Category: साहित्‍य

पर्यावरण लेख

तपती धरती, पिघलते ग्लेशियर: चिंता का सबब !

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सुनील कुमार महला धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है। वास्तव में धरती का तापमान का लगातार बढ़ना कहीं न कहीं गंभीर ख़तरों का संकेत दे रहा है। आज मानव की जीवनशैली लगातार बदलती चली जा रही है और मानवीय गतिविधियों के कारण, अंधाधुंध विकास, जंगलों की अंधाधुंध कटाई, शहरीकरण, औधोगिकीकरण के कारण ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को लगातार बढ़ावा मिल रहा है जिससे नीले ग्रह पर खतरा मंडराने लगा है। एक जानकारी के अनुसार मानवीय जीवनशैली के कारण इस सदी के अंत तक धरती का औसत तापमान 2.7°C बढ़ जाएगा। वास्तव में धरती के तापमान के इतना बढ़ने का सीधा सा मतलब यह है कि इस सदी के अंत तक धरती के ग्लेशियरों की बस एक चौथाई बर्फ़ ही बची रहेगी तथा बाकी तीन चौथाई बर्फ़ ख़त्म हो जाएगी। कहना ग़लत नहीं होगा कि ग्लेशियर अब किताबों का ही हिस्सा बनकर रह जाएंगे। ग्लोबल वार्मिंग बढ़ने के कारण  दुनिया के कई तटीय शहर डूब जाएंगे। यदि हम यहां आंकड़ों की बात करें तो भारत में मुंबई, चेन्नई, विशाखापट्टम जैसे कई तटीय शहरों का बड़ा इलाका क़रीब दो फुट तक पानी में डूब जाएगा। दरअसल यह खुलासा किसी और ने नहीं बल्कि दुनिया की प्रतिष्ठित पत्रिका साइंस में छपी एक ताज़ा रिसर्च में किया गया है। इस संदर्भ में ताज़ा उदाहरण स्विट्जरलैंड का है, जहां ऊंचे पहाड़ों से टूटे एक ग्लेशियर ने निचले इलाके में तबाही मचा दी। नीचे घाटी में बसे ब्लैटन गांव (नब्बे फीसदी गांव को) बर्च नाम के ग्लेशियर ने बर्बाद कर दिया।दरअसल,ग्लेशियरों के इस तरह टूटने के पीछे सबसे बड़ी वजह है धरती के औसत तापमान का बढ़ना। कहना ग़लत नहीं होगा कि तापमान में बढ़ोत्तरी भारी बारिश(अतिवृष्टि), तो कहीं सूखा(अनावृष्टि), कभी ग्लेशियरों की झीलों के फटने तो कभी बड़े तूफ़ानों जैसे अतिमौसमी बदलावों की शक्ल में हमारे सामने आ रहा है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि प्रतिष्ठित पत्रिका साइंस में छपी रिसर्च के मुताबिक दुनिया के ग्लेशियर मौजूदा अनुमान से कहीं ज़्यादा तेज़ी से पिघल रहे हैं और इस सदी के अंत तक अगर धरती का औसत तापमान अगर 2.7°C और बढ़ा तो दुनिया में मौजूद ग्लेशियरों में सिर्फ़ 24% बर्फ़ ही बची रह जाएगी, जो कि एक बड़ा और गंभीर खतरा है। जानकारी के अनुसार ग्लेशियरों की 76% बर्फ़ पिघल चुकी होगी। पाठकों को बताता चलूं कि पेरिस समझौते में ये तय हुआ था, कि दुनिया के तापमान को पूर्व औद्योगिक तापमान से 1.5°C से ज़्यादा नहीं बढ़ने देना है, लेकिन आज विकसित देश ही कार्बन उत्सर्जन के अधिक जिम्मेदार हैं और कोई भी ग्लोबल वार्मिंग को कम करने को लेकर जिम्मेदार नजर नहीं आते। साइंस पत्रिका में छपी रिसर्च के मुताबिक अगर दुनिया का औसत तापमान 1.5°C तक ही बढ़ा तो भी ग्लेशियरों की 46% बर्फ़ पिघल जाएगी, सिर्फ़ 54% बर्फ़ ही बची रहेगी, यह बहुत ही चिंताजनक है, क्योंकि ग्लेशियर पानी के बड़े स्रोत  होते हैं और जल ही जीवन है। शोध में सामने आया है कि अगर औसत तापमान बढ़ना बंद हो जाए और उतना ही रहे, जितना कि आज है, तो भी दुनिया के ग्लेशियरों की बर्फ़ 2020 के स्तर से 39% कम हो जाएगी। मतलब यह है कि आज भी तापमान कुछ कम नहीं है और यह नीले ग्रह को काफी नुकसान पहुंचा रहा है।  