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भारत में अल्टरनेट एसओजीआई समुदाय और मानसिक स्वास्थ्य

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अमरपाल सिंह वर्मा भारत में मानसिक स्वास्थ्य आज भी एक उपेक्षित और कलंकित विषय बना हुआ है। आम समाज में भी इसके बारे में खुलकर बात करना दुर्लभ है, लेकिन यह चुप्पी तब और भयावह रूप ले लेती है जब हम उन व्यक्तियों की बात करते हैं जो पारंपरिक यौन और लैंगिक पहचान से अलग हैं जैसे कि ट्रांसजेंडर, गे, लेस्बियन, बाइसेक्शुअल, क्वीर और नॉन-बाइनरी लोग। इन सभी को मिलाकर अल्टरनेट एसओजीआई (सेक्सुअल ओरिएंटेशन एंड जेंडर आइडेंटिटी) समुदाय कहा जाता है। यह समुदाय न केवल सामाजिक अस्वीकार्यता का शिकार है, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित भी है। एसओजीआई समुदाय के सदस्य अक्सर बचपन से ही भेदभाव, तिरस्कार और हिंसा का सामना करते हैं. कभी स्कूलों में मजाक बनकर, कभी घर से निकाले जाने पर, तो कभी कार्यस्थलों पर अस्वीकार किए जाने के रूप में। यह बहिष्कार धीरे-धीरे मानसिक पीड़ा, अकेलेपन और आत्म-संदेह को जन्म देता है। कई अध्ययन बताते हैं कि एलजीबीटीआईक्यू+ समुदाय के लोग डिप्रेशन, एंग्जायटी और आत्महत्या की प्रवृत्ति के शिकार आम लोगों की तुलना में कई गुना अधिक होते हैं। ट्रांसजेंडर समुदाय के भीतर आत्महत्या का जोखिम बेहद चिंताजनक है। एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में लगभग 31 प्रतिशत ट्रांसजेंडर लोगों ने आत्महत्या का प्रयास किया है। इसके पीछे सामाजिक तिरस्कार, रोजगार का अभाव, हिंसा, और हेल्थकेयर सिस्टम द्वारा उपेक्षा प्रमुख कारण हैं। भारत का स्वास्थ्य ढांचा वैसे ही मानसिक स्वास्थ्य के लिए बेहद कमज़ोर है। 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, देश में प्रति एक लाख की जनसंख्या पर औसतन 0.3 मनोचिकित्सक हैं। जब सामान्य नागरिकों तक ही सेवाएं नहीं पहुँच रही हैं, तो एसओजीआई समुदाय की स्थिति और भी बदतर हो जाती है। बहुत से डॉक्टर, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में एलजीबीटीआईक्यू+ पहचान को ‘बीमारी’ मानते हैं या इसे ‘सुधारने’ की कोशिश करते हैं। इससे व्यक्ति इलाज के बजाय और अधिक मानसिक उत्पीड़न का शिकार होता है। इसके अलावा, एसओजीआई  समुदाय को स्वास्थ्य संस्थानों में भेदभाव, उपहास और असंवेदनशील व्यवहार का सामना करना पड़ता है। ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए अलग टॉयलेट या वार्ड की व्यवस्था तक नहीं है, जिससे वे स्वास्थ्य सेवाओं से दूर भागने को मजबूर होते हैं। भारत के शहरी इलाकों जैसे दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु में जहां कुछ गैर सरकारी संगठन और काउंसलिंग सेवाएं एलजीबीटीआईक्यू+ फ्रेंडली बन रही हैं, वहीं बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, ओडिशा जैसे राज्यों में स्थिति काफी चिंताजनक है। यहाँ न तो संवेदनशील डॉक्टर हैं और न ही एलजीबीटीआईक्यू+ समुदाय के लिए कोई विशेष मानसिक स्वास्थ्य नीति या योजना। हाल के वर्षों में भारत में  कुछ महत्वपूर्ण कानूनी धारा 377 की समाप्ति, ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम आदि जैसे कदम उठाए हैं लेकिन एसओजीआई समुदाय  के अधिकारों की पैरवी करने वाले संगठनों का कहना है कि ज़मीनी स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य सुधारों का अभाव है।   एसओजीआई समुदाय के अधिकारों की पैरवी करने वाले संगठनों का कहना है कि डॉक्टरों और मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों को एलजीबीटीआईक्यू+ समुदाय के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए ट्रेनिंग अनिवार्य होनी चाहिए। क्षेत्रीय भाषाओं में काम करने वाले काउंसलिंग केंद्रों और टोल-फ्री हेल्पलाइनों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए।स्कूल स्तर से ही यौन विविधता और मानसिक स्वास्थ्य को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना होगा ताकि अगली पीढ़ी में समावेशी दृष्टिकोण विकसित हो।एलजीबीटीआईक्यू+ संगठनों और राज्य सरकारों के बीच साझेदारी हो, जिससे स्थानीय स्तर पर सहायता और परामर्श सेवाएं उपलब्ध कराई जा सकें।  सरकार को एलजीबीटीआईक्यू+ समुदाय की मानसिक स्वास्थ्य स्थिति पर राज्यवार आंकड़े एकत्र करने चाहिए ताकि नीतियाँ ज़मीनी जरूरतों पर आधारित बन सकें। भारत में एसओजीआई समुदाय का मानसिक स्वास्थ्य एक गंभीर, मगर अदृश्य संकट बना हुआ है।  संगठनों का कहना है कि जब तक समाज इस चुप्पी को नहीं तोड़ेगा और सरकार अपने नीतिगत ढांचे में सुधार नहीं लाएगी, तब तक यह समुदाय अपनी पहचान और अस्तित्व की लड़ाई में अकेला पड़ता रहेगा। मानसिक स्वास्थ्य केवल इलाज की नहीं, बल्कि गरिमा, स्वीकृति और आत्मसम्मान की भी लड़ाई है।

