरे से रिश्तों को आगे बढ़ाने में विश्वास ही नहीं रखते हैं। कई विकसित देशों में तो पति-पत्नि के बीच तलाक की दर 50 प्रतिशत से भी अधिक हो गई है। अमेरिका में तो यहां तक कहा जाता है कि 60 प्रतिशत बच्चों को अपने पिता के बारे में जानकारी ही नहीं होती है एवं केवल माता को ही अपने बच्चे का लालन-पालन करना होता है, जिसके कारण बच्चों का मानसिक विकास प्रभावित हो रहा है एवं यह बच्चे अपने जीवन में आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं, समाज में हिंसा की दर बढ़ रही है तथा वहां की जेलों में कैदियों की संख्या में तीव्र वृद्धि देखी जा रही है। इन देशों के नागरिक अब भारत की ओर आशाभारी नजरों से देख रहे हैं एवं उन्हें उम्मीद है कि उनकी आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्र की विभिन्न समस्याओं का हल भारतीय सनातन संस्कृति में से ही निकलेगा। अतः इन देशों के नागरिक अब भारतीय सनातन संस्कृति की ओर भी आकर्षित हो रहे हैं। भारत में वर्ष 1947 में राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात कुछ हद्द तक वामपंथी नीतियों का अनुसरण करते हुए भारतीय अर्थव्यवस्था को विकास की राह पर ले जाने का प्रयास किया गया था। परंतु, वामपंथी विचारधारा पर आधारित आर्थिक नीतियों ने बहुत फलदायी परिणाम नहीं दिए अतः बहुत लम्बे समय तक यह नीतियां आगे नहीं बढ़ सकीं। हालांकि बाद के खंडकाल में तो वैश्विक स्तर पर वामपंथी विचारधारा ही धराशायी हो गई एवं सोवियत रूस कई टुकड़ों में बंट गया। आज तो रूस एवं चीन सहित कई अन्य देश जो पूर्व में वामपंथी विचारधारा पर आधारित आर्थिक नीतियों को अपना रहे थे, ने भी पूंजीवादी विचारधारा पर आधारित आर्थिक नीतियों को अपना लिया है। भारत का इतिहास वैभवशाली रहा है एवं पूरे विश्व के आर्थिक पटल पर भारत का डंका बजा करता था। एक ईसवी से लेकर 1750 ईसवी तक वैश्विक व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 32 प्रतिशत के आसपास बनी रही है। उस समय पर भारतीय आर्थिक दर्शन पर आधारित आर्थिक नीतियों का अनुपालन किया जाता था। मुद्रा स्फीति, बेरोजगारी, ऋण का बोझ, वित्तीय घाटा, बुजुर्गों को समाज पर बोझ समझना, बच्चों का हिंसक होना, सामाजिक तानाबाना छिनभिन्न होना आदि प्रकार की समस्याएं नहीं पाई जाती थीं। समाज में समस्त नागरिक आपस में भाईचारे का निर्वहन करते हुए खुशी खुशी अपना जीवन यापन करते थे। प्राचीन काल में भारत के बाजारों में विभिन्न वस्तुओं की पर्याप्त उपलब्धता पर विशेष ध्यान दिया जाता था, जिसके चलते मुद्रा स्फीति जैसी समस्याएं उत्पन्न ही नहीं होती थी। ग्रामीण इलाकों में कई ग्रामों को मिलाकर हाट लगाए जाते थे जहां खाद्य सामग्री एवं अन्य पदार्थों की पर्याप्त उपलब्धता रहती थी, कभी किसी उत्पाद की कमी नहीं रहती थी जिससे वस्तुओं के दाम भी नहीं बढ़ते थे। बल्कि, कई बार तो वस्तुओं की बाजार कीमत कम होती दिखाई देती थी क्योंकि इन वस्तुओं की बाजार में आपूर्ति, मांग की तुलना में अधिक रहती थी। माननीय वित्तमंत्री महोदय को भी देश में मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने के लिए बाजारों में उत्पादों की उपलब्धता पर विशेष ध्यान देना चाहिए न कि ब्याज दरों को बढ़ाकर बाजार में वस्तुओं की मांग को कम किए जाने का प्रयास किया जाए। विकसित देशों द्वारा अपनाई गई आधुनिक अर्थशास्त्र की यह नीति पूर्णत असफल होती दिखाई दे रही है और इतने लम्बे समय तक ब्याज दरों को ऊपरी स्तर पर रखने के बावजूद मुद्रा स्फीति की दर वांछनीय स्तर पर नहीं आ पा रही है। भारत को इस संदर्भ में पूरे विश्व को राह दिखानी चाहिए एवं आधुनिक अर्थशास्त्र के मांग एवं आपूर्ति के सिद्धांत को बाजार में वस्तुओं की मांग कम करने के स्थान पर वस्तुओं की आपूर्ति को बढ़ाने के प्रयास होने चाहिए अर्थात आपूर्ति पक्ष पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। इससे मुद्रा स्फीति तो कम होगी ही परंतु साथ ही अर्थव्यवस्था में विकास की दर भी और तेज होगी क्योंकि वस्तुओं की आपूर्ति बढ़ते रहने से विनिर्माण इकाईयों में गतिविधियां बढ़ेंगी, रोजगार के नए अवसर निर्मित होंगे। परंतु यदि वस्तुओं की मांग में कमी करते हुए मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने के प्रयास होंगे तो उत्पादों की मांग में कमी होने के चलते उत्पादों का निर्माण कम होने लगेगा, विनिर्माण इकाईयों में गतिविधियां कम होंगी एवं देश में बेरोजगारी की समस्या बढ़ेगी। मांग में कमी करने के प्रयास सम्बंधी सोच ही अमानवीय है। इसी प्रकार, प्राचीन भारत में ग्रामीण इलाकों में कृषि क्षेत्र के साथ ही कुटीर एवं लघु उद्योगों पर विशेष ध्यान दिया जाता था। कई ग्रामों को मिलाकर हाट लगाए जाते थे, इन कृषि उत्पादों के साथ ही इन कुटीर एवं लघु उद्योगों में निर्मित उत्पाद भी बेचे जाते थे। अतः ग्रामीण इलाकों से शहरों की पलायन नहीं होता था तथा नागरिकों को रोजगार के अवसर ग्रामीण इलाकों में ही उपलब्ध हो जाते थे। आज की परिस्थितियों के बीच कृषि क्षेत्र तथा सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योगों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए ताकि ग्रामीण इलाकों में ही रोजगार के अधिक से अधिक अवसर निर्मित हो सकें। जनता पर करों के बोझ को कम करने के सम्बंध में भी विचार होना चाहिए। भारत के प्राचीन शास्त्रों में कर सम्बंधी नीति का वर्णन मिलता है जिसमें यह बताया गया है कि राज्य को जनता पर करों का बोझ उतना ही डालना चाहिए जितना एक मधुमक्खी फूल से शहद निकालती है। अर्थात, जनता को करों का बोझ महसूस नहीं होना चाहिए। अतः वित्तीय वर्ष 2024-25 वर्ष के लिए प्रस्तुत किए जाने बजट में भी आवश्यक वस्तुओं पर लागू करों की दरों को कम करने के प्रयास होने चाहिए। साथ ही, मध्यमवर्गीय परिवारों को भी करों में छूट देकर कुछ राहत प्रदान की जानी चाहिए ताकि उनकी उत्पादों को खरीदने के क्षमता बढ़े। इससे अंततः अर्थव्यवस्था को ही लाभ होता है। मध्यमवर्गीय परिवारों की खरीद की क्षमता बढ़ने से विभिन्न उत्पादों की मांग बढ़ती है और अर्थव्यवस्था का चक्र और अधिक तेजी से घूमने लगता है। यदि किसी देश में अधिक से अधिक आर्थिक व्यवहार औपचारिक अर्थव्यवस्था के अंतर्गत किए जाते हैं और अर्थव्यवस्था का चक्र भी तेज गति से घूम रहा है तो ऐसी स्थिति में करों के संग्रहण में भी वृद्धि दर्ज होती है। अतः कई बार करों की दरों में कमी किए जाने के बावजूद कर संग्रहण अधिक राशि का होने लगता है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि माननीया वित्त मंत्री जी के पास वित्तीय वर्ष 2024-25 के लिए प्रस्तुत किए जाने वाले बजट के रूप में एक अच्छा मौका है कि भारतीय आर्थिक दर्शन के अनुरूप आर्थिक नीतियों को लागू कर पूरे विश्व को पूर्व में अति सफल रहे भारतीय आर्थिक दर्शन के सम्बंध में संदेश दिया जा सकता है। प्रहलाद सबनानी Read more » This year's budget should be in line with Indian economic philosophy
आर्थिकी राजनीति पूंजीगत खर्चों में वृद्धि एवं मध्यवर्गीय परिवारों को राहत प्रदान की जानी चाहिए बजट में July 5, 2024 / July 5, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment जुलाई 2024 माह में शीघ्र ही केंद्र सरकार द्वारा वित्तीय वर्ष 2024-25 के लिए पूर्णकालिक बजट पेश किया जाने वाला है। हाल ही में लोक सभा के लिए चुनाव भी सम्पन्न हुए हैं एवं भारतीय नागरिकों ने लगातार तीसरी बार एनडीए की अगुवाई में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को सत्ता की चाबी आगामी पांच वर्षों के लिए इस उम्मीद के साथ पुनः सौंप दी है कि आगे आने वाले पांच वर्षों में केंद्र सरकार द्वारा देश में आर्थिक विकास को और अधिक गति देने के प्रयास जारी रखे जाएंगे। अब केंद्र सरकार में वित्त मंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमण शीघ्र ही केंद्रीय बजट पेश करने जा रही हैं। पिछले लगातार दो वर्षों के बजट में पूंजीगत खर्चों की ओर इस सरकार का विशेष ध्यान रहा है। वित्तीय वर्ष 2022-23 में 7.50 लाख करोड़ रुपए की राशि का प्रावधान पूंजीगत खर्चों के लिए किया गया था और वित्तीय वर्ष 2023-24 में इस राशि में 33 प्रतिशत की राशि की भारी भरकम वृद्धि करते हुए 10 लाख करोड़ रुपए की राशि का प्रावधान पूंजीगत खर्चों के लिए किया गया था। हालांकि, वित्तीय वर्ष 2024-25 के लिए भी 11.11 लाख करोड़ रुपए की राशि का प्रावधान किया गया है जो पिछले वर्ष की तुलना में केवल 11 प्रतिशत ही अधिक है। इस राशि को यदि 33 प्रतिशत तक नहीं बढ़ाया जा सकता है तो इसे कम से कम 25 प्रतिशत की वृद्धि के साथ आगे बढ़ाने के प्रयास होना चाहिए अर्थात वित्तीय वर्ष 2024-25 के लिए 11.11 लाख करोड़ रुपए की राशि के स्थान पर 12.5 लाख करोड़ रुपए की राशि का प्रावधान पूंजीगत खर्चों के लिए किया जाना चाहिए। किसी भी देश की आर्थिक प्रगति को गति देने के लिए पूंजीगत खर्चों में वृद्धि होना बहुत आवश्यक है और फिर भारत ने तो वित्तीय