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खेत-खलिहान राजनीति

मध्यप्रदेश को बीमारु राज्य की श्रेणी से बाहर निकाला है प्रदेश के किसानों ने

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भारत में लगभग 60 प्रतिशत आबादी आज भी ग्रामीण इलाकों में निवास करती है एवं इसमें से बहुत बड़ा भाग अपनी आजीविका के लिए कृषि क्षेत्र पर निर्भर है। यदि ग्रामीण इलाकों में निवास कर रहे नागरिकों की आय में वृद्धि होने लगे तो भारत के आर्थिक विकास की दर को चार चांद लगाते हुए इसे प्रतिवर्ष 10 प्रतिशत से भी अधिक किया जा सकता है। इसी दृष्टि से केंद्र सरकार लगातार यह प्रयास करती रही है कि किसानों की आय को किस प्रकार दुगुना किया जाय। इस संदर्भ में कई नीतियों एवं सुधार कार्यक्रमों को लागू करते हुए किसानों की आय को दुगुना किये जाने के भरसक प्रयास किए गए हैं। अप्रेल 2016 में इस सम्बंध में एक मंत्रालय समिति का गठन भी केंद्र सरकार द्वारा किया गया था एवं किसानों की आय बढ़ाने के लिए सात स्त्रोतों की पहचान की गई थी, इनमे शामिल हैं, फसलों की उत्पादकता में वृद्धि करना, पशुधन की उत्पादकता में वृद्धि करना, संसाधन के उपयोग में दक्षता हासिल करते हुए कृषि गतिविधियों की उत्पादन लागत में कमी करना, फसल की सघनता में वृद्धि करना, किसान को उच्च मूल्य वाली खेती के लिए प्रोत्साहित करना (खेती का विविधीकरण), किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य दिलाना एवं अधिशेष श्रमबल को कृषि क्षेत्र से हटाकर गैर कृषि क्षेत्र के पेशों में लगाना। उक्त सभी क्षेत्रों में केंद्र सरकार द्वारा किए गए कई उपायों के अब सकारात्मक परिणाम दिखाई देने लगे हैं एवं कई प्रदेशों में किसानों के जीवन स्तर में सुधार दिखाई दे रहा है, किसानों की खर्च करने की क्षमता बढ़ी है एवं कुल मिलाकर अब देश के किसानों का आत्मविश्वास बढ़ा है। इस संदर्भ में मध्यप्रदेश में किसानों ने भी आगे बढ़कर प्रदेश के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान देने का भरपूर प्रयास किया है।  आज से कुछ वर्ष पूर्व तक मध्यप्रदेश की गिनती देश के बीमारु राज्यों की श्रेणी में की जाती थी। बीमारु राज्यों की श्रेणी में मध्यप्रदेश के अलावा तीन अन्य राज्य भी शामिल थे, यथा, बिहार, राजस्थान एवं उत्तरप्रदेश। इन राज्यों को बीमारु राज्य इसलिए कहा गया था क्योंकि इन राज्यों में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर बहुत कम थी एवं औसत प्रति व्यक्ति आय बहुत कम होने के चलते गरीबी से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों की संख्या भी बहुत अधिक थी। इसके कारण, इन प्रदेशों में अशिक्षा की दर अधिक थी, ग्रामों में चिकित्सा सहित अन्य सुविधाओं का नितांत अभाव था तथा इन प्रदेशों में जनसंख्या वृद्धि दर भी तुलनात्मक रूप से अधिक थी। कुल मिलाकर, ये प्रदेश कुछ ऐसी विपरीत परिस्थितियों में फसें हुए थे कि इन प्रदेशों में विकास की दर को बढ़ाना बहुत ही मुश्किलों भरा कार्य था, इसलिए इन्हें बीमारु राज्य बोला जाता था। मध्यप्रदेश की आर्थिक व्यवस्था भी मुख्य रूप से कृषि क्षेत्र पर आधारित है। प्रदेश में लगभग दो तिहाई आबादी ग्रामों में निवास करती है एवं यहां लगभग 54 प्रतिशत जनसंख्या अपनी आजीविका के लिए कृषि क्षेत्र पर निर्भर है। वर्ष 2005-06 से 2014-15 के दौरान मध्य प्रदेश ने कृषि के क्षेत्र में औसतन 9.7 प्रतिशत की वृद्धि दर अर्जित की है। इसके बाद के 5 वर्षों के दौरान तो कृषि क्षेत्र में औसत विकास दर बढ़कर 14.2 प्रतिशत प्रतिवर्ष की रही है। यह पूरे देश में सभी राज्यों के बीच कृषि क्षेत्र में अर्जित की गई सबसे अधिक विकास दर है।  आज मध्य प्रदेश कई उत्पादों की पैदावार में देश में प्रथम स्थान पर आ गया है। उदाहरण के तौर पर, संतरा (देश के कुल उत्पादन में मध्य प्रदेश का हिस्सा लगभग 30 प्रतिशत है), चना (लगभग 45 प्रतिशत), सोयाबीन (लगभग 57 प्रतिशत), लहसुन (लगभग 32 प्रतिशत) एवं टमाटर (लगभग 16 प्रतिशत) के उत्पादन में मध्य प्रदेश, पूरे देश में, प्रथम स्थान पर आ गया है। दलहन और तिलहन उत्पादन में भी क्रमशः 24 प्रतिशत एवं 25 प्रतिशत के योगदान के साथ मध्यप्रदेश देश में प्रथम स्थान पर है। इसी प्रकार, गेहूं (लगभग 19 प्रतिशत), प्याज (लगभग 15 प्रतिशत), हरा मटर (लगभग 20 प्रतिशत), अमरूद (लगभग 14 प्रतिशत) एवं मक्का (लगभग 12 प्रतिशत) के उत्पादन में मध्य प्रदेश, पूरे देश में द्वितीय, स्थान पर आ गया है। साथ ही, धनिया (लगभग 19 प्रतिशत), लाल मिर्ची (लगभग 7 प्रतिशत), सरसों एवं दूध के उत्पादन में मध्य प्रदेश, पूरे देश में, तीसरे स्थान पर आ गया है।  