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लेख समाज

अतिथि शिक्षकों की यह कैसी मेहमाननवाजी

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ओ पी सोनिक     ऐसा माना जाता है कि भारतीय समाज के व्यवहार में अतिथि को देवता के समान मानने की भावना समाहित है। पिछले कई वर्षों से भारत की शिक्षा व्यवस्था में शिक्षकों के लिए प्रयुक्त अतिथि शब्द जितना ट्रेंड करता रहा है, उतना पहले कभी नहीं देखा गया। जब शिक्षकों की भारी कमी का मुद्दा विभिन्न माननीय न्यायालयों में सरकारों के गले की फांस बनने लगा तो सरकारों द्वारा शिक्षकों की कमी को पूरा करने के लिए एक ऐसा अस्थाई जुगाड़ ईज़ाद कर लिया जिससे देश की डगमगाती शिक्षा व्यवस्था फिर से चलने लगी। सरकारी शिक्षण संस्थानों में नियमित शिक्षकों की अपेक्षा अतिथि शिक्षकों की बढ़ती संख्या को देखकर लगता है कि फिर से चलने वाली व्यवस्था अब लंगड़ी व्यवस्था का रूप ले रही है। विभिन्न राज्यों में ऐसे शिक्षकों को अतिथि शिक्षक, शिक्षा मित्र, संविदा शिक्षक, पारा शिक्षक, शिक्षक सेवक और विद्या वालंटियर्स जैसे भावनात्मक नामों से जाना जाता है। काम चाहें चुनाव का हो या मतदाता सूचियों का या किसी अन्य गैर शैक्षिणिक गतिविधि का, आमतौर पर नियमित शिक्षक उक्त गतिविधियों में व्यस्त रहते हैं। ऐसे में बच्चों को पढ़ाने का ज्यादा दायित्व अतिथि शिक्षकों के कंधों पर टिका होता है।   अधिकांश राज्यों में शिक्षकों के प्रति राजनीतिक उदासीनता ने उन्हें मजदूरों के स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया है। मजदूरों को भी कार्य दिवसों के हिसाब से पारिश्रमिक मिलता है और अतिथि शिक्षकों को भी। जिन राज्यों में मासिक आधार पर निर्धारित धनराशि देने का प्रावधान है भी तो वह अपर्यात है। मजदूरों और अतिथि शिक्षकों में बस फर्क सिर्फ इतना रह गया है कि अतिथि शिक्षकों को मजदूरों की तरह काम के लिए चौराहों पर खड़ा नहीं होना पड़ता। महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना में मजदूरों को वर्ष में 100 दिनों के रोजगार की सरकारी गारंटी है, लेकिन सरकारी शैक्षणिक संस्थानों में काम करने वाले अतिथि शिक्षकों को वर्ष में कितने दिन का काम मिलेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। लाला जी की दुकान पर काम करने वालों और घरों में काम करने वाली महिलाओं को महीने की तय धनराशि के आधार पर काम पर रखा जाता है। आमतौर पर इन्हें सप्ताह में एक दिन छुट्टी मिलती है जिसके पैसे नहीं कटते। और इन कार्यो को करने के लिए कोई शैक्षणिक योग्यता भी निर्धारित नहीं है, जो मानवीय पहलू के सकारात्मक पक्ष को दर्शाता है।    शैक्षणिक योग्यता प्राप्त अतिथि शिक्षक विपरीत परिस्थितियों से जूझ रहे हैं। अधिकांश राज्यों में उन्हें कोई साप्ताहिक अवकाश नहीं मिलता। रविवार एवं राजपत्रित अवकाशों के पैसे काट लिए जाते हैं। दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में उभरने वाले देश में क्या राज्य सरकारें आर्थिक रूप से इतनी कमजोर हो गयी हैं कि अतिथि शिक्षकों को रविवार एवं राजपत्रित अवकाशों के पैसे देने में असमर्थ हैं। अतिथि शिक्षकों पर कभी भी कार्यमुक्त होने का खतरा मंडराता रहता है। ऐसे शिक्षकों के रोजगार की अनिश्चितता शोले फिल्म के उस डायलाग की याद दिलाती है जिसमें गब्बर सिंह बसंती को डांस करने