वर्ष 2023-24 में 8 प्रतिशत से अधिक की आर्थिक विकास दर की रफ्तार को पकड़ा ही है। आर्थिक विकास की इस वृद्धि दर को बनाए रखने एवं इसे और अधिक आगे बढ़ाने के लिए पूंजीगत खर्चों में वृद्धि करना ही चाहिए। आर्थिक विकास दर में तेजी के चलते देश में रोजगार के नए अवसर भी अधिक मात्रा में विकसित होते हैं। जिसकी वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारत को बहुत अधिक आवश्यकता भी है। भारत में पिछले 10 वर्षों के दौरान विकास की दर को तेज करने के चलते ही लगभग 25 करोड़ नागरिक गरीबी रेखा के ऊपर उठ पाए हैं एवं करोड़ों नागरिक मध्यवर्ग की श्रेणी में शामिल हुए हैं। अब भारत में गरीबी की दर 8.5 प्रतिशत रह गई है जो वित्तीय वर्ष 2011-12 में 21.1 प्रतिशत थी। गरीबी की रेखा से बाहर आए इन नागरिकों एवं मध्यवर्गीय नागरिकों ने देश में उत्पादों की मांग में वृद्धि करने में अहम भूमिका निभाई है। साथ ही, कर संग्रहण में भी इस वर्ग ने महती भूमिका अदा की है। आज प्रत्यक्ष कर संग्रहण लगभग 25 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज करता हुआ दिखाई दे रहा है तथा वस्तु एवं सेवा कर भी अब औसतन लगभग 1.80 लाख करोड़ रुपए प्रतिमाह से अधिक की राशि के संग्रहण के साथ आगे बढ़ता हुआ दिखाई दे रहा है। साथ ही, भारतीय रिजर्व बैंक ने भी वित्तीय वर्ष 2023-24 के लिए 2 लाख करोड़ से अधिक की राशि का लाभांश केंद्र सरकार को उपलब्ध कराया है तो सरकारी क्षेत्र के बैकों/उपक्रमों ने 5 लाख करोड़ रुपए से अधिक की राशि का लाभ अर्जित कर केंद्र सरकार को भारी भरकम राशि का लाभांश उपलब्ध कराया है, जबकि कुछ वर्ष पूर्व तक केंद्र सरकार को सरकारी क्षेत्र के बैंकों के घाटे की आपूर्ति हेतु इन बैकों को बजट में से भारी भरकम राशि उपलब्ध करानी होती थी। कुल मिलाकर इस आमूल चूल परिवर्तन से केंद्र सरकार के बजटीय घाटे में भारी कमी दृष्टिगोचर हुई है। केंद्र सरकार का बजटीय घाटा कोविड महामारी के दौरान 8 प्रतिशत से अधिक हो गया था जो अब वित्तीय वर्ष 2024-25 में घटकर 5.1 प्रतिशत तक नीचे आने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। इस प्रकार, अब यह सिद्ध हो रहा है कि केंद्र सरकार ने न केवल अपने वित्तीय संसाधनों में वृद्धि करने में सफलता अर्जित की है बल्कि अपने खर्चों को भी नियंत्रित करने में सफलता पाई है। पूंजीगत खर्चों में वृद्धि के साथ ही, केंद्र सरकार द्वारा अपने बजट में मध्यवर्गीय नागरिकों को आय कर की राशि में छूट देने का प्रयास भी वित्तीय वर्ष 2024-25 के बजट में किया जाना चाहिए। क्योंकि, प्रत्यक्ष कर संग्रहण में हो रही भारी भरकम 25 प्रतिशत की वृद्धि इसी वर्ग के प्रयासों के चलते सम्भव हो पा रही है। वैसे, भारतीय आर्थिक दर्शन के अनुसार भी नागरिकों/करदाताओं पर करों का बोझ केवल उतना ही होना चाहिए जितना एक मधुमक्खी किसी फूल से शहद लेती है। मध्यवर्गीय नागरिकों के हाथों में अधिक राशि पहुंचने का सीधा सीधा फायदा अर्थव्यवस्था को ही होता है। मध्यवर्गीय नागरिकों के हाथों में यदि खर्च करने के लिए अधिक राशि पहुंचती है तो वह विभिन्न उत्पादों के उपयोग को बढ़ावा देता है इससे इन उत्पादों की मांग में वृद्धि दर्ज होती है और इन उत्पादों का उत्पादन बढ़ता है। उत्पादन बढ़ने से रोजगार के नए अवसर अर्थव्यवस्था में निर्मित होते हैं एवं कम्पनियों द्वारा विनिर्माण इकाईयों का विस्तार किया जाता है तथा निजी क्षेत्र में भी पूंजीगत निवेश बढ़ता है। कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था के चक्र को बढ़ावा मिलता है जो अंततः देश के कर संग्रहण में भी वृद्धि करने में सहायक होता है। मध्यवर्गीय परिवार के आय कर में कमी करने से बहुत सम्भव है कि भारत में औपचारिक अर्थव्यवस्था को भी बढ़ावा मिले। क्योंकि कई देशों में यह सिद्ध हो चुका है कि कर की राशि को कम रखने से औपचारिक अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलता है इससे कर की दर को कम करने के उपरांत भी कर संग्रहण में वृद्धि होते हुए देखी गई है। ऐसा कहा जाता है कि भारत में अभी भी अनऔपचारिक अर्थव्यवस्था औपचारिक अर्थव्यवस्था के करीब करीब बराबरी पर ही चलती हुए दिखाई देती है। हालांकि केंद्र सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था में आर्थिक व्यवहारों के भारी मात्रा में डिजिटलीकरण करने के उपरांत भारत की अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाने में बहुत मदद मिली है और इसी के चलते ही वस्तु एवं सेवा कर का संग्रहण लगभग 1.80 लाख करोड़ रुपए से अधिक की राशि प्रतिमाह के स्तर पर पहुंच सका है। अतः कुल मिलाकर देश में मध्यवर्गीय परिवारों की संख्या जितनी तेज गति से आगे बढ़ेगी देश का आर्थिक विकास भी उतनी ही तेज गति से आगे बढ़ता हुआ दिखाई देगा। दरअसल, देश में कर संग्रहण में आकर्षक वृद्धि के बाद ही गरीब वर्ग की सहायता के लिए भी विभिन्न योजनाएं सफलता पूर्वक चलाई जा सकेंगी। अतः वित्तीय वर्ष 2024-25 का बजट मध्यवर्गीय परिवारों की संख्या में वृद्धि को ध्यान में रखकर ही बनाया जाना चाहिए। ऐसा कहा भी जाता है कि मध्यवर्गीय परिवार गरीब परिवारों को सहायता उपलब्ध कराने में सदैव आगे रहा है। प्रहलाद सबनानी Read more » Increase in capital expenditure and relief to middle class families should be provided in the budget.
आर्थिकी राजनीति आगामी पांच वर्षों में भारतीय शेयर बाजार का पूंजीकरण हो सकता है दुगना July 4, 2024 / July 4, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment पूरे विश्व में विभिन्न देशों के शेयर (पूंजी) बाजार में निवेश करने के सम्बंध में विदेशी निवेशक संस्थानों को सलाह देने वाले एक बड़े संस्थान मोर्गन स्टैनली ने हाल ही में अनुमान लगाया है कि बहुत सम्भव है कि भारतीय शेयर बाजार का पूंजीकरण आगे आने वाले 5 वर्षों में दुगना हो जाए। आज खुदरा निवेशक, देशी संस्थागत निवेशक, म्यूचूअल फंड, आदि […] Read more » भारतीय शेयर बाजार का पूंजीकरण
आर्थिकी राजनीति प्राचीन भारत में आर्थिक क्षेत्र में अभिशासन का अनुपालन किया जाता रहा है July 1, 2024 / July 1, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment पिछले कुछ वर्षों से निगमित अभिशासन को विभिन्न बैकों एवं कम्पनियों में लागू करने के भरपूर प्रयास किए जा रहे हैं। भारतीय रिजर्व बैंक ने भी इस सम्बंध में विस्तार से दिशा निर्देश जारी किए हैं एवं इन्हें सहकारी क्षेत्र के बैंकों में लागू करने के प्रयास किए जा रहे हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त होने के पश्चात अमेरिका में लागू की गई पूंजीवाद की नीतियों के चलते कम्पनियों को अमेरिकी सरकार द्वारा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापार करने की खुली छूट दी गई थी ताकि अमेरिकी में बिलिनायर नागरिकों की संख्या तेजी से बढ़ाई जा सके ताकि अमेरिका एक विकसित राष्ट्र की श्रेणी में शामिल हो जाय। अमेरिका एवं अन्य देशों में व्यापार को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से अमेरिका में आर्थिक नियमों में भारी छूट दी गई थी। इस छूट का लाभ उठाते हुए कई अमेरिकी कम्पनियों ने अन्य देशों में भी अपने व्यापार का विस्तार करते हुए अपनी कई कम्पनियां इन देशों में स्थापित की और बाद में उन्हें बहुराष्ट्रीय कम्पनियां कहा गया। अमेरिका में स्थापित कम्पनियां दूसरे देशों में स्थापित अपनी सहायक कम्पनियों की अमेरिका में बैठकर देखभाल तो कर नहीं सकती थी अतः उन्होंने अन्य देशों में स्थापित कम्पनियों के बोर्ड में अपने प्रतिनिधि, निदेशक के तौर पर भर्ती किए। इस बोर्ड को चलाने के साथ ही इन देशों में इन कम्पनियों द्वारा व्यापार को विस्तार देने के उद्देश्य से इस सम्बंध में नियमों की रचना की गई, जिन्हें बाद में निगमित अभिशासन का नाम दिया गया। वर्ष 1970 के आसपास अमेरिका में एवं अन्य यूरोपीयन देशों में निगमित अभिशासन के सम्बंध में बहुत शोध कार्य सम्पन्न हुआ एवं निगमित अभिशासन के कई मॉडल एवं सिद्धांत विकसित हुए, जिन्हें भारत में भी लागू करने के प्रयास किए जा रहे हैं। हालांकि भारत में तो प्राचीन काल से ही आर्थिक क्षेत्र में अभिशासन सम्बंधी नियमों का अनुपालन किया जाता रहा है। सनातन संस्कृति में कर्म एवं अर्थ को धर्म से जोड़ा गया है। अतः प्राचीन भारत में धर्म का पालन करते हुए ही आर्थिक गतिविधियां सम्पन्न होती रही हैं। इस प्रकार, आर्थिक क्षेत्र में अभिशासन तो व्यापार में उपयोग होता ही रहा है। ब्रिटिश मूल के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एवं इतिहासकार श्री एंगस मेडिसिन द्वारा सम्पन्न किए के शोध के अनुसार एक ईसवी पूर्व से 1750 ईसवी तक वैश्विक व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 32 प्रतिशत से 48 प्रतिशत के बीच रही है और भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इतने बड़े स्तर पर होने वाले व्यापार में अभिशासन की नीतियों का अनुपालन तो निश्चित रूप से होता ही