शोध में पाया गया है कि यदि  दुनिया का औसत तापमान 2°C बढ़ा तो स्कैंडिनेवियन देशों यानी नॉर्वे, स्वीडन और डेनमार्क के ग्लेशियरों की सारी बर्फ़ पिघल जाएगी। इतना ही नहीं, उत्तर अमेरिका की रॉकी पहाड़ियों, यूरोप के आल्प्स और आइसलैंड के ग्लेशियरों की क़रीब 90% बर्फ़ पिघल जाएगी।औसत तापमान में 2°C की बढ़ोतरी का भारी असर दक्षिण एशिया में हिंदूकुश हिमालय पर भी पड़ने की संभावनाएं जताई गईं हैं। यहां पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि हिंदू कुश हिमालय का ग्लेशियर दो अरब लोगों का भरण-पोषण करने वाली नदियों को पानी देता है, लेकिन सदी के अंत तक ये अपनी 75 प्रतिशत बर्फ खो सकता है, जिससे नदियों का पानी भी सूख सकता है। यहां कहना ग़लत नहीं होगा कि अगर दुनिया के देश तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोक पाते हैं (जैसा कि पेरिस समझौते में तय हुआ था), तो हिमालय और कॉकेशस पर्वत में ग्लेशियर की 40-45 प्रतिशत बर्फ बचाई जा सकती है। यानी अब भी कुछ किया जाए, तो हालात बहुत हद तक सुधर सकते हैं। वाकई यह बहुत ही चिंताजनक बात है कि साल 2020 के मुक़ाबले हिंदूकुश हिमालय के ग्लेशियरों में महज़ 25% बर्फ़ ही रह जाएगी।  वास्तव में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिंदूकुश हिमालय से निकलने वाली नदियां जो गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र की घाटियों में बहती हैं वो क़रीब दो अरब आबादी के लिए अनाज, मनुष्य की आजीविका और पानी की गारंटी हैं। वास्तव में आज धरती का लगातार बढ़ता हुआ तापमान न केवल मनुष्य के लिए अपितु धरती के सभी जीवों, वनस्पतियों, हमारे पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र के लिए संकट का सबब बनता चला जा रहा है। अंत में यही कहूंगा कि ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए हमें सामूहिक रूप से कदम उठाने होंगे और पर्यावरण संरक्षण के प्रति हमें अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी समझना होगा। कहना ग़लत नहीं होगा कि हमारे नीले ग्रह को गर्म करने वाले उत्सर्जन को कम करने के लिए स्वच्छ ऊर्जा को अपनाना ही ग्लेशियरों के पिघलने की गति को धीमा करने का सबसे प्रभावी तरीका है। हमें यह बात अपने जेहन में रखनी चाहिए कि धरती के तापमान में मामूली वृद्धि भी कहीं न कहीं मायने रखती है। मानव को समझने की जरूरत है कि विकास के नाम पर हमें प्रकृति से छेड़छाड़ और खिलवाड़ को बंद करना होगा। पर्यावरण के साथ संबंध स्थापित करते हुए भी विकास किया ही जा सकता है।