कुल मिलाकर भारत के कुल खाद्यान उत्पादन में मध्यप्रदेश लगभग 7.7 प्रतिशत का योगदान देता है। खाद्य पदार्थों के उत्पादन के मामले में उत्तरप्रदेश के बाद आज मध्यप्रदेश पूरे देश में दूसरे नम्बर पर है।  मध्यप्रदेश सरकार ने दरअसल ग्रामीण क्षेत्रों में कई प्रकार की सुविधाएं किसानों को उपलब्ध करायीं हैं जिसके कारण कृषि के क्षेत्र में मध्यप्रदेश ने चहुंमुखी विकास किया है। सबसे पहिले तो सिंचाई की सुविधाओं को वृहद्द स्तर पर गावों में उपलब्ध कराया गया है। मध्यप्रदेश में वर्ष 2000-01 में सिंचाई सुविधाओं का औसत 24 प्रतिशत था, जो कि राष्ट्रीय स्तर के औसत 41.2 प्रतिशत से बहुत ही कम था। परंतु मध्यप्रदेश की सरकार के इस क्षेत्र में मिशन मोड में काम करने के कारण सिंचाई सुविधाओं का औसत स्तर वर्ष 2014-15 में बढ़कर 42.8 प्रतिशत हो गया जो राष्ट्रीय औसत के 47.8 प्रतिशत के काफी करीब पहुंच गया। आज तो यह औसत और भी अधिक आगे आ गया है और प्रदेश में सिंचाई क्षमता 47 लाख हेक्टेयर से अधिक हो गई है। साथ ही, किसानों के फसल की बुआई एवं कटाई करते समय जब जब बिजली की आवश्यकता होती है, उसे प्राथमिकता के आधार पर सही समय पर उपलब्ध कराई जाती है। आज तो मध्यप्रदेश के अधिकतर गावों में लगभग 24 घंटे बिजली उपलब्ध है। इन सबके ऊपर, प्रदेश के सारे गावों को सभी मौसमों में 24 घंटे उपलब्ध रोड के साथ जोड़ दिया गया है। मध्यप्रदेश में आज सड़कों की लम्बाई 5 लाख किलोमीटर से अधिक हो गई है।  साथ ही साथ, गेहूं की खरीद पर प्रदेश सरकार की ओर से विशेष बोनस किसानों को उपलब्ध कराया गया है, जिसके चलते किसान गेहूं की फसल को बोने की ओर प्रेरित हुए हैं एवं गेहूं के उत्पादन में मध्यप्रदेश पूरे देश में द्वितीय स्थान पर आ गया है। कृषि उत्पादों की भंडारण क्षमता में भी मध्यप्रदेश ने अभूतपूर्व प्रगति की है, जिसके चलते इन उत्पादों के नुकसान में काफी कमी देखने में आई है।  मध्यप्रदेश में विभिन्न कृषि उत्पादों की फसल बढ़ाने के उद्देश्य से जिला स्तर पर उत्पाद विशेष के समूह विकसित किये गए हैं, जिसके चलते उस उत्पाद विशेष का उत्पादन इन जिलों में बहुत तेजी से बढ़ने लगा है। जैसे, मंदसौर, नीमच, राजगढ़, शाजापुर, देवास, सिहोर आदि जिलों में संतरे की खेती को प्रोत्साहन दिया गया है। अमरूद की खेती बढ़ाने के उद्देश्य से मुरेना, श्योपुर, रतलाम, उज्जैन, शाजापुर, सिहोर, सागर, विदिशा, आदि जिलों में समूह विकसित किए गए हैं। इसी प्रकार, केला के उत्पादन के लिए, बुरहानपुर, खरगोन, बड़वाह, खंडवा, हरदा, धार, आदि जिले विकसित किए गए हैं। आलू के उत्पादन हेतु मुरेना, ग्वालियर, शिवपुरी, राजगढ़, शाजापुर, उज्जैन, इंदौर, देवास आदि जिलों में समूह बनाए गए हैं। हरे मटर का उत्पादन बढ़ाने के उद्देश्य से ग्वालियर, दतिया, सागर, जबलपुर, नरसिंहपुर, सिवनी, छिंदवाड़ा आदि जिलों में समूहों का गठन किया गया है। इसी प्रकार, लाल मिर्ची, धनिया, लहसुन, आम, अनार, प्याज, टमाटर, आदि उत्पादों हेतु भी प्रदेश के विभिन्न जिलों को उस फसल के समूह के तौर पर विकसित किया गया है। इस पद्धति के चलते भी प्रदेश में इन फलों, सब्जियों आदि का उत्पादन बहुत तेज गति से आगे बढ़ा है।       मध्यप्रदेश न केवल उत्पादन के मामले में बल्कि कृषि उत्पादों के निर्यात के मामले में भी चहुमुखी तरक्की की है। मध्यप्रदेश में उत्पादित शरबती गेहूं तो आज पूरे विश्व में अपनी धाक जमा चुका है। इसी प्रकार, मध्यप्रदेश में उत्पादित फलों एवं सब्जियों यथा, संतरे, आम, अमरूद, केला, अनार, प्याज, टमाटर, आलू, मटर, लहसुन, लाल मिर्ची, धनिया, सोयाबीन, चना, आदि की मांग अब वैश्विक स्तर पर होने लगी है। मध्यप्रदेश से समस्त उत्पादों का निर्यात 65,000 करोड़ रुपए के स्तर को पार कर गया है।  