होगा। परंतु, पश्चिमी देश निगमित अभिशासन को एक नई खोज बता रहे हैं। प्राचीन काल में भारत में आर्थिक क्षेत्र में अभिशासन के अनुपालन का स्तर बहुत उच्च था। एक घटना के माध्यम से इसे सिद्ध भी किया जा सकता है। एक किसान ने एक अन्य किसान से जमीन के टुकड़ा खरीदा। उस किसान ने जब जमीन में खुदाई शुरू की तो उसे खुदाई के दौरान उस जमीन में सोने के सिक्कों से भरा एक घड़ा मिला। इस घड़े को लेकर वह किसान जमीन के विक्रेता किसान के पास पहुंचा और बोला आपसे जो जमीन का टुकड़ा मैंने खरीदा था उसमें सोने के सिक्कों से भरा यह घड़ा मिला है, मैंने तो चूंकि आपसे केवल जमीन खरीदी है अतः इस घड़े पर आपका अधिकार है। विक्रेता किसान ने उस घड़े को लेने से इसलिए इंकार कर दिया कि क्योंकि अब तो वह जमीन मैं आपको बेच चुका हूं अतः अब जो भी वस्तु अथवा पदार्थ इस जमीन से प्राप्त होता है उस पर जमीन के क्रेता अर्थात केवल आपका अधिकार है। दोनों किसानों के बीच जब किसी प्रकार की सुलह नहीं हो सकी तो वे दोनों किसान राजा के महल में अपनी समस्या का हल ढूंढने के लिए पहुंचे। जब वहां भी इस समस्या का हल नहीं निकल सका तो दोनों किसानों ने राजा से प्रार्थना की कि सोने के सिक्कों से भरे इस घड़े को राज्य के खजाने में जमा कर दिया जाय। राजा ने भी उस घड़े को राज्य के खजाने में जमा करने से इंकार कर दिया क्योंकि राज्य के खजाने में तो अभिशासन सम्बंधी नियमों के अनुपालन के अनुसार ही प्राप्त धन को जमा किया जा सकता है और अभिशासन सम्बंधी नियमों में इस प्रकार से प्राप्त धन को खजाने में जमा करने का वर्णन ही नहीं है। इस उच्च स्तर की अभिशासन प्रणाली प्राचीन भारत में लागू थी। अभिशासन को परिभाषित करते हुए कहा जाता है कि यह एक तरीका है, जिसके अनुसार संस्थानों को अभिशासित किया जाता है। यह नियमों, व्यवहारों एवं प्रक्रियाओं की एक प्रणाली है जिसके अनुसार एक व्यवसाय को चलाया, विनियमित एवं नियंत्रित किया जाता है। इसके माध्यम से यह सुनिश्चित किया जाता है कि निर्णय प्रक्रिया स्वच्छ (निष्पक्ष) एवं नैतिक है। इसके माध्यम से यह जानने, संतुलित करने एवं संरक्षित करने का प्रयास किया जाता है कि लम्बी अवधि के लिए हितधारकों के हित सुरक्षित रहें। हितधारकों में शामिल हैं – बैंक के संदर्भ में जमाकर्ता, एवं अन्य कम्पनियों के संदर्भ में ग्राहक, शेयरधारक, कर्मचारी, प्रबंधन, सरकार, भारतीय रिजर्व बैंक, आदि। निगमित अभिशासन सम्बंधी नियमों के अनुपालन की जिम्मेदारी बोर्ड के सदस्यों की मानी जाती है। अच्छे निगमित अभिशासन के गुणों के सम्बंध में कहा जाता है कि बोर्ड द्वारा लिए जाने वाले निर्णयों में निष्पक्षिता एवं पारदर्शिता होनी चाहिए। संस्था में प्रत्येक स्तर पर जवाबदेही एवं जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। बोर्ड के सदस्यों के चुनाव में पारदर्शिता हो एवं बोर्ड के सदस्य पेशेवर होने चाहिए। यदि बैंक के बोर्ड की बात की जाय तो बोर्ड के सदस्य जमाकर्ता के ट्रस्टी के रूप में कार्य करें। ऋण प्रदान करने में पारदर्शिता होनी चाहिए एवं मेरिट आधारित निर्णय होने चाहिए। केंद्र सरकार, भारतीय रिजर्व बैंक एवं प्रधान कार्यालय द्वारा जारी नियमों का अनुपालन सुनिश्चित होना चाहिए। अंकेक्षण प्रणाली, जागरूकता प्रणाली (विजिलन्स सिस्टम), धोखाधड़ी का पता लगाने का तंत्र (फ्राड डिटेक्शन मेकनिजम) मजबूत होना चाहिए। साथ ही, संस्थान में उच्च तकनीकी का उपयोग भी होना चाहिए। निगमित अभिशासन के अंतर्गत बोर्ड की भूमिका के संबंध में भी कहा जाता है कि बोर्ड के सदस्यों में व्यावसायिक कुशलता होना चाहिए। बोर्ड के सदस्यों द्वारा संस्था में स्थापित प्रणाली एवं प्रक्रिया की व्याख्या करनी चाहिए। आंतरिक नियंत्रण प्रणाली की व्याख्या करनी चाहिए। आंतरिक अंकेक्षण प्रणाली की समय समय पर जांच पड़ताल करनी चाहिए। समस्त व्यवसाय सबंधित नियमों का अनुपालन सुनिश्चित करना चाहिए। प्रणाली एवं प्रक्रिया की उचित समय अंतराल पर समीक्षा करनी चाहिए। निगमित अभिशासन के अंतर्गत बोर्ड स्तर की कुछ समितियों का निर्माण भी किया जाना चाहिए। जैसे, अंकेक्षण समिति, नियमों के अनुपालन की जांच करने के सम्बंध में समिति, बड़ी राशि के फ्राड की जांच करने वाली समिति, बोर्ड के सदस्यों का परिश्रमिक तय करने की समिति, जोखिम प्रबंधन समिति, आदि। निगमित अभिशासन के सम्बंध में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा बनाए गए नियमों को कम्पनियों एवं बैकों में लागू किया जाना चाहिए। हालांकि प्राचीन भारत में विशेष रूप से आर्थिक क्षेत्र में अभिशासन का उच्च स्तर रहा है, क्योंकि उस खंडकाल में कर्म एवं अर्थ के कार्य धर्म से जोड़कर किए जाते थे। परंतु, आज की परिस्थितियाँ भिन्न हैं, अतः वर्तमानकाल में भिन्न परिस्थितियों के बीच निगमित अभिसासन के नियमों को विभिन्न संस्थानों में लागू किया ही जाना चाहिए। प्रहलाद सबनानी Read more » प्राचीन भारत में आर्थिक क्षेत्र में अभिशासन का अनुपालन किया जाता रहा है
आर्थिकी राजनीति प्राचीन भारत में आर्थिक क्षेत्र में अभिशासन का अनुपालन किया जाता रहा है June 28, 2024 / June 28, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment पिछले कुछ वर्षों से निगमित अभिशासन को विभिन्न बैकों एवं कम्पनियों में लागू करने के भरपूर प्रयास किए जा रहे हैं। भारतीय रिजर्व बैंक ने भी इस सम्बंध में विस्तार से दिशा निर्देश जारी किए हैं एवं इन्हें सहकारी क्षेत्र के बैंकों में लागू करने के प्रयास किए जा रहे हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त होने के पश्चात अमेरिका में लागू की गई पूंजीवाद की नीतियों के चलते कम्पनियों को अमेरिकी सरकार द्वारा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापार करने की खुली छूट दी गई थी ताकि अमेरिकी में बिलिनायर नागरिकों की संख्या तेजी से बढ़ाई जा सके ताकि अमेरिका एक विकसित राष्ट्र की श्रेणी में शामिल हो जाय। अमेरिका एवं अन्य देशों में व्यापार को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से अमेरिका में आर्थिक नियमों में भारी छूट दी गई थी। इस छूट का लाभ उठाते हुए कई अमेरिकी कम्पनियों ने अन्य देशों में भी अपने व्यापार का विस्तार करते हुए अपनी कई कम्पनियां इन देशों में स्थापित की और बाद में उन्हें बहुराष्ट्रीय कम्पनियां कहा गया। अमेरिका में स्थापित कम्पनियां दूसरे देशों में स्थापित अपनी सहायक कम्पनियों की अमेरिका में बैठकर देखभाल तो कर नहीं सकती थी अतः उन्होंने अन्य देशों में स्थापित कम्पनियों के बोर्ड में अपने प्रतिनिधि, निदेशक के तौर पर भर्ती किए। इस बोर्ड को चलाने के साथ ही इन देशों में इन कम्पनियों द्वारा व्यापार को विस्तार देने के उद्देश्य से इस सम्बंध में नियमों की रचना की गई, जिन्हें बाद में निगमित अभिशासन का नाम दिया गया। वर्ष 1970 के आसपास अमेरिका में एवं अन्य यूरोपीयन देशों में निगमित अभिशासन के सम्बंध में बहुत शोध कार्य सम्पन्न हुआ एवं निगमित अभिशासन के कई मॉडल एवं सिद्धांत विकसित हुए, जिन्हें भारत में भी लागू करने के प्रयास किए जा रहे हैं। हालांकि भारत में तो प्राचीन काल से ही आर्थिक क्षेत्र में अभिशासन सम्बंधी नियमों का अनुपालन किया जाता रहा है। सनातन संस्कृति में कर्म एवं अर्थ को धर्म से जोड़ा गया है। अतः प्राचीन भारत में धर्म का पालन करते हुए ही आर्थिक गतिविधियां सम्पन्न होती रही हैं। इस प्रकार, आर्थिक क्षेत्र में अभिशासन तो व्यापार में उपयोग होता ही रहा है। ब्रिटिश मूल के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एवं इतिहासकार श्री एंगस मेडिसिन द्वारा सम्पन्न किए के शोध के अनुसार एक ईसवी पूर्व से 1750 ईसवी तक वैश्विक व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 32 प्रतिशत से 48 प्रतिशत के बीच रही है और भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इतने बड़े स्तर पर होने वाले व्यापार में अभिशासन की नीतियों का अनुपालन तो निश्चित रूप से होता ही होगा। परंतु, पश्चिमी देश निगमित अभिशासन को एक नई खोज बता रहे हैं। प्राचीन काल में भारत में आर्थिक क्षेत्र में अभिशासन के अनुपालन का स्तर बहुत उच्च था। एक घटना के माध्यम से इसे सिद्ध भी किया जा सकता है। एक किसान ने एक अन्य किसान से जमीन के टुकड़ा खरीदा। उस किसान ने जब जमीन में खुदाई शुरू की तो उसे खुदाई के दौरान उस जमीन में सोने के सिक्कों से भरा एक घड़ा मिला। इस घड़े को लेकर वह किसान जमीन के विक्रेता किसान के पास पहुंचा और बोला आपसे जो जमीन का टुकड़ा मैंने खरीदा था उसमें सोने के सिक्कों से भरा यह घड़ा मिला है, मैंने तो चूंकि आपसे केवल जमीन खरीदी है अतः इस घड़े पर आपका अधिकार है। विक्रेता किसान ने उस घड़े को लेने से इसलिए इंकार कर दिया कि क्योंकि अब तो वह जमीन मैं आपको बेच चुका हूं अतः अब जो भी वस्तु अथवा पदार्थ इस जमीन से प्राप्त होता है उस पर जमीन के क्रेता अर्थात केवल आपका अधिकार है। दोनों किसानों के बीच जब किसी प्रकार