कविता कविता / स्रष्टा की भूल April 19, 2011 / December 13, 2011 by आर. सिंह | Leave a Comment भगवन, क्यों बनाया तुमने मुझको आदमी ? क्या किया मैंने बनकर आदमी ? क्या क्या सपने देखे थे भगवन ने ? मेरे शैशव काल में. सृष्टि का नियामत था मैं. स्रष्टा का गर्व था मैं. कितने प्रसन्न थे तुम] जिस दिन बनाया था तुमने मुझे. सोचा था तुमने] तुम्हारा ही रूप बनूंगा मैं] प्रशस्त करुंगा […] Read more »
कविता कविता/ वतन छोड़ परदेस को भागते April 13, 2011 / December 14, 2011 by प्रवक्ता ब्यूरो | 3 Comments on कविता/ वतन छोड़ परदेस को भागते देश पूछेगा हमसे कभी न कभी, जब थी मजबूरियाँ, उसने पाला हमें हम थे कमज़ोर जब, तो सम्भाला हमें परवरिश की हमारी बड़े ध्यान से हम थे बिखरे तो सांचे में ढाला हमें बन गए हम जो काबिल तो मुंह खोल कर कोसने लग गए क्यों इसी देश को? देश के धन का, सुविधा का […] Read more »
कविता निगाहें April 13, 2011 / December 14, 2011 by अंकुर विजयवर्गीय | 1 Comment on निगाहें स्टेशन की सीढियां चढ़ते हुए हर रोज़ रास्ता रोक लेती हैं कुछ निगाहें अजीब से सवाल करती हैं और मैं नज़रें बचाते हुए हर बार की तरह आगे बढ़ जाता हूं ऐसा लगता है जैसे एक बार फिर ईमान गिरवी रख कर भी अपना सब कुछ बेच आया हूं और किसलिए चंद सिक्कों की खातिर […] Read more »
कविता आर. सिंह की कविता/ नाली के कीडे़ April 2, 2011 / December 14, 2011 by आर. सिंह | 6 Comments on आर. सिंह की कविता/ नाली के कीडे़ भोर की बेला थी लालिमा से ओत प्रोत हो रहा था धरती और आकाश और मैं टहल रहा था उपवन में हृदय था प्रफुल्लित स्वप्न संसार में भटकता हुआ आ जा रहे थे एक से एक विचार टूटी शृंखला विचारों की जब मैं बाहर आया उपवन के दो घंटों बाद देखा मेरा बेटा सुकोमल छोटा […] Read more »
कविता कविता/ मैं भावनाओं में बह गया था April 2, 2011 / December 14, 2011 by लक्ष्मी नारायण लहरे कोसीर पत्रकार | 6 Comments on कविता/ मैं भावनाओं में बह गया था मैं भावनाओं में बह गया था मुझे नहीं मालूम ऊंच -नीच मेरे पास पढाई की डिग्री नहीं है मैं अनपढ़ हूँ मुझे क्या पता यहाँ डिग्री की जरुरत होती है मैं अनपढ़ हूँ डिग्री धारी होता तो गरीबों का पेट काटता , खून चूसता देश को गर्त में ले जाता बड़े -बड़े घोटाले और मजलूमों […] Read more »
कविता वो भोली गांवली March 26, 2011 / December 14, 2011 by लक्ष्मी नारायण लहरे कोसीर पत्रकार | 2 Comments on वो भोली गांवली जलती हुई दीप बुझने को ब्याकुल है लालिमा कुछ मद्धम सी पड़ गई है आँखों में अँधेरा सा छाने लगा है उनकी मीठी हंसी गुनगुनाने की आवाज बंद कमरे में कुछ प्रश्न लिए लांघना चाहती है कुछ बोलना चाहती है संम्भावना ! एक नव स्वपन की मन में संजोये अंधेरे को चीरते हुए , मन […] Read more »