एक जानकारी के अनुसार दुनिया में क़रीब पौने तीन लाख ग्लेशियर हैं। पाठकों को बताता चलूं कि पृथ्वी पर, 99% ग्लेशियल बर्फ ध्रुवीय क्षेत्रों में विशाल बर्फ की चादरों (जिन्हें “महाद्वीपीय ग्लेशियर” भी कहा जाता है) के भीतर समाहित है।  एक जानकारी के अनुसार ग्लेशियल बर्फ पृथ्वी पर ताजे पानी का सबसे बड़ा भंडार है, जो बर्फ की चादरों के साथ दुनिया के ताजे पानी का लगभग 69 प्रतिशत रखता है।पृथ्वी के कुल जल का लगभग 2% भाग ग्लेशियरों में संग्रहीत है। इतना ही नहीं,ग्लेशियर अतीत की जलवायु के बारे में बहुमूल्य जानकारी प्रदान करते हैं। ये ग्लेशियर ही हैं, जिनसे कृषि, जल विद्युत एवं पेयजल हेतु जल मिलता है। समुद्र जल स्तर में ग्लेशियरों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। अंत में यही कहूंगा कि हमें ग्लेशियरों को संरक्षित करना होगा और जल प्रबंधन को बढ़ावा देना होगा, ताकि भविष्य में पानी की आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके।

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पर्यावरण लेख

पर्यावरण के लिए बेहद घातक हैं प्लास्टिक

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डॉ. बालमुकुंद पांडेय  प्लास्टिक मानव समाज के लिए आवश्यक आवश्यकता हो चुका हैं। प्लास्टिक मनुष्यों के दिनचर्या के लिए उपयोगी हो चुका हैं । मानवीय समाज के लिए इसकी उपादेयता  के साथ इसके हानिकारक प्रभाव भी हैं। भू – वैज्ञानिकों एवं पर्यावरणविदों के अनुसार ,प्लास्टिक बैग्स पराबैंगनी किरणों के संपर्क में आते हैं तो उनसे ग्रीनहाउस गैस(GHG)निकलती है ,जो अत्यधिक मात्रा में हानिकारक एवं  अस्वास्थ्यप्रद हैं । प्लास्टिक एवं पॉलीथिन पालतू जानवरों, वन्यजीवों एवं समुद्रीजीवों के लिए अति खतरनाक एवं अत्यधिक हानिकारक हैं। प्लास्टिक बैग्स एवं प्लास्टिक खाने से प्रत्येक वर्ष लाखों जीव जंतुओं की मृत्यु हो जाती है. इन जानवरों में गाय, भैंस ,एवं दुधारू पशु हैं। प्लास्टिक समुद्री जीवों एवं जंतुओं के लिए भी हानिकारक होता है, इनके कारण बड़ी संख्या में व्हेल ,डॉल्फिन एवं कछुओं की मृत्यु होती है जो खाद्य पदार्थ  के साथ प्लास्टिक के बैग्स खा जाते हैं जिससे उनकी अकाल मृत्यु हो जाती है।  वैज्ञानिकों द्वारा अन्वेषित प्लास्टिक ने नागरिक समाज, नागरिक जीवन एवं पृथ्वी पर उपस्थित संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव डाला है। प्लास्टिक को विज्ञान ने हमारी आवश्यकताओं एवं सुविधाओं के लिए तैयार किया था लेकिन यह पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के शत्रु के रूप में उपादेयता प्रदान कर रहा हैं । भू – तल  से लेकर समुद्र तक ,गांव से लेकर कस्बा तक एवं मैदान से लेकर पहाड़ तक प्लास्टिक का व्यापक प्रदूषण प्रभाव हैं। प्लास्टिक का दुष्प्रभाव मानव स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। पेयजल एवं खाद्य पदार्थों में प्लास्टिक का प्रभाव है जिससे मानव स्वास्थ्य पर नकारात्मक एवं