की सुलह नहीं हो सकी तो वे दोनों किसान राजा के महल में अपनी समस्या का हल ढूंढने के लिए पहुंचे। जब वहां भी इस समस्या का हल नहीं निकल सका तो दोनों किसानों ने राजा से प्रार्थना की कि सोने के सिक्कों से भरे इस घड़े को राज्य के खजाने में जमा कर दिया जाय। राजा ने भी उस घड़े को राज्य के खजाने में जमा करने से इंकार कर दिया क्योंकि राज्य के खजाने में तो अभिशासन सम्बंधी नियमों के अनुपालन के अनुसार ही प्राप्त धन को जमा किया जा सकता है और अभिशासन सम्बंधी नियमों में इस प्रकार से प्राप्त धन को खजाने में जमा करने का वर्णन ही नहीं है। इस उच्च स्तर की अभिशासन प्रणाली प्राचीन भारत में लागू थी। अभिशासन को परिभाषित करते हुए कहा जाता है कि यह एक तरीका है, जिसके अनुसार संस्थानों को अभिशासित किया जाता है। यह नियमों, व्यवहारों एवं प्रक्रियाओं की एक प्रणाली है जिसके अनुसार एक व्यवसाय को चलाया, विनियमित एवं नियंत्रित किया जाता है। इसके माध्यम से यह सुनिश्चित किया जाता है कि निर्णय प्रक्रिया स्वच्छ (निष्पक्ष) एवं नैतिक है। इसके माध्यम से यह जानने, संतुलित करने एवं संरक्षित करने का प्रयास किया जाता है कि लम्बी अवधि के लिए हितधारकों के हित सुरक्षित रहें। हितधारकों में शामिल हैं – बैंक के संदर्भ में जमाकर्ता, एवं अन्य कम्पनियों के संदर्भ में ग्राहक, शेयरधारक, कर्मचारी, प्रबंधन, सरकार, भारतीय रिजर्व बैंक, आदि। निगमित अभिशासन सम्बंधी नियमों के अनुपालन की जिम्मेदारी बोर्ड के सदस्यों की मानी जाती है। अच्छे निगमित अभिशासन के गुणों के सम्बंध में कहा जाता है कि बोर्ड द्वारा लिए जाने वाले निर्णयों में निष्पक्षिता एवं पारदर्शिता होनी चाहिए। संस्था में प्रत्येक स्तर पर जवाबदेही एवं जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। बोर्ड के सदस्यों के चुनाव में पारदर्शिता हो एवं बोर्ड के सदस्य पेशेवर होने चाहिए। यदि बैंक के बोर्ड की बात की जाय तो बोर्ड के सदस्य जमाकर्ता के ट्रस्टी के रूप में कार्य करें। ऋण प्रदान करने में पारदर्शिता होनी चाहिए एवं मेरिट आधारित निर्णय होने चाहिए। केंद्र सरकार, भारतीय रिजर्व बैंक एवं प्रधान कार्यालय द्वारा जारी नियमों का अनुपालन सुनिश्चित होना चाहिए। अंकेक्षण प्रणाली, जागरूकता प्रणाली (विजिलन्स सिस्टम), धोखाधड़ी का पता लगाने का तंत्र (फ्राड डिटेक्शन मेकनिजम) मजबूत होना चाहिए। साथ ही, संस्थान में उच्च तकनीकी का उपयोग भी होना चाहिए। निगमित अभिशासन के अंतर्गत बोर्ड की भूमिका के संबंध में भी कहा जाता है कि बोर्ड के सदस्यों में व्यावसायिक कुशलता होना चाहिए। बोर्ड के सदस्यों द्वारा संस्था में स्थापित प्रणाली एवं प्रक्रिया की व्याख्या करनी चाहिए। आंतरिक नियंत्रण प्रणाली की व्याख्या करनी चाहिए। आंतरिक अंकेक्षण प्रणाली की समय समय पर जांच पड़ताल करनी चाहिए। समस्त व्यवसाय सबंधित नियमों का अनुपालन सुनिश्चित करना चाहिए। प्रणाली एवं प्रक्रिया की उचित समय अंतराल पर समीक्षा करनी चाहिए। निगमित अभिशासन के अंतर्गत बोर्ड स्तर की कुछ समितियों का निर्माण भी किया जाना चाहिए। जैसे, अंकेक्षण समिति, नियमों के अनुपालन की जांच करने के सम्बंध में समिति, बड़ी राशि के फ्राड की जांच करने वाली समिति, बोर्ड के सदस्यों का परिश्रमिक तय करने की समिति, जोखिम प्रबंधन समिति, आदि। निगमित अभिशासन के सम्बंध में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा बनाए गए नियमों को कम्पनियों एवं बैकों में लागू किया जाना चाहिए। हालांकि प्राचीन भारत में विशेष रूप से आर्थिक क्षेत्र में अभिशासन का उच्च स्तर रहा है, क्योंकि उस खंडकाल में कर्म एवं अर्थ के कार्य धर्म से जोड़कर किए जाते थे। परंतु, आज की परिस्थितियाँ भिन्न हैं, अतः वर्तमानकाल में भिन्न परिस्थितियों के बीच निगमित अभिसासन के नियमों को विभिन्न संस्थानों में लागू किया ही जाना चाहिए। Read more » आर्थिक क्षेत्र में अभिशासन का अनुपालन
आर्थिकी लेख पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पन्न होने वाले खतरों को डॉहेडगेवार ने पहिचान लिया था June 24, 2024 / June 24, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment आज पूरे विश्व में पूंजीवाद की तूती बोल रही है। लगभग समस्त देश अपनी अर्थव्यवस्थाओं को पूंजीवाद के सिद्धांत के आधार पर चला रहे हैं। मुक्त बाजार अथवा मुक्त उद्यम प्रणाली पूंजीवाद का दूसरा नाम है, जो उत्पादक संसाधनों पर निजी स्वामित्व के हक को मानते हुए देश में आर्थिक विकास को गति देने की नीति को अपनाती है। पूंजीवादी सिद्धांत के जनक कहे जाने वाले एडम स्मिथ का कहना था कि अर्थव्यवस्था में अधिक से अधिक धनकुबेर पैदा होने चाहिए, इससे अंततः वह देश विकसित देश की श्रेणी में शामिल हो सकता है। अतः देश में धनकुबेर पैदा करने में शासन द्वारा आर्थिक नीतियों को उद्योगपतियों के हित में बनाया जाना चाहिए। इस सम्बंध में एडम स्मिथ ने “वेल्थ आफ नेशन” नामक सिद्धांत भी प्रतिपादित किया था, जिसमें यह कहा गया था कि बाजार को चलाने में किसी अदृश्य शक्ति की भूमिका होती है। इस अदृश्य शक्ति में शासन की नीतियों को भी शामिल किया जा सकता है। पूंजीवादी सिद्धांत पर आधारित आर्थिक नीतियों को अमेरिका में बहुत उत्साहपूर्वक लागू किया गया था। 1950 के दशक के बाद अमेरिका में इन सिद्धांतों के अनुपालन के पश्चात अमेरिकी अर्थव्यवस्था में विकास दर बहुत तेजी से आगे बढ़ी और शीघ्र ही अमेरिका विकसित देशों की श्रेणी में शामिल हो गया था। हालांकि, इस आर्थिक विकास के परिणामस्वरूप देश में आर्थिक असमानता भी उतनी ही तेज गति से बढ़ती है क्योंकि देश में आर्थिक नीतियों को एक वर्ग विशेष को आगे बढ़ाने की दृष्टि से विकसित किया जाता है, इससे अमीर और अधिक अमीर होते चले जाते हैं एवं गरीब और अधिक गरीब होते चले जाते हैं । विश्व में साम्राज्यवाद का सिद्धांत सबसे पुराना माना जाता है। शक्ति एवं प्रभुत्व बढ़ाने की राज्य की नीति मानी जाती रही है और इसकी समय समय पर वकालत भी की जाती रही है। कुछ क्षेत्रों पर प्रत्यक्ष रूप से अधिग्रहण करके एवं कुछ क्षेत्रों पर राजनैतिक एवं आर्थिक नियंत्रण करके कुछ राज्य अपने वर्चस्व को बढ़ाते रहे हैं। ब्रिटिश शासन ने भी इसी सिद्धांत का अनुसरण करते हुए दुनिया के कई देशों पर अपना राज्य कायम कर लिया था। इस सिद्धांत के अनुपालन से भी जिन राज्यों पर सत्ता स्थापित की जाती है उन राज्यों के नागरिकों को दोयम दर्जे का नागरिक बना लिया जाता है और उनका शोषण किया जाता है। इस शासन प्रणाली में भी गरीब और अधिक गरीब हो जाते हैं और राज्य करने वाले देश के नागरिक शोषित राज्यों के संसाधनों का अति शोषण करते हुए इन्हें अपने हित में उपयोग करते हैं और वे स्वयं अमीर से और अधिक अमीर बनते चले जाते हैं। पूंजीवाद के सिद्धांतों का अनुपालन करने वाले कुछ देशों, विशेष रूप से अमेरिका के विकसित देश हो जाने के पश्चात, ने भी बाद के समय में साम्राज्यवाद का चोला पहिन लिया था। इन पूंजीवादी देशों ने छोटे छोटे गरीब देशों के संसाधनों पर व्यापार के माध्यम से अपना हक जताना प्रारम्भ कर दिया था। शोषण करने वालों के केवल नाम बदल गए थे, क्योंकि राज्यों के स्थान पर अब पूंजीपति इन देशों के नागरिकों एवं संसाधनों का शोषण करने लगे थे। एक तरह से पूंजीवाद स्वयं ही राजा बन बैठा। वैसे भी पूंजीवाद के सिद्धांतों के आधार पर चलने वाली अर्थव्यवस्था में येन केन प्रकारेण लाभ कमाना ही मुख्य लक्ष्य होता है, चाहे इसके लिए किसी वर्ग अथवा देश का शोषण ही क्यों न करना पड़े। एक आर्थिक प्रणाली के रूप में पूंजीवाद की उत्पत्ति 16वीं शताब्दी में मानी जा सकती है। इंग्लैंड में 16वीं से 18वीं शताब्दी तक, कपड़ा उद्योग जैसे बड़े उद्यमों के औद्योगिकीकरण ने एक ऐसी प्रणाली को जन्म दिया जिसमें उत्पादकता बढ़ाने के लिए संचित पूंजी का निवेश किया गया और उद्योगपतियों ने मजदूरों का शोषण प्रारम्भ कर अधिक लाभ अर्जित करना प्रारम्भ किया। इस प्रकार किसी एक व्यक्ति को पूंजीवाद का आविष्कार करने वाला नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि पूर्ववर्ती पूंजीवादी प्रणालियां प्राचीन काल से ही अस्तित्व में थीं। चूंकि पूंजीवादी सिद्धांतों के अनुपालन में कुछ देश तेजी से विकास कर रहे थे एवं कुछ अन्य देशों का अति शोषण हो रहा था और पूंजीवाद एक तरह से विश्व के कई देशों में फैल रहा था अतः पूंजीवाद के साम्राज्यवाद के पद चिन्हों पर आगे बढ़ने के कारण डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने वर्ष 1920 में नागपुर में आहूत किए जाने वाले कांग्रेस के अधिवेशन में प्रस्ताव समिति के सामने एक प्रस्ताव रखने का प्रयास किया था। इस प्रस्ताव में दो विषयों का उल्लेख किया गया था। एक, कांग्रेस को यह वादा करना चाहिए कि वह अंग्रेजों से भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के नीचे कुछ भी स्वीकार नहीं करेगी और दूसरे, पूरे विश्व को पूंजीवादी नीतियों से मुक्ति दिलायी जाएगी। परंतु, दुःख का