को मजबूर करता है और फिर कहता है, कि जब तक तेरे पैर चलेंगे, तब तक उसकी यानी वीरू की सांसे चलेंगी। अतिथि शिक्षकों की नौकरी भी तभी तक लगातार चल पाती है जब तक कि उस पोस्ट पर कोई नियमित शिक्षक नहीं आ जाता। नियमित शिक्षक के आने पर अतिथि शिक्षक स्वतः ही कार्यमुक्त हो जाते हैं। उन्हें शिक्षक के रूप में फिर से काम करने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता है। प्रायः ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों एवं कस्बों की ओर आए बेरोजगार युवक निराश होकर वापस गांव लौट जाते हैं। अतिथि शिक्षकों को उनके निवास से इतनी दूर के स्कूलों में नियुक्त कर दिया जाता है कि उनका अधिकांश समय आने जाने में ही व्यतीत हो जाता है।    जब भी कभी अतिथि शिक्षकों का कोई आंदोलन सक्रिय होता है तो गिद्ध की दृष्टि लगाए बैठी राजनीति आंदोलन का राजनीतिक अपहरण कर उसको निष्प्रभावी बनाने का काम करती है। देश की राजधानी दिल्ली में अतिथि शिक्षकों के ऐसे कई आंदोलन राजनीतिक अपहरण का शिकार हो चुके हैं। यही वजह है कि दिल्ली में अतिथि शिक्षकों को पक्का करने की खोखली घोषणाएं कच्ची साबित हुई हैं। ऐसी घोषणाओं के लगे पोस्टर कई स्कूलों में आज भी देखे जा सकते हैं। अतिथि शिक्षकों की कुंठा एक ऐसी असमंजसता में फंसी है जो उन्हें न तो रोजगार में होने की अनुभूति होने देती है और न ही बेरोजगार होने की। भारत में हर वर्ष परीक्षा पर चर्चा होती है पर नौकरियों के लिए आयोजित उन प्रतियोगी परीक्षाओं पर चर्चा नहीं होती जिनमें पेपर लीक होने के कारण नियुक्तियों की प्रक्रिया को लम्बे समय तक टाल दिया जाता है। समय समय पर देश के कई राज्यों में अतिथि शिक्षकों के मामले माननीय न्यायालयों में सरकारी उदासीनता की भेंट चढ़ जाते हैं। भारत में सरकारी क्षेत्र में बढ़ती ठेकेदारी प्रथा ने एक अलग तरह के सामन्तवाद को जन्म देने का काम किया है।  शिक्षा से संबंधित संसदीय समिति की रिपोर्ट के अनुसार देश में शिक्षकों के करीब दस लाख पद खाली पड़े हैं। चौंकाने वाली यह भी है कि केन्द्रीय सरकार द्वारा संचालित केन्द्रीय विद्यालयों और जवाहर नवोदय विद्यालयों में रिक्त पद अपेक्षाकृत अधिक हैं। उक्त आंकड़ों के आधार पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि दूर दराज के क्षेत्रों में शिक्षकों के रिक्त पदों की हालत क्या होगी। उक्त संसदीय समिति ने जल्द ही खाली पदों को भरने को कहा है ताकि शिक्षा व्यवस्था की सुचारूता को सुनिश्चित किया जा सके। भारत जिस शिक्षा व्यवस्था के दम पर विश्व गुरू बनने के सपने देख रहा है, वह अभी कोसों दूर नजर आता है। जब शैक्षणिक संस्थानों में बच्चों को पढ़ाने वाले पर्याप्त संख्या में नियमित गुरू ही नहीं होंगे तो भारत विश्व गुरू कैसे बन पाएगा। अतिथि शिक्षकों की यह कैसी मेहमाननवाजी है जो उन्हें बेरोजगारी से जूझने को विवश कर रही है। चंद राज्यों ने अस्थाई शिक्षकों के हित के लिए सराहनीय प्रयास भी किए हैं पर यह समस्या राष्ट्रीय स्तर की है तो इसके समाधान भी राष्ट्रीय स्तर के होने चाहिए। बेहतर होगा कि अतिथि या अस्थाई शिक्षकों के लिए स्थाई रोजगार की व्यवस्था पर अधिक ध्यान दिया जाए। ओ पी सोनिक

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लेख शख्सियत समाज साक्षात्‍कार

फांसी के फंदे को चूमकर शहीद हो गए खुदीराम बोस