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लेख

दूरसंचार क्रांति : कबूतर से की-बोर्ड तक का “सफर”

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विश्व दूरसंचार दिवस 17 मई पर विशेष… प्रदीप कुमार वर्मा प्राचीन काल में कोई संदेश या कोई चिट्ठी भेजने के लिए कबूतरों या फिर दूत और संदेशवाहक की परंपरा देखने को मिलती है। डाक सेवा के शुरू होने के बाद में पोस्टमैन से यह काम करते थे लेकिन समय के साथ बदलते दौर में अब सूचना और संदेश के भेजने की प्रकृति तथा जरिया भी बदल चुका है। आज इंटरनेट की वजह से संदेश पहुंचाना आसान हो गया है। आज का युग सूचना का युग है। इसी वजह है कि बदले जमाने में “दूरसंचार” ने पृथ्वी और आकाश की सम्पूर्ण दूरी को मिटा दिया है। दूरसंचार क्रांति के माध्यम से ना केवल देश,अपितु विश्व के कोने-कोने में सूचनाओं का आदान-प्रदान तीव्र गति से हो रहा है। यही वजह है कि आज फोन, मोबाइल और इंटरनेट लोगों की प्रथम आवश्यकता बन गये हैं। दूरसंचार क्रांति का ही असर है कि अब सूचना का सफर कबूतर से लेकर कीबोर्ड तक आ चुका है।         दूरसंचार का उदेश्‍य था कि देश दुनिया  के हर आदमी तक सूचना पंहुचे ओर संचार सुलभ हो। इसलिए विश्व दूरसंचार दिवस के दिन सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के फायदों के प्रति लोगों में जागरूकता पैदा की जाती है। यह दिन अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार संघ की स्थापना और साल 1865 में पहले अंतर्राष्ट्रीय टेलीग्राफ समझौते पर हस्ताक्षर होने की याद में मनाया जाता है। मार्च 2006 में एक प्रस्ताव को अपनाया गया था, जिसमें कहा गया है कि हर साल 17 मई को विश्व सूचना समाज दिवस मनाया जाएगा। विश्व दूरसंचार दिवस मनाने की परंपरा 17 मई 1865 में शुरू हुई थी लेकिन आधुनिक समय में इसकी शुरुआत वर्ष 1969 में हुई। तभी से पूरे विश्व में इसे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।      भारत में दूरसंचार क्रांति के अतीत के बारे में पता चलता है कि वर्ष 1880 में दो टेलीफोन कंपनियों ‘द ओरिएंटल टेलीफोन कंपनी लिमिटेड’ और ‘एंग्लो इंडियन टेलीफोन कंपनी लिमिटेड’ ने भारत में टेलीफोन एक्सचेंज की स्थापना करने के लिए भारत सरकार से संपर्क किया। इस अनुमति को इस आधार पर अस्वीकृत कर दिया गया कि टेलीफोन की स्थापना करना सरकार का एकाधिकार था और सरकार खुद यह काम शुरू करेगी। इसके बाद वर्ष  1881 में सरकार ने अपने पहले के फैसले के ख़िलाफ़ जाकर इंग्लैंड की ‘ओरिएंटल टेलीफोन कंपनी लिमिटेड’ को कोलकाता, मुंबई, मद्रास (चेन्नई) और अहमदाबाद में टेलीफोन एक्सचेंज खोलने के लिए लाइसेंस दिया। इससे 1881 में देश में पहली औपचारिक टेलीफोन सेवा की स्थापना हुई।          