विषय है कि उस समय के कांग्रेस के नेताओं ने डॉक्टर हेडगेवार के उक्त प्रस्ताव को प्रस्ताव समिति से आगे बढ़ने ही नहीं दिया एवं यह प्रस्ताव कांग्रेस अधिवेशन में भी प्रस्तुत नहीं किया जा सका। इस प्रकार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के परम पूजनीय प्रथम संघचालक डॉक्टर हेडगेवार ने वर्ष 1920 के पूर्व ही पूंजीवाद से उत्पन्न होने वाले खतरों को पहचान लिया था तथा वे पूंजीवाद की आड़ में विश्व में फैल रहे साम्राज्यवादी नीतियों के भी घोर विरोधी थे। साम्राज्यवादी नीतियों के अंतर्गत कुछ पूंजीवादी देश, विश्व के अन्य गरीब देशों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे। ब्रिटेन ने भी भारत पर ईस्ट इंडिया कम्पनी के माध्यम से ही आधिपत्य स्थापित किया था। शुरुआती दौर में तो ब्रिटेन की ईस्ट इंडिया कम्पनी भी भारत में व्यापार करने के उद्देश्य से ही आई थी। परंतु, बाद का खंडकाल गवाह है कि किस प्रकार भारत के संसाधनों का ब्रिटेन के हित में उपयोग किया गया। अति तो तब हुई जब ब्रिटेन ने भारत के हथकरघा उद्योग को ही तबाह कर दिया। भारत में सस्ती दरों पर कपास खरीद कर वे ब्रिटेन ले जाने लगे एवं ब्रिटेन में कपड़ा मिलों की स्थापना की गई ताकि इस कच्चे माल (कपास) से कपड़ों का निर्माण किया जा सके एवं ब्रिटेन में रोजगार के अवसर निर्मित हो सकें। इस कपड़े को वापिस भारत में लाया जाकर भारतीय जनता को उच्च दरों पर बेचा जाने लगा। भारत से कच्चा माल (कपास) ले जाकर, भारत में ही ब्रिटेन में तैयार उत्पाद (कपड़ा) बेचा जाने लगा, अतः भारत को एक बाजार के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा था। पूंजीवाद के नाम पर इस प्रकार की व्यवस्था खड़ी की गई और ब्रिटेन ने स्पष्ट रूप से भारत को लूटा। एक अनुसंधान प्रतिवेदन में यह बताया गया है कि अंग्रेजों ने भारत पर अपने शासनकाल के दौरान लगभग 45 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर की खुली लूट की थी एवं यह धन वह ब्रिटेन में ले गए थे। उस खंडकाल में पूंजीवाद के नाम पर अपनी साम्राज्यवादी नीतियों को लागू कर विकसित देशों ने गरीब देशों पर न केवल अपना शासन स्थापित किया था बल्कि इन गरीब देशों को जमकर लूटा भी गया था। ब्रिटेन के बारे में तो यह भी कहा जाता है उन्होंने अपने साम्राज्य को विश्व के कई देशों में इस प्रकार फैला लिया था कि ब्रिटेन के साम्राज्य का 24 घंटे में कभी सूरज ही नहीं डूबता था। उक्त कारणों के चलते ही परम पूज्य डॉक्टर हेडगेवार ने विश्व के देशों को पूंजीवाद की जकड़ से बाहर निकालने का प्रयास वर्ष 1920 में किया था। प्रहलाद सबनानी Read more »
आर्थिकी राजनीति भारत की सावरेन क्रेडिट रेटिंग को अपग्रेड करने पर हो रहा है विचार June 24, 2024 / June 24, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment वैश्विक स्तर पर विभिन्न देशों की सावरेन क्रेडिट रेटिंग पर कार्य कर रही संस्था स्टैंडर्ड एंड पूअर ने हाल ही में भारतीय अर्थव्यवस्था का आंकलन करते हुए भारत के सम्बंध में अपने दृष्टिकोण को सकारात्मक किया है एवं कहा है कि वह भारत की सावरेन क्रेडिट रेटिंग को अपग्रेड करने के उद्देश्य से भारत के आर्थिक विकास सम्बंधी विभिन्न पैमानों का एवं भारत के राजकोषीय घाटे से सम्बंधित आंकड़ों का लगातार अध्ययन एवं विश्लेषण कर रहा है। यदि उक्त दोनों क्षेत्रों में लगातार सुधार दिखाई देता है तो भारत की सावरेन क्रेडिट रेटिंग को अपग्रेड किया जा सकता है। वर्तमान में भारत की सावरेन क्रेडिट रेटिंग BBB- है, जो निवेश के लिए सबसे कम रेटिंग की श्रेणी में गिनी जाती है। किसी भी देश की सावरेन क्रेडिट रेटिंग को यदि अपग्रेड किया जाता है तो इससे उस देश में विदेशी निवेश बढ़ने लगते हैं क्योंकि निवेशकों का इन देशों में पूंजी निवेश तुलनात्मक रूप से सुरक्षित माना जाता है। साथ ही, अच्छी सावरेन क्रेडिट रेटिंग प्राप्त देशों की कम्पनियों को अन्य देशों में पूंजी उगाहना न केवल आसान होता है बल्कि इस प्रकार लिए जाने वाले ऋण पर ब्याज की राशि भी कम देनी होती है। किसी भी देश की जितनी अच्छी सावरेन क्रेडिट रेटिंग होती है उस देश की कम्पनियों को कम से कम ब्याज दरों पर ऋण उगाहने में आसानी होती है। भारत में हाल ही में केंद्र में नई सरकार के गठन सम्बंधी प्रक्रिया सम्पन्न हो चुकी है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद मोदी सहित केंद्रीय मंत्रीमंडल के समस्त सदस्यों को विभागों का आबंटन भी किया जा चुका है। केंद्र सरकार द्वारा पिछले दस वर्षों के दौरान लिए गए आर्थिक निर्णयों का भरपूर लाभ देश को मिला है। इससे देश के आर्थिक विकास को गति मिली है एवं आज भारत, विश्व में सबसे तेज गति से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था बन गया है। गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले नागरिकों की संख्या में अपार कमी दृष्टिगोचर है। देश में बहुत बड़े स्तर पर वित्तीय समावेशन हुआ है, जनधन योजना के अंतर्गत 50 करोड़ से अधिक बैंक बचत खाते खोले जा चुके हैं एवं इन बचत खातों में आज लगभग 2.50 लाख करोड़ रुपए की राशि जमा है, इस राशि का उपयोग देश के आर्थिक विकास के लिए किया जा रहा है। रोजगार के नए अवसर भारी संख्या में निर्मित हुए हैं। देश में प्रति व्यक्ति आय भी बढ़कर लगभग 2200 अमेरिकी डॉलर प्रतिवर्ष तक पहुंच गई है। देश के कुछ राज्यों में तो किसानों की आय दुगने से भी अधिक हो गई है। भारत में विदेशी निवेश भारी मात्रा में होने लगा है एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपनी विनिर्माण इकाईयों की स्थापना भारत में ही करने लगी हैं। इससे देश में विनिर्माण इकाईयों (उद्योग क्षेत्र) की विकास दर 8-9 प्रतिशत के पास पहुंच गई है। मंदिर की अर्थव्यवस्था एवं लगातार तेज गति से आगे बढ़ रहे धार्मिक पर्यटन के चलते भारत में आर्थिक विकास की दर वित्तीय वर्ष 2023-24 में 8 प्रतिशत से भी अधिक रही है। भारत, अपने आर्थिक विकास की गति को और अधिक तेज करने के उद्देश्य से आधारभूत ढांचें को विकसित करने के लगातार प्रयास कर रहा है। वित्तीय वर्ष 2022-23 के बजट में 7.5 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान देश के आधारभूत ढांचे को विकसित करने हेतु किया गया था, जिसे वित्तीय वर्ष 2023-24 में 33 प्रतिशत से बढ़ाकर 10 लाख करोड़ रुपए कर दिया गया था एवं वित्तीय वर्ष 2024-25 के लिए इसे और अधिक बढ़ाकर 11.11 लाख करोड़ रुपए का कर दिया गया है। आधारभूत ढांचे को विकसित करने से देश में उत्पादकता में सुधार हुआ है एवं विभिन्न उत्पादों की उत्पादन लागत में कमी आई है। जिससे, कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपनी विनिर्माण इकाईयों को भारत में स्थापित करने हेतु आकर्षित हुई हैं। स्टैंडर्ड एंड पूअर का तो यह भी कहना है कि भारत जिस प्रकार की आर्थिक नीतियों को लागू करते हुए आगे बढ़ रहा है और केंद्र में नई सरकार के आने के बाद से अब सम्भावनाएं बढ़ गई हैं कि भारत में आर्थिक सुधार कार्यक्रम बहुत तेजी के साथ किए जाएंगे इससे कुल मिलाकर भारत की आर्थिक विकास दर को लम्बे समय तक 8 प्रतिशत से ऊपर बनाए रखा जा सकता है। भारत ने अपने आर्थिक विकास की गति को तेज रखते हुए अपने राजकोषीय घाटे पर भी नियंत्रण स्थापित कर लिया है। वित्तीय वर्ष 2022-23 में भारत का राजकोषीय घाटा 17 लाख 74 हजार करोड़ रुपए का रहा था जो वित्तीय वर्ष 2023-24 में घटकर 16 लाख 54 हजार करोड़ रुपए का रह गया है। यह राजकोषीय घाटा वित्तीय वर्ष 2022-23 में 5.8 प्रतिशत था जो वित्तीय वर्ष 2023-24 में घटकर 5.6 प्रतिशत रह गया है। भारत के राजकोषीय घाटे को वित्तीय वर्ष 2024-25 में 5.1 प्रतिशत एवं वित्तीय वर्ष 2025-26 में 4.5 प्रतिशत तक नीचे लाने के प्रयास केंद्र सरकार द्वारा सफलता पूर्वक किए जा रहे हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रान्स, जर्मनी जैसे विकसित देश भी अपने राजकोषीय घाटे को कम नहीं कर पा रहे हैं परंतु भारत ने वित्तीय वर्ष 2023-24 के दौरान यह बहुत बड़ी सफलता हासिल की है। सरकार का खर्च उसकी आय से अधिक होने पर इसे राजकोषीय घाटा कहा जाता है। केंद्र सरकार ने खर्च पर नियंत्रण किया है एवं अपनी आय के साधनों में अधिक वृद्धि की है। यह लम्बे समय में देश के आर्थिक स्वास्थ्य की दृष्टि से एक बहुत महत्वपूर्ण तथ्य उभरकर सामने आया है। भारत के कुछ राज्यों (पंजाब, पश्चिम बंगाल, केरल, आदि) में राजकोषीय घाटे को लेकर चिंता व्यक्त की जा रही है, परंतु केंद्र सरकार एवं कुछ अन्य राज्य (उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, तमिलनाडु आदि) जरूर अपने राजकोषीय घाटे को सफलता पूर्वक नियंत्रित कर पा रहे हैं। राजकोषीय घाटा मलेशिया, फिलिपीन, इंडोनेशिया, थाईलैंड, वियतनाम जैसे देशों में 4 प्रतिशत से कम है जबकि भारत में केंद्र सरकार एवं समस्त राज्यों का कुल मिलाकर राजकोषीय घाटा 7.9 प्रतिशत है। उक्त वर्णित समस्त देशों की सावरेन क्रेडिट रेटिंग BBB है जबकि