विश्व में मुख्यतः पश्चिमी राष्ट्रों ने सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर तेज करने के लिए औद्योगिक विकास का सहारा लिया है। अर्थशास्त्र में ऐसा कहा भी जाता है कि कृषि क्षेत्र के विकसित अवस्था में आने के बाद औद्योगिक विकास एवं सेवा क्षेत्र के सहारे ही सकल घरेलू उत्पाद में तेज वृद्धि दर्ज की जा सकती है। परंतु, मध्यप्रदेश राज्य ने एक अलग ही राह दिखाई है एवं कोरोना महामारी के पूर्व के खंडकाल में लगातार 5 वर्षों के दौरान कृषि क्षेत्र में 14 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर अर्जित कर अपने सकल घरेलू उत्पाद में तेज गति से वृद्धि दर्ज करने में सफलता पाई है। मुख्यतः कृषि क्षेत्र में की गई प्रगति के सहारे ही मध्यप्रदेश का सकल घरेलू उत्पाद वर्ष 2019-20 में बढ़कर 9.37 लाख करोड़ रुपए का हो गया है। प्रति व्यक्ति आय भी अब बढ़कर 140,000 प्रति वर्ष हो गई है। मध्यप्रदेश की सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर विगत 10 वर्षों के दौरान राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर से अधिक ही रही है।  कुल मिलाकर मध्यप्रदेश ने कृषि क्षेत्र में अतुलनीय विकास के लिए आधारभूत ढांचा खड़ा किया है, जिससे किसानों को अपनी फसल को उगाने से लेकर बाजार में बिक्री करने तक, बहुत आसानी हो रही है। मध्यप्रदेश राज्य का पूंजीगत खर्च वर्ष 2007 में केवल 6,832 करोड़ रुपए का रहा था जो इस वर्ष बढ़कर 56,000 करोड़ रुपए का होने जा रहा है।    प्रहलाद सबनानी 

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राजनीति लेख

वैश्विक स्तर पर भारतीय सनातन संस्कृति के पालन से ही शांति सम्भव

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आज पूरे विश्व में अशांति एवं अराजकता का माहौल है। रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध चल ही रहा था कि हमास और इजराईल के बीच युद्ध प्रारम्भ हो गया है एवं इस युद्ध में लेबनान एवं सीरिया भी कूद पड़े हैं। इधर चीन की विस्तारवादी नीतियों के चलते उसके अपने लगभग सभी पड़ौसी देशों के साथ सम्बंध अच्छे नहीं चल रहे हैं। ताईवान, मंगोलिया, जापान, इंडोनेशिया, फिलिपीन, नेपाल, भूटान, म्यांमार, भारत आदि जैसे शांतिप्रिय देश भी आज चीन की नीतियों से बहुत परेशान हैं। एक तरफ तो विकसित देश अपनी आर्थिक नीतियों के असफल होने के कारण कई प्रकार की आर्थिक एवं सामाजिक परेशानियों से जूझ रहे हैं, तो दूसरी ओर अफ्रीकी महाद्वीप क्षेत्र में कई देश अभी भी आर्थिक विकास को तरस रहे हैं और इन देशों के नागरिक गरीबी का जीवन जीने को मजबूर हैं। कुल मिलाकर पूरे विश्व में ही त्राहि त्राहि मची हुई है। इन समस्त विपरीत परिस्थितियों के बीच आज भारत की आर्थिक विकास दर विश्व की समस्त बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच लगातार सबसे तेज बनी हुई है, क्योंकि भारत आज अपनी सनातन संस्कृति का पालन करते हुए ही आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, आदि क्षेत्रों में कार्य करता हुआ दिखाई दे रहा है एवं इसके चलते भारत आज कई क्षेत्रों में पूरे विश्व को राह दिखा रहा है।       वैसे भी किसी भी राष्ट्र के मूल में कुछ तत्व निहित होते हैं, जिनके बल पर वह देश आगे बढ़ता है और समाज के विभिन्न वर्गों को एकता के सूत्र में पिरोए रखता है। भारत के एक राष्ट्र के रूप  में, इसके मूल में, सनातन हिंदू संस्कृति का आधार है जो हजारों वर्षों से भारत को आज भी भारत के मूल रूप में ही जीवित रखे हुए है। अन्यथा, पिछले लगभग 1000 वर्षों में भारत को तोड़ने के लिए अरब के आक्रांताओं और अंग्रेजों के द्वारा अनेकानेक प्रयास किए गए हैं। अरब के आक्रांताओं एवं अंग्रेजों ने बहुत अधिक प्रयास किए कि किसी तरह भारतीय मूल संस्कृति को तहस नहस किया जाय, शिक्षा पद्धति को ध्वस्त किया जाय, बलात हिंदुओं का धर्म परिवर्तन किया जाय, आदि आदि। इन प्रयासों में उन्हें कुछ सफलता तो अवश्य मिली परंतु पूर्ण रूप से भारतीय संस्कृति को समाप्त नहीं कर पाए। जबकि कई अन्य देशों (ईरान, लेबनान, इंडोनेशिया, मिस्त्र, ग्रीक आदि) में इनके यही प्रयास पूर्ण रूप से सफल रहे एवं वहां के लगभग सम्पूर्ण नागरिकों को इस्लाम में परिवर्तित करने में वे सफल रहे। भारत में चूंकि सनातन हिंदू धर्म का बोलबाला है अतः यहां इन तत्वों को आज तक सफलता नहीं मिली है हालांकि इनके प्रयास अभी भी जारी हैं।  अंग्रेजों ने जब भारत पर शासन करना प्रारम्भ किया तो उनका अज्ञानतावश यह सोच था कि यहां के नागरिक कुछ जानते ही नहीं है और इनकी विज्ञान के प्रति कोई समझ ही नहीं है।