प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। लोग यात्रा एवं अन्य प्रयोजनों  में पॉलिथीन से बने लिफाफों एवं  पन्नियों का अंधाधुंध इस्तेमाल करते हैं। यह प्रक्रिया मानव स्वास्थ्य एवं प्रकृति के लिए नुकसानदायक हैं । प्लास्टिक एक ऐसा अवशिष्ट है जो अविनाशी हैं। इसके इसी विशिष्टता के कारण यह प्रत्येक जगह अनंत समय तक  बेतरतीब पड़ा रहता है एवं नष्ट नहीं होता हैं । यह  मिट्टी एवं जल में विघटित नहीं होता है एवं जलने पर पर्यावरण को अत्यधिक प्रदूषण का प्रसार करते हैं। प्लास्टिक प्रदूषण में बहुत हानिकारक तत्व हैं । प्लास्टिक की थैलियां एवं प्लास्टिक बैग्स पानी में बहकर  चले जाते हैं जिससे जलीय जीवों  एवं जंतुओं को संक्रमित करते हैं एवं समुद्री जीव जंतुओं के जीवन पर खतरा खतरा मंडरा रहा हैं। इससे संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र खतरे में आ गया हैं । पारिस्थितिकी तंत्र में हुए इस खतरे से पर्यावरण को अत्यधिक खतरा हैं जिससे समुद्री वातावरण में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। प्लास्टिक मनुष्य के स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा हैं । इसका चिंताजनक दुष्प्रभाव हैं कि यह मानव स्वास्थ्य पर निरंतर गंभीर खतरा उत्पन्न कर रहा हैं । मनुष्य पेयजल में भी प्लास्टिक मिश्रण वाला पानी पी रहे हैं, नमक में भी प्लास्टिक का मिश्रण खा रहे हैं। वैज्ञानिकों एवं पर्यावरणविदों के अध्ययन से यह  स्पष्ट हो रहा है कि हृदय रोग से होने वाली मृत्यु  के लिए प्लास्टिक में मौजूद ‘ थैलेटस ‘ के संपर्क में आने के कारण वर्ष 2020 में हृदय रोग से 7 लाख से अधिक मृत्यु हुआ था। इस मृत्यु से होने वालों की अवस्था क्रमशः 55 से 64 वर्ष के बीच थी। 7 लाख लोगों में लगभग तीन – चौथाई दक्षिण एशिया ,पश्चिम एशिया, पूर्वी एशिया, एवं उत्तरी अमेरिका में हुई थी । न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों एकेडमिक  विशेषज्ञों एवं शोधार्थियों के दल ने लगभग 201 देश एवं महाद्वीपीय क्षेत्रों  में ‘ थैलेटस ‘ के नकारात्मक प्रभाव के मूल्यांकन के लिए जनसंख्या सर्वेक्षणों से मनुष्य के स्वास्थ्य एवं पर्यावरण संबंधी आंकड़ों का विश्लेषण किया। इस अध्ययन में खास प्रकार के  थैलेट्स पर गौर किया गया जिसका उपयोग खाद्य पदार्थों के कंटेनर जैसी वस्तुओं में प्लास्टिक को नरम बनाने के लिए किया जाता हैं जो मनुष्य के स्वास्थ्य को वृहद स्तर पर नुकसान एवं कठिनाई का सामना करना पड़ पड़ा था।  थैलेट्स मनुष्य के शरीर में प्रवेश करके ऑक्सीजन के साथ क्रिया करके कार्बन मोनोऑक्साइड का निर्माण करके रक्तपरिशंचरण तंत्र  को दूषित कर देता है एवं मनुष्य के स्वास्थ्य को अत्यधिक नुकसान पहुंचता है। प्लास्टिक बैग्स को बनाने के लिए जिन तत्वों की प्रधानता होती हैं ,वह उच्च स्तरीय रसायन होता हैं ,जो खाद्य सामग्री को बहुत शीघ्र सड़ा देता हैं। प्लास्टिक के कारण कृषिभूमि की उर्वरता का क्षरण हो रहा हैं ,जिससे  भूमि की उर्वरता नष्ट हो जाती