भारत की सावरेन क्रेडिट रेटिंग BBB- है। अतः भारत के कुछ राज्यों को तो अपने राजकोषीय घाटे को कम करने हेतु बहुत मेहनत करने की आवश्यकता है। राजकोषीय घाटे को कम करने में भारत को सफलता इसलिए भी मिली है कि देश 20 से अधिक करों को मिलाकर केवल एक कर प्रणाली, वस्तु एवं सेवा कर प्रणाली, को सफलता पूर्वक लागू किया गया है। आज वस्तु एवं सेवा कर के रूप में भारत को औसत 1.75 लाख करोड़ रुपए की राशि प्रतिमाह अप्रत्यक्ष कर के रूप में प्राप्त हो रही है। साथ ही, प्रत्यक्ष कर के संग्रहण में भी 20 प्रतिशत की भारी भरकम वृद्धि परिलक्षित हुई है। भारत में बैकिंग व्यवस्थाओं के डिजिटलीकरण को ग्रामीण इलाकों तक में लागू करने से भारतीय अर्थव्यवस्था का औपचारीकरण बहुत तेज गति से हुआ है, जिससे प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कर संग्रहण में भारी भरकम वृद्धि हुई है। जबकि केंद्र सरकार एवं कुछ राज्य सरकारों ने अपने गैर योजना खर्च की मदों पर किए जाने वाले व्यय पर नियंत्रण करने में सफलता भी पाई है। इसके कारण राजकोषीय घाटे को लगातार प्रति वर्ष कम करने में सफलता मिलती दिखाई दे रही है। कुल मिलाकर, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न देशों की सावरेन क्रेडिट रेटिंग का आंकलन करने वाले विभिन्न संस्थान भारत की आर्थिक प्रगति को लेकर बहुत उत्साहित हैं एवं आर्थिक प्रगति के साथ साथ राजकोषीय घाटे को कम करते हुए भारत द्वारा जिस प्रकार अपनी वित्त व्यवस्था को नियंत्रण में रखने का काम सफलता पूर्वक किया जा रहा है, इससे यह संस्थान भारत की सावरेन क्रेडिट रेटिंग को अपग्रेड करने हेतु गम्भीरता से विचार करते हुए दिखाई दे रहे हैं। स्टैंडर्ड एंड पूअर ने तो घोषणा भी कर दी है कि आगे आने वाले दो वर्षों तक वह भारत की आर्थिक प्रगति, आधारभूत ढांचे को विकसित करने एवं राजकोषीय घाटे को कम करने सम्बंधी प्रयासों का गम्भीरता से विवेचन कर रहा है और बहुत सम्भव है कि वह आगामी दो वर्षों में भारत की सावरेन क्रेडिट रेटिंग को अपग्रेड कर सकने की स्थिति में आ जाए। Read more » भारत की सावरेन क्रेडिट रेटिंग
आर्थिकी राजनीति भारतीय रिजर्व बैंक को अब ब्याज दरों में कटौती के बारे में गम्भीरता से विचार करना चाहिए June 18, 2024 / June 18, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment भारतीय रिजर्व बैंक ने लगातार 8वीं बार रेपो दर में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं करते हुए इसे 6.50 प्रतिशत पर ही जारी रखा है। हालांकि, हाल ही में, जून 2024 के प्रथम सप्ताह में सम्पन्न हुई मोनेटरी पॉलिसी कमेटी (एमपीसी) की बैठक में दो सदस्यों ने रेपो दर को 25 आधार अंको से […] Read more » Reserve Bank of India should now seriously think about cutting interest rates
आर्थिकी राजनीति भारत सहित विभिन्न देशों के केंद्रीय बैंक बढ़ा रहे है अपने स्वर्ण भंडार June 15, 2024 / June 15, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा विदेशी बैंकों में रखे भारत के 100 टन सोने को ब्रिटेन से वापिस भारत में ले आया गया है। यह सोना भारत ने ब्रिटेन के बैंक में रिजर्व के तौर पर रखा था और इस पर भारत प्रतिवर्ष कुछ फीस भी ब्रिटेन के बैंक को अदा करता रहा है। समस्त देशों के केंद्रीय बैंक अपने यहां सोने के भंडार रखते हैं ताकि इस भंडार के विरुद्ध उस देश में मुद्रा जारी की जा सके (भारत में 308 टन सोने के विरुद्ध रुपए के रूप में मुद्रा जारी की गई है, यह सोने के भंडार भारतीय रिजर्व बैंक के पास जमा हैं) और यदि उस देश की अर्थव्यवस्था में कभी परेशानी खड़ी हो एवं उस देश की मुद्रा का तेजी से अवमूल्यन होने लगे तो इस प्रकार की परेशानियों से बचने के लिए उस देश को अपने स्वर्ण भंडार को अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचना पड़ सकता है। इस कारण से विभिन्न देशों के केंद्रीय बैंक अपने पास स्वर्ण के भंडार रखते हैं। पूरे विश्व में उपलब्ध स्वर्ण भंडार का 17 प्रतिशत हिस्सा विभिन्न देशों के केंद्रीय बैंकों के पास जमा है। भारतीय रिजर्व बैंक के पास भी 822 टन के स्वर्ण भंडार हैं। सुरक्षा की दृष्टि से इसका 50 प्रतिशत से अधिक भाग, अर्थात लगभग 413.8 टन, भारत के बाहर अन्य केंद्रीय बैंकों विशेष रूप से बैंक आफ इंग्लैंड एवं बैंक आफ इंटर्नैशनल सेटल्मेंट के पास रखा गया है। उक्त वर्णित 308 टन के अतिरिक्त 100.3 टन स्वर्ण भंडार भी भारतीय रिजर्व बैंक के पास जमा है। वर्ष 1947 में भारत के राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व ही भारत ने अपने स्वर्ण के भंडार बैंक आफ इंग्लैड में रखे हुए हैं। इसके बाद 1990 के दशक में भी भारत ने अपनी आर्थिक परेशानियों के बीच अपने स्वर्ण भंडार को बैक आफ इंग्लैंड में गिरवी रखकर अमेरिकी डॉलर उधार लिए थे। विभिन्न देशों द्वारा लंदन में स्वर्ण भंडार इसलिए रखे जाते हैं क्योंकि लंदन पूरे विश्व का सबसे बड़ा स्वर्ण बाजार है और यहां स्वर्ण को सुरक्षित रखा जा सकता है। यहां के बैकों द्वारा विभिन्न देशों को स्वर्ण भंडार के विरुद्ध अमेरिकी डॉलर एवं ब्रिटिश पाउंड में आसानी से ऋण प्रदान किया जाता है बल्कि यहां पर स्वर्ण भंडार को आसानी से बेचा भी जा सकता है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वर्ण के कई खरीदार यहां आसानी से उपलब्ध रहते हैं। कुल मिलाकर इंग्लैंड स्वर्ण का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत बड़ा बाजार हैं। लंदन के बाद न्यूयॉर्क को भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वर्ण का एक बड़ा बाजार माना जाता है। भारत को इस स्वर्ण भंडार को सुरक्षित रखने के लिए प्रतिवर्ष फी के रूप में कुछ राशि बैंक आफ इंग्लैंड को अदा करनी होती थी अतः अब भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा 100 टन स्वर्ण भंडार को भारत लाने के बाद इस फी की राशि को अदा करने से भी भारत बच जाएगा। दूसरे अपने यहां स्वर्ण भंडार रखने से भारत के पास सदैव तरलता बनी रहेगी। जब चाहे भारत इस स्वर्ण भंडार का इस्तेमाल स्थानीय अथवा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने हित के लिए कर सकता है। वर्ष 2009 में भारत ने 200 टन का स्वर्ण भंडार अंतरराष्ट्रीय बाजार में 670 करोड़ अमेरिकी डॉलर की राशि अदा कर खरीदा था। 15 वर्ष वर्ष बाद पुनः भारत ने अपने स्वर्ण भंडार में वृद्धि करने का निश्चय किया है। स्वर्ण भंडार सहित आज भारत के विदेशी मुद्रा भंडार 65,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर के उच्चत्तम स्तर पर पहुंच गए हैं और यह भारत के लगभग एक वर्ष के आयात के बराबर की राशि है। अतः अब भारत को अपने स्वर्ण भंडार बेचने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी इसलिए भी भारत ने ब्रिटेन में स्टोर किए गए अपने स्वर्ण भंडार को भारत में वापिस लाने का निर्णय किया है। विश्व में आज विभिन्न देश अपने विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाने के उद्देश्य से अपने पास स्वर्ण के भंडार भी बढ़ाते जा रहे हैं। आज पूरे विश्व में अमेरिका के पास सबसे अधिक 8133 मेट्रिक टन स्वर्ण के भंडार है, इस संदर्भ में जर्मनी, 3352 मेट्रिक टन स्वर्ण भंडार के साथ दूसरे स्थान पर एवं इटली 2451 मेट्रिक टन स्वर्ण भंडार के साथ तीसरे स्थान पर है। फ्रान्स (2437 मेट्रिक टन), रूस (2329 मेट्रिक टन), चीन (2245 मेट्रिक टन), स्विजरलैंड (1040 मेट्रिक टन) एवं जापान (846 मेट्रिक टन) के बाद भारत, 812 मेट्रिक टन स्वर्ण भंडार के साथ विश्व में 9वें स्थान पर है। भारत ने हाल ही के समय में अपने स्वर्ण भंडार में वृद्धि करना प्रारम्भ किया है एवं यूनाइटेड अरब अमीरात से 200 मेट्रिक टन स्वर्ण भारतीय रुपए में खरीदा था। हाल ही के समय में चीन का केंद्रीय बैंक भारी मात्रा में अंतरराष्ट्रीय बाजार में स्वर्ण की खरीद कर रहा है। कुछ अन्य देशों के केंद्रीय बैंक भी अपने स्वर्ण भंडार में वृद्धि करने में लगे हैं। इसके चलते अंतरराष्ट्रीय बाजार में स्वर्ण के दामों में बहुत अधिक वृद्धि देखने में आई है और यह 2400 अमेरिकी डॉलर प्रति आउंस तक पहुंच गई है। कई देश संभवत: अपने विदेशी मुद्रा के भंडार में अमेरिकी डॉलर की तुलना में स्वर्ण भंडार को अधिक महत्व दे रहे हैं, क्योंकि अमेरिकी डॉलर पर अधिक निर्भरता से कई देशों को आर्थिक नुक्सान झेलना पड़ रहा है। यदि अमेरिकी डॉलर अंतरराष्ट्रीय बाजार में मजबूत हो रहा हो तो उस देश की मुद्रा का अवमूल्यन होने लगता है। इससे उस देश में वस्तुओं का आयात महंगा होने लगता है और उस देश में मुद्रा स्फीति के बढ़ने का खतरा बढ़ जाता है। इन विपरीत परिस्थितियों में घिरे देश के लिए स्वर्ण भंडार बचाव का काम करते हैं। इसलिए आज लगभग प्रत्येक देश के केंद्रीय बैंक अपने स्वर्ण भंडार को बढ़ाने के बारे में विचार करते हुए नजर आ रहे हैं। प्रहलाद सबनानी Read more » Central banks of various countries including India are increasing their gold reserves.