इसी क्रम में 28 जनवरी, 1882 भारत के टेलीफोन इतिहास में ‘रेड लेटर डे’ है। इस दिन भारत के तत्कालीन गवर्नर-जनरल काउंसिल के सदस्य मेजर ई. बैरिंग ने कोलकाता, चेन्नई और मुंबई में टेलीफोन एक्सचेंज खोलने की घोषणा की। कोलकाता के एक्सचेंज का नाम ‘केंद्रीय एक्सचेंज’ था।  केंद्रीय टेलीफोन एक्सचेंज के 93 ग्राहक थे। मुंबई में भी 1882 में ऐसे ही टेलीफोन एक्सचेंज का उद्घाटन किया गया था। इसके बाद में संचार क्रांति में बदलाव आया और 2जी के बाद 3जी, 4जी तथा 5 जी स्पेक्ट्रम के जरिए मोबाइल सेवा अस्तित्व में आई। दूरसंचार के क्षेत्र में इंटरनेट के जरिये हमें घर में मोबाइल , कंप्यूटर, लैपटॉप,या टीवी में देखने में मिलता है।  वर्तमान समय में दूरसंचार का एक बहुत बड़ा हिस्सा इंटरनेट है।           इसमें कोई शक नहीं है कि जिन लोगों की पहुंच इंटरनेट तक है, उनके जीवन में एक बड़ा बदलाव देखने को मिला है। दूरसंचार की सहायता से हम ऑनलाइन मोबाइल के द्वारा बिजली एवं नल का बिल, डिस्क रिचार्ज, बैंकिंग, बीमा तथा अन्य काम अपने घर में बैठे-बैठे ही पूरा कर सकते हैं। इसका सबसे ज्यादा फायदा महिला, बच्चे तथा बुजुर्गों को मिलता है। जिनके लिए यह सभी काम बहुत आसान और आरामदायक बन जाते है। इंटरनेट के जरिए हम असंख्य सूचनाओं को पलक झपकते ही मात्र कुछ चंद सेकेंड में प्राप्त कर लेते हैं। इंटरनेट सिर्फ सूचनाओं के लिहाज से ही नहीं, बल्कि सोशल नेटवर्किग  के लिए अब अहम बन चुका है।  गूगल के ई-मेल, अन्य सोशल मीडिया के माध्यम जैसे फेसबुक, स्नैपचैट, इंस्टाग्राम, थ्रेड तथा अन्य सोशल प्लेटफॉर्म के जरिए से हजारों किलोमीटर की दूरियां सिमट कर अब चंद सेकेंड के फासले में बदल गयी हैं।           पहले जहाँ किसी से संपर्क साधने के लिए लोगों को काफ़ी मशक्कत करनी पड़ती थी, वहीं आज मोबाइल और इंटरनेट ने इसे बहुत ही आसान बना दिया है। आज  इंटरनेट ने हमारे जीवन को सरल बनाने में अहम योगदान दिया है, उसी तरह इसने कई ऐसी समस्याएँ भी उत्पन्न कर दी हैं, जिससे कहीं न कहीं हमारा समाज दूषित हो रहा है। देखें तो आज इंटरनेट पर काम कम और इसका दुरुपयोग ज्यादा हो रहा है। पोर्नोग्राफी जैसी समस्या इंटरनेट के हर हिस्से में पहुंच चुकी है। देखने में यह आया है कि नासमझ लोग अपने यार-दोस्तों की तस्वीरें इंटरनेट पर डाल देते हैं, लेकिन अश्लीलता परोसने वाली वेबसाइट्स उन्हें चुराकर उनका दुरुपयोग करना शुरू कर देती हैं। इसके सामने एक और बड़ी चुनौती साइबर अपराध भी है, जिसकी आड़ में लोग अफवाह फैला कर देश में साइबर युद्ध जैसे हालात पैदा करने की कोशिश करते रहते हैं। इन सब नकारात्मक तथ्यों के बावजूद भी दूरसंचार तकनीक आज भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देशों में समृद्धि के लिए सहायक सिद्घ हो रही है।  प्रदीप कुमार वर्मा

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