है। इसके कारण भू – जल स्रोत एवं जल स्रोत भी अत्यधिक मात्रा में दूषित हो रहे हैं जिससे  जल संक्रमित होता जा रहा हैं । प्लास्टिक गांव,  कस्बों,नगरों एवं महानगरों की जल निस्तारण प्रणाली को भी अवरुद्ध कर रहे हैं। गर्भावस्था के दौरान प्लास्टिक के संपर्क में आने पर नवजात शिशु के स्वास्थ्य में जटिलताएं उत्पन्न हो जाते हैं जिससे वह मानसिक स्तर पर मंद एवं शारीरिक विषमताओं से जकड़ जाते हैं । प्लास्टिक के कारण  पुरुषों में प्रोस्टेट कैंसर एवं नपुंसकता  हो रही है।  कई वैज्ञानिक अध्ययनों एवं पर्यावरण विशेषज्ञों के अध्ययन के प्रतिवेदन से ज्ञात हुआ है कि खाद्य पदार्थों के पैकेजिंग में इस्तेमाल प्लास्टिक के प्रयोग से कैंसर, प्रजनन क्षमता में ह्रास,अस्थमा, त्वचा रोगों एवं हृदय रोगों का खतरा बढ़ता जा रहा हैं । यह नागरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ हमारे धरती की सेहत को भी अत्यधिक क्षति पहुंचा रहा हैं। प्लास्टिक से निर्मितपदार्थों  से पैदा हुए कचरे का निपटारा करना अत्यंत कठिन काम होता  हैं। हमारे पृथ्वी पर प्रदूषण के प्रसार के लिए प्लास्टिक भी उत्तरदाई हैं।विगत 40 वर्षों में प्लास्टिक प्रदूषण का स्तर अति तीव्र गति से बड़ा हैं जो मानवीय समुदाय  के लिए एक गंभीर समस्या बन चुका है।  प्रदूषण के लिए पॉलिथीन ही जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि प्लास्टिक बैग्स एवं प्लास्टिक के फर्नीचर भी जिम्मेदार हैं । वैश्विक स्तर पर प्लास्टिक से निर्मित वस्तुएं प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हैं। प्लास्टिक एवं प्लास्टिक से निर्मित वस्तुएं नागरिक समाज के स्वास्थ्य, पेयजल एवं स्वच्छ वातावरण के लिए जिम्मेदार हैं.  यह सभी वातावरण के लिए एक गंभीर समस्या एवं संकट हो चुके हैं। यह मानव जाति, मानवीय संस्कृति एवं मानव समुदाय के जीवन को क्षीण कर रहे हैं क्योंकि प्रदूषण मनुष्य के आयु को क्षीण कर रहा हैं । मानवीय संस्कृति के अमरता एवं प्रासंगिकता के लिए प्लास्टिक पर प्रतिबंध आवश्यक हैं । प्लास्टिक नियंत्रण की दिशा में नागरिक समाज की पहल से प्रदूषण के नकारात्मक प्रभाव को न्यून  किया जा सकता है। 1. नागरिक समाज को प्लास्टिक के बजाय अन्य विकल्प को अपनाना चाहिए;  2. प्लास्टिक के नकारात्मक प्रभाव के विषय में जागरूकता की आवश्यकता है;  3. हानिकारक प्लास्टिक के बढ़ते उपयोग को रोककर ही इसके भयावह समस्याओं पर काबू पाया जा सकता है; 4. सरकार को प्लास्टिक ,प्लास्टिक बैग्स एवं पॉलीथिन पर प्रतिबंध लगाना चाहिए; एवं  5. संगोष्ठियों, जनसभाओं  एवं नागरिक समाज के पहल से समाज में संचेतना एवं जन जागरूकता की आवश्यकता है। डॉ. बालमुकुंद पांडेय 

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लेख

प्रकाशन की लागत बढ़ने से गहराया आर्थिक संकट