आर्थिकी राजनीति अधिक ऋण के बोझ तले वैश्विक अर्थव्यवस्था कहीं चरमरा तो नहीं जाएगी June 14, 2024 / June 14, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment विश्व के समस्त नागरिकों एवं विभिन्न संस्थानों पर लगभग 320 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का ऋण है। कुल ऋण की उक्त राशि में विभिन्न देशों की सरकारों के ऋण एवं नागरिकों के व्यक्तिगत ऋण भी शामिल है। कई देशों को मुद्रा स्फीति पर नियंत्रण पाने में बहुत कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है। साथ ही, विकास करने का दबाव विभिन्न देशों की सरकारों पर है अतः सरकारों के साथ साथ व्यक्ति भी बहुत अधिक मात्रा में ऋण ले रहे हैं। परंतु, कितना ऋण प्रत्येक व्यक्ति अथवा सरकार पर होना चाहिए, इस विषय पर भी अब गम्भीरता से विचार किए जाने की आवश्यकता है। आज विश्व की कुल जनसंख्या 810 करोड़ है और विश्व पर कुल ऋण की राशि 320 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है इस प्रकार औसत रूप से विश्व के प्रत्येक नागरिक पर 39,000 अमेरिकी डॉलर का ऋण बक़ाया है। 320 लाख करोड़ रुपए के ऋण की राशि में विभिन्न देशों की सरकारों द्वारा लिया गया ऋण, व्यापार एवं उद्योग द्वारा लिया गया ऋण एवं व्यक्तियों द्वारा लिया गया ऋण शामिल है। पूरे विश्व में परिवारों/व्यक्तियों द्वारा 59 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का ऋण लिया गया है। व्यापार एवं उद्योग द्वारा 164 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का ऋण लिया गया है। साथ ही, सरकारों द्वारा 97 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का ऋण लिया गया है, ऋण की इस राशि में एक तिहाई हिस्सा विकासशील देशों की सरकारों द्वारा लिया गया ऋण भी शामिल है। सरकारों द्वारा लिए गए ऋण की राशि पर प्रतिवर्ष 84,700 करोड़ अमेरिकी डॉलर का ब्याज का भुगतान किया जाता है। विश्व में प्रत्येक 3 देशों में से 1 देश द्वारा कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च की गई राशि से अधिक राशि ऋण पर ब्याज के रूप में खर्च की जाती है। आकार में छोटी अर्थव्यवस्थाओं के लिए अधिक ऋण लेना सदैव ही बहुत जोखिमभरा निर्णय रहता आया है। पूरे विश्व में सकल घरेलू उत्पाद का आकार 109 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का है जबकि ऋणराशि का आकार 320 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का है। इस प्रकार, एक तरह से आय की तुलना में खर्च की जा रही राशि बहुत अधिक है। इसे संतुलित किया जाना अब अति आवश्यक हो गया है अन्यथा कुछ ही समय में पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था चरमरा सकती है। पूरे विश्व में लिए गए भारी भरकम राशि के ऋण के चलते अमीर वर्ग अधिक अमीर होता चला जा रहा है एवं गरीब वर्ग और अधिक गरीब होता चला जा रहा है, क्योंकि अमीर वर्ग ऋण का उपयोग अपने लाभ का लिए कर पा रहा है एवं इस ऋण राशि से अपनी सम्पत्ति में वृद्धि करने में सफल हो रहा है। जबकि, गरीब वर्ग इस ऋण की राशि का उपयोग अपनी देनंदिनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु करता है और ऋण के जाल में फंसता चला जाता है। इसके साथ ही, हालांकि विश्व में दो विश्व युद्ध हो चुके हैं, वर्तमान में भी रूस यूक्रेन युद्ध एवं इजराईल हमास युद्ध चल ही रहा है। परंतु, फिर भी इस सबका असर अमीर वर्ग पर नहीं के बराबर हो रहा है। हां, गरीब वर्ग जरूर और अधिक गरीब होता जा रहा हैं क्योंकि विश्व के कई देशों में, ब्याज दरों में लगातार की जा रही बढ़ौतरी के बाद भी, मुद्रा स्फीति नियंत्रण में नहीं आ पा रही है। मुद्रा स्फीति का सबसे अधिक बुरा प्रभाव गरीब वर्ग पर ही पड़ता है। अमीर वर्ग (जिनकी सम्पत्ति 2 करोड़ 28 लाख अमेरिकी डॉलर से अधिक है), इनकी संख्या वर्ष 2023 में 5.1 प्रतिशत से बढ़ गई है और इनकी कुल सम्पत्ति 86.8 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर हो गई है और यह भी 5 प्रतिशत की दर से बढ़ गई है। वर्ष 2020 के बाद से विश्व के 5 सबसे अधिक अमीर व्यक्तियों की संपत्ति दुगुनी हो गई है। साथ ही, वर्ष 2020 के बाद से विश्व के बिलिनायर की सम्पत्ति 3 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर से बढ़ गई है। इन कारणों के चलते अमीर और गरीब के बीच की खाई बढ़ती जा रही है। जिस रफ्तार से विश्व में गरीबी कम हो रही है, इससे ध्यान में आता है कि इस धरा से गरीबी को हटाने में अभी 229 वर्ष का समय लगेगा। जैसे जैसे विश्व में विकास की दर तेज हो रही है अमीर व्यक्ति अधिक अमीर होते जा रहे हैं एवं गरीब व्यक्ति अधिक गरीब होते जा रहे हैं। आज से पहिले विश्व में कभी भी इतने अधिक अमीर नागरिक नहीं रहे हैं। वैश्विक स्तर पर उक्त वर्णित ऋण सम्बंधी भयावह आंकड़ों के बीच अन्य विकसित देशों की तुलना में भारत की स्थिति नियंत्रण में नजर आती है। वैसे भी, ऋण का उपयोग यदि उत्पादक कार्यों के लिए किया जाता है एवं इससे यदि धन अर्जित किया जाता है तो बैकों से ऋण लेना कोई बुरी बात नहीं है। बल्कि, इससे तो व्यापार को विस्तार देने में आसानी होती है और पूंजी की कमी महसूस नहीं होती है। साथ ही, भारतीय नागरिक तो वैसे भी सनातन संस्कृति के अनुपालन को सुनिश्चित करते हुए अपने ऋण की किश्तों का भुगतान समय पर करते नजर आते हैं इससे भारतीय बैकों की अनुत्पादक आस्तियों में कमी दृष्टिगोचर हो रही है। भारत के बैकों की ऋण राशि में हो रही अतुलनीय वृद्धि के बावजूद, भारत में ऋण:सकल घरेलू उत्पाद अनुपात अन्य विकसित देशों की तुलना में अभी भी बहुत कम है। हालांकि यह वर्ष 2020 में 88.53 प्रतिशत तक पहुंच गया था, क्योंकि पूरे विश्व में ही कोरोना महामारी के चलते आर्थिक व्यवस्था चरमरा गई थी। परंतु, इसके बाद के वर्षों में भारत के ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात में लगातार सुधार दृष्टिगोचर है और यह वर्ष 2021 में 83.75 प्रतिशत एवं वर्ष 2022 में 81.02 प्रतिशत के स्तर पर नीचे आ गया है। साथ ही, भारत के ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात के वर्ष 2028 में 80.5 प्रतिशत के निचले स्तर पर आने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। यदि अन्य देशों के ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात की तुलना भारत के ऋण सकल घरेलू उत्पाद अनुपात के साथ की जाय तो इसमें भारत की स्थिति बहुत सुदृढ़ दिखाई दे रही है। पूरे विश्व में सबसे अधिक ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात जापान में है और यह 255 प्रतिशत के स्तर को पार कर गया है। इसी प्रकार यह अनुपात सिंगापुर में 168 प्रतिशत है, इटली में 144 प्रतिशत, अमेरिका में 123 प्रतिशत, फ्रान्स में 110 प्रतिशत, कनाडा में 106 प्रतिशत, ब्रिटेन में 104 प्रतिशत एवं चीन में भी भारी भरकम 250 प्रतिशत के स्तर के आसपास बताया जा रहा है। अर्थात, विश्व के लगभग समस्त विकसित देशों में ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात 100 प्रतिशत के ऊपर ही है। भारत में इस अनुपात का 81 प्रतिशत के आसपास रहना संतोष का विषय माना जा सकता है। हाल ही के समय में भारत में विनिर्माण इकाईयों की उत्पादन क्षमता का उपयोग बहुत तेजी से बढ़ा है, वित्तीय वर्ष 2022-23 के चौथी तिमाही में विनिर्माण इकाईयों द्वारा अपनी उत्पादन क्षमता का 76.3 प्रतिशत उपयोग किया जा रहा था, जिसके कारण उद्योग जगत को ऋण की अधिक आवश्यकता महसूस हो रही है। बढ़े हुए ऋण की आवश्यकता की पूर्ति भारतीय बैंकें आसानी से करने में सफल रही हैं। यह तथ्य इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि विकसित देशों में भी प्रायः यह देखा गया है कि बैंकों द्वारा प्रदत्त ऋण में वृद्धि के साथ उस देश के सकल घरेलू उत्पाद में भी तेज गति से वृद्धि दृष्टिगोचर हुई है। भारत में भी अब यह तथ्य परिलक्षित होता दिखाई दे रहा है। भारत में आर्थिक गतिविधियों में आ रही तेजी के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था में भी ऋण की मांग लगातार बढ़ रही है। फिर भी, भारत में कोरपोरेट को प्रदत ऋण का सकल घरेलू उत्पाद से प्रतिशत वर्ष 2015 के 65 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2023 में 50 प्रतिशत हो गया है। इसका आशय यह है कि इस दौरान कोरपोरेट ने अपने ऋण का भुगतान किया है एवं उन्होंने सम्भवत: अपनी लाभप्रदता में वृद्धि दर्ज करते हुए अपने लाभ का पूंजी के रूप में पुनर्निवेश किया है। दूसरे, भारत में विभिन्न बैंकों द्वारा प्रदत्त लम्बी अवधि के ऋण सामान्यतः आस्तियां उत्पन्न करने में सफल रहे हैं, जैसे गृह निर्माण हेतु ऋण अथवा वाहन हेतु ऋण, आदि। इस प्रकार के ऋणों के भविष्य में डूबने की सम्भावना बहुत कम रहती है। बैकों द्वारा खुदरा क्षेत्र में प्रदत्त ऋणों में से 10 प्रतिशत से भी कम ऋण ही प्रतिभूति रहित दिए गए हैं जैसे सरकारी कर्मचारियों को पर्सनल (व्यक्तिगत) ऋण, आदि। पर्सनल ऋण प्रतिभूति रहित जरूर दिए गए हैं परंतु चूंकि यह सरकारी कर्मचारियों सहित नौकरी पेशा नागरिकों को दिए गए हैं, जिनकी मासिक किश्तें समय पर अदा की जाती हैं, अतः इनके भी डूबने की सम्भावना बहुत ही कम रहती है। इस प्रकार, यह कहा जा सकता है कि भारत में अब बैकों द्वारा ऋण सम्बंधी व्यवसाय बहुत सुरक्षित तरीके से किया जा रहा है। इसी कारण से हाल ही के समय में यह पाया गया है कि भारतीय बैंकों की अनुत्पादक आस्तियों की वृद्धि पर अंकुश लगा है। यह भी संतोष का विषय है कि हाल ही के समय में भारतीय बैकों से प्रथम बार ऋण लेने वाले नागरिकों की संख्या में भी वृद्धि दर्ज की गई है। इसका आशय यह है कि भारतीय नागरिक जो अक्सर बैकों से ऋण लेने से बचते रहे हैं वे अब बैकों से ऋण लेने के लिए प्रोत्साहित हो रहे हैं क्योंकि इस बीच बैंकों द्वारा प्रदान किए जा रहे ऋण सम्बंधी शर्तों को आसान बनाया गया है। कुल मिलाकर भारत के संदर्भ में यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए कि भारतीय नागरिकों में सनातन संस्कृति के संस्कार होने के कारण बैकों से ऋण के रूप में उधार ली गई राशि का समय पर भुगतान किया जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया की तरह माना जाता है, जिसके कारण भारतीय बैंकों के अनुत्पादक आस्तियों की राशि अन्य देशों की बैंकों की तुलना में कम हो रही है। अतः वैश्विक स्तर पर गम्भीर होती ऋण सम्बंधी समस्या का असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर सीधे सीधे पड़ता दिखाई नहीं दे रहा है। Read more » The global economy will not collapse under the burden of excess debt.