उनका यह भी सोच था कि भारत कई राज्यों का एक समूह है और यह एक राष्ट्र नहीं है। अंग्रेज तो यह भी सोचते थे कि भारत कभी एक राष्ट्र नहीं रहा है, ना ही अभी यह एक राष्ट्र है और न ही कभी भविष्य में यह एक राष्ट्र रह पाएगा। क्योंकि यहां तो विभिन्न राजा राज्य करते हैं और उनके राज्यों की अलग अलग भौगोलिक सीमाएं हैं इसलिए भारत का एक राष्ट्र्र के रूप में कभी अस्तित्व ही नहीं रहा है। अंग्रेज यह भी मानते थे कि पूरे भारत के लोग एक हो जाएंगे यह कभी सम्भव ही नहीं है। अंग्रेज अहंकारवश भारतीयों को अनपढ़, असभ्य एवं रूढ़िवादी तक कहते थे। उनकी नजरों में भारतीयों की कोई एतिहासिक उपलब्धि नहीं है एवं भारत के बर्बर, जंगली लोगों को सभ्यता सिखाने का दायित्व हमारा (अंग्रेजों का) है। भारत के लोग प्रशासन करने के अयोग्य है। किसी कारण से यदि भारत को स्वतंत्र राष्ट्र्र का दर्जा दे दिया तो इस देश की बर्बादी सुनिश्चित है और फिर इसकी जवाबदारी हमारी (अंग्रेजों की) होगी। उनको विशेष रूप से हिंदुओं से बहुत डर लगता था और वे हिंदुओं से सावधान रहने की आवश्यकता पर बल दिया करते थे। उनका सोच था कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत बहुत जल्दी बर्बाद हो जाएगा। भारत में लोकतंत्र जीवित नहीं रह सकता, यह बहुत ही अस्वाभाविक राज्य है। भारत आजाद होते ही कई टुकड़ों में बिखर जाएगा क्योंकि यहां 52 करोड़ लोग हैं एवं इनकी अलग अलग भाषाएं हैं ये आपस में लड़ते रहते हैं और कभी भी एक नहीं रह पाएंगे। भारत आजादी के बाद  पूरी दुनिया के लिए एक भार बन जाएगा एवं यहां के नागरिक भूख से ही मर जाएगे। उक्त सोच ब्रिटेन, अमेरिका, लगभग समस्त यूरोपीय देशों सहित कई देशों की भी थी। आज भी आतंकवादी संगठन एवं विदेशी ताकतें जो भारत को अस्थिर करना चाहते हैं वे इसी परिकल्पना पर अपना कार्य प्रारम्भ करते हैं एवं समाज के विभिन्न वर्गों को आपस में लड़ाने का प्रयास करते नजर आते हैं। उक्त वर्णित देशों की यह सोच इसलिए थी क्योंकि उनके पास हिंदू सनातन संस्कृति का कोई ज्ञान नहीं था बल्कि उनकी अपनी पश्चिम रंग में रची बसी सोच थी जो केवल “मैं” में विश्वास करती थी उनके लिए देश मतलब केवल भौगोलिक सीमाओं वाला जमीन का टुकड़ा और उस जमीन के टुकड़े पर रहने वाले लोग ही विशेष हैं। उनके सोच में अहम का भाव कूट कूट कर भरा है। केवल मैं ही श्रेष्ठ हूं। इस दुनिया में रहने वाले बाकी सभी लोग हमसे हीन  हैं। जर्मन लोगों ने अपना एक विशेष दर्शन शास्त्र दुनिया के सामने रखा जिसमें उन्होंने किसी और दर्शन को स्वीकार न करते हुए केवल अपने दर्शन को ही श्रेयस्कर माना एवं अहंकार का भाव जाहिर किया। जर्मन, फ्रेंच से भिन्न हैं। यूरोप में प्रत्येक देश ने अपने आप को दूसरे देश से बिलकुल अलग रखा हुआ है। पश्चिम का राष्ट्रवाद एकांतिक है इसमें समावेशिता का नितांत अभाव है। इसीलिए आज रूस, यूक्रेन के साथ लड़ रहा है तो जर्मनी की फ्रांन्स के साथ नहीं बनती है। इसी प्रकार यूरोप के लगभग सभी देशों के आपसी विचारों में किसी न किसी प्रकार की भिन्नता दृष्टिगोचर होती रहती है। जबकि यह लगभग सभी देश ईसाई धर्म को मानने वाले देश हैं। आज कई इस्लामी देश भी पश्चिमी सोच की राह पर चलते हुए दिखाई दे रहे हैं कि केवल हमारा धर्म ही श्रेष्ठ है। इस धरा पर जो भी इस्लाम को नहीं मानता हैं वह काफिर है और उसे जीने का हक नहीं हैं। काफिर या तो इस्लाम को कबूल करे अथवा वह मार दिया जाएगा। और तो और इस्लामी देशों में भी अलग अलग किस्म के कई फिर्के आपस में ही लड़ते झगड़ते रहते हैं एवं एक दूसरे को अपने से श्रेष्ठ सिद्ध करने की कोशिश में लगे रहते हैं।  जबकि भारतीय विचारधारा इसके ठीक विपरीत आचरण करना सिखाती है विशेष रूप से सनातन संस्कृति में जो व्यक्ति जितना विशेष होगा वह उतना ही विनयपूर्ण होगा और इस नाते भारतीय सनातन संस्कृति अविभाजनकारी दर्शन पर चलकर सर्वसमावेशी है। इसमें ईश्वरीय भाव जाहिर होता है। जो मेरे अंदर है वही आपके अंदर भी है अर्थात मुझमें भी ईश्वर है और आपमें भी ईश्वर का वास है। इस प्रकार प्रत्येक भारतीय, चाहे वह किसी भी जाति का हो, किसी भी मत, पंथ को मानने वाला हो, अपने आप को भारत माता का सपूत कहने में गर्व का अनुभव करता है। और, इसलिए भारतीय सनातन संस्कृति अन्य संस्कृतियों को भी अपने आप में आत्मसात करने की क्षमता रखती है। इतिहास में इस प्रकार के कई उदाहरण दिखाई देते हैं। जैसे पारसी आज अपने मूल देश में नहीं बच पाए हैं लेकिन भारत में वे रच बस गए हैं। इसी प्रकार इस्लाम धर्म को मानने वाले लगभग सभी फिर्के भारत में निवास करते हैं जबकि विश्व के कई इस्लामी देशों में केवल एक विशेष प्रकार के फिर्के पाए जाते हैं।  