प्रिय अपनी बाहों में भर लो।

विप्रलम्ब 
 
तन शीतल मन शीतल कर दो,
प्रिय अपनी बाहों में भर लो।
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मंद हवाओं का ये झौंका,
आंचल को सहलाता हैं।
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पुष्पों की सुरभित मादकता,
तन में आग लगाता है।
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मिलने की उत्कंठा दिल में,
धड़कन और ब़ाता है।
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तेरे आने की हर आहट,
मन में आस जगाता है।
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तन शीतल मन शीतल कर दो,
प्रिय अपनी बाहों में भर लो।
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तुम याद आये

 
उषा श्वेतांचल से सजकर, प्राची दिश मिली अरूण से जब
तुम याद आए, तुम याद आये, तुम याद आए, तुम याद आये।
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सूरज की स्वर्ण किरण के संग, स्वर्णिम सी हुई शिखर जबजब
तुम याद आए, तुम याद आये। तुम याद आए, तुम याद आये।
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बिखरा सिन्दूरी रंगत को, आया गोधूलि समय जबजब
तुम याद आए, तुम याद आये, तुम याद आये, तुम याद आये।
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सुरमई श्याम की रंगत में, अम्बर से मिली निशा जब जब
तुम याद आए, तुम याद आये, तुम याद आए, तुम याद आये। ———————————————– 

 
यादें

 
जज्ब सीने में किए बैठा हूं,
एक शोला तुम्हारी यादों का।
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अक्श आंखों में उतर आया है,
हसीन चन्द मुलाकातों का।
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जब से मैंने तेरा दीदार किया,
करके दीदार तुझे प्यार किया।
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जब से भूला हूं इस जहां को मैं,
याद बस तुझको बारबार किया।
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प्यास
मेरे जेहन में यह सवाल उभरता ही रहा।
तुम्हारी मांग सितारों से सजाऊं कैसे।
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चांदनी रात के साये में सोचता ही रहा।
तुम्हारे पास मैं ये नाजनी आऊँ कैसे।
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तुम तो हो कैद इक पक्षी की तरह पिंजड़े में।
मैं तो आजाद हूं पर कटे पक्षी की तरह।
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अपनी मायूसी जिंदगी से पूछता ही रहा।
मैं तेरे साथ निभाऊँ तो निभाऊँ कैसे।
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आज जब एक झलक देख ली मैंने तेरी,
न तो वश में रहे जज्बात न काबू मन पे।
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कदम ब़े ही थे कि याद आ गई कसमें,
मैं तेरे पास कसम तोड़ के आऊँ कैसे।
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एक शहर जन्नत का
एक तहजीब का अहसास किया है मैंने, रूबरू देख लिया एक शहर जगत का ।
नूर ही नूर है बिखरा हुआ हर कूचे में, खुशनुमा है फिजा, लम्हात है ये मन्नत का।
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जिस अमन चेन का इकरार किया है इसने, मजहबी इश्क का इजहार किया है इसने।
दिनब-दिन उसको ब़ाने की दुआ करना है, रंग सारे यहां इन्सानियत के भरना है।
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छोड़ के शिकवे गिले साथसाथ रहना है, दर्द हर सांस का हमें साथसाथ सहना है
हम न हिन्दू है मुसलमा है न ईसाई है, सिख न जैन है न बौद्ध है हम भाई है
धर्म इन्सानियत व कर्म है मनवता का, रूप इन्सान का पर आत्मा है देवता का
हम दिखा दे है शहर प्यार का जज्बातों का हम बता दे है शहर सच में करामातों का
हमारा प्यार जहां में निजाम रखता है, हमारा शहर हजारों में नाम रखता है।
 
एक तहजीब का अहसास किया है मैंने, रूबरू देख लिया एक शहर जगत का ।
नूर ही नूर है बिखरा हुआ हर कूचे में, खुशनुमा है फिजा, लम्हात है ये मन्नत का।
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 जे0पी0 गुप्ता ॔जगत’

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