आर्थिकी लेख आर्थिक विकास के दृष्टि से वित्तीय वर्ष 2023-24 भारत के लिए महत्वपूर्ण साबित हुआ June 10, 2024 / June 10, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment हाल ही में वित्तीय वर्ष 2023-24 के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था में हुए विकास से सम्बंधित आंकड़े जारी किये गए है। इसके अनुसार वित्तीय वर्ष 2023-24 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 8.2 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है जबकि वित्तीय वर्ष 2022-23 में भारत की आर्थिक विकास दर 7 प्रतिशत की रही थी। भारतीय रिजर्व बैंक एवं वैश्विक स्तर पर कार्यरत विभिन्न वित्तीय संस्थानों ने वित्तीय वर्ष 2023-24 में भारत की आर्थिक विकास दर का अनुमान लगाते हुए कहा था कि यह 7 प्रतिशत के आसपास रहेगी। परंतु, वित्तीय 2023-24 के दौरान भारत की आर्थिक विकास दर इन अनुमानों से कहीं अधिक रही है। वित्तीय वर्ष 2023-24 की चौथी तिमाही में भी भारत की आर्थिक विकास दर 7.8 प्रतिशत रही है जो पिछले वित्तीय वर्ष की चौथी तिमाही में 6.1 प्रतिशत रही थी। पूरे विश्व में प्रथम 10 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की आर्थिक विकास दर भारत की आर्थिक विकास दर के कहीं आसपास भी नहीं रही है। अमेरिका की आर्थिक विकास दर 2.3 प्रतिशत, चीन की आर्थिक विकास दर 5.2 प्रतिशत, जर्मनी की आर्थिक विकास दर तो ऋणात्मक 0.3 प्रतिशत रही है। जापान की आर्थिक विकास दर 1.92 प्रतिशत, ब्रिटेन की 0.1 प्रतिशत, फ्रान्स की 0.9 प्रतिशत, ब्राजील की 2.91 प्रतिशत, इटली की 0.9 प्रतिशत एवं कनाडा की 1 प्रतिशत रही है, वहीं भारत की आर्थिक विकास दर 8.2 प्रतिशत रही है। 8 प्रतिशत से अधिक की विकास दर को देखते हुए अब तो ऐसी सम्भावना व्यक्त की जा रही है कि वर्ष 2027 तक जर्मनी एवं जापान की अर्थव्यवस्थाओं को पीछे छोड़ते हुए भारत विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था निश्चित ही बन जाएगा। विनिर्माण, खनन, भवन निर्माण एवं सेवा क्षेत्र, यह चार क्षेत्र ऐसे हैं जो भारत के सकल घरेलू उत्पाद को तेजी से आगे बढ़ाने में अपना विशेष योगदान देते हुए नजर आ रहे हैं। यह स्पष्ट रूप से केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियों के चलते ही सम्भव हो पा रहा है। वास्तविक सकल मान अभिवृद्धि के आधार पर, वित्तीय वर्ष 2023-24 की चतुर्थ तिमाही में विनिर्माण के क्षेत्र में 8.9 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है जबकि वित्तीय वर्ष 2022-23 की इसी अवधि में केवल 0.9 प्रतिशत की वृद्धि दर हासिल की जा सकी थी। इसी प्रकार, खनन के क्षेत्र में भी इस वर्ष की चतुर्थ तिमाही में वृद्धि दर 4.3 प्रतिशत की रही है जो पिछले वर्ष इसी अवधि में 2.9 प्रतिशत की रही थी। भवन निर्माण के क्षेत्र में 8.7 प्रतिशत की वृद्धि दर हासिल की गई है जो पिछले वर्ष इसी अवधि में 7.4 प्रतिशत की रही थी। नागरिक प्रशासन, सुरक्षा एवं अन्य सेवाओं के क्षेत्र में वृद्धि दर 4.7 प्रतिशत से बढ़कर 7.8 प्रतिशत हो गई है। ऊर्जा उत्पादन क्षेत्र में वृद्धि दर पिछले वर्ष की चौथी तिमाही में 7.3 प्रतिशत से बढ़कर इस वर्ष चौथी तिमाही में 7.7 प्रतिशत पर पहुंच गई है। परंतु, कृषि, सेवा एवं वित्तीय क्षेत्र में वित्तीय वर्ष 2023-24 की चौथी तिमाही में वृद्धि दर पिछले वर्ष की इसी तिमाही की तुलना में कुछ कम रही है। वैश्विक स्तर पर अन्य देशों के सकल घरेलू उत्पाद में लगातार कम हो रही वृद्धि दर के बावजूद भारत के सकल घरेलू उत्पाद में तेज गति से वृद्धि दर का होना यह दर्शाता है कि अन्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं में आ रही परेशानियों का असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर नहीं के बराबर हो रहा है एवं भारतीय अर्थव्यवस्था अपनी आंतरिक शक्ति के बल पर तेज गति से आर्थिक वृद्धि करने में सफल हो रही है। परंतु, भारत में कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जिन पर, आर्थिक विकास की गति को और अधिक तेज करने के उद्देश्य से विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। जैसे, हाल ही के समय में भारत में निजी खपत नहीं बढ़ पा रही है और यह 4 प्रतिशत की दर पर ही टिकी हुई है। साथ ही, निजी क्षेत्र में पूंजी निवेश भी नहीं बढ़ पा रहा है। भारत में निजी खपत कुल सकल घरेलू उत्पाद का 60 प्रतिशत है। यदि सकल घरेलू उत्पाद के इतने बड़े हिस्से में वृद्धि नहीं होगी अथवा कम वृद्धि दर होगी तो देश में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर भी विपरीत रूप से प्रभावित होगी। भारत में निजी खपत इसलिए भी नहीं बढ़ पा रही है क्योंकि वित्तीय वर्ष 2022-23 में घरेलू देयताएं सकल घरेलू उत्पाद के 5.7 प्रतिशत के उच्चत्तम स्तर पर पहुंच गईं हैं एवं बचत की दर भी सकल घरेलू उत्पाद के 5.2 प्रतिशत पर अपने निचले स्तर पर आ गई है, जो 10 वर्ष पूर्व 7 प्रतिशत से अधिक थी। वहीं दूसरी ओर, दिसम्बर 2023 के प्रथम सप्ताह में भारत ने फ्रान्स एवं ब्रिटेन को पीछे छोड़ते हुए शेयर बाजार के पूंजीकरण के मामले में पूरे विश्व में पांचवा स्थान हासिल कर लिया था। भारत से आगे केवल अमेरिका, चीन, जापान एवं हांगकांग थे। परंतु, केवल दो माह से भी कम समय में भारत ने शेयर बाजार के पूंजीकरण के मामले में हांगकांग को पीछे छोड़ते हुए विश्व में चौथा स्थान प्राप्त कर लिया है। भारतीय शेयर बाजार का पूंजीकरण 4.35 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर से भी अधिक का हो गया है। अब ऐसा आभास होने लगा है कि भारत अर्थ के क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करता हुआ दिखाई दे रहा है। भारत में नैशनल स्टॉक एक्स्चेंज पर लिस्टेड समस्त कम्पनियों के कुल बाजार पूंजीकरण का स्तर 2 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर पर जुलाई 2017 में पहुंचा था और लगभग 4 वर्ष पश्चात अर्थात मई 2021 में 3 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर को पार कर गया था तथा केवल लगभग 2.5 वर्ष पश्चात अर्थात दिसम्बर 2023 में यह 4 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर को भी पार कर गया था और अब यह 4.35 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर से भी आगे निकल गया है। इस प्रकार भारत शेयर बाजार पूंजीकरण के मामले में आज पूरे विश्व में चौथे स्थान पर आ गया है। प्रथम स्थान पर अमेरिकी शेयर बाजार है, जिसका पूंजीकरण 50.86 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर से अधिक है। द्वितीय स्थान पर चीन का शेयर बाजार है जिसका पूंजीकरण 8.44 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर से अधिक है। वर्ष 2023 में चीन के शेयर बाजार ने अपने निवेशकों को ऋणात्मक प्रतिफल दिए हैं। तीसरे स्थान पर जापान का शेयर बाजार है जिसका पूंजीकरण 6.36 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर से अधिक है। चौथे स्थान पर भारत का शेयर बाजार है जिसका पूंजीकरण 4.35 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर से अधिक है। पांचवे स्थान पर हांगकांग का शेयर बाजार है जिसका पूंजीकरण 4.29 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है। जिस तेज गति से भारतीय शेयर बाजार का पूंजीकरण आगे बढ़ रहा है, अब ऐसी उम्मीद की जा रही है कि कुछ समय पश्चात ही भारतीय शेयर बाजार का पूंजीकरण जापान शेयर बाजार के पूंजीकरण को पीछे छोड़ते हुए पूरे विश्व में तीसरे स्थान पर आ जाएगा। उक्त सफलताओं के साथ ही, भारत ने अपने आर्थिक विकास की दर को तेज रखते हुए अपने राजकोषीय घाटे पर भी नियंत्रण स्थापित कर लिया है। वित्तीय वर्ष 2022-23 में भारत का राजकोषीय घाटा 17 लाख 74 हजार करोड़ रुपए का रहा था जो वित्तीय वर्ष 2023-24 में घटकर 16 लाख 54 हजार करोड़ रुपए का रह गया है। यह राजकोषीय घाटा वित्तीय वर्ष 2022-23 में 5.8 प्रतिशत था जो वित्तीय वर्ष 2023-24 में घटकर 5.6 प्रतिशत रह गया है। भारत के राजकोषीय घाटे को वित्तीय वर्ष 2024-25 में 5.1 प्रतिशत एवं वित्तीय वर्ष 2025-26 में 4.5 प्रतिशत तक नीचे लाने के प्रयास केंद्र सरकार द्वारा सफलता पूर्वक किए जा रहे हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रान्स, जर्मनी जैसे विकसित देश भी अपने राजकोषीय घाटे को कम नहीं कर पा रहे हैं परंतु भारत ने वित्तीय वर्ष 2023-24 के दौरान यह बहुत बड़ी सफलता हासिल की है। सरकार का खर्च उसकी आय से अधिक होने पर इसे राजकोषीय घाटा कहा जाता है। केंद्र सरकार ने खर्च पर नियंत्रण किया है एवं अपनी आय के साधनों में अधिक वृद्धि की है। यह लम्बे समय में देश के आर्थिक स्वास्थ्य की दृष्टि से एक बहुत महत्वपूर्ण तथ्य उभरकर सामने आया है। प्रहलाद सबनानी Read more » The financial year 2023-24 proved to be important for India in terms of economic growth.