भारतीय चिंतन धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार स्तंभों पर स्थापित है। इस दृष्टि से चाहे व्यक्ति हो, परिवार हो, देश यो अथवा विश्व हो, किसी के भी विषय में चिंतन का आधार एकांगी न मानकर एकात्म माना जाता है। भारत के उपनिषदों, वेदों, ग्रंथों में भी यह बताया गया है कि मनुष्य का जीवन अच्छे कर्मों को करने के लिए मिलता है एवं देवता भी मनुष्य के जीवन को प्राप्त करने के लिए लालायित रहते हैं। अच्छे कर्म कर मनुष्य अपना उद्धार कर सकता है इसीलिए भारतीय धरा को कर्मभूमि माना गया है जबकि अन्य देशों की धराओं को भोगभूमि कहा गया है। अन्य धर्म, भोग को बढ़ावा देते हैं जबकि हिंदू सनातन संस्कृति योग को बढ़ावा देती है। इस प्रकार हिंदू धर्म के शास्त्रों, पुराणों एवं वेदों में किसी भी जीव के दिल को दुखाने अथवा उसकी हत्या को निषिद्ध बताया गया है जबकि अन्य धर्म के शास्त्रों में इस प्रकार की बातों का वर्णन नहीं मिलता है। इसी कारण के चलते हिंदू धर्म को मानने वाले अनुयायी बहुत कोमल स्वभाव एवं पूरे विश्व में निवास कर रहे प्राणियों को अपने कुटुंब का सदस्य मानने वाले होते हैं। बचपन में ही इस प्रकार की शिक्षाएं हमारे बुजुर्गों द्वारा प्रदान की जाती हैं।  भारतीय संस्कृति में एकात्मता का सोच है। भारत पूरे विश्व की मंगल कामना करता है एवं “वसुधैव कुटुम्बकम”, “सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय”, जैसे सिद्धांतो पर विश्वास करता है। चाहे किसी भी व्यक्ति की कोई भी पूजा पद्धति क्यों न हो, पूरे भारत में एक जैसा हिंदू दर्शन है। हिंदू दर्शन ही भारत में राष्ट्र तत्व है जो पश्चिम की सोच से अलग है। हिंदू दर्शन एक मौलिक दर्शन है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, अंग्रेजों एवं अन्य कई देशों की सोच के ठीक विपरीत, विभिन्न मत, पंथों को मानने वाले भारतीय 26 विभिन्न राष्ट्रीय भाषाओं के साथ न केवल सफलतापूर्वक एक दूसरे के साथ तालमेल बिठाकर आनंद में रह रहे हैं बल्कि आज भारतीय लोकतंत्र पूरे विश्व में सबसे बड़े मजबूत लोकतंत्र के रूप में अपना स्थान बना चुका है। यह केवल सनातन हिंदू संस्कृति के कारण ही सम्भव हो सका है। सनातन हिंदू संस्कृति में एकात्मता का भाव मुख्य रूप से झलकता है। अतः वर्तमान में आतंकवादियों एवं अन्य कई देशों द्वारा पूरे विश्व में अस्थिरता फैलाने के जो प्रयास किए जा रहे हैं उन्हें भारतीय सनातन हिंदू संस्कृति के दर्शन को अपनाकर ही पूर्णतः दबाया जा सकता है। वैसे हाल ही के समय में कई देशों यथा, जापान, रूस, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, इंडोनेशिया आदि आदि में भारतीय संस्कृति के प्रति रूझान बढ़ता जा रहा है। अब तो विश्व के कई विकसित देशों को भी यह आभास होने लगा है कि भारतीय सनातन  संस्कृति इस धरा पर सबसे पुरानी संस्कृतियों में एक है और भारतीय वेदों, पुराणों एवं पुरातन ग्रंथों में लिखी गई बातें कई मायनों में सही पाई जा रही हैं। इन पर विश्व के कई बड़े बड़े विश्वविद्यालयों में शोध किए जाने के बाद ही यह तथ्य सामने आ रहे है। अतः कई देशों को अब यह आभास होने लगा है कि भारतीय सनातन संस्कृति को अपनाकर ही विश्व में शांति स्थापित की जा सकती है। 

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राजनीति

वर्तमान विपरीत परिस्थितियों के बीच विश्व को केवल भारत ही शांति की राह दिखाएगा

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प्रतिवर्ष की भांति इस वर्ष भी दिनांक 24 अक्टूबर 2023 को श्री विजयादशमी के पावन उत्सव पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के परम पूज्य सरसंघचालक डा मोहन भागवत जी ने नागपुर स्थित संघ मुख्यालय में अपना सारगर्भित उदबोधन दिया है। इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि देश के प्रसिद्ध गायक एवं संगीतकार श्री शंकर महादेवन जी थे।  