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हिंदी पत्रकारिता :  क्षेत्रीय भाषा और आर्थिक संकट की “छाया” प्रदीप कुमार वर्मा भारतीय शासन व्यवस्था में मुख्य रूप से तीन स्तंभ हैं जिनमें कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका शामिल हैं। देश में स्वतंत्र पत्रकारिता के महत्व एवं उपयोगिता को देखते हुए पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। पत्रकारिता हर आम और खास को विभिन्न समाचारों, घटनाओं और मुद्दों से अवगत कराती है। पत्रकारिता को जनमानस को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक के रूप में भी जाना जाता है। पत्रकारिता के इसी महत्व को रेखांकित करने का दिन “हिंदी पत्रकारिता दिवस” है। यह हिंदी पत्रकारिता के गौरवशाली इतिहास को याद करने और इसकी वर्तमान उपलब्धियों का जश्न मनाने का दिन भी है। यह दिवस उन सभी पत्रकारों और लेखकों को याद करने का अवसर है जिन्होंने हिंदी भाषा को गौरव और सम्मान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत में हर साल 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है।        यह दिन भारत के इतिहास का एक महत्वपूर्ण दिन है, क्योंकि वर्ष 1826 में इसी दिन हिंदी भाषा का पहला समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ प्रकाशित हुआ था। इस प्राचीन समाचार पत्र का प्रकाशन कलकत्ता शहर से पंडित जुगल किशोर शुक्ल द्वारा शुरू किया गया था। यह ऐसा समय था जब भारत में उर्दू, अंग्रेजी, बांग्ला और फारसी भाषा का प्रचार-प्रसार चरम पर था। ऐसे समय में हिंदी भाषी लोगों के सामने साहित्य और पत्रकारिता का संकट पैदा हो रहा था।  तब हिन्दी भाषा के पाठकों को हिंदी समाचार पत्र की आवश्यकता हुई। हिंदी पत्रकारिता की इसी अनिवार्य आवश्यकता के चलते 30 मई 1826 को हिन्दी भाषा का प्रथम समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ प्रकाशित  हुआ था। यह महज एक समाचार पत्र ही नहीं था बल्कि साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में हिंदी के “उत्थान” के लिए किया गया यह एक प्रयोग भी था।           इसीलिए इस दिवस को हिन्दी पत्रकारिता दिवस के रूप में मानते हैं। भले ही यह पत्र एक साप्ताहिक के रूप में कलकत्ता से प्रकाशित होना प्रारम्भ हुआ था लेकिन इसने तत्कालीन समय में हिंदी भाषा एवं हिंदी पत्रकारिता को एक संजीवनी प्रदान की थी। उस जमाने मे कलकत्ता में हिन्दी पाठकों की संख्या बहुत कम थी। हिन्दी भाषी स्थानों पर यह डाक से भेजा जाता था, जिससे यह महंगा होता था और इसका खर्च नहीं निकल पाता था। इसके अलावा  उस समय आर्थिक तंत्र कुछ कुलीन लोगों के हाथ में था। जिनका हिंदी से कोई लेना देना नहीं था। यही वजह रही  कि ‘उदन्त मार्तण्ड’ को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा। उस समय जुगल किशोर शुक्ल ने सरकार से अखबार को हिंदी पाठ उत्तर पहुंचने के लिए डाक खर्च में कुछ रियायत देने का अनुरोध भी ब्रिटिश सरकार से किया लेकिन तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने हिंदी भाषा के चलते इस अनुरोध को नकार दिया।              