कविता देवों से वंदन पाना …………. March 26, 2011 / December 14, 2011 by शैलेन्द्र सक्सेना "अध्यात्म" | 3 Comments on देवों से वंदन पाना …………. देवों से वंदन पाना …………. अब होते अत्याचारों पर मिलकर ये हुँकार भरो कहाँ छिपे हो घर मैं बेठे निकलो और संहार करो आतंकी अफजल , कसाब को और नहीं जीने दो अब घुस जाओ जेलों मैं मित्रो आओ मिलकर वार करो कोन है हिटलर ? कोन है हुस्नी ? किसका नाम है गद्दाफी ? […] Read more »
कविता जिन्दगी की कहानी March 24, 2011 / December 14, 2011 by उमेश कुमार यादव | 4 Comments on जिन्दगी की कहानी जिन्दगी की कहानी जिन्दगी के रंग में जिन्दगी के संग में उमेश कुमार यादव नये नये ढंग में नये नये रुप में संगी मिलते रहे मौसम खीलते रहे मौसमों के खेल में जिन्दगी गुज़र गई संवर जाये जिन्दगी इस होड़ में लगे रहे जिन्दगी सम्भली नहीं और जिन्दगी निकल गई । जिन्दगी की आस में […] Read more »
कविता जनकवि मनमोहन की 6 कविताएं March 21, 2011 / December 14, 2011 by जगदीश्वर चतुर्वेदी | 1 Comment on जनकवि मनमोहन की 6 कविताएं जिन्होंने मरने से इन्कार किया जिन्होंने मरने से इन्कार किया जिन्होंने मरने से इन्कार किया और जिन्हें मार कर गाड़ दिया गया वे मौका लगते ही चुपके से लौट आते हैं और ख़ामोशी से हमारे कामों में शरीक हो जाते हैं कभी-कभी तो हम घंटों बातें करते हैं या साथ साथ रोते हैं खा खाकर […] Read more »
कविता मिली कुंए में भांग आज फिर होली में March 18, 2011 / December 14, 2011 by पंडित सुरेश नीरव | 2 Comments on मिली कुंए में भांग आज फिर होली में मिली कुंए में भांग आ ज फिर होली में काम हुए सब रॉंग आज फिर होली में सजी-धजी मुर्गी की देख अदाओं को दी मुर्गे ने बांग आज फिर होली में करे भांगड़ा भांग उछल कर भेजे में नहीं जमीं पर टांग आज फिर होली में फटी-फटाई पेंट […] Read more »
कविता लड़ाई चलेगी लंबी इस बार … March 8, 2011 / December 15, 2011 by राजीव दुबे | 7 Comments on लड़ाई चलेगी लंबी इस बार … अब यह उजाड़ एक टीस बन कर उतर गया है अंदर, देखी नहीं जाती यह बदहाली हमसे… ऐ वक्त तू दिखा ले – जो भी दिखाना हो तुझे, हम भी जिद्द पर हैं – लड़ाई चलेगी लंबी इस बार, हमारी जीत तक … । जो तुम सोचते हो कि – यह देश है ठंडा […] Read more » Quarrel लड़ाई
कविता मेरी तड़त का मतलब March 2, 2011 / December 15, 2011 by डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश' | 3 Comments on मेरी तड़त का मतलब मेरा शरीर मेरा है| जैसे चाहूँ, जिसको सौंपूँ! हो कौन तुम- मुझ पर लगाम लगाने वाले? जब तुम नहीं हो मेरे मुझसे अपनी होने की- आशा करते क्यों हो? पहले तुम तो होकर दिखाओ समर्पित और वफादार, मैं भी पतिव्रता, समर्पित और प्राणप्रिय- बनकर दिखाऊंगी| अन्यथा- मुझसे अपनी होने की- आशा करते क्यों हो? तुम्हारी […] Read more » मेरी तड़त मेरी तड़त का मतलब