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शहादत  दिवस,  11 अगस्त 1908 कुमार कृष्णन  आज की तारीख में आम तौर पर उन्नीस साल से कम उम्र के किसी युवक के भीतर देश और लोगों की तकलीफों, और जरुरतों की समझ कम ही होती है लेकिन खुदीराम बोस ने जिस उम्र में इन तकलीफों के खात्मे के खिलाफ आवाज बुलंद की, वह मिसाल है जिसका वर्णन इतिहास के पन्नों पर स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है। इससे ज्यादा हैरान करने वाली बात और क्या हो सकती है कि जिस उम्र में कोई बच्चा खेलने-कूदने और पढ़ने में खुद को झोंक देता है, उस उम्र में खुदीराम बोस यह समझते थे कि देश का गुलाम होना क्या होता है और कैसे या किस रास्ते से देश को इस हालत से बाहर लाया जा सकता है। इसे कम उम्र का उत्साह कहा जा सकता है लेकिन खुदीराम बोस का वह उत्साह आज भारत में ब्रिटिश राज के खिलाफ आंदोलन के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है तो इसका मतलब यह है कि वह केवल उत्साह नहीं था बल्कि गुलामी थोपने वाली किसी सत्ता की जड़ें हिला देने वाली भूमिका थी। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि महज उन्नीस साल से भी कम उम्र में उसी हौसले की वजह से खुदीराम बोस को फांसी की सजा दे दी गई लेकिन यही से शुरू हुए सफर ने ब्रिटिश राज के खिलाफ क्रांतिकारी आंदोलन की ऐसी नींव रखी कि आखिर कार अंग्रेजों को इस देश पर जमे अपने कब्जे को छोड़ कर जाना ही पड़ा। बंगाल के मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में त्रैलोक्य नाथ बोस के घर 3 दिसंबर 1889 को खुदीराम बोस का जन्म हुआ था लेकिन बहुत ही कम उम्र में उनके सिर से माता-पिता का साया उठ गया। माता-पिता के निधन के बाद उनकी बड़ी बहन ने मां-पिता की भूमिका निभाई और खुदीराम का लालन-पालन किया था। इतना तय है कि उनके पलने-बढ़ने के दौरान ही उनमें प्रतिरोध की चेतना भी विकसित हो रही थी। दिलचस्प बात यह है कि खुदीराम ने अपनी स्कूली जिंदगी में ही राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। तब वे प्रतिरोध जुलूसों में शामिल होकर ब्रिटिश सत्ता के साम्राज्यवाद के खिलाफ नारे लगाते थे, अपने उत्साह से सबको चकित कर देते थे। यही वजह है कि किशोरावस्था में ही खुदीराम बोस ने अपने भीतर के हौसले को उड़ान देने के लिए सत्येन बोस को खोज लिया और उनके नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध मैदान में कूद पड़े थे।  तब 1905 में बंगाल विभाजन के बाद उथल-पुथल का दौर चल रहा था। उनकी दीवानगी का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि उन्होंने नौंवीं कक्षा की पढ़ाई भी बीच में ही छोड़ दी और अंग्रेजों के खिलाफ मैदान में कूद पड़े। तब रिवोल्यूशनरी पार्टी अपना अभियान जोर-शोर से चला रही थी और खुदीराम को भी एक ठौर चाहिए था जहां से यह लड़ाई ठोस तरीके से लड़ी जाए। खुदीराम बोस ने डर को कभी अपने पास फटकने नहीं दिया, 28 फरवरी 1906 को  वे सोनार बांग्ला नाम का एक इश्तिहार बांटते हुए पकड़े गए लेकिन उसके बाद वह पुलिस को चकमा देकर भाग निकले। 