यही वजह रही  कि मात्र कुछ ही महीनों के बाद आर्थिक तंगी के कारण 19 दिसंबर 1826 को इसका प्रकाशन बंद करना पड़ा। इसके मात्र 79 अंक ही निकले थे  लेकिन करीब करीब दो सौ साल के लंबे सफर के बावजूद आज भी हिंदी पत्रकारिता पर संकट के बादल छाए हैं। संकट के यह बादल भाषाई पत्रकारिता में आए उछाल, सोशल मीडिया के बढ़ते दखल तथा अखबारों के प्रकाशन में बड़े खर्च और लागत को लेकर है। बदले समय में अब अखबारों को विज्ञापन कम मिल रहे हैं। इसके साथ ही कागज और छपाई के खर्चे बढ़ गए हैं। जिसके चलते अखबार मालिकों को अखबारों की रेट भी बढ़ानी पड़ी है। हालात ऐसे हैं कि आज के समय में कोई भी राष्ट्रीय अथवा प्रादेशिक समाचार पत्र 5 रुपये की कीमत से कम नहीं है और यह है कीमत कई अखबारों के मामले में 10 से 15 रुपए तक भी है। क्षेत्रीय भाषाओं के बढ़ते प्रभाव के चलते कुछ बड़े मीडिया घरानों ने देश के विभिन्न राज्यों में भाषा के आधार पर अपने क्षेत्रीय प्रकाशन भी शुरू कर दिए हैं  जिसकी वजह से भी आज के दौर में हिंदी पत्रकारिता को चुनौती मिल रही है। अखबारों को मिल रही सरकारी मदद के बारे में गौर करें,तो आज भी आशा के अनुरूप सरकारी मदद का इंतजार अखबारों को है। देश में  केंद्रीय विज्ञापन एजेंसी डीएवीपी और राज्यों के सूचना एवं जनसंपर्क निदेशालयों की ओर से भी विज्ञापन जारी करने की संख्या में कमी आई है। जिसके चलते विज्ञापनों के रूप में अपेक्षित सरकारी मदद अखबारों को नहीं मिल पा रही है। इसके साथ ही सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों से मिलने वाले विज्ञापनों पर एक मोटा कमीशन विज्ञापन एजेंसी को देना पड़ता है और इसका असर भी अखबारों की आर्थिक स्थिति पर पड़ रहा है। इसके अलावा लगभग हर राजनीतिक एवं जनप्रतिनिधियों, सामाजिक एवं व्यापारिक संस्थाओं ने भी अपने “प्रचार-प्रसार” का माध्यम सोशल मीडिया को बना लिया है।          इसके चलते कम से कम विज्ञापन के मामले में उन्हें अखबारों की आवश्यकता ना के बराबर रह गई है। आज हिंदी पत्रकारिता दिवस के मौके पर इस बात पर भी चिंतन और मनन किया जाना जरूरी है कि हिंदी पत्रकारिता को कैसे न केवल जिंदा रखना जाए, बल्कि उसका पोषण और संवर्धन भी किया जाए? इस दिशा में जनता जनार्दन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है और आज लोगों को यह संकल्प लेना होगा कि वह हिंदी समाचार पत्रों को पहले की तरह अपना प्रेम और आशीर्वाद देंगे। इसके साथ ही केंद्र एवं राज्य सरकारों को भी अखबारों को आर्थिक संकट से उबारने के लिए कोई विशेष नीति बनानी होगी। यह नीति सजावटी विज्ञापनों की संख्या में बढ़ोतरी के साथ-साथ रियायती दर पर अखबारों के प्रकाशन संस्थानों के लिए बिजली एवं पानी  तथा अन्य प्रकार के पैकेज दिए जा सकते हैं। जिससे वर्तमान दौर के साथ-साथ आने वाले समय में हिंदी पत्रकारिता को “संजीवनी” मिल सके और हिंदी पत्रकारिता को भाषायी और आर्थिक संकट की “छाया” से उबारा जा सके।  प्रदीप कुमार वर्मा

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