आज वैश्विक स्तर पर विभिन्न देशों के बीच अविश्वास की भावना जागृत हो रही है। स्पष्ट रूप विश्व एक बार पुनः दो खेमों के बीच बंटता दिखाई दे रहा है। अविश्वास की भावना इस हद्द तक बढ़ चुकी है कि रूस-यूक्रेन तथा आतंकवादी संगठन हमास एवं इजराईल के बीच तो जंग भी छिड़ चुकी है एवं इस जंग में लेबनान, सीरिया एवं अप्रत्यक्ष रूप से ईरान भी कूद गए हैं। इस तरह की विपरीत परिस्थितियों के बीच भारत पूरे विश्व में “वसुधैव कुटुम्बकम” की भावना के साथ शांति स्थापित करने का प्रयास कर रहा है। विभिन्न देशों के बीच “मैं” का भाव बहुत तेजी से बढ़ रहा है, जिसके चलते अहं की भावना विकसित होने के कारण इन देशों की आपस में टकराहट भी बढ़ रही है। विभिन्न देशों के बीच बढ़ रही वैमनस्यता के साथ ही पर्यावरण में आ रहे बदलाव पर चिंता जाहिर करते हुए उक्त उदबोधन में यह भी बताया गया है कि भारत किस प्रकार भारतीय सनातन संस्कृति के बल पर विश्व में शांति स्थापित कर सकता है एवं इस संदर्भ में संघ के स्वयंसेवकों की क्या भूमिका रहने वाली है।  डा भागवत जी अपने उदबोधन में कहते हैं कि अपने स्व को, अपनी पहचान को सुरक्षित रखना, यह मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा व सहज प्रयास है। द्रुतगति से परस्पर निकट आने वाले विश्व में आजकल सभी राष्ट्रों में यह चिंता करने की प्रवृत्ति बढ़ी है। संपूर्ण विश्व को एक ही रंग में रंगने का, एकरूपता का कोई भी प्रयास अब तक सफल नहीं रहा है, और ऐसी उम्मीद भी दिखाई नहीं देती है कि निकट भविष्य में यह सफल हो सकेगा। भारत की पहचान को, हिंदू समाज की अस्मिता को बनाए रखने का विचार स्वाभाविक तो है ही। आज के विश्व की वर्तमानकालीन समय की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए, अपने स्वयं के मूल्यों पर आधारित, काल सुसंगत, नया रूपरंग लेकर भारत खड़ा हो, यह विश्व की भी अपेक्षा है। मत संप्रदायों को लेकर उत्पन्न हुए कट्टरपन, अहंकार व उन्माद को विश्व झेल रहा है। स्वार्थों के टकराव तथा अतिवादिता के कारण उत्पन्न होने वाले यूक्रेन के अथवा गाझा पट्टी के युद्ध जैसे कलहों का कोई निदान दिख नहीं रहा है। विश्व के कई देशों में प्रकृति विरुद्ध जीवनशैली, स्वैरता तथा अनिर्बंध उपभोगों के कारण नई-नई शारीरिक व मानसिक बीमारीयां उत्पन्न हो रही हैं। विकृतियां व अपराध बढ़ रहे हैं। आत्यंतिक व्यक्तिवाद के कारण परिवार टूट रहे है। प्रकृति के अमर्याद शोषण से प्रदूषण, वैश्विक तापमानवृद्धि, ऋतुक्रम में असंतुलन व तज्जन्य प्राकृतिक हादसे प्रतिवर्ष बढ रहे हैं। आतंकवाद, शोषण और अधिसत्तावाद को खुला मैदान मिल रहा है। अपनी अधूरी दृष्टि को लेकर विश्व इन समस्याओं का सामना नहीं कर सकता यह स्पष्ट हुआ है। इसलिए अपने सनातन मूल्यों व संस्कारों के आधार पर, भारत अपने उदाहरण से वास्तविक सुख शांति का नवपथ विश्व को दिखाए यह अपेक्षा जगी है। पर्यावरण के संदर्भ में उक्त वर्णित परिस्थितियों की एक छोटी आवृत्ति भारत वर्ष में भी हमारे सम्मुख विद्यमान है। उदाहरणार्थ, हाल ही में हिमालय के क्षेत्र में हिमाचल और उत्तराखंड से लेकर सिक्किम तक लगातार प्राकृतिक आपदाओं का प्राणांतिक खेल हम देख रहे हैं। भविष्य में किसी गंभीर व व्यापक संकट का पूर्वाभास इन घटनाओं के द्वारा हो रहा हो ऐसी शंकाओं की चर्चा भी है। यद्यपि उक्त प्रकार की घटनाएं हिमालय क्षेत्र में अधिक घट रही हैं, परंतु पूरे देश के लिए इन घटनाओं का एक स्पष्ट संकेत ध्यान में आता है। अधूरी, निपट जड़वादी तथा पराकोटि की उपभोगवादी दृष्टि पर आधारित विकास पथों के कारण, मानवता व प्रकृति धीरे-धीरे परंतु निश्चित रूप से विनाश की ओर अग्रसर हो रही हैं। संपूर्ण विश्व में यह चिंता बढी है। उन असफल पथों को त्याग कर अथवा धीरे-धीरे वापिस मोड़कर भारतीय मूल्यों पर तथा भारत की समग्र एकात्म दृष्टि पर आधारित, काल सुसंगत व अद्यतन, अपना अलग विकास पथ भारत को बनाना ही पड़ेगा। यह भारत के लिए सर्वथा उपयुक्त तथा विश्व के लिए भी अनुकरणीय प्रतिमानक बन सकेगा। घिसीपिटी असफल राह पर बने रहने की, अंधानुकरण, जड़ता व पोथी निष्ठता की प्रवृत्ति छोड़नी पड़ेगी। उपनिवेशी मानसिकता से मुक्त होकर, विश्व से जो देशानुकूल है वही लेना पड़ेगा। अपने देश में जो है उसको युगानुकूल बनाते हुए, हम अपना स्व आधारित स्वदेशी विकासपथ अपनाएं, यह समय की आवश्यकता है। इस दृष्टि से कुछ नीतिगत परिवर्तन पिछले दिनों हुए है यह ध्यान में आता है। समाज में भी कृषि, उद्योग और व्यापार के, तत्संबंधित सेवाओं के क्षेत्र में, सहकारिता व स्वरोजगार के क्षेत्रों में, नए सफल