16 मई 1906 को पुलिस  ने उन्हें दोबारा गिरफ्तार कर लिया लेकिन इस बार उन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया गया। इसके पीछे वजह शायद यह रही होगी कि इतनी कम उम्र का बच्चा किसी बहकावे में आकर ऐसा कर रहा होगा लेकिन यह ब्रिटिश पुलिस के आकलन की चूक थी। खुदीराम उस उम्र में भी जानते थे कि उन्हें क्या करना है और क्यों करना है। अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ उनका जुनून बढ़ता गया और 6 दिसंबर 1907 को बंगाल के नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर आंदोलनकारियों के जिस छोटे से समूह ने बम विस्फोट की घटना को अंजाम दिया, उसमें खुदीराम प्रमुख थे। इतिहास में दर्ज है कि तब कलकत्ता में किंग्सफोर्ड चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट को बहुत ही सख्त और बेरहम अधिकारी के तौर पर जाना जाता था। वह ब्रिटिश राज के खिलाफ खड़े होने वाले लोगों पर बहुत जुल्म ढाता था। उसके यातना देने के तरीके बेहद बर्बर थे जो आखिरकार किसी क्रांतिकारी की जान लेने पर ही खत्म होते थे। बंगाल विभाजन के बाद उभरे जनाक्रोश के दौरान लाखों लोग सड़कों पर उतर गए और तब बहुत सारे भारतीयों को मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड ने क्रूर सजाएं सुनाईं। इसके बदले ब्रिटिश हुकूमत ने उसकी पदोन्नति कर दी और मुजफ्फरपुर जिले में सत्र न्यायाधीश बना दिया। उसके अत्याचारों से तंग जनता के बीच काफी आक्रोश फैल गया था। इसीलिए युगांतर क्रांतिकारी दल के नेता वीरेंद्र कुमार घोष ने किंग्सफोर्ड मुजफ्फरपुर में मार डालने की योजना बनाई और इस काम की जिम्मेदारी खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी को दी गई। तब तक बंगाल के इस वीर खुदीराम को लोग अपना आदर्श मानने लगे थे। बहरहाल, खुदीराम और प्रफुल्ल, दोनों ने किंग्सफोर्ड की समूची गतिविधियों, दिनचर्या, आने-जाने की जगहों की पहले रेकी की और अपनी योजना को पुख्ता आधार दिया। उस योजना के मुताबिक दोनों ने किंग्सफोर्ड की बग्घी पर बम से हमला भी किया लेकिन उस बग्घी में किंग्सफोर्ड की पत्नी और बेटी बैठी थी और वही हमले का शिकार बनीं और मारी गईं। इधर खुदीराम और प्रफुल्ल हमले को सफल मान कर वहां से भाग निकले लेकिन जब बाद में उन्हें पता चला कि उनके हमले में किंग्सफोर्ड नहीं, दो महिलाएं मारी गईं तो दोनों को इसका बहुत अफसोस हुआ लेकिन फिर भी उन्हें भागना था और वे बचते-बढ़ते चले जा रहे थे। प्यास लगने पर एक दुकान वाले से खुदीराम बोस ने पानी मांगा जहां मौजूद पुलिस को उनपर शक हुआ और खुदीराम को गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन प्रफुल्ल चाकी ने खुद को गोली मार ली। बम विस्फोट और उसमें दो यूरोपीय महिलाओं के मारे जाने के बाद ब्रिटिश हुकूमत के भीतर जैसी हलचल मची थी,  उसमें गिरफ्तारी के बाद फैसला भी लगभग तय था। खुदीराम ने अपने बचाव में साफ तौर पर कहा कि उन्होंने किंग्सफोर्ड को सजा देने के लिए ही बम फेंका था। जाहिर है, ब्रिटिश राज के खिलाफ ऐसे सिर उठाने वालों के प्रति अंग्रेजी राज का रुख स्पष्ट था, लिहाजा खुदीराम के लिए फांसी की सजा तय हुई। 11 अगस्त 1908 को जब खुदीराम को फांसी के तख्ते पर चढ़ाया गया, तब उनके माथे पर कोई शिकन नहीं थी, बल्कि चेहरे पर मुस्कुराहट थी। यह बेवजह नहीं है कि आज भी इतिहास में खुदीराम महज ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ नहीं बल्कि किसी भी जन-विरोधी सत्ता के खिलाफ लड़ाई के सरोकार और लड़ने के हौसले के प्रतीक के रूप में ताकत देते हैं। कुमार कृष्णन 

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