प्रयोगों की संख्या वृद्धि भी निरंतर हो रही है। परंतु प्रशासन के क्षेत्र में, सभी क्षेत्रों में चिंतन करनेवाले व दिशा देने वाले बुद्धिधर्मियों में, इस प्रकार की जागृति की और अधिक आवश्यकता है। शासन की ‘स्व’ आधारित युगानुकूल नीति, प्रशासन की तत्पर, सुसंगत व लोकाभिमुख कृति तथा समाज का मन, वचन, कर्म से सहयोग व समर्थन ही देश को परिवर्तन की दिशा में आगे बढ़ाएगा। आज भारत में भी समाज की सामूहिकता छिन्न-भिन्न हो कर अलगाव व टकराव बढ़े, इस प्रकार के प्रयास कुछ विघनसंतोषी जीवों द्वारा किया जा रहे हैं। अपने अज्ञान, अविवेक, परस्पर अविश्वास अथवा असावधानी के कारण समाज में कहीं-कहीं ऐसे अप्रत्याशित उपद्रव व फूट बढ़ती ही जाती दिखाई दे भी रही है। भारत के उत्थान का प्रयोजन विश्व-कल्याण ही रहा है। परन्तु इस उत्थान के स्वाभाविक परिणाम के नाते स्वार्थी, विभेदकारी तथा छल कपट के आधार पर अपने स्वार्थ का साधन करने वाली शक्तियां मर्यादित व नियंत्रित होती हैं, इसलिए उनके द्वारा निरंतर विरोध भी चलता है। यद्यपि यह शक्तियां किसी न किसी विचारधारा का आवरण ओढ़ लिया करती हैं, किसी मनलुभावन घोषणा अथवा लक्ष्य के लिए कार्यरत होने का छद्म रचती हैं, उनके वास्तविक उद्देश्य कुछ और ही होते हैं। प्रामाणिकता व निःस्वार्थ बुद्धि से काम करने वाले लोग किसी भी विचारधारा के हों, किसी भी तरह का कार्य करते हों, उनके लिए बाधा ही होते हैं। आजकल इन सर्वभक्षी ताकतों के लोग अपने आपको सांस्कृतिक मार्क्सवादी या वोक (Woke) यानी जगे हुए कहते हैं। परंतु मार्क्स को भी उन्होंने 1920 के दशक से ही भुला रखा है। विश्व की सभी सुव्यवस्था, मांगल्य, संस्कार, तथा संयम से उनका विरोध है। मुठ्ठी भर लोगों का नियंत्रण सम्पूर्ण मानवजाति पर हो इसलिए अराजकता व स्वैराचरण का पुरस्कार, प्रचार व प्रसार वे करते हैं। माध्यमों तथा अकादमियों को हाथ में लेकर देशों की शिक्षा, संस्कार, राजनीति व सामाजिक वातावरण को भ्रम व भ्रष्टता का शिकार बनाना उनकी कार्यशैली है। ऐसे वातावरण में असत्य, विपर्यस्त तथा अतिरंजित वृत्त के द्वारा भय, भ्रम तथा द्वेष आसानी से फैलता है। आपसी झगड़ों में उलझकर असमंजस व दुर्बलता मे फंसा व टूटा हुआ समाज, अनायास ही इन सर्वत्र अपनी ही अधिसत्ता चाहने वाली विध्वंसकारी ताकतों का भक्ष्य बनता है। अपनी परम्परा में इस प्रकार किसी राष्ट्र की जनता में अनास्था, दिग्भ्रम व परस्पर द्वेष उत्पन्न करनेवाली कार्यप्रणाली को मंत्र विप्लव कहा जाता है । देश में राजनीतिक स्वार्थों के कारण राजनीतिक प्रतिस्पर्धी को पराजित करने के लिए ऐसी अवांछित शक्तियों के साथ गठबंधन करने का अविवेक है। समाज पहले से ही आत्मविस्मृत होकर अनेक प्रकार के भेदों से जर्जर होकर, स्वार्थों की घातक प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या व द्वेष में उलझा है। इसलिये इन आसुरी शक्तियों को समाज या राष्ट्र को तोड़ना चाहनेवाली अंदरूनी या बाहरी ताकतों का साथ भी मिलता है। भारत किस प्रकार विश्व में शांति स्थापित करने के लिए नेतृत्व प्रदान कर सकता है इसे समझाते हुए डा भागवत जी कहते हैं कि भारत के बाहर के लोगों की बुद्धि चकित हो जाए, परंतु मन आकर्षित हो जाए ऐसी एकता की परंपरा हमारी विरासत में हमको मिली है। उसका रहस्य क्या है? नि:संशय वह हमारी सर्व समावेशक संस्कृति है। पूजा, परंपरा, भाषा, प्रान्त, जातिपाती इत्यादि भेदों से ऊपर उठकर, अपने कुटुंब से संपूर्ण विश्वकुटुंब तक आत्मीयता को विस्तार देनेवाली हमारी आचरण की व जीवन जीने की रीति है। हमारे पूर्वजों ने अस्तित्व की एकता के सत्य का साक्षात्कार किया। उसके फलस्वरूप शरीर, मन, बुद्धि की एक साथ उन्नति करते हुए तीनों को सुख देनेवाला, अर्थ, काम को साथ चलाकर मोक्ष की तरफ अग्रेसर करनेवाला धर्मतत्व उनको अवगत हुआ। उस प्रतीति के आधार पर उन्होंने धर्मतत्व के चार शाश्वत मूल्यों (सत्य, करुणा, शुचिता व तपस ) को आचरण में उतारनेवाली संस्कृति का विकास किया। चारों ओर से सुरक्षित तथा समृद्ध हमारी मातृभूमि के अन्न, जल, वायु के कारण ही यह संभव हुआ। इसलिए हमारी भारतभूमि को हमारे संस्कारों की अधिष्ठात्री माता मानकर उसकी हम भक्ति करते हैं। हाल ही में स्वतन्त्रता संग्राम के महापुरुषों का स्मरण अपनी स्वतंत्रता के 75 वे वर्ष के निमित्त हमने किया। हमारे धर्म, संस्कृति, समाज व देश की रक्षा, समय समय पर उनमें आवश्यक सुधार तथा उनके वैभव का संवर्धन जिन महापुरुषों के कारण हुआ, वे हमारे कर्तृत्व सम्पन्न पूर्वज हम सभी के गौरवनिधान हैं तथा अनुकरणीय हैं। हमारे देश में विद्यमान सभी भाषा, प्रान्त, पंथ, संप्रदाय, जाति, उपजाति इत्यादि विविधताओं को एक सूत्र में बांधकर एक राष्ट्र के रूप में खड़ा करने वाले यही तीन तत्व (मातृभूमि की भक्ति, पूर्वज गौरव, व सबकी समान संस्कृति) हमारी एकता का अक्षुण्ण सूत्र है। समाज की स्थाई एकता अपनेपन से निकलती है, स्वार्थ के सौदों से नहीं। हमारा समाज बहुत बड़ा है। बहुत विविधताओं से भरा है। कालक्रम में कुछ विदेश की कुछ आक्रामक परंपराएं भी हमारे देश में प्रवेश कर गईं, फिर भी हमारा समाज इन्हीं तीन बातों के आधार पर एक समाज बनकर रहा। इसलिए हम जब एकता की चर्चा करते हैं, तब हमें यह ध्यान रखना होगा कि यह एकता किसी लेन-देन के कारण नहीं बनेगी। जबरदस्ती बनाई तो बार बार बिगड़ेगी। आज के वातावरण में समाज में कलह फैलाने के चले हुए प्रयासों को देखकर बहुत लोग स्वाभाविक रूप से चिंतित हैं, मिलते रहते हैं। अपने आपको हिंदू कहलाने वाले सज्जन भी मिलते हैं, जिनको उनकी पूजा के कारण मुसलमान, ईसाई कहा जाता है, ऐसे भी लोग मिलते हैं। उनकी मान्यता है कि फितना, फसाद व कितान को छोड़कर सुलह, सलामती व अमन पर चलना ही श्रेष्ठता है। इन चर्चाओं में ध्यान रखने की पहली बात यही है कि, संयोग से एक भूमि में एकत्र आए विभिन्न समुदायों के एक होने की बात नहीं है। हम समान पूर्वजों के वंशज, एक मातृभूमि की संताने, एक संस्कृति के विरासतदार, परस्पर एकता को भूल गए। हमारे उस मूल एकत्व को समझकर उसी के आधार पर हमें फिर जुड़ जाना है। आने वाले वर्ष 2024 के प्रारंभिक दिनों में लोकसभा के चुनाव हैं । चुनावी दांव पेचों में भावनाओं को भड़काकर मतों की फसल काटने के प्रयास अपेक्षित नहीं हैं, परंतु होते रहते हैं। समाज को विभाजित करनेवाली इन बातों से हम बचें। मतदान करना हर नागरिक का कर्तव्य है। उसका अवश्य पालन करें। देश की एकात्मता, अखंडता, अस्मिता तथा विकास के मुद्दों पर विचार करते हुए अपना मत दें । वर्ष 2025 से 2026 का वर्ष संघ के 100 वर्ष पूरे होने के बाद का वर्ष है। ऊपर निर्दिष्ट सभी बातों में संघ के स्वयंसेवक तब अपना कदम बढ़ायेंगे, इसकी सिद्धता कर रहे हैं। समाज के आचरण में, उच्चारण में संपूर्ण समाज और देश के प्रति अपनत्व की भावना प्रकट हो। मंदिर, पानी, श्मशान में कहीं भेदभाव बाकी है, तो वह समाप्त हो। परिवार के सभी सदस्यों में नित्य मंगल संवाद, संस्कारित व्यवहार व संवेदनशीलता बनी रहे, बढ़ती रहे व उनके द्वारा समाज की सेवा होती रहे। सृष्टि के साथ संबंधों का आचरण अपने घर से पानी बचाकर, प्लास्टिक हटाकर व घर आंगन में तथा आसपास हरियाली बढ़ाकर हो। स्वदेशी के आचरण से स्व-निर्भरता व स्वावलंबन बढ़े। फिजूलखर्ची बंद हो। देश का रोजगार बढ़े व देश का पैसा देश में ही काम आए। इसीलिए स्वदेशी का भी आचरण घर से ही प्रारंभ होना चाहिए। कानून व्यवस्था व नागरिकता के नियमों का पालन हो तथा समाज में परस्पर सद्भाव और सहयोग की प्रवृत्ति सर्वत्र व्याप्त हो। इन पांचों आचरणात्मक बातों का होना सभी चाहते हैं। परंतु छोटी-छोटी बातों से प्रारंभ कर उनके अभ्यास के द्वारा इस आचरण को अपने स्वभाव में लाने का सतत प्रयास आवश्यक है। संघ के स्वयंसेवक आनेवाले दिनों में समाज के अभावग्रस्त बंधुओं की सेवा करने के साथ-साथ, इन पांच प्रकार की सामाजिक पहलों का आचरण स्वयं करते हुए समाज को भी उसमें सहभागी व सहयोगी बनाने का प्रयास करेंगे। समाजहित में शासन, प्रशासन तथा समाज की सज्जनशक्ति जो कुछ कर रही है, अथवा करना चाहेगी, उसमें संघ के स्वयंसेवकों का योगदान नित्यानुसार चलता रहेगा ही। आज संघ के स्वयंसेवक समाज के स्तर पर निरंतर सबकी सेवा व राहतकार्य करते हुए समाज की सज्जनशक्ति का शांति के लिए आह्वान कर रहे हैं। सबको अपना मानकर, सब प्रकार की कीमत देते हुए समझाकर, सुरक्षित, व्यवस्थित, सद्भाव से परिपूर्ण और शान्त रखने के लिए ही संघ का प्रयास रहता है। इस भयंकर व उद्विग्न करनेवाली परिस्थितियों के बीच भी ठंडे दिमाग से हमारे कार्यकर्ताओं द्वारा जिस प्रकार सबकी संभाल के प्रयास किए जा रहे हैं उन स्वयंसेवकों पर हमें गर्व है। प्रहलाद सबनानी 

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